In this post, we have given Class 12 Hindi Antra Chapter 8 Summary – Barahmasa Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 12 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 12 Hindi subject.
बारहमासा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 8 Summary
बारहमासा – मलिक मुहम्मद जायसी – कवि परिचय
प्रश्न :
मलिक मुहम्मद जायसी का संक्षिप्त जीवन – परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए एवं भाषा – शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन परिचय – मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म सन् 1492 में हुआ। वे उत्तर प्रदेश में अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसी कारण उन्हें जायसी कहा गया। शरीर से वे सुंदर नहीं थे। उनके मुख पर चेचक के दाग थे। कहते हैं कि वे शेरशाह सूरी के दरबार में गए तो सुलतान उनकी कुरुपता पर हँस पड़ा। कवि ने कहा, ” मुझ पर क्या हँसते हो, उस बनाने वाले पर हैंसो”।। शेरशाह ने लज्जित होकर क्षमा माँगी। जायसी ने अपने काव्य में सैयद अशरफ़ और शेख बुरहान को गुरुओं के रूप में याद किया है। उनकी मृत्यु सन् 1542 में हुई।
रचनाएँ – जायसी की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं –
‘पद्मावत’, ‘अखरावट’ और ‘आखिरी कलाम’। इनमें ‘पद्मावत’ के आधार पर ही कवि को ख्याति मिली।
काव्यगत विशेषताएँ – जायसी सूफी काव्य के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उनका काव्य ‘पद्मावत’ भारतीय लोककथा पर आधारित प्रबंध काव्य है। इस काव्य में सिंहल देश की राजकुमारी पद्मावती और चित्तौड़ के राजा रत्नसेन की प्रेमकथा का वर्णन है। इस कथा के वर्णन में कही – कहीं आध्यात्मिक अर्थ भी है। काव्य के अंत में कवि कहता है कि शरीर को चित्तौड़ समझो और राजा रत्नसेन को मन। सिंहल का अर्थ – हृदय है तथा पद्मावती का अर्थ – बुद्धि है। नागमती गोरखधंधा है तथा राघव चेतन शैतान है। राजा अलाउद्दीन माया है अर्थात् शरीर में विद्यमान मन, साधना पथ से हुदय में स्थित ऋतंभरा बुद्धि को पाकर इहलोक से परलोक की ओर गमन करके मुक्त होता है। शैतान माया को शरारत से प्रेरित करके बाधा डालता है, परंतु मन माया से बचकर मोक्ष की ओर गमन करता है। संसार का गोरखधंधा (प्रलोभन) छोड़ने पर ही बुद्धि प्राप्त होती है।
‘पद्मावत’ काव्य की कथा सरों में विभाजित है और सर्गों में कड़वक – शैली अपनाई गई है। $16 – 16$ मात्राओं की कुछ अर्धालियों के बाद धत्ता रखने से कड़वक बनता है। यही शैली ‘रामचरितमानस’ में भी है। फारसी की मसनवी – शैली इससे मिलती – जुलती है। यह काव्य अवधी भाषा में लिखा गया है और इसके नायक रत्नसेन पर नाथ पंथ का प्रभाव दिखाई देता है।’ पद्मावत ‘में भारतीय महाकाव्य परंपरा का अधिकतर निर्वाह किया गया है। जायसी के काव्य में परंपरागत उपमानों से अलंकारों का सहज वर्णन है।
जायसी की भाषा बोलचाल की अवधी है। उन्होंने छोटे – छोटे वाक्यों का प्रभावशाली प्रयोग किया है। नाटकीय क्रिया व्यापारों में अर्थ एकदम स्पष्ट होकर उभरता है –
‘सरवर तीर पदमिनी आई। खोंपा छोरि केस मुकलाई॥’
जायसी ने शब्दालंकारों व अर्थालंकारों का समुचित उपयोग किया है। उन्होंने केवल पांडित्य प्रदर्शन हेतु इनका प्रयोग नहीं किया, अपितु भावों की तीव्रता प्रदर्शित करने में इन्हें सहयोगी बनाया है; जैसे –
‘नैन सीप आँसू तस भरे। जानौ मोति गिरहिं सब ढरे।’
