Reading Class 8 Hindi Notes Malhar Chapter 5 कबीर के दोहे कविता Summary in Hindi Explanation helps students understand the main plot quickly.
कबीर के दोहे कविता Class 8 Summary in Hindi
कबीर के दोहे Class 8 Hindi Summary
कबीर के दोहे कविता का सारांश – कबीर के दोहे Class 8 Summary in Hindi
प्रस्तुत दोहे भक्तिकालीन निर्गुण संत कवि कबीरदास द्वारा रचित हैं। इन दोहों में कबीरदास ने जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है और व्यावहारिक ज्ञान तथा नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी है। वे सत्य की महिमा, बड़प्पन का अर्थ, गुरु का महत्व, संतुलित व्यवहार, वाणी की मधुरता, निंदक की उपयोगिता और अच्छी संगति के प्रभाव जैसे विषयों पर अपनी गहरी अंतर्दृष्टि प्रस्तुत करते हैं। ये दोहे सरल भाषा में गहन अर्थ को समाहित किए हुए हैं और आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने अपने समय में थे।
कबीर के दोहे कविता हिंदी भावार्थ Pdf Class 8
कबीर के दोहे सप्रसंग व्याख्या
1. साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदे साँच है, ता हिरदे गुरु आप।। (पृष्ठ सं०-63)
शब्दार्थ :
साँच – सत्य, सच्चाई ।
तप – तपस्या, साधना ।
पाप – कुकृत्य।
हिरदे – हृदय, मन।
आप – आत्मा, ईश्वर का अंश ।
प्रसंग : इस दोहे में कबीरदास जी सत्य की महिमा और झूठ दुष्परिणामों का वर्णन करते हुए बताते हैं कि सच्चा हृदय ही ईश्वर का निवास स्थान है।
व्याख्या: कबीर कहते हैं कि सत्य बोलने और सत्य पर चलने से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है, और झूठ बोलने से बढ़कर कोई पाप नहीं है। जिस व्यक्ति के हृदय में सच्चाई निवास करती है, अर्थात जो व्यक्ति सच्चा और ईमानदार है, उसके हृदय में स्वयं गुरु (ईश्वर का अंश) वास करते हैं। यह दोहा सत्य को परम धर्म और ईश्वर- प्राप्ति का मार्ग बताता है।

2. बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं, फल लागेँ अति दूर।। (पृष्ठ सं०-63)
शब्दार्थ :
पंथी – पथिक, राहगीर ।
प्रसंग : इस दोहे में कबीरदास जी दिखावटी बड़प्पन और परोपकार विहीन जीवन की निरर्थकता को खजूर के पेड़ का उदाहरण देकर समझाते हैं।
व्याख्या: कबीरदास जी कहते हैं कि बड़ा होने या धनवान होने का क्या लाभ, यदि व्यक्ति खजूर के पेड़ के समान हो । खजूर का पेड़ बहुत ऊँचा होता है, लेकिन वह राहगीरों को न तो छाया प्रदान करता है और न ही उसके फल आसानी से पहुँच में होते हैं।
ठीक उसी प्रकार, वह व्यक्ति बड़ा होकर भी व्यर्थ है जो किसी के काम नहीं आता और दूसरों का भला नहीं करता। इस दोहे का तात्पर्य यह है कि बड़प्पन का असली अर्थ दूसरों के लिए उपयोगी होना है।
3. गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागौं पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।। (पृष्ठ सं०-63)
शब्दार्थ :
गुरु – शिक्षक, आध्यात्मिक मार्गदर्शक ।
गोविंद – ईश्वर, भगवान।
काके – किसके ।
पाँय – पैर ।
बलिहारी – न्योछावर, कुर्बान।
प्रसंग : यह दोहा गुरु की महत्ता को दर्शाता है और बताता है कि गुरु का स्थान ईश्वर से भी बढ़कर है क्योंकि वे ही ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग दिखाते हैं।
व्याख्या: कबीरदास जी कहते हैं कि यदि गुरु और गोविंद (ईश्वर) दोनों एक साथ खड़े हों, तो पहले किसके पैर छूने चाहिए? इस दुविधा का समाधान करते हुए वे कहते हैं कि मैं अपने गुरु पर न्योछावर हूँ, क्योंकि उन्होंने ही मुझे गोविंद (ईश्वर) तक पहुँचने का रास्ता बताया है।
गुरु ही ज्ञान देकर अज्ञानता का अँधेरा दूर करते हैं और ईश्वर – प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसलिए गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊँचा है।
4. अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप ।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।। (पृष्ठ सं०-63)
शब्दार्थ :
अति – अत्यधिक बहुत अधिक।
चूप – चुप रहना, मौन।
भला – अच्छा।
भली – अच्छी ।
प्रसंग : इस दोहे में कबीरदास जी हर चीज़ में संतुलन बनाए रखने के महत्व पर जोर देते हैं, और बताते हैं कि किसी भी चीज़ की अति अच्छी नहीं होती।
