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CBSE Class 12 Hindi Elective अपठित बोध अपठित गद्यांश
अपठित-बोध क्या है?
‘अपठित’ शब्द ‘पठित’ में ‘अ’ उपसर्ग लगाने से बना है, जिसका अर्थ होता है-जिसे पहले न पढ़ा गया हो। ‘अपठित-बोध’ गद्य अथवा पद्य (काव्य) दोनों ही रूपों में हो सकता है। इन्हीं गद्यांशों या काव्यांशों पर प्रश्न पूछे जाते हैं, जिससे विद्यार्थियों की अर्थग्रहण-क्षमता का आकलन किया जा सके।
अपठित-बोध हल करते समय आने वाली कठिनाइयाँ
अपठित-बोध पहले से न पढ़ा होने के कारण इस पर आधारित प्रश्नों को हल करने में विद्यार्थी परेशानी महसूस करते हैं। कुछ विद्यार्थी अपठित का भाव या अर्थग्रहण किए बिना अनुमान के आधार पर उत्तर लिखना शुरू कर देते हैं। इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए। कुछ विद्यार्थी प्रश्नों के उत्तर के रूप में अपठित की कुछ पंक्तियाँ उतार देते हैं। चूँक वे अपठित का अर्थ समझे बिना ऐसा करते हैं, इसलिए न तो उत्तर देने की यह सही विधि है और न उत्तर सही होने की गारंटी। ऐसे में अपठित को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए। अपठित का कोई अंश, वाक्य या शब्द-विशेष समझ में न आए तो भी घबराना या परेशान नहीं होना चाहिए। अपठित के भाव और प्रमुख विचारों को समझ लेने से भी प्रश्नों का उत्तर सरलता से दिया जा सकता है।
अपठित गद्यांश की आवश्यकता क्यों?
अपठित गद्यांश को पढ़ने, समझने और हल करने से अर्थग्रहण की शक्ति का विकास होता है। इससे किसी गद्यांश के विचारों और भावों को अपने शब्दों में बाँधने की दक्षता बढ़ती है। इसके अलावा भाषा पर गहन पकड़ बनती है।
अपठित गव्यांश पर पूछे जाने वाले प्रश्न
अपठित गद्यांश से संबंधित विविध प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनके उत्तर विद्यार्थी को देने होते हैं। इसमें अर्थग्रहण तथा कथ्य से संबंधित प्रश्नों के उत्तर के अलावा गद्यांश में आए कुछ कठिन शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि का अर्थ भी पूछा जाता है। इसके अंतर्गत वाक्य, रचनांतरण, शीर्षक-संबंधी प्रश्नों के अलावा किसी वाक्य या वाक्यांश का आशय स्पष्ट करने के लिए भी कहा जा सकता है।
कैसे हल करें अपठित गद्यांश
अपठित-गद्यांश के अंतर्गत पूछे जाने वाले प्रश्न दिए गए अंशों पर आधारित होते हैं। अत: इनका उत्तर भी हमें गद्यांश के आधार पर देना चाहिए, अपने व्यक्तिगत सोच-विचार पर नहीं। इसके अलावा इन प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान देना चाहिए :
- दिए गए गद्यांश को दो-तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए।
- इस समय जिन प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँ, उन्हें रेखांकित कर लेना चाहिए।
- अब बचे हुए एक-एक प्रश्न का उत्तर सावधानीपूर्वक खोजना चाहिए।
- प्रश्नों के उत्तर सदैव अपनी ही भाषा में लिखना चाहिए।
- भाषा सरल, सुबोध, बोधगम्य तथा व्याकरण-सम्मत होनी चाहिए।
- प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर ही देने चाहिए।
- प्रश्न जिस काल या प्रारूप में दिया हो, उत्तर भी उसी के अनुरूप देना चाहिए। दिए गए अवतरण के अंश को बिलकुल उसी रूप में नहीं उतारना चाहिए।
- कुछ शब्दों के एक से अधिक अर्थ होते हैं। ऐसे में व्याकरणिक प्रश्नों के उत्तर देते समय अवतरण में वर्णित प्रसंग को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए।
- पर्यायवाची, विलोम तथा अर्थ संबंधित उत्तर सावधानी से देना चाहिए।
- प्रश्नों के उत्तर में अनावश्यक विस्तार करने से बचना चाहिए, फिर भी एक अंक और दो अंक के प्रश्नों के उत्तरों में शब्द-सीमा का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
शीर्षक-संबंघी प्रश्न का उत्तर कैसे दें?
शीर्षक-संबंधी प्रश्न का उत्तर देते समय गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए तथा मूल भाव या कथ्य समझने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना चाहिए :
- शीर्षक कम-से-कम शब्दों में लिखना चाहिए।
- शीर्षक का चुनाव गद्यांश से ही संबंधित होना चाहिए।
- शीर्षक पढ़कर ही गद्यांश के मूलभाव का अनुमान लगाया जाना चाहिए।
अपठित गदूयांश (हल सहित)
सी०बी०एस०ई० की विभिन्न परीक्षाओं में पूछे गए गद्यांश
निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यान से पढ़िए और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में लिखिए :
1. ‘दाँत’- इस दो अक्षर के शब्द तथा इन थोड़ी-सी छोटी-छोटी हड्डियों में भी उस चतुर कारीगर ने वह कौशल दिखलाया है कि किसके मुँह में दाँत हैं जो पूरा वर्णन कर सके। मुख की सारी शोभा और सभी भोज्य पदार्थों का स्वाद इन्हीं पर निर्भर है। कवियों ने अलक, भूर तथा बरौनी आदि की छवि लिखने में बहुत रीति से बाल की खाल निकाली है, पर सच पूछ्छिए तो इन्हीं की शोभा से सबकी शोभा है। जब दाँतों के बिना पोपला-सा मुँह निकल आता है और चियुक एवं नासिक एक में मिल जाती हैं, उस समय सारी सुधराई मिट्टी में मिल जाती है। कवियों ने इनकी उपमा हीरा, मोती, माणिक से दी है, यह बहुत ठीक है।
यह वह अंग है, जिसमें पाकशास्त्र के छहों रस एवं काव्यशास्त्र के नवों रस का आधार है। खाने का मज़ा इन्ही से है। इस बात का अनुभव यदि आपको न हो तो किसी वृद्ध से पूछ देखिए। केवल सतुआ चाटने के और रोटी को दूध में तथा दाल में भिगोकर गले के नीचे उतारने के सिवाय दुनिया भर की चीजों के लिए वह तरस कर ही रह जाता होगा। सच है दाँत बिना जब किसी काम के न रहें तब पुछे कौन? शंकराचार्य का यह पद महामंत्र है “अंगं गलितं पलितं मुंड दशनविहीन जातं तुंडम्” आदि। एक कहावत भी है –
“दाँत खियाने, खुर घिसे, पीठ बोझ नहिं लेइ,
ऐसे बूढ़े बैल को कौन बाँध भुस देई।”
आपके दाँत हाथी के दाँत तो हैं नहीं कि मरने पर भी किसी के काम आएँगे। आपके दाँत तो यह शिक्षा देते हैं कि जब तक हम अपने स्थान, अपनी जाति (दंतावली) और अपने काम में दृढ़ हैं, तभी तक हमारी प्रतिष्ठा है। यहाँ तक कि बड़े-बड़े कवि हमारी प्रशंसा करते हैं। पर मुख से बाहर होते ही एक अपावन, घृणित और फेंकने वाली हड्डी हो जाते हैं। गाल और होंठ दाँतों का परदा हैं। जिसके परदा न रहा अर्थात् स्वजातित्व की गैरतदारी न रही, उनकी निर्लज्ज जिंदगी व्यर्थ है। ऐसा ही हम उन स्वार्थ के अंधों के हक में मानते हैं जो रहे हमारे साथ, बने हमारे साथ ही, पर सदा हमारे देश-जाति के अहित ही में तत्पर रहते हैं। उनके होने का हमें कौन सुख? दुखती दाढ़ की पीड़ा से मुक्ति उसके उखड़वाने में ही है। हम तो उन्हीं की जै-जै कार करेंगे जो अपने देशवासियों से दाँत काटी रोटी का बत्ताव रखते हैं।
प्रश्न :
(क) कैसे कह सकते हैं कि दाँतों का निर्माण चतुर कारीगर ने किया है और इन्हीं की शोभा से सारी शोभा है? 2
(ख) कवियों ने दाँतों की उपमा किन वस्तुओं से दी है? उपमा का कारण भी स्पष्ट कीजिए।
(ग) भोजन के आनंद में दाँतों का क्या योगदान है? इसे समझने के लिए किसी वृद्ध के पास जाना क्यों जरूरी बताया है?
(घ) दाँतों की प्रतिष्ठा कब तक है? मुँह के बाहर होते ही उनके साथ भिन्न व्यवहार क्यों होता है? 2
(ङ) शंकराचार्य के कथन और एक अन्य कहावत के द्वारा लेखक क्या समझाना चाहता है?
(च) गाल और होंठ दाँतों का परदा कैसे हैं? उस परदे से क्या शिक्षा मिलने की बात कही गई है? 2
(छ) दाँतों की चर्चा में देश का अहित करने वालों का उल्लेख क्यों किया गया है? लेखक के अनुसार उनसे कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए?
(ज) इस गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक सुझाइए। (अधिकतम 5 शब्द)
उत्तर :
(क) दाँतों का निर्माण चतुर कारीगर यानी ईश्वर ने किया है। इसी के कारण हम भोज्य पदार्थों का स्वाद ले पाते हैं तथा हमारे चेहरे का सौंदर्य कायम रहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इन्हीं की शोभा से सारी शोभा है।
(ख) कवियों ने दाँतों की उपमा हीरा, मोती तथा माणिक से दी है, क्योंकि स्वस्थ तथा सुगठित दाँत इन्हीं की तरह शोभित होते हैं। साथ ही इनकी अनुपस्थिति चेहरे का सारा सौंदर्य बिगाड़ देती है।
(ग) दाँतों के कारण ही हम भोजन के छहों रसों का आनंद ले पाते हैं। ये हमें खाने का मज़ा देते हैं। इसे समझने के लिए किसी वृद्ध के पास जाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि उसे भोजन करने की दोनों स्थितियों का अनुभव होता है, जो दाँतों के साथ और दाँतों के बिना किया जाता है।
(घ) दाँतों की प्रतिष्ठा तभी तक है, जब तक वे अपने स्थान पर मजबूती के साथ कायम रहते हैं तथा अपना काम बखूबी करते रहते हैं। मुँह से बाहर होते ही उनके साथ भिन्न व्यवहार इसलिए होता है, क्योंकि उस स्थिति में वे अपना काम कर पाने में अक्षम हो जाते हैं।
(ङ) शंकराचार्य के कथन तथा कहावत के द्वारा लेखक यह समझाना चाहता है कि अपने काम में अक्षम हो जाने पर किसी का भी महत्व कम हो जाता है तथा वह भार-सा हो जाता है।
(च) जैसे परदे के पीछे अच्छी – बुरी चीजें छुप जाती हैं तथा उनका शील बना रहता है, उसी तरह गाल और होंठ अपने पीछे दाँतों को छिपाए रखते हैं, उन्हें सहारा देते हैं तथा उनके परदे का काम करते हैं। इससे यही शिक्षा मिलती है कि इनसान को उनका कभी भी अहित नहीं करना चाहिए, जिनके साथ वह बात-व्यवहार रखता है।
(छ) देश का अहित करने वाले हमारे साथ रहते हैं, मगर हमारा भला नहीं सोचते। वैसी ही जैसे तकलीफ़ देने वाला दाढ़ अन्य दाढ़ों के साथ ही होता है, मगर शरीर को तकलीफ़ देता है, अपना उचित काम नहीं करता है। लेखक के अनुसार हमें उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा हम पीड़ा देने वाले दाढ़ के साथ करते हैं।
(ज) शीर्षक : दाँतों के बहाने।
2. जिन लेखों और विश्लेषणों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तक़ाज़ों से लाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए लिखे जाते हैं, इसलिए उनमें पक्षधरता भी होती है और पक्षधरता के अनुरूप अपर पक्ष के लिए व्यर्थता भी। इसे भजनमंडली के बीच का भजन कह सकते हैं। सांप्रदायिकता, अर्थात् अपने संप्रदाय की हित-चिंता अच्छी बात है। यह अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता से आगे बढ़ने वाला पहला क्रदम है, इसके बिना मानव-मात्र की हित-चिंता, जो अभी तक मात्र एक ख़याल ही बना रह गया है, की ओर क़दम नहीं बढ़ाए जा सकते।
पहले क़दम की कसौटी यह है कि वह दूसरे क़दम के लिए रुकावट तो नहीं बन जाता। बृहत्तर सरोकारों से लघुतर सरोकारों का अनमेल पड़ना उन्हें संकीर्ण ही नहीं बनाता, अन्य हितों से टकराव की स्थिति में लाकर एक ऐसी पंगुता पैदा करता है, जिसमें हमारी अपनी बाढ़ भी रूकती है और दूसरों की बाढ़ को रोकने में भी हम एक भूमिका पेश करने लगते हैं। धमों, संप्रदायों और यहाँ तक कि विचारधाराओं तक की सीमाएँ यहीं से पैदा होती हैं, जिनका आरंभ तो मानवतावादी तक़ाज़ों से होता है और अमल में वे मानवद्रोही ही नहीं हो जाते बल्कि उस सीमित समाज का भी अहित करते हैं, जिसके हित की चिंता को सर्वोपरि मानकर ये चलते हैं।
सामुदायिक हितों का टकराव वर्चस्वी हितों से होना अवश्यंभावी है। अवसर की कमी और अस्तित्व की रक्षा के चलते दूसरे वंचित या अभावग्रस्त समुदायों से भी टकराव और प्रतिस्पर्धा की स्थिति पैदा होती है। बाहरी एकरूपता के नीचे समाजों में भीतरी दायरे में कई तरह के असंतोष बने रहते हैं और ये पहले से रहे हैं। सांप्रदायिकता ऐसी कि संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय। भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोटक नहीं होने दिया और इसके चलते ही अभिजातीय साप्रदायिक संगठनों को पहले कभी जन-समर्थन नहीं मिल।।
प्रश्न :
(क) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) जिन लेखों को हम पढ़ते हैं, वे कैसे लिखे जाते हैं? इसका क्या परिणाम होता है?
(ग) किस अर्थ में सांप्रदायिकता को अच्छी बात कहा गया है?
(घ) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव के क्या परिणाम होते हैं?
(ङ) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से क्या तात्पर्य है? इनसे टकराव की स्थिति कब पैदा होती है?
(च) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-समर्थन क्यों नहीं मिला?
(छ) ‘संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय’-इसे स्वयं लेखक ने कैसे समझाया है?
(ज) ‘सांप्रदायिकता’ शब्द से एक उपसर्ग और एक प्रत्यय अलग कीजिए।
(झ) (i) ‘तकाज़ा, दायरा’ तथा (ii) ‘असंतोष, समर्थन’ शब्द उत्पत्ति (स्रोत) की दृष्टि से किन भेदों के अंतर्गत आते हैं?
उत्तर:
(क) शीर्षक : सांप्रदायिकता के खतरे।
(ख) जिन लेखों को हम पढ़े हैं, वे किसी राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने के लाभ-हानि को सोचकर लिखे जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ये लेख निष्पक्ष नही होते। ये किसी पक्ष-विशेष के फायद् के लिए लिखे जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ये लेख किसी वर्ग विशेष के लिए हितकर होते हैं, जबकि दूसरे के लिए पूरी तरह व्यर्थ बन जाते हैं।
(ग) सांप्रदायिकता के वशीभूत होकर मनुष्य अपने संप्रदाय का चितन करता है। इससे व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता को त्यागकर आग कदम बढ़ाता है तथा मानव-मात्र की हित-चिता की ओर बढ़ता है, जिसके लिए वह अब तक सिर्फ़ सोचता था।
(घ) हमारे सरोकारों की रुकावट और परस्पर टकराव का परिणाम यह होता है कि इससे एक ऐसी पंगुता जन्म लेती है, जिससे हमारी प्रगति रुकती है और हम जाने-अनजाने दूसरों की प्रगति में बाधक बनते हैं। यहीं से धर्म, संप्रदाय की संकीर्णता पनपने लगती है।
(ङ) ‘वंचित या अभावग्रस्त’ समुदाय से तात्पर्य ऐसे समुदाय से है, जिसे अवसर की कमी के कारण पिछड़ जाना पड़ा। इस अवसर की कमी के कारण यह अभावग्रस्त वर्ग प्रगति करने के स्थान पर पिछड़ता जाता है। अपने अस्तित्व पर आए खतरे को टालने के लिए वह संघर्ष करता है, जिससे अन्य वर्ग के साथ टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(च) भारत में अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को जन-जन का समर्थन इसलिए नहीं मिला, क्योंकि भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है, जिसमें समाज जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय आदि के आधार पर छिन्न-भिन्न नहीं हो पाया।
(छ) ‘संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय’ को समझाते हुए लेखक कहना चाहता है कि समाज में धार्मिक आधार पर संप्रदाय तो है ही, पर इसके अलावा भी अन्य संप्रदाय भी पनपकर अपना प्रभाव दिखा रहे हैं। इनका आधार मुख्यतया अर्थ (धन) है, जिससे एक वर्ग बहुत धनी है, तो दूसरा अत्यंत निर्धन। इसके ऊँच-नीच में बँटा – संप्रदाय भी है, जो लोगों की असंतुष्टि का कारण है।
(ज) सांप्रदाघिकता : उपसर्ग-सम्, प्रत्यय-इक, ता।
(झ) (i) तक़ाजा, दायरा-आगत या विदेशी शब्द।
(ii) असंतोष, समर्थन-तत्सम शब्द।
3. आज से लगभग छह सौ साल पूर्व संत कबीर ने सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विद्धध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईष्य्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस-बीस हताहत होते हैं, लाखो-करोड़ो की संपत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।
कबीर हिंदु-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद् नहीं मानते। भेद् केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल, धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता से मिलता है। हुदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अंतर केवल उन माध्यमों में है, जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों-पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि के दिखावे का विरोध किया।
समाज में एकरूपता तभी संभव है जबकि जाति, वर्ण, वर्ग, भेद न्यून-से-न्यून हों। संतों ने मंदिर-मस्जिद, जाति-पांति के भेद में विश्वास नहीं रखा। सदाचार ही संतों के लिए महत्वपूर्ण है। कबीर ने समाज में व्याप्त बाह्याडंबरों का कड़ा विरोध किया और समाज में एकता, समानता तथा धर्म-निरपेक्षता की भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया।
प्रश्न :
(क) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) क्या कारण है कि कबीर छह सौ साल बाद भी प्रासंगिक लगते हैं?
(ग) किस समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है और क्यों?
(घ) समाज में ज्वालामुखी भड़कने के क्या दुष्परिणाम होते हैं?