उन्होंने रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, अनुप्रास, मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रयोग किया है; जैसे –
‘ऐ रानी! मनु देखु बिचारी। एहि नैहर रहना दिन चारी।
जौ लगि अहै पिता कर राजू। खेलि लेहु जो खेलहु आजू॥’
कवि ने काव्य में संवादों का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है। उनके सजीव पात्र ही नहीं, जड़ पात्र भी मार्मिक भावों की अभिव्यंजना करते हैं; जैसे – मानसरोवर तालाब के संवाद देखिए :
भा निरमल तिंह पाँयह परसे। पावा रूप रूप के दरसे।
मलय समीर बास तन आई। भा शीतल, गै तपनि बुझाई।।
Barahmasa Class 12 Hindi Summary
प्रस्तुत पाठ में जायसी की प्रसिद्ध रचना ‘पद्मावत’ के ‘बारहमासा’ पाठ का एक अंश दिया गया है। इसमें कवि ने नायिका नागमती के विरह-वेदना का वर्णन किया है। कवि ने शीत के अगहन, पूस, माघ और फाल्गुन महीनों में नायिका की विरह दशा का चित्रण किया है। पहले पद में प्रेमी के वियोग में नायिका विरह की अगिन में जल रही है और भँवरे तथा काग के समक्ष अपनी स्थितियों का वर्णन करते हुए नायक को संदेश भेज रही है। दूसरे पद में विरहिणी नायिका के वर्णन के साथ-साथ शीत से उसका शरीर काँपने तथा वियोग से हुदय काँपने का सुंदर चित्रण है।
चकई और कोकिला से नायिका के विरह की तुलना की गई है। नायिका विरह में शंख के समान हो गई है। तीसरे पद में माघ महीने में जाड़े से काँपती हुई नागमती की विरह – दशा का वर्णन है। वर्षा का होना तथा पवन का बहना भी विरह – ताप को बढ़ा रहा है। अंतिम पद में फागुन मास में चलने वाले पवन झकोरे शीत को चौगुना बढ़ा रहे हैं। सभी फाग खेल रहे हैं, परंतु नायिका विरह-ताप में और अधिक संतप्त होती जाती है।
बारहमासा सप्रसंग व्याख्या
1. अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दुख सो जाइ किमि काढ़ी
अब धनि देवस बिरह भा राती। जरें बिरह ज्यों दीयक बाती
काँपा हिया जनावा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीक
घर घर चीर रचा सब काहूँ / मोर रूप रँग लै गा नाहू
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिरे फिरे रँग सोई
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।
यह दुख दगध न जानै कंतू। जोबन जरम करें भसमंतू
पिय सौं कहेहु सँदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग
शब्दार्थ :
- देवस – दिवस, दिन (day)।
- घटा – कम हो गया (decreased)।
- निसि – रात (night)।
- बाढ़ी – बढ़ गया (increased)।
- दूभर – असहनीय (unbearable)।
- किमि – कैसे (how)।
- काढ़ी – निकालना (to draw off) ।
- धनि – स्ती (woman)।
- जरै – जलना (to burn)।
- हिया – हद्य (heart)।
- सीक – सदी से लगने वाली कँपकँपी (shiver)।
- पीक – पति, प्रेमी (husband)।
- चीर – वस्त्र (cloth)।
- नाहू – पति (रत्नसेन) (husband)।
- पलटि – पलटकर (in return of)।
- बहुरा – वापस आया (came back)।
- बिछोई – बिछुड़ना (to be separation from a person)।
- फिरै – वापस आना (to come back)।
- सियरि – ठंडी (cold)।
- जारा – जला दिया (burned)।
- दगधै – जलती हुई (burning)।
- छारा – राख (ashes)।
- दगध – जलन (विरह – व्यथा) (sensation)।
- कंतू – प्रिय (beloved)।
- जोवन – यौवन (youth)।
- जरम – जीवन (life)।
- भसमंतू – राख होते जाना (to be turned into ashes)।
- सँदेसरा – संदेश (message)।
- काग – कौआ (crow)।
- तेहिक – उसी का (his)।
