In this post, we have given Class 12 Hindi Antra Chapter 18 Summary – Jahan Koi Wapsi Nahi Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 12 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 12 Hindi subject.
जहाँ कोई वापसी नहीं Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 18 Summary
जहाँ कोई वापसी नहीं – निर्मल वर्मा – कवि परिचय
प्रश्न :
निर्मल वर्मा का जीवन परिचय देते हुए उनके साहित्यिक योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन परिचय-निर्मल वर्मा का जन्म सन् 1929 में शिमला (हिमाचल प्रदेश) में हुआ। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में एम०ए० किया और अध्यापन करने लगे। चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य-विद्या संस्थान ‘प्राग’ के निमंत्रण पर सन् 1959 में वहाँ गए और चेक उपन्यासों तथा कहानियों का हिंदी अनुवाद किया।
उनको हिंदी के समान ही अंग्रेज़ी पर भी अधिकार प्राप्त था। उन्होंने ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ तथा ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के लिए यूरोप की सांस्कृतिक एवं राजनीतिक समस्याओं पर अनेक लेख और रिपोर्ताज लिखे हैं जो उनके निबंध-संग्रहों में संकलित हैं। सन् 1970 में वे भारत लौट आए और स्वतंत्र लेखन करने लगे। उनका निधन सन् 2005 में हुआ।
रचनाएँ – निर्मल वर्मा का मुख्य योगदान हिंदी कथा-साहित्य के क्षेत्र में है। वे नई कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं।
उनकी साहित्यिक रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
कहानी-संग्रह – परिंदे, जलती झाड़ी, तीन एकांत, पिछली गर्मियों में, कव्वे और काला पानी, बीच बहस में, सूखा तथा अन्य कहानियाँ आदि।
उपन्यास-वे दिन, लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख, अंतिम अरणय, रात का रिपोर्टर।
यात्रा-संस्मरण-हर बारिश में, चीड़ों पर चाँदनी, धुंध से उठती धुन।
निबंध-संग्रह – शब्द और स्मृति, कला का जोखिम, ढलान से उतरते हुए।
लेखक द्वारा लिखित उपन्यास ‘रात का रिपोर्टर’ पर सीरियल तैयार किया गया। सन् 1985 में ‘कव्वे और काला पानी’ पर उनको ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिला। इसके अतिरिक्त उन्हें कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया।
भाषा-शिल्प – उनकी भाषा-शैली में एक ऐसी अनोखी कसावट है, जो विचार-सूत्र की गहनता को विविध उद्धरणों से रोचक बनाती हुई विषय का विस्तार करती है। शब्द-चयन में जटिलता न होते हुए भी उनकी वाक्य-रचना में मिश्र और संयुक्त वाक्यों की प्रधानता है। उन्होंने स्थान-स्थान पर उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग किया है. जिससे उनकी भाषा-शैली में अनेक नवीन प्रयोगों की झलक मिलती है। उनके साहित्य में चित्रात्मक, वर्णनात्मक, संवादात्मक आदि शैलियों का प्रयोग अत्यंत कुशलता से किया गया है। जगह-जगह मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में सरसता, रोचकता और सजीवता में वृद्धि हुई है।
Jahan Koi Wapsi Nahi Class 12 Hindi Summary
‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ नामक यात्रा-वृत्तांत में लेखक ने ऐसी कड़वी सच्चाई का वर्णन किया है जो मनुष्य को बहुत कुछ सोचने पर विवश कर देती है। औद्योगिक विकास के दौर में आज प्राकृतिक सौंदर्य किस तरह नष्ट होता जा रहा है, इसका मार्मिक चित्रण इस पाठ में किया गया है। यह पाठ विस्थापितों की अनेक समस्याओं का हृयस्पर्शी चित्र प्रस्तुत करता है। इस सत्य को भी उद्धाटित करता है कि आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश, संस्कृति और आवास-स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।
लेखक सन् 1983 में सिंगरौली गया था। जुलाई के अंत में खेतों में पानी जमा था। नवागाँव में पचास हज़ार की आबादी थी तथा अठारह छोटे-छोटे गाँव थे। यहाँ अमझर नामक गाँव था, जहाँ आम झरते हैं। अमरौली प्रोजेक्ट की घोषणा के बाद यहाँ के पेड़ सूखने लगे थे। शायद यह प्रकृति का मूक सत्याग्रह था। लेखक ने शहरों में मज़दूरों की गंदी बस्ती देखी थी, परंतु विस्थापन से पहले गाँव की ज़िदगी पहली बार देखी थी।
पेड़ों के घने झुरमुट, साफ-सुथरे खण्पर लगे मिट्टी के झोंपड़े और पानी। चारों तरफ़ पानी। अगर भागती बस की खिड़की से देखो, तो लगेगा जैसे समूची ज़मीन एक झील है, एक अंतहीन सरोवर, जिसमें पेड़, झोंपड़, आदमी, ढोर-डाँगर आधे पानी में, आधे ऊपर तिरते दिखाई देते हैं, मानो किसी बाढ़ में सब कुछ डूब गया हो, पानी में धँस गया हो।