(ङ) मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव के विचार कैसे बलशाली बनते हैं?
(च) कबीर ने किन माध्यमों का विरोध किया और क्यों?
(ङ) समाज में एकरूपता कैसे लाई जा सकती है?
(ज) ‘सांप्रदायिकता’ शब्द से एक उपसर्ग और एक प्रत्यय चुनिए।
(झ) ‘कबीर ने समाज में व्याप्त बाहयाडंबरों का कड़ा विरोध किया।’ इस वाक्य को मिश्र वाक्य में बद्लकर लिखिए।
(उ) गद्यांश में से शब्दों के उस जोड़े (शब्द-युग्म) को चुनकर लिखिए, जिसके दोनों शब्द परस्पर विलोम हों।
उत्तर :
(क) शीर्षक : सांप्रदायिकता-एक प्रसुप्त ज्वालामुखी।
(ख) छह सौ साल बाद भी कबीर के प्रासंगिक लगने का कारण यह है कि कबीर ने छह सौ साल पहले ही समाज में व्याप्त जिस सांप्रदायिकता की समस्या की ओर ध्यान खींचा था, वही सांप्रदायिकता आज भी अपना भयंकर रूप दिखाकर देश के सद्भाव को खराब कर जाती है।
(ग) जाति, धर्म, भाषागत ईष्ष्या, द्वेष, बैर आदि के कारण होने वाले दंगों तथा लड़ाई-झगड़े को ज्वालामुखी कहा गया है, क्योंकि सांप्रदायिकता किसी सोए हुए भयंकर ज्वालामुखी की तरह समय-असमय भड़क उठती है और हमारी एकता को तार-तार कर देती है।
(घ) समाज में ज्वालामुखी भड़कने के दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं :
- समाज में अनेक लोग असमय मारे जाते हैं।
- लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट होती है।
- विकास की गति रुक जाती है।
- भय, कष्ट और अशांति का वातावरण बन जाता है।
(ङ) हमारा समाज भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्रीयता आदि के आधार पर बँटा हुआ है। इसके अलावा समाज अमीर-गरीब, ऊँच-नीच वर्गों में भी बँटा हुआ है, जिससे आपसी समरसता की जगह ईष्य्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना भीतर-ही-भीतर सुलगती रहती है। ये दुर्गुण मनुष्य में भेदभाव के विचार बलशाली बनाते हैं।
(च) कबीर ने राम-रहीम तक पहुँचने के लिए प्रयुक्त माध्यमों-पूजा, नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि का विरोध किया है। यह विरोध इसलिए किया जाता है, क्योंकि इससे समाज वर्गों एवं संप्रदायों में बंटता है, जिससे सामाजिक एकता खंडित होती है और समाज में एकरूपता नहीं आ पाती है।
(छ) समाज में एकरूपता लाने के लिए सबसे पहले आवश्यक है कि भाषा, जाति, धर्म जैसे कारक प्रश्न जो भेदभाव – पैदा करते हैं, उनका सही रूप लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाए, ताकि ये एकता बढ़ाने का साधन बन सकें। इसके अलावा धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता को हतोत्साहित करने से एकरूपता लाई जा सकती है।
(ज) सांप्रदायिकता : उपसर्ग-सम्, प्रत्यय-इक, ता।
(झ) कबीर ने उन बाह्याडंबरों का कड़ा विरोध किया, जो समाज में व्याप्त थे।
(ञ) समय-असमय।
4. हिंदी या उर्दू साहित्य में थोड़ी-सी रुचि रखने वाला भी मुंशी प्रेमचंद को न जाने – ऐसा हो ही नहीं सकता, यह मेरा दृढ़ विश्वास है। सफलता के उच्च शिखरों को छूने के बावजूद प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे। उनके स्वभाव में दिखावा या अहंकार ढूँढ़ने वालों को निराश ही होना पड़ेगा। प्रेमचंद का जीवन अनुशासित था। मुँह-अँधेरे उठ जाना उनकी आदत थी। करीब एक घंटे की सैर के बाद (जो प्रायः स्कूल परिसर में ही वे लगा लिया करते थे) वे अपने ज़रूरी काम सुबह-सवेरे ही निपटा लेते थे। अपने अधिकांश काम वे स्वयं करते।
उनका मानना था कि जिस आदमी की हथेली पर काम करने के छाले-गट्टे न हों, उसे भोजन का अधिकार कैसे मिल सकता है? प्रेमचंद कर्मठता के प्रतीक थे। घर में झाड़-बुहारी कर देना, पत्नी बीमार हो तो चूल्हा जला देना, बच्चों को दूध पिलाकर तैयार कर देना, अपने कपड़े स्वयं धोना आदि काम करने में भला कैसी शर्म! लिखने के लिए उन्हें प्रातःकाल प्रिय था, पर दिन में भी जब अवसर मिले, उन्हें मेज़ पर देखा जा सकता था। वे वक्त के बड़े पाबंद थे। वे समय पर स्कूल पहुँचकर बच्चों के सामने अपना आदर्श रखना चाहते थे।
समय की बरबादी को वे सबसे बड़ा गुनाह मानते थे। उनका विचार था कि वक्त की पाबंदी न करने वाला इंसान तरक्की नहीं कर सकता और ऐसे इंसानों की कौम भी पिछड़ी रह जाती है। ‘कौम’ से उनका आशय समाज और देश से था। इतने बड़े लेखक होने के बावजूद घमंड उन्हें छू तक नहीं गया था। उन्होंने अपना सारा जीवन कठिनाइयों से जूझते हुए बिताया।
प्रश्न :
(क) प्रेमचंद कौन थे? लेखक का प्रेमचंद के बारे में क्या दृढ़ विश्वास है?
(ख) आशय स्पष्ट कीजिए-प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे।
(ग) प्रेमचंद की प्रातःकालीन दिनचर्या क्या थी?
(घ) प्रेमचंद के मत में भोजन का अधिकार किसे नहीं है? क्यों?
(ङ) कैसे कह सकते हैं कि प्रेमचंद कर्मठता के प्रतीक थे?
(च) समयपालन के बारे में प्रेमचंद की मान्यताओं पर टिप्पणी कीजिए।
(छ) उक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज) वाक्य प्रयोग कीजिए-मुँह-अँधेरे।
(झ) संयुक्त वाक्य में बदलिए-उन्होंने अपना सारा जीवन कठिनाइयों से जूझते हुए बिताया।
(ञ) प्रत्यय अलग कीजिए-पाबंदी, कर्मठता।
उत्तर :
(क) प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के महान एवं प्रसिद्ध साहित्यकार थे, जिन्हें ‘उपन्यास-सम्राट’ भी कहा जाता है। उनके बारे में लेखक का दृढ़ विश्वास यह है कि हिंदी या उर्दू साहित्य में थोड़ी-सी भी रुचि रखने वाला व्यक्ति प्रेमचंद को ज़रूर जानता है। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य-प्रेमियों तक पहुँच गए थे।
(ख) ‘प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे’-का आशय यह है कि प्रेमचंद ने अपने लेखन से सफलता की अनेक ऊँचाइयों को छुआ था। इतनी सफलता मिलने पर भी प्रेमचंद में ज़रा भी घमंड न आया और न उनके स्वभाव में कोई दिखावा ही आ सका। वे महान साहित्यकार होते हुए भी बनावटीपन से सदैव दूर रहे।
(ग) प्रेमचंद प्रात: तड़के उठ जाते थे। वे स्कूल परिसर में एक घंटा सैर करते थे। वे अपने ज्ररूरी काम तथा लेखन भी सवेरे ही निपटा लेते थे।
(घ) प्रेमचंद के मत में भोजन का अधिकार उसे नहीं है, जिसकी हथेलियों में परिश्रम करने के प्रमाण न मौजूद हों। ऐसा इसलिए कि स्वयं प्रेमचंद बहुत ही परिश्रमी थे जो समय का पल भी नहीं गँवाते थे। वे अत्यंत कर्मठ एवं परिश्रमी व्यक्ति थे। वे चाहते थे कि अपनी रोटी के लिए हर व्यक्ति परिश्रम करे।
(ङ) प्रेमचंद अपने अधिकांश काम स्वयं ही करते थे। वे किसी काम को छोटा समझे बिना करते थे। घर में झाडू-बुहारी कर देना, पत्नी बीमार हो तो चूल्हा जला देना, बच्चों को दूध पिलाकर तैयार कर देना, अपने कपड़े स्वयं धोने जैसे काम करने में कोई शर्म नहीं महसूस करते थे, जो उनकी कर्मठता का प्रतीक है।
(च) प्रेमचंद समय पर स्कूल पहुँचकर बच्चों के सामने आदर्श रखना चाहते थे। वे समय की बरबादी को गुनाह मानते थे तथा किसी जाति या समाज के पीछे रह जाने का कारण लोगों द्वारा समय की महत्ता जाने बिना समय बरबाद करने को मानते थे। वे समय के एक-एक पल का उपयोग करने के प्रबल पक्षधर थे।}
(छ) शीर्षक : समय के पाबंद-प्रेमचंद।
(ज) मुँह-अँधेरे-प्राचीन काल में ऋषि-मुनि मुँह-अँधेरे नदी की ओर स्नान करने के लिए जाते थे।
(झ) संयुक्त वाक्य-वे कठिनाइयों से जूझते रहे और इस तरह सारा जीवन बिताया।
(ञ) मूल शब्द – प्रत्यय
पाबंद – ई
कर्मठ – ता
5. जब मनुष्य जंगली था, वनमानुष जैसा, उसे नाखून की ज़रूरत थी अपनी जीवन-रक्षा के लिए। असल में वही उसके अस्त्र थे। दाँत भी थे, पर नाख़ून के बाद ही उनका स्थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पकड़ना पड़ता था, नाख़न उसके लिए आवश्यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगा। पत्थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा। उसने हड्डियों के भी हथियार बनाए। इन हड्डियों के हथियारों में सबसे मज़बूत और सबसे ऐतिहासिक था देवताओं के राजा का वज्र जो दधीचि मुनि की हड्डियों से बना था।
मनुष्य और आगे बढ़ा, उसने धातु के हथियार बनाए। जिनके पास लोहे के अस्त्र और शस्त्र थे, वे विजयी हुए। इतिहास आगे बढ़ा। पलीते वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बम-वर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नखधर मनुष्य अब एटम बम पर भरोसा कर और आगे चल पड़ा है, पर प्रकृति मनुष्य को उस भीतर वाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है। वह लाख वर्ष पहले के ‘नखदंतावलंबी’ जीव को उसकी असलियत बता रही है।
प्रश्न :
(क) प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्य को वनमानुष जैसा क्यों कहा गया है और तब उसे नाखून की ज़रूरत क्यों थी?
(ख) धीरे-धीरे मनुष्य ने पत्थर के ढेले और पेड़ों की डालों का सहारा क्यों लिया?
(ग) दधीचि की हड्डियों से कौन-सा अस्त्र बना और वह किस उद्देश्य के लिए था?
(घ) किन अस्त्र-शस्त्रों ने किस तरह इतिहास को कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है?
(ङ) हथियारों की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होने पर भी प्रकृति उसके भीतर वाले अस्त्र को आज भी बढ़ाए जा रही है, क्यों?
(च) प्रस्तुत गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(छ) ‘वनमानुष’ समस्तपद का विग्रह कीजिए और समास का भेद भी बताइए।
(ज) ‘ऐतिहासिक’ शब्द से मूल शब्द और प्रत्यय अलग कीजिए।
(झ) ‘विजय’, ‘आवश्यक’-विलोम शब्द लिखिए।
(ज) ‘नखदंतावलंबी’ जीव किसे कहा गया है?
उत्तर :
(क) प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्य को वनमानुष जैसा इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह वन (जंगल) में रहता था। वह भोजन की तलाश में इधर-उधर भटकता था। उसके सारे कार्य-व्यवहार वनमानुषों जैसे थे। तब उसे आत्मरक्षा के लिए, प्रतिद्वंद्वियों को पकड़ने तथा शिकार फाड़ने के लिए नाख़ की ज़रूरत थी।
(ख) धीरे-धीरे मनुष्य ने पत्थर के ढेले और पेड़ों की डालों का सहारा इसलिए लिया, क्योंकि वह अपने अंगों के अलावा बाहरी वस्तुओं का सहारा लेना चाहता था। पत्थर के ढेले और पेड़ों की डालियों से वह दूर स्थित शिकार को मार सकता था।
(ग) द्धीचि की हड्डियों से देवताओं के राजा का वज्र बना। इस वज्र को बनाने का उद्देश्य था-असुरों के राजा वृत्तासुर नामक राक्षस को हराना। उसकी वीरता एवं पराक्रम के कारण देवता दानवों के साथ युद्ध में पराजय की कगार पर पहुँच चुके थे।
(घ) मनुष्य ज्यों-ज्यों सभ्यता की ओर बढ़ता गया, उसने हर क्षेत्र में प्रगति की। आत्मरक्षा के लिए बनाए जाने वाले हथियार भी इससे अछूते न थे। उसने लकड़ी और पत्थर के हथियारों का त्यागकर बंदूक, कारतूस, तोप, बमवर्षक वायुयान आदि बनाए, जो गलत हाथों में पड़ने पर मनुष्यता का विनाश कर सकते हैं। इतिहास में ऐसे उदाहरण हैं। इन अस्त्रों ने इतिहास को कलंकित किया है।
(ङ) हथियारों की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होने पर भी प्रकृति उसके भीतर वाले अस्त्र अर्थात नाख़ून को आज भी बढ़ाए जा रही है, क्योंकि ऐसा करके प्रकृति मनुष्य को यह असलियत बताती रहती है कि तुम वही मनुष्य हो जो लाख वर्ष पहले नाखूनों और दाँतों के सहारे जीवित रहते थे।
(च) शीर्षक : नाख़ून क्यों बढ़ते हैं?
(छ) वनमानुष – विग्रह-वन में रहने वाला मानुष (मनुष्य)।
समास का नाम-अधिकरण तत्पुरुष समास।
(ज) ऐतिहासिक : मूल शब्द-इतिहास, प्रत्यय-इक।
(झ) विजय × पराजय
आवश्यक × अनावश्यक
(ञ) नखदंतावलंबी जीव आदि मानव को कहा गया है, क्योंकि वह जंगल में रहते हुए नाख़ और दौतों को अस्त्र के रूप में प्रयोग करता था।
6. ज्ञान-राशि के संचित कोष ही का नाम साहित्य है। सब तरह के भावों को प्रकट करने की योग्यता रखने वाली और निर्दोष होने पर भी, यदि कोई भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती तो वह, रूपवती भिखारिन की तरह, कदापि आद्रणीय नहीं हो सकती। उसकी शोभा, उसकी श्रीसंपन्नता, उसकी मान-मर्यादा उसके साहित्य पर ही अवलंबित रहती है। जाति-विशेष के उत्कर्षापकर्ष का, उसके उच्च-नीच भावों का, उसके धार्मिक विचारों और सामाजिक संघटन का, उसके ऐतिहासिक घटना-चक्रों और राजनैतिक स्थितियों का प्रतिबिब देखने को यदि कहीं मिल सकता है तो उसके ग्रंथ-साहित्य ही में मिल सकता है। सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक अशक्ति या निर्जीवता और सामाजिक सभ्यता तथा असभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य है।
जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उसके साहित्य रूपी आईने में ही मिल सकती है। इस आईने के सामने जाते ही हमें यह तत्काल मालूम हो जाता है कि अमुक जाति की जीवनी-शक्ति इस समय कितनी या कैसी है और भूतकाल में कितनी और कैसी थी। आप भोजन करना बंद कर दीजिए या कम कर दीजिए, आपका शरीर क्षीण हो जाएगा और भविष्य-अचिरात् नाशोन्मुख होने लगेगा। इसी तरह आप साहित्य के रसास्वाद्न से अपने मस्तिष्क को वंचित कर दीजिए, वह निष्क्रिय होकर धीरे-धीरे किसी काम का न रह जाएगा। शरीर का खाद्य भोजन है और मस्तिष्क का खाद्य साहित्य। यदि हम अपने मस्तिष्क को निष्क्रिय और कालांतर में निर्जीव-सा नहीं कर डालना चाहते, तो हमें साहित्य का सतत सेवन करना चाहिए और उसमें नवीनता और पौष्टिकता लाने के लिए उसका उत्पाद्न भी करते रहना चाहिए।
प्रश्न :
(क) “सब तरह के भावों को प्रकट करने वाली ………… आदरणीय नहीं हो सकती”-कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ख) किसी भी जाति-विशेष का ग्रंथ-साहित्य उसकी किन-किन परिस्थितियों को दर्शाता है और क्यों?
(ग) ‘साहित्य के सतत सेवन और उसके उत्पादन’ से लेखक का क्या तात्पर्य है और यह क्यों ज़रूरी है?
(घ) साहित्य को ‘आईना’ क्यों कहा गया है? विवेचन कीजिए।
(ङ) “शरीर का खाद्य भोजन है और मस्तिष्क का खाद्य साहित्य।” लेखक के इस कथन से क्या तात्पर्य है?
(च) साहित्य के रसास्वादन से मस्तिष्क को वंचित करने का क्या परिणाम होने का अंदेशा है?