प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित ‘बारहमासा’ पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता प्रेमाख्यान धारा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। इस अंश में, अगहन मास में विरहिणी नायिका की दशा का चित्रण किया गया है।
व्याख्या – विरह – व्यथा में जलती नागमती भौरा और कौए के माध्यम से अपने पति राजा रत्नसेन को संदेश भेजती हुई कहती है कि अगहन में दिन छोटा हो गया और रात बड़ी हो गई। ऐसे में प्रिय के बिना दूभर रात कैसे बिताई जाए? अब तो इस बिरह में दिन भी रात के समान हो गए हैं। मैं दीये की बाती जैसी जल रही हूँ। हुदय कँपाती हुई सर्दी तभी दूर हो सकती है जब प्रिय समीप हो। घर – घर सब किसी ने चीर रचे अर्थात् जाड़ों के कपड़े बनवाए, परंतु मेरा तो सब रूप और रंग मेरा नाथ ले गया है।
पता नहीं किस अशुभ घड़ी में प्रिय मुझसे दूर गया कि फिर लौटकर नहीं आया। वह अब वापस आ जाए तो मेरा पहले जैसा रंग फिर आ जाए। विरह की वज्राग्नि ने मुझ विरहिणी का हुदय जलाया है जो सुलग – सुलग कर जलकर राख हो रहा है। प्रिय मेरी इस विरह की जलन से अनभिज्ञ है, इसलिए वह स्वयं नहीं आ रहा है। इस प्रकार विरहागिन मेरे यौवन व जन्म को भस्मांत कर रही है। नागमती भौरा एवं काग को संबोधित कर कहती है कि हे भौरे! हे काग! मेरे प्रिय से यह संदेशा कहना कि तुम्हारी प्रिया नागमती विरह की आग में सुलग – सुलग कर जल मरी, उसी का धुआँ हमें लग गया, जिससे हम काले हो गए।
विशेष :
- इस पद में नायिका भँवरे और काग के माध्यम से अपने प्रेमी को संदेश भेज रही है।
- अवधी भाषा में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- वियोग पक्ष का चित्रण है।
- अंतिम दो पंक्तियाँ काव्य में अमर हैं।
काव्य – सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य – सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव – सौंदर्य :
- नागमती की विरह – वेदना का हृदयस्पर्शी एवं सजीव चित्रण है।
- कवि को भारतीय ऋत्रतं और महीनों की गहन जानकारी है।
- संदेश भेजने की प्राचीन पद्धति का उल्लेख है।
शिल्प-सौंदर्य :
- अवधी भाषा का स्वाभाविक प्रयोग है। भाषा भावाभिव्यक्ति में समर्थ है।
- काव्य – रचना ‘कड़वक’ छंद में है, जो चौपाई – दोहा जैसा ही है।
- वियोग श्शृंगार रस घनीभूत है।
- काव्यांश में अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।
- ‘घर – घर’, ‘सुलगि सुलगि’, ‘फिरै फिरै’ में पुनरुक्ति प्रकाश, ‘ज्यों दीपक बाती’ में उत्र्रेक्षा अलंकार, अंतिम दो पंक्तियों (दोहा) में अतिशयोक्ति अलंकार है।
- अभिधा शब्द – शक्ति से कथन में सजीवता उत्पन्न हुई है।
2. पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा
बिरह बाढ़ि भा दारुन सीक। कँपि कँपि मरों लेहि हरि जीऊ।।
कंत कहाँ हौं लागों हियरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।।
सौर सुपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।।
चकई निसि बिछुँ दिन मिला। हों निसि बासर बिरह कोकिला।
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसें जिओं बिछोही पँखी ॥
बिरह सैचान भैवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।
रकत ढरा माँसू गरा हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई आइ समेटहु पंख्य।
शब्दार्थ :
- जाड़ – सर्दी, ठंडक (cold, winter)।
- सुरुज – सूरज (sun)।
- जड़ाइ – ठंड (to feel cold)।
- लंक दिसि – दक्षिण (south)।
- तापा – गरम होना (to be hot)।
- दारुन – भयंकर (horrible)।