व्याख्या: कबीर कहते हैं कि न तो अत्यधिक बोलना अच्छा होता है और न ही अत्यधिक चुप रहना । जिस प्रकार, न तो बहुत अधिक बारिश अच्छी होती है और न ही बहुत अधिक धूप। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन आवश्यक है। किसी भी कार्य या प्रवृत्ति की अति हानिकारक होती है। यह दोहा संयम और संतुलन का संदेश देता है।
5. ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहुँ सीतल होय।। (पृष्ठ सं०-63)
शब्दार्थ :
बानी – वाणी, बोली ।
आपा – अपना अस्तित्व / अहंकार ।
खोय – खो देना, त्याग देना।
औरन – दूसरों को ।
सीतल – शीतल, ठंडा।
आपहुँ – स्वयं भी ।
प्रसंग : इस दोहे में कबीरदास जी मधुर वाणी के महत्व और उसके सकारात्मक प्रभावों का वर्णन करते हैं।
व्याख्या : कबीर कहते हैं कि हमें ऐसी वाणी बोलनी चाहिए, जिसमें अहंकार (आपा) या क्रोध का लेश मात्र भी अंश नहीं। जो दूसरों को शीतलता और शांति प्रदान करे और स्वयं को भी शांति और शीतलता का अनुभव हो अर्थात हमें अहंकार रहित, विनम्र और मधुर वचन बोलने चाहिए, जिससे सुनने वाले और बोलने वाले दोनों को सुख की अनुभूति हो ।
6. निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुभाय।। (पृष्ठ सं०-63)
शब्दार्थ :
निंदक – निंदा करने वाला, आलोचक ।
नियरे – नज़दीक, पास।
राखिए – रखना चाहिए ।
आँगन कुटी छवाय – आँगन में कुटिया बनाकर, अर्थात बहुत पास।
साबुन – शरीर, कपड़े आदि साफ करने का प्रसाधन ।
निर्मल – स्वच्छ, शुद्ध ।
सुभाय – स्वभाव, चरित्र ।
प्रसंग : इस दोहे में कबीरदास जी निंदक ( आलोचक ) को अपने पास रखने की सलाह देते हैं और बताते हैं कि निंदक व्यक्ति के स्वभाव को शुद्ध करने में सहायक होता है।
व्याख्या: कबीर कहते हैं कि निंदा करने वाले व्यक्ति को हमेशा अपने करीब रखना चाहिए, हो सके तो अपने आँगन में ही उसके लिए कुटिया बनवा देनी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि निंदक बिना पानी और साबुन के ही हमारे स्वभाव को स्वच्छ और निर्मल कर देता है अर्थात, जब कोई हमारी आलोचना करता है तो हम अपनी कमियों को पहचान कर उन्हें सुधारते हैं, जिससे हमारा स्वभाव शुद्ध होता है। निंदक एक प्रकार से हमारा हितैषी होता है जो हमें आत्म-सुधार का अवसर देता है।
7. साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार सार को गहि रहै, थोथा देइ उड़ाय ।। (पृष्ठ सं०-63)
शब्दार्थ :
साधू – सज्जन व्यक्ति, संत ।
सूप – अनाज साफ करने का उपकरण।
सार-सार – उपयोगी तत्व, अच्छी बातें।
गहि रहै – ग्रहण करना।
थोथा – निरर्थक, बेकार ।
उड़ाय – उड़ा देना, त्याग देना ।
प्रसंग : इस दोहे में कबीरदास जी एक आदर्श संत या सज्जन व्यक्ति के गुणों का वर्णन करते हैं, जिसकी तुलना सूप से की गई है।
व्याख्या: कबीर कहते हैं कि सज्जन व्यक्ति ऐसा होना चाहिए जिसका स्वभाव सूप (अनाज साफ करने वाला उपकरण) के समान हो। जिस प्रकार सूप अनाज में से सार (अनाज के दाने) को अपने अंदर रख लेता है और थोथे (कचरे या भूसे) को उड़ा देता है, उसी प्रकार एक साधु या सज्जन व्यक्ति को समाज से केवल अच्छी और उपयोगी बातों को ग्रहण करना चाहिए और व्यर्थ तथा अनुपयोगी बातों को त्याग देना चाहिए। यह दोहा विवेकपूर्ण चुनाव और ग्रहणशीलता का महत्व बताता है।
8. कबिरा मन पंछी भया, भावै तहवाँ जाय।
जो जैसी संगति करै, सो तैसा फल पाय ।। (पृष्ठ सं०-63)
शब्दार्थ :
पंछी – पक्षी ।
भावै – जहाँ मन करे, जहाँ इच्छा हो ।
संगति – साथ, सोहबत।
फल – परिणाम |
प्रसंग : इस दोहे में कबीर मन की चंचलता और असीमित गतिशीलता के साथ ही संगति के प्रभाव और परिणामों का वर्णन करते हैं।
व्याख्या: कबीर कहते हैं कि उनका मन पक्षी के समान हो गया है, जो जहाँ चाहे, वहाँ उड़कर जा सकता है। यह दोहा मन की स्वच्छंदता, तीव्र गति और नियंत्रणहीन स्वभाव को दर्शाता है। यह मन की असीमित कल्पना शक्ति और विचारशीलता का भी प्रतीक है। इसे संतुलित या नियंत्रित करते हुए ही सही संगति का चुनाव कर सकते हैं।
व्यक्ति जैसी संगति करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। अर्थात, यदि व्यक्ति अच्छी संगति में रहता है तो उसे अच्छे परिणाम मिलते हैं और यदि वह बुरी संगति में रहता है तो उसे बुरे परिणाम भुगतने पड़ते हैं। यह दोहा जीवन में अच्छी संगति के चयन के महत्व पर जोर देता है, क्योंकि यह व्यक्ति के व्यक्तित्व और भविष्य को सीधे प्रभावित करती है।