(छ) उपर्युक्त गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज) विलोम शब्द लिखिए :
क्षीण, उत्कर्ष
(इ) एक उपसर्ग या एक प्रत्यय अलग कीजिए :
भोजनीय, अभाव, अवलंबित, प्रतिबिंब
(ञ) ‘वह निष्क्रिय होकर धीरे-धीरे किसी काम का न रह जाएगा।’ इस वाक्य को संयुक्त वाक्य में बदलिए।
उत्तर :
(क) “सब तरह के भावों ……….. सकती” का आशय यह है कि भले ही भाषा में भावों को प्रकट करने की योग्यता हो या भाषा एकदम शुद्ध हो, परंतु उसको आदर तभी मिलता है जब उस भाषा का अपना साहित्य हो, नहीं तो उसकी दशा रूपवती भिखारिन-जैसी होती है।
(ख) किसी भी जाति-विशेष का ग्रंथ-साहित्य उस जाति के फलने-फूलने तथा नष्ट होने, उसके अच्छे-बुरे विचारों को, उसके धार्मिक विचारों को, उस समाज की अच्छी-बुरी घटनाओं को तथा राजनैतिक परिस्थितियों को दर्शाता है, क्योंकि साहित्य का समाज से घनिष्ठ संबंध होता है।
(ग) ‘साहित्य के सतत सेवन’ का तात्पर्य है-साहित्य का लगातार अध्ययन करते रहना तथा ‘उसके उत्पादन’ से तात्पर्य है-साहित्यिक रचनाएँ। यह इसलिए आवश्यक है ताकि हमारा मस्तिष्क अपनी जाति या समाज के बारे में चिंतनशील बना रहे और हम उसके उत्थान और विकास के लिए सजग होकर चिंतनशील बने रहें।
(घ) जिस प्रकार आईने के सामने खड़े होने पर अपने चेहरे का यथार्थ पता चल जाता है, उसी प्रकार साहित्य के आईने से हमें पता चल जाता है कि समाज की विभिन्न जातियों की जीवन-शक्ति इस समय कैसी और कितनी है और भूतकाल में कितनी और कैसी थी। अतः साहित्य को, आईना कहा गया है।
(ङ) जिस प्रकार शरीर को जीवित रखने, बढ़ने तथा अन्य क्रियाओं के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मस्तिष्क को सक्रिय तथा सोच-विचार करने योग्य बनाए रखने के लिए साहित्य की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में हमारे मस्तिष्क की वही दशा होगी, जो भोजन के अभाव में शरीर की हो जाती है।
(च) साहित्य के रसास्वादन से मस्तिष्क को वंचित रखने से यह अंदेशा होता है कि मस्तिष्क धीरे-धीरे निष्क्रिय होकर अनुपयोगी बन जाएगा।
(छ) शीर्षक : ‘साहित्य की उपयोगिता’ अथवा ‘साहित्य समाज का दर्पण है।’
(ज) विलोम : क्षीण सुदृढ़ उत्कर्ष अपकर्ष
(झ) भोजनीय : प्रत्यय-ईय
अभाव : उपसर्ग-अ
अवलंबित : उपसर्ग-अव प्रत्यय-इत
प्रतिबिंब : उपसर्ग-प्रति।
(ज) वह निष्क्रिय होगा और किसी काम का नहीं रह जाएगा।
7. मधुर वचन वह रसायन है जो पारस की भाँति लोहे को भी सोना बना देता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, पशु-पक्षी भी उसके वश में हो, उसके साथ मित्रवत् व्यवहार करने लगते हैं। व्यक्ति का मधुर व्यवहार पाषाण-हृदयों को भी पिघला देता है। कहा भी गया है-“तुलसी मीठे वचन ते, जग अपनो करि लेत।”
निस्संदेह मीठे वचन औषधि की भाँति श्रोता के मन की व्यथा, उसकी पीड़ा व वेदना को हर लेते हैं। मीठे वचन सभी को प्रिय लगते हैं। कभी-कभी किसी मृदुभाषी के मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखा उसे उबार लेते हैं, उसमें जीवन-संचार कर देते हैं; उसे सांत्वना और सहयोग देकर यह आश्वासन देते हैं कि वह व्यक्ति अकेला व असहाय नहीं, अपितु सारा समाज उसका अपना है, उसके सुख-दुख का साथी है। किसी ने सच कहा है”मधुर वचन है औषधि, कटुक वचन है तीर।”
मधुर वचन श्रोता को ही नहीं, बोलने वाले को भी शांति और सुख देते हैं। बोलने वाले के मन का अहंकार और दंभ सहज ही विनष्ट हो जाता है। उसका मन स्वच्छ और निर्मल बन जाता है। वह अपनी विनम्रता, शिष्टता एवं सदाचार से समाज में यश, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान प्राप्त करता है। उसके कार्यों से उसे ही नहीं, समाज को भी गौरव और यश प्राप्त होता है और समाज का अभ्युत्थान होता है। इसके अभाव में समाज पारस्परिक कलह, ईर्ष्या-द्व्वेष, वैमनस्य आदि का घर बन जाता है। जिस समाज में सौहार्द्र नहीं, सहानुभूति नहीं, किसी दुखी मन के लिए सांत्वना का भाव नहीं, वह समाज कैसा? वह तो नरक है।
प्रश्न :
(क) मधुर वचन निराशा में डूबे व्यक्ति की सहायता कैसे करते हैं?
(ख) मधुर वचन को ‘औषधि’ की संज्ञा क्यों दी गई है? स्पष्ट कीजिए।
(ग) मधुर वचन बोलने वाले को क्या लाभ देते हैं?
(घ) समाज के अभ्युत्थान में मधुर वचन अपनी भूमिका कैसे निभाते हैं?
(ङ) मधुर वचन की तुलना पारस से क्यों की गई है?
(च) लेखक ने कैसे समाज को नरक कहा है?
(छ) उपर्युक्त गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज ) विलोम शब्द लिखिए : श्रोता, सम्मान।
(झ) उपसर्ग या प्रत्यय अलग कीजिए : विनम्र, सदाचारी।
(ञ) मिश्र वाक्य में बदलिए-बोलने वाले के मन का अंकार और दंभ सहज ही विनिष्ट हो जाता है।
उत्तर :
(क) मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखाते हैं। ऐसे वचन उसे निराशा से बचा लेते हैं तथा सांत्वना एवं सहयोग देते हैं। ये वचन उस व्यक्ति में जीवन-संचार करके यह बताते हैं कि वह अकेला एवं असहाय नहीं है। समाज उसकी मदद के लिए तैयार खड़ा है।
(ख) मधुर वचन हर किसी को सुनने में अच्छे लगते हैं और व्यक्ति की वेदना, व्यथा एवं उसकी पीड़ा हर लेते हैं तथा उसे आराम पहुँचाते हैं। मधुर वचन सुनकर व्यक्ति अपना दुख-दर्द भूल जाता है, इसलिए इसे औषधि की संज्ञा दी गई है।
(ग) जो मधुर वचन बोलते हैं, मधुर वचन उन्हें –
- सुख और शांति देते हैं।
- सहज ही दंभ और अहंकार विहीन बना देते हैं।
- यश, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान दिलाते हैं।
- मन से निर्मल और स्वच्छ बनाते हैं।
(घ) मधुर वचनों से विनम्रता, शिष्टता, सदाचार आदि मानव-मूल्य पुष्पित-पल्लवित होते हैं। इन मूल्यों के अभाव में समाज पारस्परिक कलह, ईष्प्या-द्वेष, वैमनस्य आदि का घर बन जाता है। इस प्रकार मधुर वचन समाज के अभ्युत्थान में अपनी भूमिका निभाते हैं।
(ङ) जिस प्रकार पारस पत्थर का स्पर्श पाकर हर तरह का लोहा सोना बन जाता है और उसकी उपयोगिता एवं मूल्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार मधुर वचन के प्रभाव से अन्य मनुष्यों की निकटता एवं मित्रता मिलती है तथा पशु-पक्षी भी मित्र बन जाते हैं। मधुर वचन बोलने वाले सम्मान पाने के साथ ही सबके प्रिय बन जाते हैं। इसलिए मधुर वचन की तुलना पारस से की गई
(च) लेखक ने उस समाज को नरक कहा है, जहाँ पारस्परिक कलह, ईष्प्या-द्वेष, वैमनस्य का बोलबाला होता है तथा सौहार्द्र, सहानुभूति तथा किसी दुखी मन के लिए सांत्वना का भाव नहीं होता है एवं मधुर वचन न बोलकर अंकारी बने रहते हैं।
(छ) शीर्षक : मधुर वचन है औषधि।
(ज) विलोम शब्द :
श्रोता × वक्ता।
सम्मान × अपमान।
(झ) विनम्र : उपसर्ग – वि, मूल शब्द – नम्र
सदाचारी : मूल शब्द – सदाचार, प्रत्यय – ई
(ब) मिश्र वाक्य : जो मधुर वचन बोलते हैं, उनके मन का अहंकार और दंभ सहज ही विनष्ट हो जाता है।
8. आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है। भारत में विभिन्न पंथों और विविध मत-मतांतरों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक ज़ूरी हो गया है कि लोग दूसरे को जानें; उनकी ज़रूरतों को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझें; उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दें। भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है, क्योंक यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।
स्वामी विवेकानंद इस बात को समझते थे और आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे। उनका दृढ़ मत था कि विभिन्न धर्मों-संप्रदायों के बीच संबाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों-संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज और स्वाभाविक मानते थे। स्वामी जी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे और सभी को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुदुध थे। वे कहा करते थे-यदि सभी मानव एक ही धर्म मानने लगें, एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने लगें तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी, क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा।
प्रश्न :
(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) टापू किसे कहते हैं? ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का क्या अभिप्राय है?
(ग) “भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़र्वरी है।” क्या ज़रूरी है और क्यों?
(घ) स्वामी विवेकानंद को ‘अपने समय से बहुत आगे’ क्यों कहा गया है?
(ङ) स्वामी जी के मतानुसार सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या होगी और क्यों?
(च) भारत में साथ-साथ रह रहे किन्हीं चार धर्मों और मतों के नाम लिखिए।
(ङ) गद्यांश से ‘अनु-‘ और ‘सम्-‘ उपसर्ग वाले दो-द्रो शब्द चुनकर लिखिए।
(ज) मूल शब्द और प्रत्यय अलग कीजिए-स्थापित, नैतिक।
(इ) ‘यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।’ इस वाक्य को संयुक्त वाक्य में बदलिए।
(उ) समास का नाम लिखिए-पूजा-पद्धति, मत-मतांतर।
(ट) अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए-प्राणघातक, अनुष्ठान।
उत्तर :
(क) शीर्षक : भारत में विविध धर्मों की महत्ता।
(ख) ‘टापू’ समुद्र के बीच कहीं भी उभरा हुआ वह भू-भाग होता है जो ज़मीन जैसा होता है, परंतु चारों ओर से जल से घिरे होने के कारण उसका संपर्क अन्य स्थानों से कटा होता है। टापू की तरह जीने का आशय है-समाज से अलग-थलग रहकर जीना तथा अन्य पंथों-मतों के बारे में जानने-समझने का प्रयास न करना।
(ग) भारत जैसे देश में यह और भी ज़रूरी है कि लोग परस्पर संबंध बनाकर रखें। वे एक-दूसरे को जानें-समझें, उनकी आवश्यकताओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं को समझकर महत्व दें तथा लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले विधिन्न धर्मों का सम्मान करें। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंक भारत एक धर्म, मत या विचारधारा का देश नही है।
(घ) स्वामी विवेकानंद् को अपने समय से बहुत आगे इसलिए कहा गया है, क्योंकि उन्होंने अपनी बुद्धि और विवेक से यह बात बहुत पहले समझ लिया था कि भारत में एक धर्म, मत या एक विचारधारा का चल पाना कठिन है। वे सभी के बीच मेलजोल की आवश्यकता समझ गए थे।
(ङ) स्वामी विवेकानंद् के मतानुसार सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तब होगी कि जब सभी मनुष्य एक ही धर्म मानने लगें, एक जैसी पूजा-पद्धति अपना लें और एक समान नैतिकता का पालन करने लगें। इससे हमारा धार्मिक और आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा जो हमारी संस्कृति के लिए घातक होगा।
(च) भारत में साथ-साथ रह रहे चार धर्म हैं – (i) हिंदू धर्म, (ii) मुस्लिम धर्म, (iii) सिख धर्म और (iv) इसाई धर्म। चार मत हैं – (i) वैष्णव मत, (ii) शैव मत, (iii) आर्यसमाजी मत और (iv) निंबार्क मत।
(छ) ‘अनु’ उपसर्ग वाले शब्द -अनुष्ठान, अनुपालन।
‘सम्’ उपसर्ग वाले शब्द-संभव, संप्रदाय, संवाद, सम्मान (कोई दो)।
(ज) स्थापित : मूल शब्द-स्थापन, प्रत्यय-इत।
नैतिक : मूल शब्द-नीति, प्रत्यय-इक।
(झ) संयुक्त वाक्य : यह देश न किसी एक धर्म का है और न किसी एक मत या विचारधारा का।
(ज) पूजा-पद्धति : विग्रह-पूजा की पद्धति, समास-तत्पुरुष समास।
मत-मतांतर : विग्रह-मत और मतांतर, समास-द्वंद्व समास।
(ञ) वाक्य-प्रयोग : प्राणघातक-नक्सलवादियों ने सैनिकों पर प्राणघातक हमला कर दिया।
अनुष्ठान-वर्षा होने की संभावना न देख ग्रामीणों ने धार्मिक अनुष्ठान करने का मन बनाया।
9. जर्मनी के सुप्रसिद्ध विचारक नीत्रे ने, जो विवेकानंद का समकालीन था, घोषणा की कि ‘ईश्वर मर चुका है।’ नीत्शे के प्रभाव में यह बात चल पड़ी कि अब लोगों को ईश्वर में दिलचस्पी नहीं रही। मानवीय प्रवृत्तियों को संचालित करने में विज्ञान और बौद्धिकता निर्णायक भूमिका निभाते हैं-यह स्वामी विवेकानंद को स्वीकार नहीं था। उन्होंने धर्म को बिलकुल नया अर्थ दिया। स्वामी जी ने माना कि ईश्वर की सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है। उन्होंने साधुओं-पंडितों, मढदिरो-मस्जिदों, गिरजाघरो-गोंपाओं के इस परंपरागत सोच को नकार दिया कि धार्मिक जीवन का उद्देश्य-संन्यास के उच्चतर मूल्यों को पाना या मोक्ष-प्राप्ति की कामना है।
उनका कहना था कि ईश्वर का निवास निर्धन-दरिद्र-असहाय लोगों में होता है, क्योंकि वे ‘दरिद्र-नारायण’ हैं। ‘दरिद्र-नारायण’ शब्द ने सभी आस्थावान स्त्री-पुरुषों में कर्तव्य-भावना जगाई कि ईश्वर की सेवा का अर्थ दीन-हीन प्राणियों की सेवा है। अन्य किसी भी संत-महात्मा की तुलना में स्वामी विवेकानंद् ने इस बात पर ज़्यादा बल दिया कि प्रत्येक धर्म गरीबों की सेवा करे और समाज के पिछड़े लोगों को अज्ञान, दरिद्रता और रोगों से मुक्त करने के उपाय करे। ऐसा करने में स्त्री-पुरुष, जाति-संप्रदाय, मत-मतांतर या पेशे-व्यवसाय से भेदभाव न करे। परस्पर वैमनस्य या शत्रुता का भाव मिटाने के लिए हमें घृणा का परित्याग करना होगा और सबके प्रति प्रेम और सहानुभूति का भाव जगाना होगा।
प्रश्न :
(क) नीत्शे कौन था? उसने क्या घोषणा की थी?
(ख) नीत्शो की घोषणा के पीछे क्या सोच थी?
(ग) धर्म के बारे में स्वामी विवेकानंद् ने क्या विचार किया? इसका क्या आशय था?
(घ) पारंपरिक विचारों के अनुसार धार्मिक जीवन का उद्देश्य क्या माना गया था?
(ङ) ‘दरिद्र-नारायण’ से क्या आशय है? इस शब्द से लोगों में क्या भावना जाग्रत हुई?
(च) स्वामी विवेकानंद ने किस बात पर बल दिया और क्यों?
(छ) आपसी भेदभाव मिटाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(इ) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए-संचालित अथवा निर्धनता।
(ञ) सरल वाक्य में बदलिए –
स्वामी जी ने माना कि ईश्वर सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है।
उत्तर :
(क) नीत्रो जर्मनी का सुप्रसिद्ध विचारक एवं नास्तिक था। वह विवेकानंद् का समकालीन था। उसने ईश्वर के संबंध में यह घोषणा की थी कि ईश्वर मर चुका है। अपनी नास्तिकता के कारण उसने लोगों को ईश्वर से विमुख करने के लिए ऐसी बात कही। वह किसी सीमा तक इसमें सफल भी रहा।
(ख) नीत्शे ने जो घोषणा की थी उसके पीछे सोच यह थी कि मानवीय प्रवृत्तियों को संचालित करने में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। इनको संचालित करने में विज्ञान और बौद्धिकता निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
(ग) धर्म के बारे में स्वामी विवेकानंद का विचार यह था कि ईश्वर की सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है। गरीबों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है। इसका आशय यह था कि साधुओं-पंडितों, मंदिरों-मस्जिदों, गिरिजाघरों-गोंपाओं की परंपरागत सोच को नकारकर गरीबों की सेवा को महत्त्व देना चाहिए।
(घ) पारंपरिक विचारों के अनुसार धार्मिक जीवन का उद्देश्य माना गया था-संन्यास के उच्चतर मूल्यों को पाना या मोक्ष-प्राप्ति की कामना।
(ङ) ‘दरिद्र नारायण’ से आशय है-दरिद्र, दीन-दुखी, असहाय, निर्बल, अशक्त और गरीबों की रक्षा करने वाले भगवान। इस शब्द से लोगों में गरीबों के प्रति सेवा-भावना विकसित हुई। लोगों की आस्था गरीबों में बढ़ी और वे गरीबों की सेवा करके ‘नर सेवा नारायण सेवा’ को चरितार्थ करने लगे।
(च) स्वामी विवेकानंद् ने इस बात पर बल दिया कि प्रत्येक धर्म गरीबों की सेवा करे तथा गरीबों की सेवा को अपना मुख्य अंश बनाए और समाज के पिछड़े लोगों को अज्ञान, दरिद्रता और रोगों से मुक्त करने के उपाय करे, क्योंक गरीबों की सेवा ही सच्चा धर्म और ईश्वर की सेवा है।
(छ) आपसी भेदभाव मिटाने के लिए स्त्री-पुरुष, जाति-संप्रदाय, मत-मतांतर या पेशे-व्यवसाय के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। इसके अलावा हमें आपसी घृणा, वैमनस्य तथा शत्रुता का भाव त्यागकर सभी के साथ समानता का ख्यवहार करना चाहिए।
(ज) शीर्षक : ‘सच्चा धर्म’ अथवा ‘नर सेवा नारायण सेवा’।
(इ) संचालित : उपसर्ग – ‘सम्’, प्रत्यय – ‘इत’।
निर्धनता : उपसर्ग – ‘निर्’, प्रत्यय – ‘ता’।
(ञ) सरल वाक्य : स्वामी जी ने ईश्वर सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा माना।
10. साहस की ज़िदगी सबसे बड़ी ज़िद्गी होती है। ऐसी ज़िद्गी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिलकुल निडर, बिलकुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं।
साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है, जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, पर वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है। अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, ज़िद्गी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता।
ज़िद्गी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम को झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम का हर जगह
पर एक घेरा डालता है, वह अंतत: अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और ज़िदगी का कोई मज़ा उसे नहीं मिल पाता, क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में, उसने ज़ंदगी को ही आने से रोक रखा है। ज़िद्गी से, अंत में हम उतना ही पाते हैं, जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं। पूँजी लगाना ज़िदगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलटकर पढ़ना है, जिसके सभी अक्षर फूलों से ही नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं।
प्रश्न :
(क) साहस की ज़िदगी जीने वालों में ऐसी कौन-सी विशेषताएँ हैं, जिनके कारण उन्हें अन्य लोगों से अलग किया जा सकता है?
(ख) “ज़िदगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम झेलना है।”-कैसे? स्पष्ट कीजिए।
(ग) कैसा आदमी सुखी नहीं हो सकता और क्यों?
(घ) आशय स्पष्ट कीजिए- “ज़िदगी से, अंत में हम उतना ही पाते हैं, जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं।”
(ङ) जीवन में साहस क्यों अपेक्षित है ?