- सीक – सर्दी (cold)।
- लेहि – लेगा (to take away)।
- जीऊ – जान, प्राण (life)।
- हियरें – हदय से (heart)।
- नियरें – नज़दीक (near)।
- सौर – रजाई (a quilt)।
- सुपेती – हल्की (less weighted)।
- जूड़ी – कँपकँपी देकर आने वाला बुखार (shivering before the advent of fever)।
- जानहुँ – समझ लो (understand)।
- सेज – बिस्तर (bed)।
- हिबंचल – बर्फ के अचचल में (in the lap of snow)।
- बूढ़ी – डूबी हुई (sunk)।
- चकई – चकवी, एक पक्षी का नाम (the female of a ruddy goose)।
- निसि – रात (night)।
- बिछुचैं – अलग हो जाने पर (separated)।
- बासर – दिन (day)।
- रैनि – रत (night)।
- बिछौही – बिछड़ी हुई (separated)।
- पंखी – मादा पक्षी (she bird)।
- सैचान – बाज पक्षी (a hwak)।
- चाँड़ा – भोजन (eatable)।
- रकत – रक्त (blood)।
- ढरा – बह गया (flew away)।
- गरा – गल गया (melted)।
- ररि – रट – रटकर (repeating)।
- मुई – मर गई (died)।
- समेटहुँ – एकत्र करो (to collect)।
प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित ‘बारहमासा’ पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता प्रेमाख्यान धारा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। इस अंश में, पूस माह में विरहिणी नायिका की दशा का चित्रण किया गया है।
व्याख्या – अपनी विरह वेदना को मुखर करती हुई नागमती कहती है कि पूस महीने में सदीं और बढ़ गई है, जिससे उसका शरीर थर – थर काँपने लगा और अब सूर्य दक्षिण दिशा अर्थात् दक्षिणायन में चमक रहा है। ऐसे में विरह बढ़ गया, जिससे शीत और अधिक कष्टप्रद हो गया। में काँप-काँपकर मर रही हूँ। भयंकर सर्दी मेरी जान लेकर ही छोड़ेगी। हे प्रिय ! तुम कहाँ हो में तुम्हारे हदय कैसे लगूँ ? पंथ अपार है, समीप नहीं सूझता। तुम कहाँ हो यह मैं नहीं जानती, तुम्हारे हंदय से कहाँ आ लगूँ ? ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों में तुम्हारे बिना जड़ी आ जाती है।
इतनी सर्दी लगती है मानो सेज बर्फ़ में डूब गई हो। चकवी रात को बिछड़ती है तो दिन में अपने प्रियतम से मिल जाती है, परंतु मैं तो दिन-रात विरहिणी कोकिला हूँ। विरह की आग में जलकर कोयल – सी काली हो गई हैं। रात में अकेली हूँ। सखी भी साथ नहीं है, इस दशा में मैं अपने प्रिय से बिछुड़ी पक्षिणी – सी कैसे जिऊँ ? मुझ पक्षिणी के लिए जाड़े में विरह बाज हो गया है जो मुझ जीवित को तो खा ही रहा है, मरे पर भी नहीं छोड़ेगा। रक्त आँसू बनकर और कभी पसीना बनकर भी ढलक गया, मांस गल गया और सब हड्डियाँ शंख – सी हो गईं। नागमती मादा सारस बनकर तेरा नाम रट – रटकर मर सी गई है। हे प्रिय ! और कुछ न सही तो अब उसके पंख ही समेट लो।
विशेष :
- कवि ने नायिका के शरीर के शीत से काँपने का चित्रण किया है।
- नायिका की तुलना शंख से की गई है।
- पूरे पद में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
- अवधी भाषा है।
काव्य – सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य – सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव – सौंदर्य :
- शीत एवं विरह की पीड़ा से तिल – तिल कर मरती, काँपती नागमती का हदयस्पर्शी चित्रण है।
- पूस महीने की सर्दी का कवि ने स्वाभाविक वर्णन किया है, जिससे उसके ऋतु ज्ञान का पता चलता है।
शिल्प – सौंदर्य :
- अवधी भाषा का स्वाभाविक प्रयोग है। भाषा भावाभिव्यक्ति में समर्थ है।
- काव्य – रचना ‘कड़वक’ छंद में है, जो चौपाई – दोहा जैसा ही है।