(च) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(छ) गद्यांश में क्या संदेश दिया गया है? संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए।
(ज) मिश्र वाक्य में बदलिए-जनमत की उपेक्षा कर जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है।
(झ) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए-सकुशल, व्यावहारिक।
(अ) विशेषण बनाइए-साहस, क्रांति।
उत्तर :
(क) साहस की ज़िदगी जीने वालों की वे विशेषताएँ, जो उन्हें दूसरों से अलग करती हैं :
- ऐसे लोग निडर और बेखौफ़ होते हैं।
- वे लोगों द्वारा की गई आलोचना की परवाह नहीं करते।
- वे जनमत की उपेक्षा करते हैं।
- वे अपने लक्ष्य का निर्धारण स्वयं करते हैं।
(ख) बिना जोखिम उठाए ज़िंदगी को सही तरीके से नहीं जिया जा सकता। सही तरह से जीते समय नाना प्रकार की परेशानियाँ और खतरे आते हैं, जिन पर विजय पाकर हम आगे बढ़ते हैं। इन खतरों और परेशानियों का सामना करने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए।
(ग) जो लोग ज़िदगी में आने वाले खतरों और परेशानियों की चुनौतियों को न स्वीकारते हैं और न साहसपूर्वक उनका मुकाबला करते हैं, ऐसे लोग ज़िदगी में सुखी नहीं हो सकते, क्योंकि ज़िदगी में ऐसी परेशानियाँ आती रहती हैं। इन पर विजय पाए बिना हम ज़िदरी को सुखमय तरीके से नहीं जी सकते।
(घ) जिंदगी से प्रतिफलस्वरूप कुछ पाने के लिए हमें साहस, चुनौतियों को स्वीकार करके उनका सामना करने जैसा कुछ लगाना पड़ता है। यह सब हम जितना अधिक मात्रा में लगाएँगे, उतनी ही अधिक मात्रा में ज़िदगी भी हमें वापस करेगी।
(ङ) मनुष्य अपने जीवन में जो सपने पालता है, उनका आनंद उठाने के लिए, उनको साकार करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। जीवन में आने वाली कठिनाइयों को झेलने और ज़िदगी को सही तरह से जीने के लिए साहस आवश्यक है।
(च) शीर्षक : साहस की ज़िदगी।
(छ) गद्यांश में निहित संदेश यह है कि व्यक्ति को साहसी बनना चाहिए। उसे लोगों की आलोचनाओं की चिता किए बिना साहसपूर्वक जीना चाहिए तथा जोखिम उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
(ज) जो जनमत की उपेक्षा करके जीता है, वही दुनिया की असली ताकत होता है।
(झ) सकुशल : उपसर्ग-‘स’। व्यावहारिक : प्रत्यय-‘ इक’।
(ञ) विशेषण : साहस-साहसी क्रांति-क्रांतिकारी
11. साधारणत: सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र ही समझा जाता है, परंतु गांधी जी ने व्यापक अर्थ में ‘सत्य’ शब्द का प्रयोग किया है। विचार में, वाणी में और आचार में उसका होना ही सत्य माना है। उनके विचार में जो सत्य को इस विशाल अर्थ में समझ ले उसके लिए जगत् में और कुछ जानना शेष नहीं रहता। परंतु इस सत्य को पाया कैसे जाए? गांधी जी ने इस संबंध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है। इसमें घबराने की बात नहीं है। जहाँ शुदुध प्रयत्न, है वहाँ भिन्न जान पड़ने वाले सब सत्य एक ही पेड़ के असंख्य भिन्न दिखाई देने वाले पत्तों के समान हैं। परमेश्वर ही क्या हर आदमी को भिन्न दिखाई नहीं देता? फिर भी हम जानते हैं कि वह एक ही है। पर सत्य नाम ही परमेश्वर का है, अतः जिसे जो सत्य लगे
तदनुसार वह बरते तो उसमें दोष नहीं। इतना ही नहीं, बल्कि वही कर्तव्य है। फिर उसमें भूल होगी भी तो सुधर जाएगी, क्योंकि सत्य की खोज के साथ तपश्चर्या होती है अर्थात् आत्मकष्ट-सहन की बात होती है, उसके पीछे मर मिटना होता है, अत: उसमें स्वार्थ की तो गंध तक भी नहीं होती। ऐसी नि:स्वार्थ खोज में लगा हुआ आज तक कोई अंत-पर्यंत गलत रास्ते पर नहीं गया। भटकते ही वह ठोकर खाता है और सीधे रास्ते पर चलने लगता है। ऐसे ही अहिंसा वह स्थूल वस्तु नहीं है जो आज हमारी दृष्टि के सामने है। किसी को न मारना, इतना तो है ही। कुविचार-मात्र हिंसा है। उतावली हिंसा है। मिथ्या भाषण हिंसा है। द्वेष हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है। जगत् के लिए जो आवश्यक वस्तु है, उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है।
इतना हमें समझ लेना चाहिए कि अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है। अहिंसा और सत्य ऐसे ओत-प्रोत हैं जैसे सिक्के के दोनों रुख़। इसमें किसे उलटा कहें किसे सीधा। फिर भी अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य मानना चाहिए। साधन अपने हाथ की बात है। हमारे मार्ग में चाहे जो भी संकट आए, चाहे जितनी हार होती दिखाई दे- हमें विश्वास रखना चाहिए कि जो सत्य है वही एक परमेश्वर है। जिसके साक्षात्कार का एक ही मार्ग है और एक ही साधन है-वह है अहिंसा, उसे कभी न छोड़ेंगे।
प्रश्न :
(क) गांधी जी के अनुसार सत्य का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
(ख) “जो एक के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है।” इस बात को गांधी जी ने कैसे समझाया है?2
(ग) गांधी जी ने किन बातों एवं व्यवहारों को हिंसा माना है?
(घ) सत्य की खोज में लगा हुआ व्यक्ति गलत रास्ते पर क्यों नहीं जा सकता?
(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए :
“अहिंसा और सत्य ऐसे ओत-प्रोत हैं जैसे सिक्के के दोनों रुख़।”
(च) अहिंसा सत्य की प्राप्ति में साधन कैसे है?
(छ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ज) “उतावली हिंसा है। मिथ्या भाषण हिंसा है। द्वेष हिंसा है।”
उपर्युक्त वाक्यों को सरल वाक्य में बदलिए।
(झ) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए-नि:स्वार्थ, व्यापक।
उत्तर :
(क) गांधी जी के अनुसार सत्य का स्वरूप बहुत व्यापक है। वे वाणी में, विचार में और आचार में उसका होना ही सत्य मानते हैं। जो व्यक्ति सत्य के इस विशाल अर्थ को समझ लेता है, वह संसार में सब कुछ जान जाता है।
(ख) इस बात को समझाते हुए गांधी जी ने कहा है कि जहाँ शुद्ध प्रयत्त है, वहाँ अलग-अलग जान पड़ने वाले सभी सत्य एक ही पेड़ के असंख्य भिन्न दिखने वाले पत्तों के समान हैं। परमेश्वर भी तो हर आदमी को भिन्न दिखाई देता है।
(ग) सामान्यतया किसी को न मारना ही अहिंसा है, परंतु गांधी जी के अनुसार कुविचार-मात्र हिंसा है। उतावली हिंसा है। मिथ्या भाषण और द्वेष-भाव रखना हिंसा है। किसी का बुरा चाहना और जगत् के लिए आवश्यक वस्तु पर कब्ज़ा जमाना भी हिंसा है।
(घ) सत्य की खोज में लगा व्यक्ति गलत रास्ते पर इसलिए नहीं जा सकता, क्योंकि वह नि:स्वार्थ भाव से काम करता है। वह आत्मकष्ट सहता हुआ पथ पर जाता है। जैसे ही वह रास्ते से भटकता है, ठोकर लगते ही सीधे रास्ते पर चलने लगता है।
(ङ) आशय यह है कि सत्य और अहिंसा एक-दूसरे के पूरक तथा परस्पर अभिन्न रूप से जुड़े हैं। दोनों इतने ओत-प्रोत हैं कि किसी को न उल्टा कहा जा सकता है और न सीधा। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
(च) सत्य की प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य है, जिसे अहिंसा के मार्ग पर चलकर पाया जा सकता है। अहिंसा के बिना सत्य की प्राप्ति असंभव है। अहिंसा और सत्य एक-दूसरे के पूरक हैं। सत्य की प्राप्ति में अहिंसा वह साधन हैं, जो मनुष्य के अपने हाथ में होती है। इस प्रकार यह सत्य प्राप्ति का साधन है।
(छ) शीर्षक : सत्य और अहिंसा।
(ज) उतावली, मिथ्या भाषण और द्वेष-भाव हिंसा है।
(झ) नि:स्वार्थ : उपसर्ग-निः।
व्यापक : प्रत्यय-अक।
12. विश्व के प्राय: सभी धर्मों में अहिंसा के महत्व पर बहुत प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांगयोग’ के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग ‘यम’ के अंतर्गत ‘अहिंसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘गीता’ में भी अहिंसा के महत्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है।
अहिसा मात्र हिसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही अहिसात्मक जीवन-शैली है। अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है, वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है।
परिणामतः दुसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं; मेरा किसी से भी वैर नहीं है, ऐसी भावना से प्रेरित होकर हम व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने का प्रयत्न करें तो फिर अहकारवश उत्पन्न हुआ क्रोध या द्वेष समाप्त हो जाएगा और तब अपराधी के प्रति भी हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अह भूमिका निभाता है।
हमें ईर्ष्या तथा द्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए।
प्रश्न :
(क) अहिंसात्मक जीवन-शैली से लेखक का क्या तात्पर्य है?
(ख) कैसी जीवन-शैली अनुकरणीय हो सकती है?
(ग) “जियो और जीने दो’ की बात किसने कही? इसका आशय स्पष्ट कीजिए।
(घ) अहिंसा में क्रोध और द्वेष को छोड़ने की बात पर लेखक ने क्यों बल दिया है?
(ङ) क्षमा का भाव पारिवारिक जीवन में क्या परिवर्तन ला सकता है?
(च) ‘क्रोध अंधा बना देता है’-का आशय स्पष्ट कीजिए और बताइए कि लेखक ने इसे हिसा की प्रवृत्ति का प्रारंभिक रूप क्यों कहा है?
(छ) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए : अनुचित, पारस्परिक।
(ज) विशेषण बनाइए : उन्नति, क्षमा।
(झ) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(क) अहिंसात्मक जीवन-शैली से लेखक का तात्पर्य है-किसी जीव का संकल्पपूर्वक वध न करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख न पहुँचाना। ऐसी जीवन-शैली जीने का नाम ही अहिंसात्मक जीवन-शैली है।
(ख) जिस जीवन-शैली में ईष्व्या, द्वेष और लोभ की प्रवृत्ति का भाव न हो तथा व्यक्ति संयमित जीवन जीता हो और क्षमा तथा अहिंसा की भावना को सदैव ध्यान में रखकर जीवन जिया जाए, वही जीवन-शैली अनुकरणीय हो सकती है।
(ग) ‘जियो और जीने दो’ की बात भगवान महावीर ने कही। इसका आशय यह है कि स्वयं भी अहिंसा का मार्ग अपनाकर जियो और अन्य प्राणियों के प्रति अहिंसा अपनाकर उन्हें कष्ट मत पहुँचाओ तथा उनके जीवन में हस्तक्षेप किए बिना उन्हें भी जीने दो।
(घ) अहिंसा में क्रोध और द्वेष को छोड़ने की बात पर लेखक ने इसलिए बल दिया है, क्योंकि क्रोध के वशीभूत होकर मनुष्य अपना विवेक खो बैठता है जो दूसरों को हानि पहुँचाने का कारण बन जाता है, जबकि मित्रवत व्यवहार करने पर क्रोध एवं द्वेष अपने-आप समाप्त हो जाते हैं।
(ङ) क्षमा का भाव हमारे पारिवारिक जीवन में सामंजस्य स्थापित करता है तथा पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।
(च) क्रोध की मनसस्थिति में व्यक्ति उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता है। इससे व्यक्ति का व्यवहार अंधों जैसा हो जाता है। क्रोध व्यक्ति को अनुचित कार्य करने के लिए प्रेरित करता है जो दूसरों के दुख एवं पीड़ा का कारण बनता है। यही से हिंसा की शुरूआत होती है, इसलिए इसे हिसक प्रवृत्ति का प्रारभिक रूप बताया है।
(छ) अनुच्चित : उपसर्ग-अन। पारस्परिक : प्रत्यय-इक।
(ज) विशेषणः उन्नति-उन्नतिशील। क्षमा-क्षमावान।
(झ) शीर्षक : जीवन में अहिंसा की महत्ता।
13. आधुनिक युग में व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों के कारण सौंदर्य को वस्तु या दृश्य में नहीं, देखने वाले की दृष्टि और उसकी सौंदर्य-चेतना में अवस्थित माना जाता है। अतः आज का कवि असुंदर में सुंदर, लघु में विराट या अचेतन में चेतन के दर्शन करता है। जीवन और जगत् का कोई भी विषय उसके लिए असुंदर नहीं है। वह मानवीय भावनाओं या काल्पनिक संसार पर ही नहीं, ठोस भौतिक-प्राकृतिक पदार्थों एवं मानव के साथ-साथ चींटी, छिपकली, चूह, बिल्ली जैसे विषयों पर भी सहज भाव से रचना करता है। उसे तो कदम-कदम पर विषयों के चौराहे मिलते हैं और वह उनपर महाकाव्य रचने का आमंत्रण पाता है।
कविता यद्यपि उपदेश देने के लिए नहीं लिखी जाती, तथापि उसका एक उद्देश्य हमारे भावों-विचारों को उदात्त बनाना, उनमें परिष्कार कर उन्हें जनोपयोगी बनाना भी है। जीवन के घात-प्रतिघातों और मन की विविध उलझनों को कवि इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि पाठक को अनायास ही कुटिलता, क्रूरता, दंभ, नीचता जैसे दुर्गुणों से वितृष्णा हो जाती है और सदगुणों के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। भावों और विचारों की उच्चता से काव्य में भी गरिमा आती है, क्योंकि सद्विचारों की अभिव्यक्ति स्वतः काव्य को ऊँचा उठा देती है। इसीलिए बहुधा महापुरुषों, जननायकों के जीवन को आधार बनाकर काव्य-रचना की जाती है। दूसरी ओर मूक प्रकृति की शोभा या अबोध शिशु के सौंदर्य की प्रशंसा में लिखी गई पंक्तियाँ भी पाठक के मन में यह प्रभाव छोड़ जाती हैं कि सरल-सहज जीवन भी आकर्षक और आनंददायक हो सकता है। कविता की प्रेरणाप्रद पंक्तियाँ निराशा में आशा का संचार कर सकती हैं और डूबते का सहारा बन सकती हैं। यही कारण है कि कबीर, रहीम, तुलसी आदि की अनेक पंक्तियाँ सूक्ति बन गई हैं, जिनका सार्थक प्रयोग अनपढ़ ग्रामीण भी करते हैं।
प्रश्न :
(क) सौंदर्य की स्थिति कहाँ मानी जाती है?
(ख) आज का कवि कैसे विषयों पर रचना करता है?
(ग) आशय स्पष्ट कीजिए : ‘उसे तो कदम-कदम पर विषयों के चौराहे मिलते हैं।’
(घ) कविता का उद्देश्य क्या है?
(ङ) कविता किनके प्रति कैसे वितृष्णा जगाती है?
(च) महापुरुषों को काव्य का विषय क्यों बनाया जाता है?
(छ) कुछ कवियों की काव्य-पंक्तियाँ सूक्तियों के रूप में क्यों प्रयुक्त होती हैं?
(ज) कविता में गरिमा कैसे आती है?
(झ) कविता से प्राप्त प्रेरणा हममें क्या परिवर्तन ला सकती है?
(ञ) इस गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ट) निम्नलिखित में उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए :
अनायास, व्यक्तिवादी।
(ठ) निम्नलिखित शब्दों के पर्याय गद्यांश से ढूँढ़र लिखिए :
घमंड, वाचाल।
(ड) ‘कविता की प्रेरणाप्रद पंक्तियाँ निराशा में आशा का संचार कर सकती हैं।’ इस वाक्य को मिश्र वाक्य में बदलकर लिखिए।
उत्तर :
(क) वर्तमान युग में व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों के कारण सौंदर्य की स्थिति वस्तु या दृश्य में न मानकर देखने वाले की दृष्टि और उसकी सौंदर्य-चेतना में मानी जाती है।
(ख) आज का कवि असुंदर में सुंदर, लघु में विराट, अचेतन में चेतन के दर्शन करता है। वह मानवीय भावनाओं, काल्पनिक संसार, भौतिक प्राकृतिक पदार्थों एवं मानव के साथ-साथ चींटी, छिपकली, चूहे-बिल्ली जैसे विषयों पर भी रचना करता है। इस तरह कवि की रचना का विषय-क्षेत्र अब बहुत विस्तृत हो गया है।
(ग) ‘उसे तो कदम-कदम पर विषयों के चौराहे मिलते हैं’ का आशय यह है कि आज रचनाकारों के पास विषय की अधिकता है। उसे अपनी रचना के लिए चारों ओर विषय दिखाई देते हैं। रचना के लिए विषयों की अधिकता के कारण उसके सामने चुनाव की समस्या हो रही है।
(घ) कविता का एक उद्देश्य हमारे भावों-विचारों को उदात्त बनाना तथा उसमें परिष्कार करके जनोपयोगी बनाना भी है।
(ङ) कवि जीवन के घातों-प्रतिघातों और मन की विविध उलझनों को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि पाठक के मन में अनायास ही कुटिलता, क्रूरता, दंभ, नीचता जैसे दुर्गुणों से वितृष्णा होकर सद्युणों के प्रति आकर्षण बढ़ता है। इस प्रकार कविता कुटिलता, क्रूरता, दंभ, नीचता आदि के प्रति वितृष्णा जगाती है।
(च) महापुरुषों को काव्य का विषय इसलिए बनाया जाता है, क्योंकि उनके भावों-विचारों की उच्चता से काव्य में भी गरिमा आ जाती है। उनके सद्विचारों की अभिव्यक्ति स्वत: ही काव्य को ऊँचा बना देती है। इसके अलावा पाठक को अनायास ही कुटिलता, क्रूरता, दंभ, नीचता जैसे दुगुर्णों से घृणा होने लगती है। सद्युणों के प्रति उसका झुकाव बढ़ता जाता है।
(छ) कुछ कवियों की काव्य-पंक्तियाँ सूक्तियों के रूप में इसलिए प्रयुक्त होती हैं, क्योंकि वे पाठक के मन पर यह प्रभाव छोड़ जाती हैं कि सरल-सहज जीवन भी आकर्षक और आनंददायक हो सकता है। इसके अलावा कविता की प्रेरणादायी पंक्तियाँ मनुष्य के निराशा में डूबे मन में आशा का संचार करके डूबते को तिनके का सहारा देने का काम करती हैं।
(ज) महापुरुषों के भावों-विचारों की उच्चता से कविता में गरिमा आ जाती है।
(झ) कविता से प्राप्त प्रेरणा हमारे अंदर निराशा और आशा का संचार करती है। यह डूबते के लिए तिनके के सहारे के समान होती है। इसका सहारा पाकर हम आगे बढ़ने की शक्ति पाते हैं।
(ञ) शीर्षक : कविता और हमारा जीवन।
(ट) अनायास : उपसर्ग-अन। ब्यक्तिवादी : प्रत्यय-वादी।
(ठ) पर्याय : घमंड-द्भ, वाचाल-बकवादी
(ड) मिश्र वाक्य : कविता की वे पंक्तियाँ, जो प्रेरणाप्रद होती हैं, निराशा में आशा का संचार कर सकती हैं।
14. कुछ हद तक राजनीतिज्ञ और पत्रकार बहुत-कुछ समान होते है। दोनों ही बहुत ज्यादा बोलते हैं, बहुत ज़्यादा लिखते हैं और बहुत ज्यादा उपदेश देते हैं और दोनों को ही अपने काम के लिए किसी ख़ास योग्यता की ज़रूरत नही होती। मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि किसी भी राजनीतिज्ञ या पत्रकार में कोई योग्यता नहीं होती। मैं यह कहना चाहता हूँ कि आम व्यवसायों; जैसे-डॉक्टर, इंज़ीनियरिंग या किसी ऐसे ही पेशे के लिए दीर्घकालीन प्रशिक्षण लेना पड़ता है। आदमी को कोई भी पेशा करने के लिए डिग्री या डिप्लोमा हासिल करना होता है, तभी वह अपना पेशा कर सकता है। लेकिन पत्रकारों और राजनीतिज्ञों के लिए ऐसा कुछ नही है।
उनमें अगर अपने-आप को अभिव्यक्त करने की थोड़ी-सी भी क्षमता है तो काम चल जाता है। उसकी अभिव्यक्ति में कुछ सार है या नहीं, इसका कोई मतलब नहीं। कई बार तो सिर्फ इतने से ही काम चल जाता है कि उसे गाली देनी आती है, जिस तरह से कुछ लोर्गों को पैसा पैदा करना आता है। यह बड़ी आश्चर्यजनक चीज़ है। मैं इसे कभी नहीं समझ पाया। कुछ लोगों को कुछ अप्रिय चीज़ों को पकड़कर उनका डिंढ्ढोरा पीटने की कला आती है और इससे वे अपने पेशे में सफल होते हैं और पैसा भी कमा लेते हैं।
यह तो ठीक है कि अप्रिय चीज़ों पर परदा नही डालना चाहिए, लेकिन इस बारे में कुछ-न-कुछ संतुलन रखा जाना चाहिए। अगर कोई आदमी हमेशा ही गालियों या ऐसी ही दूसरी चीज़ों के बारे में बात करता रहे तो यह शोभा नहीं देगा। इससे आदमी को जीवन और परंपराओं की एक असंतुलित दृष्टि प्राप्त होती है। कुछ लोगों को अप्रिय बातें करने में ही मज़ा नहीं आता, बल्कि भड़काने वाली बातें भी उन्हें आती है, जिनसे उनके अखबार और ज़्यादा लोग खरीदें।
प्रश्न :
(क) राजनीतिज्ञों और पत्रकारों को समान क्यों कहा गया है?
(ख) लेखक को अपने कथन पर स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
(ग) आप कैसे कह सकते हैं कि राजनीतिज्ञ या पत्रकार को विशेष शिक्षा की आवश्यकता नहीं? 2
(घ) कैसे पत्रकारों को संतुलन रखे जाने की राय दी गई है और क्यों?
(ङ) कुछ पत्रकार अखबार की बिक्री बढ़ाने के लिए क्या करते हैं?
(च) लेखक क्या नहीं समझ पाया?
(छ) इस अनुच्छेद के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज) गद्यांश में प्रयुक्त एक मुहावरा चुनकर वाक्य-प्रयोग कीजिए।
(झ) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए-असंतुलित अथवा उत्तेजित।
(ञ) सरल वाक्य में बदलिए :
अगर अपने-आप को अभिव्यक्त करने की थोड़ी-सी भी क्षमता है, तो काम चल जाता है।
उत्तर :
(क) राजनीतिज्ञ और पत्रकारों को एक समान इसलिए कहा गया है, क्योंक दोनों के कार्य और कार्य-संबंधी योगयताओं में समानता होती है। दोनों ही ज़्यादा बोलते हैं, बहुत अधिक लिखते हैं, बहुत ज़यादा उपदेश देते हैं। दोनों का ही काम बिना किसी विशेष योग्यता या प्रशिक्षण के चल जाता है।
(ख) लेखक को अपने कथन पर स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता इसलिए पड़ी, ताकि लोग यह न मान बैठें कि लेखक राजनीतिज्ञ और पत्रकारों को योग्यताहीन मानता है। लेखक केवल इतना ही कहना चाहता है कि इनको अपने व्यवसाय के लिए डॉक्टर या इंज़ीनियर की तरह दीर्घकालिक प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती।
(ग) हम देखते हैं कि अनपढ़ या बहुत कम पढ़े-लिखे लोग, जिनके पास न ढंग की अभिव्यक्ति-क्षमता होती है और न कुछ विशेष गुण, वे भी राजनीतिज्ञ बन जाते हैं। इसी प्रकार पहले लोग प्रशिक्षण के बिना ही पत्रकार बन जाते थे, पर अब पत्रकारिता के लिए प्रशिक्षण शुरू हो गया है।
(घ) जिन पत्रकारों का विश्वास अप्रिय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने में रहता है, उन्हें इस संबंध में कुछ-न-कुछ संतुलन अवश्य रखना चाहिए, क्योंक इससे लोगों में नकारात्मक दृष्टि उत्पन्न होती है जो समाज के लिए घातक होती है। ऐसे पत्रकारों को जीवन और परंपराओं में संतुलन बनाए रखना चाहिए।
(ङ) कुछ पत्रकार अख़बार की बिक्री बढ़ाने के लिए अपने अख़बारों में ऐसी बातें छापते हैं, जो समाज और लोगों के लिए अप्रिय तथा भड़काऊ होती हैं। ऐसी घटनाओं के प्रति लोगों के मन में जिज्ञासा बढ़ती है। वे इन्हें पढ़ने के लिए अखबार खरीदते हैं, जिससे उनकी बिक्री बढ़ जाती है।
(च) लेखक यह नहीं समझ पाया कि कुछ राजनीतिज्ञों की अभिव्यक्ति में सार न होने पर भी वे सफल कैसे हो जाते हैं। हाँ, केवल गालियाँ देने से ही उनका काम चल जाता है।
(छ) शीर्षक : राजनीतिज्ञ और पत्रकार।
(ज) ढिंढोरा पीटना-चुनाव के समय कुछ राजनेता दूसरों की उपलब्धियों को अपना कराया काम बताकर झूठा ढिंदोरा पीटते हैं।
(झ) असंतुलित : उपसर्ग-अ, प्रत्यय-इत।
उत्तेजित : उपसर्ग-उत्, प्रत्यय-इत।
(ञ) अभिव्यक्त करने की थोड़ी-सी क्षमता से भी आपका काम चल जाता है।
15. सुचारित्र्य के दो सशक्त स्तंभ हैं-प्रथम सुसंस्कार और दुवितीय सत्संगति। सुसंस्कार भी पूर्व जीवन की सत्संगति व सत्कर्मों की अर्जित संपत्ति है और सत्संगति वर्तमान जीवन की दुर्लभ विभूति है। जिस प्रकार कुधातु की कठोरता और कालिख पारस के स्पर्श मात्र से कोमलता और कमनीयता में बदल जाती है, ठीक उसी प्रकार कुमार्गी का कालुष्य सत्संगति से स्वर्णिम आभा में परिवर्तित हो जाता है। सतत सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। परिणामतः सुचरित्र का निर्माण होता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-‘महाकवि टैगोर के पास बैठने मात्र से ऐसा प्रतीत होता था मानो भीतर का देवता जाग गया हो।’
वस्तुतः चरित्र से ही जीवन की सार्थकता है। चरित्रवान् व्यक्ति समाज की शोभा है, शक्ति है। सुचारित्य से व्यक्ति ही नहीं, समाज भी सुवासित होता है और इस सुवास से राष्ट्र यशस्वी बनता है। विदुर जी की उक्ति अक्षरशः सत्य है कि सुचरित्र के बीज हमें भले ही वंश-परंपरा से प्राप्त हो सकते हैं, पर चरित्र-निर्माण व्यक्ति के अपने बलबूते पर निर्भर है। आनुर्वशिक परंपरा, परिवेश और परिस्थिति उसे केवल प्रेरणा दे सकते हैं, पर उसका अर्जन नहीं कर सकते; वह व्यक्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त नही होता।
व्यक्ति-विशेष के शिथिल-चरित्र होने से पूरे राष्ट्र पर चरित्र-संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक घटक है। अनेक व्यक्तियों से मिलकर एक परिवार, अनेक परिवारों से एक कुल, अनेक कुलों से एक जाति या समाज और अनेकानेक जातियों और समाज-समुदायों से मिलकर ही एक राष्ट्र बनता है। आज जब लोग राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण की बात करते हैं, तब वे स्वयं उस राष्ट्र के एक आचरक घटक हैं-इस बात को विस्मृत कर देते हैं।
प्रश्न :
(क) सत्संगति कुमार्गी को कैसे सुधारती है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
(ख) चरित्र के बारे में विदुर के क्या विचार हैं?
(ग) व्यक्ति-विशेष का चरित्र समूचे राष्ट्र को कैसे प्रभावित करता है?
(घ) व्यक्ति के चरित्र-निर्माण में किस-किस का योगदान होता है?
(ङ) संगति के संदर्भ में पारस के उल्लेख से लेखक क्या प्रतिपादित करना चाहता है?
(च) व्यक्ति सुसंस्कृत कैसे बनता है? स्पष्ट कीजिए।
(छ) आचरण उच्च बनाने के लिए व्यक्ति को क्या प्रयास करना चाहिए?
(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(इ) ‘सु’ और ‘कु’ उपसर्गों से एक-एक शब्द बनाइए।
(ञ) ‘चरित्रवान् और ‘परिवेश’ शब्दों का निर्माण कैसे हुआ है?
उत्तर :
(क) सत्संगति से कुमार्गी के विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं। जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है, उसी प्रकार कुमार्गी भी सत्संगति से सुधर जाता है।
(ख) चरित्र के बारे में विदुर जी का विचार यह है कि सुचरित्र के बीज भले ही हमें वंश-परंपरा से प्राप्त हो सकते हैं, पर चरित्र-निर्माण व्यक्ति के अपने बलबूते पर निर्भर है। आनुवंशिक परंपरा, परिवेश और परिस्थिति उसे प्रेरित कर सकते हैं, पर उसका अर्जन नहीं कर सकते।
(ग) किसी व्यक्ति-विशेष का शिथिल-चरित्र होने पर पूर राष्ट्र पर संकट उपस्थिति हो जाता है, क्योंक कोई भी व्यक्ति एक होकर भी अलग नहीं रहता हैं। वह समाज के साथ-साथ राष्ट्र का घटक होता है। उसके आचार, विचार और कायों से राष्ट्र प्रभावित होता है। इस तरह व्यक्ति का चरित्र पूरे राष्ट्र को प्रभावित करता है।
(घ) किसी व्यक्ति के चरित्र के निर्माण के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं होता है। मनुष्य के चरित्र पर उसके परिवार, कुल, जाति, समाज आदि का मिला-जुला असर होता है। उसके चरित्र पर मित्रों और निकट संबोधियों का प्रभाव भी पड़ता है। उस प्रकार व्यक्ति के चरित्र का निर्माण उसके घर-परिवार के अलावा उसका परिवेश, समुदाय, समाज और राष्ट्र मिलाकर करता है।
(ङ) संगति के संद्र में पारस का उल्लेख करके लेखक यह प्रतिपादित करना चाहता है कि संगति व्यक्ति को पूरी तरह प्रभावित करती है। कुसंगति से व्यक्ति बिगड़ता है तो सुसंगति से व्यक्ति सुधरता है। सत्संगति उस पारस के समान होती है जो व्यक्ति को खरा सोना बना सकती है। अर्थात् उसे उत्तम चरित्र वाला बना सकती है।
(च) अच्छी संगति पाकर व्यक्ति के मन की कलुषता दूर होती है और यह स्वर्णिम आभा में बदल जाती है। सत्संगति के प्रभाव से व्यक्ति के विचार परिमार्जित होते हैं। इससे उसकी बुराइयों का धीरे-धीरे नाश होता है। उसके मन में इन बुराइयों की जगह अच्छाइयों का उद्य होता है और व्यक्ति सुसस्कृत बन जाता है।
(छ) आचरण उच्च बनाने के लिए व्यक्ति को सतत् सत्संगति करना चाहिए।
(ज) शीर्षक : सत्संगति का महत्व।
(झ) उपसर्गयुक्त शब्द : सु-सुलभ, कु-कुख्यात।
(ञ) ‘चरित्र’ शब्द में ‘वान्’ प्रत्यय जोड़ने से चरित्रवान् तथा ‘वेश’ शब्द में ‘परि’ उपसर्ग जोड़ने से परिवेश शब्द का निर्माण हुआ है।
16. भारतीय धर्मनीति के प्रणेता नैतिक मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक थे। उनकी यह धारणा थी कि नैतिक मूल्यों का दृढ़ता से पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं। उन्होंने उँ्चकोटि की जीवन-प्रणाली के निर्माण के लिए वेद की एक ऋचा के आधार पर कहा कि उत्कृष्ट जीवन-प्रणाली मनुष्य की विवेक-बुद्धि से तभी निर्मित होनी संभव है, जब ‘सब लोगों के संकल्प, निश्चय, अभिप्राय समान हों; सबके हृद्य में समानता की भव्य भावना जागरित हो और सब लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल सभी कार्य करें।
चरित्र-निर्माण की जो दिशा नीतिकारों ने निर्धारित की, वह आज भी अपने मूल रूप में मानव के लिए कल्याणकारी है। प्राय: यह देखा जाता है कि चरित्र और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा वाणी, बाहु और उदर को संयत न रखने के कारण होती है। ज्यक्ति इन तीनों पर नियंत्रण रखने में सफल हो जाता है, उसका चरित्र ऊँचा होता है। सभ्यता का विकास आदर्श चरित्र से भी संभव है। जिस समाज में चरित्रवान व्यक्तियों का बाहुल्य है, वह समाज सभ्य होता है और वही उन्नत कहा जाता है। चरित्र मानव-समुदाय की अमूल्य निधि है।
इसके अभाव में व्यक्ति पशुवत् व्यवहार करने लगता है। आहार, निद्रा, भय आद् की वृत्ति सभी जीवों में विद्यमान रहती है, यह आचार अर्थात् चरित्र की ही विशेषता है जो मनुष्य को पशु से अलग कर, उससे ऊँचा उठा मनुष्यत्व प्रदान करती है। सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए भी चरित्र-निर्माण की आवश्यकता है। सामाजिक अनुशासन की भावना व्यक्ति में तभी जाग्रत होती है, जब वह मानव-प्राणियों में ही नहीं, वरन् सभी जीवधारियों में अपनी आत्मा का दर्शन करता है।
प्रश्न :
(क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक क्यों थे?
(ख) चरित्र मानव-जीवन की अमूल्य निधि कैसे है? स्पष्ट कीजिए।
(ग) सामाजिक अनुशासन से क्या तात्पर्य है? यह भावना व्यक्ति में कब जाग्रत होती है?
(घ) प्रस्तुत गद्यांश में किन पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है और क्यों?
(ङ) “विवेक-बुद्धि” का क्या आशय है? यह कब निर्मित हो सकती है?
(च) ‘उत्कृष्ट’ और ‘प्रगति’ शब्दों के विलोम शब्द लिखिए।
(छ) ‘आर्थिक’ और ‘मनुष्यत्व’ शब्दों के प्रत्यय बताइए।
(ज) ‘चरित्र’ और ‘निर्माण’ शब्दों के विशेषण बनाइए।
(झ) ‘संकल्प’ तथा अभिप्राय’ शब्दों के उपसर्ग बताइए।
(ञ) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति इसलिए विशेष जागरूक थे, क्योंकि उनका मानना था कि नैतिक मूल्यों का पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं। उन्हें ज्ञात था कि चरित्र और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा वाणी, बाहु और उदर को सयत न रखने के कारण होती है।
(ख) चरित्र मानव-जीवन की अमूल्य निधि है, क्योंकि चरित्र के अभाव में मनुष्य पशुओं जैसा व्यवहार करने लगता है। यद्यपि भोजन, नींद, भय आदि प्रवृत्तियाँ तो सभी प्राणियों में होती हैं, परंतु चारित्रिक विशेषता के कारण ही मनुष्य पशु से अलग होता है। यह चरित्र ही है जो उसे मनुष्यत्व प्रदान करता है।
(ग) सामाजिक अनुशासन से तात्पर्य है-समाज में अनुशासनपूर्वक अर्थात् समाज द्वारा बनाए नियमों का पालन करते हुए जीवन बिताना। इसके लिए चरित्र-निर्माण आवश्यक है। सामाजिक अनुशासन की भावना व्यक्ति में तब जाग्रत होती है, जब वह मानव-प्राणियों के साथ-साथ अन्य सभी जीवों में अपनी आत्मा के दर्शन करता है।
(घ) प्रस्तुत गद्यांश में अपनी वाणी, बाहुबल तथा पेट अर्थात् भूख पर नियंत्रण करने की बात कही गई है। इन पर नियंत्रण करने से व्यक्ति का चरित्र बहुत ऊँचा हो जाता है। इसी से सभ्यता का विकास होता है तथा समाज की उन्नति होती है।
(ङ) ‘बुद्धि-विवेक’ का आशय है-सही-गलत का निर्णय करने की क्षमता। यह क्षमता तभी निर्मित होती है, जब लोगों के संकल्प, निश्चय, अभिप्राय समान हों, सभी के मन में समानता की भावना पैदा हो और सभी लोग आपस में एक-दूसरे का सहयोग करते हुए काम करें।
(च) विलोम : उत्कृष्ट × निकृष्ट।
प्रगति × अवनति।
(छ) आर्थिक : प्रत्यय – ‘इक’
मनुष्यत्व : प्रत्यय – ‘त्व’
(ज) विशेषण : चरित्र – चारित्रिक।
निर्माण – निर्मित।
(इ) संकल्प : उपसर्ग – ‘सम्’।
अभिप्राय : उपपसर्ग – अभि’।
(ञ) शीर्षक : जीवन में चरित्र की महत्ता।?