- वियोग श्रृंगार रस घनीभूत है।
- काव्यांश में अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।
- ‘कँपि – कँपि’ में पुनरुक्ति प्रकाश, ‘जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी’ में उत्रेक्षा, ‘हौं निसि बासर बिरह कोकिला’ तथा ‘धनि सारस होइ ररि मुई’ में उपमा अलंकार एवं दोहे में अतिशयोक्ति अलंकार है।
- ‘विरह सैचान’ में रूपक अलंकार है।
- माधुर्य गुण से ओत – प्रोत है।
3. लागेड माँह परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला॥
पहल पहल तन रुई जो झापये। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँपै॥
आई सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ॥
एहि मास उपजै रस मूलू। विरह पवन होई मारैं झोला॥
नैन चुवहिं जस माँहुट नीरू। गियँ नहिं हार रही होइ डोरा
टूटहि बुंद परहिं जस ओला। तेहि जल अंग लगा सर चीरू॥
केहिक सिंगार को पहिर पटोरा। तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू॥
तुम्ह बिनु कंता धनि हरूई तन तिनुवर भा डोल॥
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उड़ावा झोल॥
शब्दार्थ :
- माँह – माघ महीना (a month of winter season)।
- पाला – तुषार, अत्यंत कड़ी ठंडक (frost)।
- जड़काला – मौत, मृत्यु (death)।
- पहल – पहल (beginning)।
- तन – शरीर का प्रत्येक अंग (each part of body)।
- झापैं – ढक लेना (to cover)।
- हहलि, हहलि – थरथराना (to quiver)।
- सूर – सूरज (sun)।
- तपु – तपना (to be very hot)।
- नाहाँ – स्वामी, पति (husband)।
- माहाँ – माघ (winter season month)।
- एहि – इसी (in this)।
- मूलू – जड़ों में (in roots)।
- भँवर – भौरा (a large black bee)।
- जोबन – यौवन, जवानी (youth)।
- फूलू – पुष्प (flower)।
- चुवहिं – बरसते हैं, टपकते हैं (to drop)।
- माँहुट – महावट अर्थात् जाड़े में होने वाली वर्षा (a rain which fall in month of magha)।
- नीरू – जल (water)।
- सर – बाण (arrow)।
- चीर – वस्त्र (cloth)।
- बुंद – बूँदें (drops)।
- जस – समान (like, same)।
- झोला – झकझोरा (to give a violent jerk)।
- केहिक – किसके लिए (for whose)।
- पटोरा – रेशमी वस्त्र (a kind of silken cloth)।
- गियँ – गर्दन, गला (neck)।
- हार – बहुमूल्य आभूषण (garland)।
- डोरा – पतला धागा (a thin thread)।
- हरुई – हल्की, दुर्बल (week)।
- तन – शरीर (body)।
- तिनुवर – तिनके के समान (like a bit of dry grass)।
- डोल – हिलता रहता है (to ramble)।
- जराइ – जलाकर (burning)।
- झोल – राख (ashes)।
प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2 ‘ में संकलित ‘बारहमासा’ पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता प्रेमाख्यान धारा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। इस अंश में, माघ माह में नायिका की स्थिति का वर्णन है।
व्याख्या – विरह की दु:सह पीड़ा झेल रही नागमती को माघ महीना और भी कष्टकर लगता है। वह अपनी विरह के बारे में कहती है कि अब माघ मास में पाला पड़ने लगा। जाड़े की ऋतु में विरह काल के समान हो गया। ऐसा लगता है कि यह विरह रूपी काल मेरी जान लेकर ही छोड़ेगा। जैसे – जैसे शरीर के अंग – अंग को रुई से ढकते हैं, वैसे – वैसे हहर – हहर कर हृदय अधिक काँपता है। हे नाथ! आकर सूर्य होकर तप अर्थात् सूर्य की तरह गर्मी प्रदान कीजिए। तेरे बिना माघ का जाड़ा नहीं छूटेगा।