17. वर्तमान सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीर दास भारतीय धर्मनिरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युग-द्रष्टा थे। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हुद्य की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्मनिरपेक्षता के आधार को युग-युगांतर के लिए अमरता प्रदान की। कबीर ने धर्म को मानव-धर्म के रूप में देखा था।
सत्य के समर्थक कबीर हदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-रचना की। वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मसि कागद छुयो नहिं’ की दशां में जीकर सत्य, ईश्वर-विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठक पढ़ाकर अनुभूति मूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं।
स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं के आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दो में जो बातें कहीं, उनसे समाज की आँखें फटी की फटी रह गई और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को बाध्य हो उठी। देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्धिक एवं सांस्कृति सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत संत कबीर ने किया। उन्होंने बाँह उठाकर बलपूर्वक कहा –
कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।।
प्रश्न :
(क) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) आज संत-साहित्य को उपयोगी क्यों माना गया है?
(ग) संत-शिरोमणि किसे माना गया है और क्यों?
(घ) धर्म के प्रति कबीर का दृष्टिकोण कैसा था?
(ङ) किस वाक्य से प्रतीत होता है कि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, कितु उन्होंने अपने अनुभव से महान जीवन मूल्यों का ज्ञान फैलाया था?
(च) सामान्य जनता कबीर की वाणी को मानने को ब्यों बाध्य हो गई?
(छ) अपने जीवन के माध्यम से कबीर ने किन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया?
(ज) कबीर ने अपनी ‘बाँह उठाकर’ जो कुछ कहा उसे अपने शब्दों में समझाइए।
(ङ) काव्यांश से कोई दो मुहावरे चुनकर उनका वाक्य प्रयोग कीजिए।
(ञ) ‘सांप्रदायिकता’ शब्द से एक उपसर्ग और एक प्रत्यय चुनकर लिखिए।
उत्तर :
(क) शीर्षक : संत-साहित्य की उपादेयता।
(ख) आज संत-साहित्य को इसलिए उपयोगी माना गया है, क्योंकि उसकी रचना लोक-कल्याण की कामना से प्ररित होकर की गई थी। उसमें लोक-कल्याण की भावना निहित है।
(ग) कबीरदास को संत शिरोमणि कहा गया है, क्योंकि वे सभी धर्मों को एक समान समझकर उनका आदर करते थे और सभी धर्मों को समान मानने की सीख देते थे।
(घ) धर्म के प्रति कबीर का दृष्टिकोण अत्यंत सहिष्णु और उदार था।
(ङ) उक्त भाव प्रकट करने वाला वाक्य है-वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मसि कागद छुयो नहिं’ की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर-विश्वास, अहिंसा, धर्मनिरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूतिमूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे।
(च) कबीर ने समाज में फैली बुराइयों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया। इन बुराइयों को खुद कबीर ने देखा-सुना था, इसलिए वे उन पर सटीक प्रहार कर सके। इससे जनता को उन बुराइयों से लड़ने की ताकत मिली और वह कबीर के विचार मानने पर बाध्य हो गई।
(ख) अपने जीवन के माध्यम से कबीर ने देश में फैली सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कारिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया।
(ज) कबीर समाज के लोगों का आह्वान करते हुए कह रहे थे कि मैंने समाज की बुराइयों को नष्ट करने का बीड़ा उठा लिया है। जो इन्हें नष्ट करने की इच्छा रखते हैं, वे हमारे साथ आ जाएँ।
(झ) पाठ पढ़ाना-अब कुछ देशों को धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने का समय आ गया है।
धज्जियाँ उड़ाना-कश्मीर पर पाकिस्तान के दावों की संयुक्त राष्ट्र संघ में धज्जियाँ उड़ा दी गईं।
18. मनुष्य पशु से किस बात में भिन्न है? आहार-निद्रा आदि पशु-सुलभ स्वभाव उसके ठीक वैसे ही हैं, जैसे अन्य प्रापियों में। लेकिन वह फिर भी पशु से भिन्न है। उसमें संयम है, दूसरे के सुख-दुख के प्रति संवेदना है, श्रद्धा है, तप है, त्याग है। ये मनुष्य के स्वयं के उद्भावित बंधन हैं। इसलिए मनुष्य झगड़े-टंटे को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्से में आकर चढ़ दौड़ाने वाले अविवेकी को बुरा समझता है तथा वचन, मन एवं शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है। वह किसी भी जाति या वर्ण या समुदाय का धर्म नहीं है। यह मनुष्यमात्र का धर्म है। महाभारत में इसीलिए निवेंर भाव, सत्य और अक्रोध को सब धर्मो का सामान्य धर्म कहा है।
मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा? बड़े-बड़े नेता कहते है-वस्तुओं की कमी है, और मशीन बैठाओ, और उत्पाद्न बढ़ाओ, और धन की वृद्धि करो, और बाहय उपकरणों की ताकत बढ़ाओ। एक महात्मा था। उसने कहा था-बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो, आत्म-तोषण की बात सोचो, काम करने की बात सोचो। उसने कहा-प्रेम ही बड़ी चीज़ है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छृंखलता मनुष्य की नहीं, पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बंधन मनुष्य का स्वभाव है।
मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, सेवा में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है। यही देह-धारण का सत्य भी है।
प्रश्न :
(क) ‘स्व’ का बंधन-का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
(ख) मनुष्य को किन बातों में पशु के समान कहा गया है? पशु से वह भिन्न कब हो पाता है?
(ग) ‘बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो’-कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(घ) मनुष्य की चरितार्थता के बारे में लेखक के मन्तव्य को स्पष्ट कीजिए।
(ङ) महात्मा ने कहा प्रेम ही बड़ी चीज़ है “-कैसे? दो तर्क देकर समझाइए।
(च) प्रस्तुत गद्यांश को एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(छ) वास्तविक धर्म क्या माना गया है? क्यों?
(ज) उपसर्ग व प्रत्यय अलग करके मूल शब्द के साथ लिखिए :
निर्वैर, चरितार्थता।
(झ) प्रस्तुत वाक्य को सरल वाक्य में बदलिए :
‘प्रेम ही बड़ी चीज़ है, क्योंकि वह हमारे भीतर है।’
उत्तर :
(क) ‘स्व’ का बंधन-का अभिप्राय है-‘स्व’ अर्थात् अपना बंधन। वे बंधन जो मनुष्य को उच्छुंखल होने से रोकते हैं और जिनमें बैंधकर वह सभ्य व्यक्ति जैसा आचरण करता है। क्रोध न करना, दूसरो के कल्याण की बात सोचना तथा कष्ट सहना आदि स्व का बंधन है।
(ख) आहार की आवश्यकता, नींद लेना, घूमना-फिरना जैसी सामान्य आदतों में मनुष्य को पशु के समान कहा गया है। मनुष्य में संयम, संवेदनशीलता, श्रद्धा, तप, त्याग आदि मानवीय गुण हैं, जो उसे पशुओं से अलग करते हैं।
(ग) ‘बाहर’ नहीं भीतर की ओर देखो’ का आशय है-भौतिक सुख देने वाले साधन, जैसे-वस्तुओं की अधिकता, उत्पादनवृद्धि, धन, ताकत आदि की बात छोड़कर मन या हृद्य के अंदर के सद्गुणों को देखना और उन्हें बढ़ाना, क्योंक ये हमारे भीतर होते हैं।
(घ) लेखक का मन्तव्य है कि मनुष्य के जीवन की सार्थकता प्रेम में है। मनुष्य को मनुष्य से ही नहीं सभी प्राणियों से प्रेम करना चाहिए। इसके अलावा मनुष्य में सेवाभावना, मित्रता और त्याग के अलावा दूसरों के कल्याण के लिए प्रस्तुत रहना ही मनुष्य की सार्थकता है।
(ङ) ‘प्रेम ही बड़ी चीज़ है।’ प्रेम के अभाव में व्यक्ति परस्पर सद्भाव से रहने की बात सोच नहीं सकता है। वह मनुष्य को अपने समान नहीं समझता है। इसके बिना उसके मन में त्याग करने तथा दूसरों के कल्याण की बात आ ही नहीं सकती। मनुष्य बने रहने के लिए प्रेमभाव बनाए रखना चाहिए।
(च) शीर्षक : ‘सच्या धर्म।’
(छ) मनुष्यता या मानवता को वास्तविक धर्म माना गया है। इसका कारण है कि धर्म के मूल में कल्याण की भावना निहित है। मनुष्य के बिना क्रोध और द्वेष से दूर रहना, हिंसा न करना, दूसरों के कल्याण की भावना रखना तथा परस्पर प्रेम करना संभव नहीं है।
(ज) निर् + वैर, चरितार्थ + ता।
(झ) सबसे बड़ी चीज प्रेम हमारे भीतर है।
19. महिलाओं की मर्यादा और उनसे दुर्व्यवहार के मामले भी अन्य मामलों की तरह न्यायालयों में ही जाते हैं, किंतु पिछले कुछ दिनों से ऐसे आचरण के लिए स्वयं न्यायपालिका पर अँगुली उठाई जा रही है। काफी हद तक यह समस्या न्यायपालिका की नहीं, बल्कि हमारे पूरे समाज की कही जा सकती है। जज भी समाज के ही अंग हैं, इसलिए यह समस्या न्यायपालिका में भी दिखाई देती है। हमारे समाज में कानून के पालन को लेकर बहुत शिथिलता है और अकसर कानून का पालन न करने को सामाजिक हैसियत का मानक मान लिया जाता है। वी०आई०पी० संस्कृति का मूल सिद्धांत ही यह है कि जिसे सामान्य नियम-कानून नहीं पालन करने होते, वह महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है।
छोटे शहरों, कस्बों में सरकारी अफसरों की हैसियत बहुत बड़ी होती है और जज भी उन्हीं हैसियत वाले लोगों में शामिल होते हैं। ऐसे में, अगर कुछ जज यह मान लें कि वे तमाम सामाजिक मर्यादाओं से भी ऊपर हैं, तो यह हो सकता है। माना यह जाना चाहिए कि जितने ज्यादा जिम्मेदार पद पर कोई व्यक्ति है, उस पर कानून के पालन की जिम्मेदारी भी उतनी ही ज्यादा है। खास तौर से जिन लोगों पर कानून की रक्षा करने और दूसरों से कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी है, उन्हें तो इस मामले में बहुत ज्यादा सतर्क होना चाहिए। लेकिन वास्तव में, इससे बिल्कुल उलटा होता है।
एक समस्या की ओर कई वरिष्ठ जज और न्यायविद ध्यान दिला चुके हैं कि न्यायपालिका में निचले स्तर पर अच्छे जज नहीं मिलते। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि अच्छे न्यायिक शिक्षा संस्थानों से निकले अच्छे छात्र न्यायपालिका में नौकरी करना पसंद् नहीं करते, क्योंकि उन्हें कामकाज की परिस्थितियाँ और आमदनी, दोनों ही आकर्षक नहीं लगतीं। नेशनल लों इंस्टिट्यूट को तो बनाया ही इसलिए गया था कि अच्छे स्तर के जज और वकील वहाँ से निकल सकें, लेकिन देखा यह गया है कि वहाँ से निकले ज्यादातर छात्र कॉरपोरेट जगत में चले जाते हैं। अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र भी बजाय जज बनने के प्रैक्टिस करना पसंद करते हैं। जजों की चुनाव प्रक्रिया में भी कई खामियाँ हैं, जिन्हें दूर किया जाना जरूरी है, ताकि हर स्तर पर बेहतर गुणवत्ता के जज मिल सकें।
प्रश्न :
(क) प्रस्तुत गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) वी॰आई॰पी॰ संस्कृति का क्या तात्पर्य है और उसका सिद्धांत क्या बताया गया है?
(ग) छोटे शहरों में जज अपने को सारी सामाजिक मर्यादाओं से ऊपर क्यों मान लेते हैं?
(घ) कानून पालन के मामले में किन्हें अधिक सतर्क होना चाहिए और क्यों?
(ङ) न्यायपालिका को निचले स्तरों के लिए अच्छे जज क्यों नहीं मिल पाते?
(च) नेशनल लॉं इंस्टिट्यूट का गठन क्यों किया गया था?
(छ) कानून के छात्र जज बनने की अपेक्षा प्रैक्टिस करना क्यों पसंद् करते हैं?
(ज) बेहतर जज प्राप्त हों, इसके लिए क्या-क्या करना आवश्यक है?
(झ) महिलाओं के दुर्व्यवहार के मामले में न्यायपालिका पर अँगुली क्यों उठाई जा रही है?
(ख) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए : सतर्क, चुनाव
(ट) सरल वाक्य में बदलिए : जिसे सामान्य नियम-कानून नहीं पालन करने होते, वह महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। 1
उत्तर :
(क) शीर्षकः न्यायपालिका की समस्या अथवा समस्याग्रस्त न्यायपालिका।
(ख) वी०आई०पी० संस्कृति से तात्पर्य है-समाज के सभ्य, उच्च शिक्षित और कुलीन लोगों की संस्कृति, जिसे समाज में लोग आदर्श मानते हैं। इस संस्कृति का यह सिद्धांत बताया गया है कि ऐसे लोग स्वयं इतना बड़ा और महत्वपूर्ण समझने लगते हैं कि वे सामान्य नियम-कानून का उल्लंघन करने लगते हैं।
(ग) छोटे शहरों में सरकारी अफसरों की हैसियत बहुत बड़ी होती है और जज भी उन्हीं सरकारी अफसरों की कोटि में आते हैं। अपनी ऊँची हैसियत के कारण छोटे शहरों के जज स्वयं को सामाजिक मर्यादाओं से ऊपर मान बैठते हैं।
(घ) कानून पालन के मामले में उन लोगों को अधिक सतर्क होना चाहिए, जिन पर कानून की रक्षा और अन्य लोगों से कानून पालन करवाने की जिम्मेदारी है, क्योंकि ऐसे लोग समाज के आदर्श होते हैं और समाज उनका अनुकरण करता है।
(ङ) न्यायपालिका के लिए निचले स्तर पर अच्छे जज इसलिए नहीं मिल पाते, क्योंकि अच्छे न्यायिक शिक्षा संस्थानों से निकले अच्छे छात्र न्यायपालिका में नौकरी करने को प्राथमिकता नहीं देते हैं, क्योंकि वे वहाँ की परिस्थितियों और आमदनी को अपनी आशाओं के अनुकूल नहीं पाते हैं।
(च) नेशनल लॉ इंस्टिट्यूट का गठन इसलिए किया गया, ताकि इस संस्थान से अच्छे स्तर के जज और वकील तैयार किए जा सकें, जो अपनी सेवाओं से न्यायपालिका की गरिमा बढ़ा सकें।
(छ) कानून के छात्र जज बनने की अपेक्षा प्रैक्टिस करना इसलिए पसंद करते हैं, क्योंकि न्यायपालिका में जजों के कामकाज की परिस्थितियाँ बहुत अच्छी नहीं होतीं। कई बार उन्हें दबाव में काम करना पड़ता है। इसके अलावा वे उतनी आय अर्जित नहीं कर पाते हैं, जितनी कि कॉरपोरेट जगत में जाकर या निजी प्रैक्टिस करके।
(ज) बेहतर जज प्राप्त हों सके इसके लिए
- जजों को कामकाज की अच्छी परिस्थितियाँ उपलब्ध कराई जाएँ।
- जजों को आकर्षक वेतन दिया जाए।
- उन पर काम का अनावश्यक दबाव न डाला जाए।
- जजों पर अनैतिकता और अन्यायपूर्वक दबाव डालकर काम न करवाया जाय।
(झ) महिलाओं के दुर्व्यवहार के मामले में न्यायपालिका पर इसलिए अँगुली उठाई जा रही है, क्योंकि ऐसे मामलों को न तो समय से निपटाया जा रहा है और न न्यायपालिका इन पर अंकुश लगाने में सफल रही है।
(ञ)
(ट) सामान्य नियम-कानून का पालन न करने वाला महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता है।
कुछ अन्य अपठित गद्यांश
सी०बी०एस०ई० के नवीनतम पाठ्यक्रम के अनुसार
20. सभी धर्म हमें एक ही ईश्वर तक पहुँचाने के साधन हैं। अलग-अलग रास्तों पर चलकर भी हम एक ही स्थान पर पहुँचते हैं। इसमें किसी को दुखी नहीं होना चाहिए। हमें सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखना चाहिए। दूसरे धर्मों के प्रति समभाव रखने से धर्म का क्षेत्र व्यापक बनता है। हमारी धर्म के प्रति अंधता मिटती है। इससे हमारा प्रेम अधिक ज्ञानमय और पवित्र बनता है। यह बात लगभग असंभव है कि इस पृथ्वी पर कभी भी एक धर्म रहा होगा या हो सकेगा। यही कारण है कि लेखक विविध धर्मों में ऐसे तत्व को खोजने का प्रयास करता है जो विविध धर्मों के अनुयायियों के मध्य सहनशीलता की भावना को विकसित कर सके।
सत्य के अनेक रूप होते हैं। यह सिद्धांत हमें दूसरे धर्मों को भली प्रकार समझने में मदद करता है। लेखक सात अंधों का उदाहरण देता है, जिन्होंने हाथी का वर्णन अपने-अपने ढंग से किया। जिस अंधे को हाथी का जो अंग हाथ में आया, उसके अनुसार हाथी वैसा ही था। एक प्रकार से वे सभी अपनी-अपनी समझ से सही थे, पर इस दृष्टि से गलत थे कि उन्हें पूरे हाथी की समझ न थी।
जब तक अलग-अलग धर्म मौजूद हैं, तब तक उनकी पृथक् पहचान के लिए बाहरी चिह्न की आवश्यकता होती है, लेकिन ये चिह्न जब आडंबर बन जाते हैं और अपने धर्म को दूसरे से अलग बताने का काम करने लगते हैं, तब त्यागने के योग्य हो जाते हैं। धर्म का उद्देश्य तो यह होना चाहिए कि वह अपने अनुयायियों को अच्छा इनसान बनाए। उसे ईश्वर से यह प्रार्थना करनी चाहिए-तू सभी को वह प्रकाश प्रदान कर, जिसकी उन्हें अपने सर्वोच्च विकास के लिए आवश्यकता है।
ईश्वर एक ऐसी रहस्यमयी शक्ति है जो सर्वत्र व्याप्त है। उस शक्ति का अनुभव तो किया जा सकता है, पर देखा नहीं जा सकता। इस शक्ति का कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता। वह शक्ति इंद्रियों की पहुँच के बाहर है। लेखक यह अनुभव करता है कि उसके चारों ओर हर चीज़ हमेशा बदलती रहती है और नष्ट होती रहती है। इन परिवर्तनों के पीछे कोई ऐसी शक्ति अवश्य है जो बदलती नहीं। वही शक्ति नया निर्माण एवं विध्वंस करती रहती है। यह क्रम निरतर चलता रहता है।
यह जीवन देने वाली शक्ति ही परमात्मा है। उसी का अस्तित्व अंतिम है। हमें यह तथ्य समझना चाहिए कि इंद्रियों द्वारा दिखाई देने वाली चीज़ स्थायी नहीं हो सकती। ईश्वर की शक्ति कल्याण करने वाली है। लेखक देखता है कि मृत्यु के बीच जीवन कायम रहता है, असत्य के बीच सत्य टिका रहता है और अंधकार के मध्य प्रकाश स्थिर रहता है। इससे पता चलता है कि ईश्वर जीवन है, सत्य है और प्रकाश है। वह परम कल्याणकारी है।
अति लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) धर्मों के प्रति किस प्रकार का भाव रखना चाहिए?