इसी मास में रस का मूल उत्पन्न होता है अर्थात् वसंत ऋतु में खिलने वाली वनस्पतियों की जड़ों में इसी काल में रस उत्पन्न होता है। भाव यह है कि पति के संग रहते नागमती में काम भावना पैदा नहीं हुई, अब विरह उसमें काम – भाव जगा रहा है। तू भौरे के समान और मेरा यौवन फूल के समान है और तुम ही वह भ्रमर हो जो मेरे यौवन रूपी फूल के रस का पान कर सकते हो। मेरे नयन महावट के नीर के समान टपक रहे हैं। तेरे बिना आसुँओं से गीले वस्त्र शरीर में बाण जैसे चुभते हैं।
टप – टप ओले जैसी शीतल बूँदें गिर रही हैं और विरह पवन बनकर मुझे झकझोर देता है। किसके लिए शृंगार ? और कौन पहिने रेशमी वस्त्र ? अर्थात् किसके लिए साज – शृंगार ? जब तुम नहीं हो। गले में प्रिय की बाँहों का हार भी नहीं रहा, जिससे मैं पतले धागे जैसी क्षीण होकर रह गई हूँ। हे स्वामी! तुम्हारे बिना मैं सूखकर हल्की हो गई हूँ और शरीर तिनके के समान डोल रहा है। इस पर विरह भी जलाकर मेरी राख उड़ा देना चाहता है।
विशेष :
- कवि ने माघ में जाड़े से पीड़ित नायिका का वर्णन किया है।
- अवधी भाषा में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- वियोग पक्ष का चित्रण है।
- प्रकृति का स्वाभाविक वर्णन है।
काव्य – सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
काव्यांश का काव्य – सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव – सौंदर्य :
- नागमती की माघ महीने में विरह विदग्धता का हदयस्पर्शी वर्णन है।
- माघ महीने की प्रकृति का स्वाभाविक वर्णन कवि के गहन ऋतु – मास ज्ञान का द्योतक है।
शिल्प – सौंदर्य :
- अवधी भाषा का स्वाभाविक प्रयोग है। भाषा भावाभिव्यक्ति में समर्थ है।
- काव्य – रचना ‘कड़वक’ छंद में है, चौपाई – दोहा जैसा ही है।
- वियोग शृंगार रस घनीभूत है।
- काव्यांश में अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।
- ‘हहलि हहलि’ में पुनरुक्ति प्रकाश, ‘विरहा काल’, ‘विरह पवन’, ‘जोबन फूलू’ में रूपक अलंकार, ‘टूटहिं बुंद परहिं जस ओला’ में उपमा अलंकार तथा अनेक जगह में अतिशयोक्ति अलंकार है।
- काव्यांश माधुर्य गुण से ओत – प्रोत है।
4. फागुन पवन झँकौरै बहा। चौगुन सीड जाइ किमि सहा॥
तन जस पियर पात भा मोरा। बिरह न रहै पवन होइ झोरा॥
तरिवर झौरै झरे बन बाँखा। भइ अनपत्त फूल फर साखा॥
करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कहँ भा जग दून उदासू”॥
फाग करहि सब चाँचरि जोरी। मोहिं जिय लाइ दीनि जसि होरी ॥
जों पै पियहि जरत अस भावा। जरत मरत मोहि रोस न आवा॥
रातिहु देवस इहै मन मोरें। लागों कंत छार? जेऊँ तोरें॥
यह तन जारौं छार कै कहौं कि पवन उड़ाउ॥
मकु तेहि मारग होइ परों कंत धरें जहँँ पाउ॥
शब्दार्थ :
- झँकोरै – तेज पवन का झोंका (to shake with a jerk)।
- चौगुन – चार गुना (four times)।
- शीत – सर्दी (cold)।
- पियर – पीला (yellow)।
- पात – पत्ता (leaf)।
- झोरा – झकझोरना (push of something)।
- झरै – झड़ रहे हैं (the act of falling from a tree)।
- बन – जंगल (jungle)।
- ढाँखा – लाल रंग के पुष्प एवं तीन पत्तों वाला वृक्ष (a tree that bear red flower in spring season)। अनपत्त – बिना पत्तों के (without leaves)।
- फर – फल (fruits)।
- बनाफति – वनस्पति (small plants)।
- हुलासू – उल्लास प्रकट करते हुए (rejoicing)।
- फाग – होली का त्योहार (festival of holi)।
- चाँचरि – परस्पर रंग डालना (to make colourful each other)।
- जोरी – जोड़ी (pair)।
- जरत – विरहागिन में जलती हुई (to have a burning sensation)।