(ख) धर्म का क्षेत्र कैसे व्यापक बनता है?
(ग) लेखक विभिन्न धर्मों में कैसे तत्व खोजने का प्रयास करता है?
(घ) धर्म का क्या उद्देश्य होना चाहिए?
(ङ) कौन-सी बात असंभव-सी लगती है?
(च) सत्य के विभिन्न रूपों को किस उदाहरण द्वारा समझाने का प्रयास किया गया है?
(छ) धर्म के बाह्य-चिह्न त्याज्य कब बन जाते हैं?
(ज) लेखक ने किस तथ्य को समझने का आग्रह किया है?
(झ) ईश्वर के प्रति लेखक ने अपनी आस्तिकता किस तरह व्यक्त की है?
(ञ) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) हमें सभी धर्मों के प्रति समभाव रखना चाहिए। इससे धर्म के प्रति हमारी सोच व्यापक बनती है।
(ख) दूसरे धर्मों के प्रति समान भाव रखने से धर्म का क्षेत्र व्यापक बनता है।
(ग) लेखक विभिन्न धर्मों में ऐसे तत्व खोजने का प्रयास करता है जो विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के मध्य सहनशीलता की भावना विकसित कर सकें।
(घ) धर्म का उद्देश्य यह होना चाहिए कि वह अपने अनुयायियों को अच्छा इनसान बनाए।
(ङ) ‘इस पृथ्वी पर कभी एक धर्म होगा या भविष्य में रहेगा।’ यह बात लगभग असंभव-सी लगती है।
(च) सत्य के अनेक रूप होते हैं। इसे मान लेने से अन्य धर्मों को आसानी से समझा जा सकता है। इसे स्पष्ट करने के लिए लेखक सात अंधों और हाथी का उदाहरण देता है।
(छ) जब धर्म के बाह्य-चिह्न आडंबर बन जाते हैं और अपने धर्म को दूसरे से अलग बताने का कार्य करने लगते हैं, तब ये त्याज्य बन जाते हैं।
(ज) लेखक ने इस तथ्य को समझने का आग्रह किया है कि इंद्रियों द्वारा दिखाई देने वाली चीज़ कभी स्थायी नहीं हो सकती।
(झ) लेखक का मानना है कि उसके चारों ओर की वस्तुएँ सतत परिवर्तनशील हैं, जो बदलती और नष्ट होती रहती हैं। इन परिवर्तनों के पीछे ईश्वर की शक्ति होती है।
(ञ) शीर्षक : धर्म और ईश्वर।
अथवा
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) धर्म किस तक पहुँचाने के साधन हैं?
(i) मोक्ष तक
(ii) स्वर्ग तक
(iii) ईश्वर तक
(iv) सत्य तक
उत्तर :
(iii) ईश्वर तक
(ख) सत्य के रूप होते हैं –
(i) एक
(ii) अनेक
(iii) निराकार
(iv) कठोर
उत्तर :
(ii) अनेक
(ग) सत्य की आधारभूत संरचना को समझाने के लिए लेखक किसका उदाहरण देता है?
(i) सात अंधों का
(ii) रहस्यमयी शक्ति का
(iii) परिवर्तनशील संसार का
(iv) इनमें से किसी का नहीं
उत्तर :
(i) सात अंधों का
(घ) धर्म के प्रति अंधता कैसे मिटती है?
(i) धर्मों के ज्ञान से
(ii) धर्मों के प्रति समान भाव रखने से
(iii) ईश्वर के प्रति एकनिष्ठता से
(iv) धर्म के मूल्यांकन से
उत्तर :
(ii) धर्मों के प्रति समान भाव रखने से
(ङ) कौन रहस्यमयी शक्ति है?
(i) धर्म
(ii) ज्ञान
(iii) ईश्वर
(iv) सत्य
उत्तर :
(iii) ईश्वर
(च) किन लोगों ने हाथी का वर्णन अपने-अपने ढंग किया?
(i) भक्तों ने
(ii) अनुयायियों ने
(iii) अंधों ने
(iv) धार्मिक लोगों ने
उत्तर :
(iii) अंधों ने
(छ) अंधों को किसकी समझ नहीं थी?
(i) परिवेश की
(ii) ईश्वर की
(iii) भक्ति की
(iv) हाथी की
उत्तर :
(iv) हाथी की
(ज) धार्मिक-चिहन कब त्यागने योग्य हो जाते हैं?
(i) प्रासंगिकता समाप्त हो जाने के बाद
(ii) जब ये चिहन आडंबर बन जाते हैं
(iii) जब ये अपने धर्म को दूसरे धर्म से अलग बताने लगते हैं
(iv) (i),(i i i) दोनों सही हैं।
उत्तर :
(iii) जब ये अपने धर्म को दूसरे धर्म से अलग बताने लगते हैं
(झ) किस शक्ति का अनुभव किया जा सकता है पर देखा नहीं जा सकता?
(i) ईश्वरीय शक्ति का
(ii) भौतिक शक्ति का
(iii) शारीरिक शक्ति का
(iv) सामाजिक शक्ति का
उत्तर :
(i) ईश्वरीय शक्ति का
(ञ) इनमें से कौन प्रस्तुत गद्यांश का शीर्षक नहीं हो सकता?
(i) धर्म और ईश्वर
(ii) धार्मिक सद्भाव
(iii) साप्रदायिक सद्भाव
(iv) नास्तिकता
उत्तर :
(iv) नास्तिकता
21. हँसी भीतरी आनंद को प्रकट करने का बाहरी चिह्न है। हैस लेना जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम वस्तु है। एक “बार खिलखिलाकर हँसना शरीर को स्वस्थ रखने की बेहतरीन दवा है। पुराने लोग कह गए हैं कि हँसो और पेट फुलाओ। जितना अधिक हँसोगे, उतनी ही आयु बढ़ेगी। हमारे समक्ष हेरीक्लेस और डेमोक्रीटस के उदाहरण हैं। हेरीक्लेस हर वक्त अपने कर्मों पर खीजता रहता था। अतः बहुत कम जिया। डेमोक्रीटस प्रसन्नचित्त रहता था। अतः 109 वर्ष तक जिया। हँसी-खुशी का नाम ही जीवन है। रोने वालों का जीवन व्यर्थ है। एक कवि कहता है”ज़िदगी ज़िदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक़ जिया करते हैं।”
एक विलायती विद्वान की पुस्तक में बताया गया है कि हँसी उदास-से-उदास मनुष्य के चित्त को प्रफुल्लित कर देती है। हैसी तो एक शक्तिशाली इंजन की तरह है। यह शोक और दुख की दीवारों को ढा देती है। चित्त को प्रसन्न रखना प्राण-रक्षा का बेहतरीन उपाय है। एक अंग्रेज़ डॉक्टर कहता है कि किसी नगर में दवाई से लदे बीस गधे ले जाने की अपेक्षा एक हँसोड़ व्यक्ति ले जाना बेहतर है। पाचन के लिए भी हँसी से बढ़कर कोई अन्य चीज़ नहीं है। हँसी सभी के लिए काम की चीज़ है। हँसी कई काम करती है-पाचन-शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती है और अधिक पसीना लाती है। एक डॉक्टर के अनुसार यह जीवन की मीठी मदिरा है।
कारलाइल कहता है कि जो जी से हँसता है, वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसो, तुम्हें अच्छा लगेगा; अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा; शत्रु को हैंसाओ, वह तुमसे कम घृणा करेगा; अनजान को हैंसाओ, वह तुम पर भरोसा करेगा; एक उदास को हँसाओ, उसका दुख घटेगा; एक निराश को हँसाओ, उसकी आशा बढ़ेगी। हँसने से बूढ़ा व्यक्ति स्वयं को जवान समझता है। कष्टों, चिताओं में भगवान ने हमें हँसी जैसी प्यारी वस्तु प्रदान की है।
हँसी सभी को प्यारी लगती है। विशेषकर मित्र-मंडली में हँसी का बहुत महत्व है। हँसी स्वभाव को अच्छा करती है, जी बहलाती है, बुद्धि को निर्मल करती है। आदमी रोने के लिए नहीं, हँसने के लिए ही बना है। हँसी भय भगाती है, दुख मिटाती है, निराशा घटाती है। जो मनुष्य हँसता है, वह अपनी आयु बढ़ाता है। जो हँसते हैं, वे धन्य हैं। जो हँसता है, वह बिना डिप्लोमा का डॉक्टर है। हँसते डॉक्टर का चेहरा एक कड़वी दवा की बोतल से अच्छा है। एडीसन कहता है कि बुद्धिमानी में आकर संसार को हँसी जैसी उत्तम वस्तु को खो न देना चाहिए। हँसी से बढ़कर समाज में और कुछ नहीं है।
अति लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) मानव जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम वस्तु कौन-सी है?
(ख) हँसी की तुलना किससे की गई है?
(ग) शरीर को स्वस्थ रखने की बेहतरीन दवा कौन-सी है?
(घ) पुराने लोग क्या कह कर गए हैं?
(ङ) प्राण-रक्षा के लिए बेहतरीन उपाय क्या है?
(च) किनका जीवन व्यर्थ है?
(छ) हैसने वाला अपने साथ-साथ दूसरों का भी भला करता है, कैसे?
(ज) हैंसी किसकी दीवार को ढा देती है?
(इ) लेखक ने बिना डिप्लोमा के डॉक्टर किसे कहा है?
(ञ) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) हैंसी का मानव-जीवन में अत्यधिक महत्व है। यह मनुष्य के भीतरी आनंद को प्रकट करती है। अतः यह मानव-जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम वस्तु है।
(ख) हँसी की तुलना शक्तिशाली इंजन से की गई है।
(ग) खिलखिलाकर हँसना शरीर को, स्वस्थ रखने की बेहतरीन दवा है।
(घ) पुराने लोग कह गए हैं कि हँसो और फुलाओ।
(ङ) चित्त को प्रफुल्लित रखना प्राण-रक्षा के लिए बेहतरीन उपाय है।
(च) रोने वालों का जीवन व्यर्थ है।
(छ) हँसने से मनुष्य अपने दुख दूर भगाता है और आयु बढ़ाता है। इसके अलावा दूसरों को हँसता हुआ देखने से व्यक्ति का भय दूर होता है तथा निराशा आशा में बदल जाती है। इस प्रकार व्यक्ति अपने साथ-साथ दूसरों का भी भला करता है।
(ज) हँसी दुख और शोक की दीवार को ढा देता है।
(झ) लेखक ने हँसने वालों को बिना डिप्लोमा के डॉक्टर कहा है।
(ञ) शीर्षक : हँसी-एक अचूक औषधि।
अथवा
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) हैंसी किसकी अभिव्यक्ति है?
(i) निशिचितता की
(ii) चिंतामुक्त होने की
(iii) भीतरी आनंद की
(iv) उपरोक्त सभी गलत हैं।
उत्तर :
(iii) भीतरी आनंद की
(ख) जितना हैसोगे उतनी बढ़गी-
(i) बुद्धि
(ii) ताकत
(iii) आयु
(iv) मेधा
उत्तर :
(iii) आयु
(ग) कौन अपने कर्मों पर हर वक्त खीजता रहता था?
(i) हेरीक्लेस
(ii) अरस्तू
(iii) कांट
(iv) डेमोक्रीट्स
उत्तर :
(i) हेरीक्लेस
(घ) कौन सदैव प्रसन्नचित्त रहता था?
(i) अरस्तू
(ii) कांट
(iii) डेमोक्रीट्स
(iv) हेरीक्लेस
उत्तर :
(iii) डेमोक्रीट्स
(ङ) किसके लिए हँसी से बढ़कर कोई दूसरी चीज़ नहीं है?
(i) बौद्धिक कुशलता के लिए
(ii) पाचन के लिए
(iii) आर्थिक विकास के लिए
(iv) जनसमर्थन हासिल करने के लिए
उत्तर :
(ii) पाचन के लिए
(च) हँसी इनमें से क्या नहीं करती है?
(i) पाचन-शक्ति बढ़ाती है।
(ii) रक्त-संचालित करती है
(iii) अधिक पसीना लाती है
(iv) शारीरिक रूप से अशक्त बनाती है
उत्तर :
(iv) शारीरिक रूप से अशक्त बनाती है
(छ) डॉक्टर के अनुसार हैंसी जीवन के लिए क्या है?
(i) मीठी मदिरा
(ii) बहता नीर
(iii) अमृत
(iv) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(i) मीठी मदिरा
(ज) आदमी किसके लिए बना है?
(i) रोने के लिए
(ii) हैसने के लिए
(iii) परिश्रम करने के लिए
(iv) हैसाने के लिए
उत्तर :
(ii) हैसने के लिए
(झ) कड़वी दवा की बोतल से क्या अच्छा है?
(i) हैसते हुए डॉक्टर का चेहरा
(ii) शत्रुओं को हँसाना
(iii) व्यायाम करना
(iv) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(i) हैसते हुए डॉक्टर का चेहरा
(ञ) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक नहीं हो सकता है-
(i) हँसी-एक अचूक औषधि
(ii) हैंसी-जीवन के लिए आवश्यक
(iii) हैंसी-उद्दंडता का परिचायक
(iv) उपर्युक्त सभी सही हैं
उत्तर :
(iii) हैंसी-उद्दंडता का परिचायक
22. राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय एवं विकास के लिए भाषा भी एक प्रमुख तत्व है। मानव-समुदाय अपनी संवेदनाओं, भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति हेतु भाषा का साधन अपरिहार्यतः अपनाता है, इसके अतिरिक्त उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। दिव्य-ईश्वरीय आनंदानुभूति के संबंध में भले ही कबीर ने ‘गूँगे केरी शर्करा’ उक्ति का प्रयोग किया था, पर इससे उनका लक्ष्य शब्द-रूपा भाषा के महत्व को नकारना नहीं था। प्रत्युत उन्होंने भाषा को ‘बहता नीर’ कहकर भाषा की गरिमा प्रतिपादित की थी।
विद्वानों की मान्यता है कि भाषा तत्व राष्ट्रहित के लिए अत्यावश्यक है। जिस प्रकार किसी एक राष्ट्र के भू-भाग की भौगोलिक विविधताएँ तथा उसके पर्वत, सागर, सरिताओं आदि की बाधाएँ उस राष्ट्र के निवासियों के परस्पर मिलने-जुलने में अवरोधक सिद्ध हो सकती हैं, उसी प्रकार भाषागत विभिन्नता से भी उनके पारस्परिक संबंधों में निर्बाधता नहीं रह पाती। आधुनिक विज्ञान युग में यातायात एवं संचार के साधनों की प्रगति से भौगोलिक बाधाएँ अब पहले की तरह बाधित नहीं करतीं। इसी प्रकार यदि राष्ट्र की एक संपर्क भाषा का विकास हो जाए तो पारस्परिक संबंधों के गतिरोध बहुत सीमा तक समाप्त हो सकते हैं।
मानव-समुदाय को एक जीवित-जाग्रत एवं जीवंत शरीर की संज्ञा दी जा सकती है और उसका अपना एक निश्चित व्यक्तित्व होता है। भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम से इस व्यक्तित्व को साकार करती है, उसके अमूर्त मानसिक, वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिंबात्मक रूप प्रदान करती है। मनुष्यों के विविध समुदाय हैं, उनकी विविध भावनाएँ हैं, विचारधाराएँ हैं, संकल्प एवं आदर्श हैं, उन्हें भाषा ही अभिव्यक्त करने में सक्षम होती है। साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि में मानव-समुदाय अपने आदर्शों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं एवं विशिष्टताओं को वाणी देता है, पर क्या भाषा के अभाव में काव्य, साहित्य, संगीत आदि का अस्तित्व संभव है?
वस्तुत: ज्ञान-राशि एवं भाव-राशि का अपार संचित कोश, जिसे साहित्य का अभिधान दिया जाता है, शब्द-रूप ही तो है। अतः इस संबंध में वैमत्य की किंचित् गुंजाइश नहीं है कि भाषा ही एक ऐसा साधन है, जिससे मनुष्य एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं, उनमें परस्पर घनिष्ठता स्थापित हो सकती है। यही कारण है कि एक भाषा बोलने एवं समझने वाले लोग परस्पर एकानुभूति रखते हैं, उनके विचारों में ऐक्य रहता है। अत: राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा तत्व परम आवश्यक है।
अति लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) किसके विकास के लिए भाषा एक प्रमुख तत्व है?
(ख) मानव समुदाय भाषा को क्यों अपनाता है?
(ग) दिव्य-ईश्वरीय आनंदानुभूति के संबंध में कबीर दास ने किस उक्ति का प्रयोग किया था?
(घ) भाषागत विविधता से किसका अभाव देखने को मिलता है?
(ङ) राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा क्यों आवश्यक है?
(च) मानव-समाज को किसकी संज्ञा दी जा सकती है?
(छ) भाषा किसके व्यक्तित्व को साकार कर देती है?
(ज) साहित्य का अभिधान किस रूप में है।
(झ) किसमें मानव-समुदाय अपने आदर्शों, संकल्पनाओं एवं अवधारणाओं को वाणी देता है?
(ज) उपर्युक्त गदयांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
(क) राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय एवं विकास के लिए भाषा एक प्रमुख तत्व है।
(ख) मानव समुदाय अपनी संवेदनाओं, भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा को अपनाता है।
(ग) दिव्य-ईश्वरीय आनंदानुभूति के संबंध में कबीर दास जी ने ‘गूँगे केरी शर्करा’ उक्ति का प्रयोग किया था।
(घ) भाषागत विविधता से सामाजिक एवं पारस्परिक संबंधों में ह्रास या अभाव देखने को मिलता है।
(ङ) राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए देशवासियों को भाषा ही एक सूत्र में पिरोती है और राष्ट्रीय सहमति स्थापित करने में अपनी अहम् भूमिका निभाती है।
(च) मानव-समुदाय को एक जीवित-जाग्रत एवं जीवंत शरीर की संज्ञा दी जा सकती है।
(छ) भाषा अपनी अभिव्यक्ति सामर्र्य के माध्यम से मानव-समुदाय के व्यक्तित्व को साकार कर देती है।
(ज) साहित्य का अभिधान शब्द-रूप में है।
(झ) साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि में मानव-समुदाय अपने आदर्शों, संकल्पनाओं एवं अवधारणाओं को वाणी देता है।
(ञ) शीर्षक-भाषा का महत्व
अथवा
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) अभिव्यक्ति के लिए मानव-समुदाय पूर्णतया किस पर आश्रित है?