- भावा – अच्छी लगती है (to be pleasing)।
- रोस – गुस्सा (anger)।
- रातिहु – रात (night)।
- छार – राख (ashes)।
- जेऊँ – ज्यों, तरह हुदय (as same)।
- मकु – मानो, कदाचित (possibly)।
- मारग – रास्ता (ways)।
- परौं – गिरना (to come down)।
- पाउ – चरण (foot)।
प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित ‘बारहमासा’ पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता प्रेमाख्यान धारा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। इस अंश में फागुन माह में नायिका की दशा का चित्रण है।
व्याख्या – विरह व्यथा से व्याकुल नागमती अपनी दयनीय दशा के बारे में कहती है कि फागुन महीने में पवन का तेज़ झोंका बहने लगा। अब चौगुना शीत नहीं सहा जाता। मेरा शरीर पीला पत्ता जैसे हो गया अथात् कांतिहीन हो गया है। विरह रूपी पवन इसे लगातार झकझोर रहा है। ऐसे में यह जीर्ण शरीर सुरक्षित नहीं रह पाएगा। अब तो मृत्यु निश्चित – सी लगती है। वन में पेड़ – पौधे अपने पत्ते गिरा रहे हैं। ढाँख के वृक्ष पत्ते गिरा चुके हैं।
उनकी शाखाएँ पत्ते रहित हो फल – फूलहीन हो चुकी हैं। कुछ वनस्पतियों में नई कोंपलें फूट रही हैं। उन्हें देखकर लगता है, जैसे वे अपने हदय का उल्लास प्रकट कर रही हैं, परंतु रत्नसेन के बिना मुझे यह संसार दूना उदास लगने लगा है। फागुन में सब नर – नारी परस्पर जोड़ियाँ बनाकर एक – दूसरे को रंग में भिगोकर होली का आनंद उठा रहे हैं, परंतु मेरे शरीर में विरह की होली जल रही है। यदि मेरे प्रिय रत्लसेन को मेरा यूँ ही जलना – मरना अच्छा लगता है तो इस तरह विरहागिन में जलते – मरते हुए भी तनिक भी रोष (गुस्सा) नहीं आएगा अर्थात् मैं सहर्ष मरने को तैयार हुँ।
मेरे मन में अब तो रात – दिन यही लगा हुआ है कि स्वामी यदि मैं जलकर राख बन जाऊँ तो भी तुम्हारे हृदय से लग जाऊँ। नागमती कहती है कि नाथ! मेरी तो इच्छा यही है कि मैं विरहागिन में यह शरीर जला लूँ और पवन से कहूँ कि इस राख को उड़ाकर ले जाए। इस तरह मैं शायद उस मार्ग पर जा गिरूँ, जहाँ आपके चरण पड़ेंगे। भाव यह है कि मैं राख बनकर भी आपके चरणों का स्पर्श चाहती हुँ।
विशेष :
- कवि ने फागुन में नायिका की विरह दशा को बताया है।
- विरह का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है।
- अवधी भाषा में सुंदर अभिव्यक्ति है।
- शृंगार रस के वियोग पक्ष का चित्रण है।
काव्य – सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
काव्यांश का काव्य – सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
भाव – सौंदर्य :
- फागुन महीने में नागमती की विरह विदग्धता का मर्मस्पर्शी वर्णन है।
- नागमती अपने प्रिय रत्नसेन का सानिध्य पाने के लिए आत्मबलिदान करने को भी तत्पर है।
शिल्प-सौंदर्य :
- अवधी भाषा का स्वाभाविक प्रयोग है। भाषा भावाभिव्यक्ति में समर्थ है।
- काव्य – रचना ‘कड़वक’ छंद में है, चौपाई – दोहा जैसा ही है।
- वियोग श्रृंगार रस घनीभूत है।
- काव्यांश में अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।
- ‘झरै – झरे’ में पुनरुक्ति प्रकाश, ‘तन जस पियर पात भा मोरा’ में उपमा अलंकार ‘विरह न रहै पवन’ में रूपक अलंकार, ‘करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू’ में मानवीकरण, ‘मोहि जिय लाइ दीन्हि जसि होरी’ में उत्प्रेक्षा तथा जगह – जगह अतिशयोक्ति अलंकार है।
- अभिधा शब्द – शक्ति से कथन में सहजता और सजीवता उत्पन्न हो गई है।