(i) भाषा पर
(ii) संचार के साधनों पर
(iii) गीत-संगीत पर
(iv) साहित्य पर
उत्तर :
(i) भाषा पर
(ख) ‘गूँगे केरी शर्करा’ के माध्यम से कबीर दास जी ने किसके महत्व को नकारना नहीं चाहा है?
(i) साहित्य के महत्व को
(ii) भौगोलिक विविधताओं के महत्व को
(iii) शब्द-रूपा भाषा के महत्व को
(iv) वक्ता के महत्व को
उत्तर :
(iii) शब्द-रूपा भाषा के महत्व को
(ग) कबीर दास जी ने क्या कहकर भाषा की गरिमा प्रतिपादित की?
(i) संचार के साधन
(ii) बहता नीर
(iii) ज्ञान-कोष
(iv) संस्कार कोष
उत्तर :
(ii) बहता नीर
(घ) किसकी मान्यता है कि भाषा-तत्व राष्ट्रहित के लिए अत्यावश्यक है?
(i) कबीर दास जी की
(ii) विद्वानों की
(iii) नागरिकों की
(iv) इनमें से किसी की नहीं
उत्तर :
(ii) विद्वानों की
(ङ) किसका विकास हो जाए तो पारस्परिक संबंधों के गतिरोध समाप्त हो सकते हैं?
(i) भाषागत विविधताओं का विकास हो जाए तो
(ii) संपर्क भाषा का विकास हो जाए तो
(iii) संचार माध्यमों का विकास हो जाए तो
(iv) (ii) और (iii) सही हैं।
उत्तर :
(ii) संपर्क भाषा का विकास हो जाए तो
(च) भाषा इनमें से क्या करती है?
(i) अमूर्त मानसिक स्वरूप को मूर्त रूप प्रदान करती है।
(ii) सामाजिक दूरियाँ बढ़ती है।
(iii) नकारात्मकता को बढ़ावा देती है।
(iv) मूर्त को अमूर्त रूप प्रदान करती है।
उत्तर :
(i) अमूर्त मानसिक स्वरूप को मूर्त रूप प्रदान करती है।
(छ) मानव समुदाय का अपना –
(i) एक मौलिक स्वरूप होता है।
(ii) एक निश्चित व्यक्तित्व होता है।
(iii) एक निश्चित आकार नहीं होता है।
(iv) इनमें से कोई नहीं है।
उत्तर :
(ii) एक निश्चित व्यक्तित्व होता है।
(ज) कौन लोग परस्पर एकानुभूति महसूस करते हैं?
(i) समान भाषाभाषी
(ii) विभिन्न भाषाभाषी
(iii) भाषाविहीन लोग
(v) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(i) समान भाषाभाषी
(झ) वैचारिक एकता के लिए परम आवश्यक तत्व है-
(i) राष्ट्रीय तत्व
(ii) सामाजिक तत्व
(iii) भाषा तत्व
(iv) आधारभूत तत्व
उत्तर :
(iii) भाषा तत्व
(ञ) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(i) राष्ट्रीयता की भावना
(ii) राष्ट्र का महत्व
(iii) भाषा-तत्व
(iv) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(iii) भाषा-तत्व
23. संस्कृति और सभ्यता-ये दो शब्द हैं और इनके अर्थ भी अलग-अलग हैं। सभ्यता मनुष्य का वह गुण है, जिससे वह अपनी बाहरी तरक्की करता है। संस्कृति वह गुण है, जिससे वह अपनी भीतरी उन्नति करता है और करुणा, प्रेम एवं परोपकार सीखता है। आज रेलगाड़ी, मोटर और हवाई जहाज, लंबी-चौड़ी सड़कें और बड़े-बड़े मकान, अच्छा भोजन और अच्छी पोशाक, ये सभी सभ्यता की पहचान हैं और जिस देश में इनकी जितनी ही अधिकता है, उस देश को हम उतना ही सभ्य मानते हैं।
मगर संस्कृति इन सबसे कहीं बारीक चीज़ है। वह मोटर नहीं, मोटर बनाने की कला है, मकान नहीं, मकान बनाने की रुचि है। संस्कृति धन नहीं, गुण है। संस्कृति ठाठ-बाट नहीं, विनय और विनम्रता है। एक कहावत है कि सभ्यता वह चीज़ है जो हमारे पास है, लेकिन संस्कृति वह गुण है जो हममें छिपा हुआ है। हमारे पास घर होता है, कपड़े-लत्ते होते हैं, मगर ये सारी चीज़ें हमारी सभ्यता के सबूत हैं, जबकि संस्कृति इतने मोटे तौर पर दिखलाई नहीं देती, वह बहुत-ही सूक्ष्म और महीन चीज़ है और वह हमारी हर पसंद, हर आदत में छिपी रहती है। मकान बनाना सभ्यता का काम है, लेकिन हम मकान का कौन-सा नक्शा पसंद करते हैं-यह हमारी संस्कृति बतलाती है।
आदमी के भीतर काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर-ये छह विकार प्रकृति के दिए हुए हैं। परंतु अगर ये विकार बेरोक-टोक छोड़ दिए जाएँ तो आदमी इतना गिर जाए कि उसमें और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाएगा। इसलिए आदमी इन विकारों पर रोक लगाता है। इन दुर्गुणों पर जो आदमी जितना ज़्यादा काबू कर पाता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है। संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान-प्रदान से बढ़ती है। जब दो देशों या जातियों के लोग आपस में मिलते हैं, तब उन दोनों की संस्कृतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। इसलिए संस्कृति की दृष्टि से वह जाति या वह देश बहुत ही धनी समझा जाता है, जिसने ज्यादा-से-ज़्यादा देशों या जातियों की संस्कृतियों से लाभ उठाकर अपनी संस्कृति का विकास किया हो।
अति लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) ‘सभ्यता’ का तात्पर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) संस्कृति से आप क्या समझते हैं?
(ग) कौन-कौन सी चीज़ें सभ्यता की पहचान हैं?
(घ) सभ्यता और संस्कृति के मूलभूत अंतर को स्पष्ट कीजिए ?
(ङ) मकान बनाना सभ्यता है या संस्कृति?
(च) आदमी के भीतर कौन-कौन से विकार होते हैं?
(छ) किस परिस्थिति में आदमी और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाएगा?
(ज) किस व्यक्ति को सुसंस्कृत व्यक्ति कहा जाता है?
(इ) संस्कृति की दृष्टि से किस जाति या देश को सांस्कृतिक रूप से संपन्न माना जाता है?
(ञ) उपर्युक्त गद्योंश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) ‘सभ्यता’ मनुष्य का वह गुण है, जिससे वह बाहरी तरक्की करता है।
(ख) संस्कृति वह गुण है, जिससे वह भीतरी उन्नति करता है और करुणा, प्रेम, दया, परोपकार तथा सहानुभूति जैसे मानवीय गुण सीखता है।
(ग) रेलगाड़ी, मोटर, और हवाई जहाज़, लंबी-चौड़ी सड़कें, बड़े-बड़े मकान, अच्छा भोजन और अच्छी पोशाक, ये सभी सभ्यता की पहचान हैं।
(घ) सभ्यता वह चीज़ है जो हमारे पास है, यानी जो प्रत्यक्ष दीखता है जबकि संस्कृति वह गुण है जो हममें छिपा हुआ है।
(ङ) मकान बनाना सभ्यता है।
(च) आदमी के भीतर काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह एवं मत्सर-ये छह विकार होते हैं।
(छ) जब आदमी अपने षड् विकारों को रोक नहीं पाएगा तब उस परिस्थिति में आदमी और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाएगा।
(ज) जो व्यक्ति अपने षड् विकारों को नियंत्रित करने में सक्षम होता है, उसे सुसंस्कृत व्यक्ति कहा जाता है।
(झ) संस्कृति की दृष्टि से वह जाति या वह देश बहुत संपन्न माना जाता है जिसने ज्यादा से ज्यादा देशों या जातियाँ की संस्कृतियों से लाभ उठाकर अपनी संस्कृति का विकास किया हो।
(उ) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति
अथवा
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) सभ्यता मनुष्य का वह गुण है-
(i) जिससे वह अपनी भीतरी तरक्की करता है।
(ii) जिससे वह दूसरों की तरक्की करता है।
(iii) जिससे वह बाहरी तरक्की करता है।
(iv) उपरोक्त सभी गलत हैं।
उत्तर :
(iii) जिससे वह बाहरी तरक्की करता है।
(ख) संस्कृति मनुष्य का वह गुण है –
(i) जिससे वह अपनी बाहरी तरक्की करता है।
(ii) जिससे वह अपनी भीतरी उन्नति करता है।
(iii) जिससे वह प्राकृतिक तरक्की करता है।
(iv) उपरोक्त सभी गलत हैं।
उत्तर :
(ii) जिससे वह अपनी भीतरी उन्नति करता है।
(ग) इनमें से कौन संस्कृति का लक्षण है?
(i) लंबी-चौड़ी सडकें
(ii) बड़े-बड़े मकान
(iii) अच्छी पोशाक
(iv) मकान बनाने की कला
उत्तर :
(iv) मकान बनाने की कला
(घ) इनमें से कौन सभ्यता की श्रेणी में आता है?
(i) मोटर बनाने की कला
(ii) विनय और विनम्रता
(iii) अच्छा भोजन और अच्छी पोशाक
(iv) मकान के नक्शे का चुनाव
उत्तर :
(iii) अच्छा भोजन और अच्छी पोशाक
(ङ) प्रकृति के दिए हुए कितने विकार आदमी के अंदर होते हैं?
(i) पाँच
(ii) छह
(iii) सात
(iv) आठ
उत्तर :
(ii) छह
(च) इनमें से कौन विकार नहीं है?
(i) काम
(ii) दाम
(iii) क्रोध
(iv) मोह
उत्तर :
(ii) दाम
(छ) आदमी अपने विकारों पर रोक क्यों लगाता है?
(i) ताकि उसमें आदमियत बनी रहे।
(ii) ताकि स्वयं को पशुता से अलग रख सके
(iii) ताकि वह इनसानियत को ज़िदा रख सके
(iv) उपरोक्त सभी से
उत्तर :
(iv) उपरोक्त सभी से
(ज) संस्कृतियाँ समृद्ध कैसे होती हैं?
(i) संरक्षण से
(ii) आदान-प्रदान से
(iii) गोपनीयता से
(iv) उपरोक्त सभी से
उत्तर :
(ii) आदान-प्रदान से
(झ) जब दो देशों या जातियों के लोग आपस में मिलते हैं तब उन दोनों की संस्कृतियाँ-
(i) एक-दूसरे से निरपेक्ष रहती हैं।
(ii) एक-दूसरे को प्रभावहीन बना देती हैं।
(iii) एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं।
(iv) एकाकार हो जाती हैं।
उत्तर :
(iii) एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं।
(ञ) इनमें से कौन उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक नहीं हो सकता है?
(i) सभ्यता और संस्कृति
(ii) संभ्यता और संस्कृति में अंतर
(iii) सभ्यता बनाम संस्कृति
(iv) सभ्यता सर्वोपरि
उत्तर :
(iv) सभ्यता सर्वोपरि
24. प्रकृति वैज्ञानिक और कवि दोनों की ही उपास्या है। दोनों ही उससे निकटतम संबंध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं, किंतु दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है। वैज्ञानिक प्रकृति के बाह्य रूप का अवलोकन करता है और सत्य की खोज करता है, परंतु कवि बाह्य रूप पर मुग्ध होकर उससे भावों का तादात्म्य स्थापित करता है। वैज्ञानिक प्रकृति की जिस वस्तु का अवलोकन करता है, उसका सूक्ष्म निरीक्षण भी करता है।
चंद्र को देखकर उसके मस्तिष्क में अनेक विचार उठते हैं-उसका तापक्रम क्या है, कितने वर्षों में वह पूर्णतः शीतल हो जाएगा, ज्वार-भाटे पर उसका क्या प्रभाव होता है, किस प्रकार और किस गति से वह सौर-मंडल में परिक्रमा करता है और किन तत्वों से उसका निर्माण हुआ है? वह अपने सूक्ष्म निरीक्षण और अनवरत चिंतन से उसको एक लोक ठहराता है और उस लोक में स्थित ज्वालामुखी पर्वतों तथा जीवनधारियों की खोज करता है। इसी प्रकार वह एक प्रफुल्लित पुष्प को देखकर उसके प्रत्येक अंग का विश्लेषण करने को तैयार हो जाता है। उसका प्रकृति-विषयक अध्ययन वस्तुगत होता है।
उसकी दृष्टि में विश्लेषण और वर्ग-विभाजन की प्रधानता रहती है। वह सत्य और वास्तविकता का पुजारी होता है। कवि की कविता भी प्रत्यक्षावलोकन से प्रस्फुटित होती है। वह प्रकृति के साथ अपने भावों का संबंध स्थापित करता है। वह उसमें मानव-चेतना का अनुभव करके उसके साथ अपनी आंतरिक भावनाओं का समन्वय करता है। वह तथ्य और भावना के संबंध पर बल देता है। वह नग्न सत्य का उपासक नहीं होता। उसका वस्तु-वर्णन हुदय की प्रेरणा का परिणाम होता है, वैज्ञानिक की भाँति मस्तिष्क की यांत्रिक प्रक्रिया नहीं।
अति लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) कौन वैज्ञानिक और कवि दोनों का उपास्य है?
(ख) वैज्ञानिक प्रकृति के किस रूप का अवलोकन करता है?
(ग) कौन-कौन प्रकृति से निकट संबंध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं?
(घ) प्रकृति के प्रति वैज्ञानिक और कवि के दृष्टिकोण में अंतर स्पष्ट कीजिए।
(ङ) चंद्रमा का ज्वार-भाटा पर प्रभाव का निरीक्षण कौन करता है?
(च) कौन सौर-मंडल में परिक्रमा करता है?
(छ) किसका प्रकृति विषयक अध्ययन वस्तुगत होता है?
(ज) ‘कवि जब प्रकृति का प्रत्यक्षावलोकन करता है, तब कविता प्रकट होती है।’-स्पष्ट कीजिए।
(झ) कवि द्वारा किया गया किसी वस्तु का वर्णन मस्तिष्क की यांत्रिक प्रक्रिया का परिणाम नहीं होता, जबकि वैज्ञानिक का इसके विपरीत होता है। स्पष्ट कीजिए।
(ञ) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) प्रकृति वैज्ञानिक एवं कवि दोनों का उपास्य है।
(ख) वैज्ञानिक प्रकृति के बाह्य रूप का अवलोकन करता है।
(ग) कवि और वैज्ञानिक प्रकृति से निकट संबंध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं।
(घ) वैज्ञानिक वस्तुत: प्रकृति के बहाय रूप का अवलोकन करते हुए सत्य की खोज करता है जबकि कवि प्रकृति के बाह्य रूप पर मुग्ध होकर उससे भावों का तादात्म्य स्थापित करता है।
(ङ) वैज्ञानिक चंद्रमा का ज्वार-भाटा पर पड़ने वाले प्रभाव का निरीक्षण करता है।
(च) चंद्रमा सौर मंडल में परिक्रमा करता है।
(छ) वैज्ञानिकों का प्रकृति विषयक अध्ययन वस्तुगत होता है।
(ज) कवि जब प्रकृति का प्रत्यक्षावलोकन करता है तो वह उसके साथ भावों का तादात्म्य स्थापित करता है। उसे प्रकृति में मानव-चेतना की अनुभूति होती है। इस प्रकार से तथ्य और भावों पर बल देने से कविता प्रकट होती है।
(झ) कवि और वैज्ञानिक जब किसी वस्तु का वर्णन करते हैं, तो कवि उस वस्तु का प्रत्यावलोकन करता है और तथ्य एवं भावना के संबंध पर बल देता है। वह हृदय से प्रेरित होकर वस्तु का वर्णन करता है, परंतु वैज्ञानिक उस वस्तु की सत्यता का उपासक होता है, जिसमें मस्तिष्क की यांत्रिक प्रक्रिया प्रमुख होती है।
(ञ) शीर्षक : प्रकृति के उपासक-कवि और वैज्ञानिक।
अथवा
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) काव्यांश में कवि के द्वारा किसके उपास्य होने की बात कही गई है?
(i) कवि को
(ii) वैज्ञानिक को
(iii) प्रकृति को
(iv) तीनों को
उत्तर :
(iii) प्रकृति को
(ख) कवि के अनुसार किनके-किनके दृष्टिकोण में अंतर है?
(i) मानव और जीव में
(ii) लोगों के दृष्टिकोण में
(iii) कवि और वैज्ञानिक के दृष्टिकोण में
(iv) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(ii) लोगों के दृष्टिकोण में
(ग) कौन अनवरत चितन करता है?
(i) कवि
(ii) वैज्ञानिक
(iii) पुजारी
(iv) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(iii) पुजारी
(घ) वैज्ञानिक का प्रकृति-विषयक अध्ययन होता है –
(i) काल्पनिक
(ii) यथार्थपरक
(iii) वस्तुगत
(iv) हास्यास्पद
उत्तर :
(ii) यथार्थपरक
(ङ) कौन वास्तविकता का पुजारी होता है?
(i) कवि
(ii) जीवधारी
(iii) वैज्ञानिक
(iv) (i) और (ii) दोनों
उत्तर :
(iii) वैज्ञानिक
(च) कवि की कविता किससे प्रस्फुटित होती है?
(i) आंतरिक अवलोकन से
(ii) प्रत्यक्षावलोकन से
(iii) आत्मावलोकन से
(iv) इनमें से किसी से नहीं
उत्तर :
(ii) प्रत्यक्षावलोकन से
(छ) कवि के संबंध में इनमें से कौन-सा तथ्य सही है?
(i) ज्वालामुखी की खोज करता है
(ii) जीवधारियों की खोज करता है
(iii) नग्न सत्य का उपासक नहीं होता
(iv) उपर्युक्त सभी गलत
उत्तर :
(iii) नग्न सत्य का उपासक नहीं होता
(ज) किसके अंगों का विश्लेषण करने को वैज्ञानिक तैयार हो जाता है?
(i) ज्वालामुखी के
(ii) पुष्प के
(iii) जीवधारियों के
(iv) प्रकृति के
उत्तर :
(ii) पुष्प के
(झ) ‘इत’ प्रत्यय युक्त शब्द कौन-सा नहीं है?
(i) वैज्ञानिक
(ii) प्रफुल्लित
(iii) स्थापित
(iv) प्रस्फुटित
उत्तर :
(iv) प्रस्फुटित
(ज) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-
(i) कवि की सोच
(ii) वैज्ञानिक दृष्टिकोण
(iii) प्रकृति के उपासक
(iv) उपर्युक्त सभी गलत हैं
उत्तर :
(iii) प्रकृति के उपासक