किंतु यह भ्रम है…यह बाढ़ नहीं, पानी में डूबे धान के खेत हैं। अगर हम थोड़ी-सी हिम्मत बटोरकर गाँव के भीतर चलें, तब वे औरतें दिखाई देंगी जो एक पाँत में झुकी हुई धान के पौधे छप-छप पानी में रोप रही हैं, परंतु आधुनिक औद्योगिक कॉलोनियों के विकास के बाद ये गंदी बस्तियों में बदल जाएँगे।
ये लोग आधुनिक भारत के नए ‘शरणार्थी’ हैं, जिन्हें औद्योगीकरण के झंझावात ने अपनी घर-ज़ीन से उखाड़कर हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया है। प्रकृति और इतिहास के बीच यह गहरा अंतर है। बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घरबार छोड़कर कुछ अरसे के लिए जरूर बाहर चले जाते हैं, कितु आफ़त टलते ही वे दोबारा अपने जाने-पहचाने परिवेश में लौट भी आते हैं, कितु विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उन्मूलित करता है, तो वे फिर कभी अपने घर वापस नहीं लौट सकते। आधुनिक औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता, बल्कि उसका परिवेश और आवास-स्थल भी हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।
एक भरे-पूरे ग्रामीण अंचल को कितनी नासमझी और निर्ममता से उजाड़ा जा सकता है, सिंगरौली इसका ज्वलंत उदाहरण है। अगर यह इलाका उजाड़ रेगिस्तान होता तो शायद इतना क्षोभ नहीं होता, कितु सिगरौली की भूमि इतनी उर्वर और जंगल इतने समृद्ध हैं कि उनके सहारे शताब्दियों से हज़ारों बनवासी और किसान अपना भरण-पोषण करते आए हैं।
सन् 1926 से पूर्व यहाँ खैरवार जाति के आदिवासी राजा का शासन था। यहाँ कत्था, महुआ, शीशम तथा बाँस के वृक्ष मिलते थे। यातायात के सीमित साधनों के कारण इसे ‘काला पानी’ कहा जाता था। यहाँ की संपदा ही विनाश का कारण बनी। रिहंद् बाँध बनने के समय भी विस्थापन की लहर आई थी। इस योजना के अंतर्गत सेंट्रल कोल फील्ड तथा नेशनल सुपर थर्मल पावर कारपोरेशन का निर्माण हुआ। सिगरौली भी प्रगति के मानचित्र पर राष्ट्रीय गौरव के रूप में उभरा था। वहाँ कई ताप विद्युत गृहों का निर्माण हुआ।
विकास का यह ‘उजला’ पहलू विनाश का अँधेरा भी लेकर आया था। लेखक उसका छोटा-सा जायज़ा लेने दिल्ली में स्थित ‘लोकायन’ संस्था की ओर से सिगरौली गया था। सिगरौली जाने से पहले उनके मन में इस तरह का कोई सुखद भ्रम नहीं था कि औद्योगीकरण का चक्का, जो स्वतंत्रता के बाद् चलाया गया, उसे रोका जा सकता है। शायद 35 वर्ष पहले हम कोई दूसरा विकल्प चुन सकते थे, जिसमें मानव सुख की कसौटी भौतिक लिप्सा न होकर जीवन की ज़रूरतों द्वारा निर्धारित होती। पशिचम जिस विकल्प को खो चुका था, भारत में उसकी संभावनाएँ खुली थीं, क्योंकि अपनी समस्त कोशिशों के बावजूद अंग्रेज़ी राज हिंदुस्तान को संपूर्ण रूप से अपनी ‘सांस्कृतिक कॉलोनी’ बनाने में असफल रहा था।
भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह क्यूजियम्स और संग्रहालयों में जमा नहीं थी। वह उन रिश्तों से जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों-एक शब्द में कहें-उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। अतीत का समूचा मिथक संसार-पोथियों में नहीं, इन रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौज़ूद रहता था। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है। भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने का हो जाता है। स्वातंख्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का मार्ग चुना, ट्रेजेडी यह रही है कि पश्चिम की देखा-देखी और नकल में योजनाएँ बनाते समय प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाजुक संतुलन किस तरह नष्ट होने से बचाया जा सकता है, इस ओर हमारे पश्चिम-शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया।
शब्दार्थ और टिप्पणी :
- दुपहर – दोपहर में (in the noon)।
- झरता है – गिरता है (it falls)।
- विस्थापन – दूसरी जगह जाकर बसना (displacement)।
- मूक – चुप रहकर (silently)।
- अनूठा – बेजोड़ (unique)।
- उन्मूलित – अपने मूल से अलग होकर (rooted out)।
- परिवेश – आसपास का वातावरण (environment)।
- अंतहीन – जिसका अंत न हो (endless)।
- ढोर – डाँगर – जानवर (cattle)। पाँत – पंक्ति (row)।
- किश्तीनुमा – नाव के आकार का (boat – shaped)।
- वन्यस्थल – जंगल (jungle)।
- विस्मय – आश्चर्य (astonishment)।
- मटियामेट होना – नष्ट होना (destroy)।
- स्मृति – याद (remembrance)।
- शरणार्थी – शरण चाहने वाले (refugee)।
- झंझावात – वातचक्र, भँवर (a strong wind)।
- निर्वासित – कहीं अन्यत्र भेज देना (exciled)।
- अरसा – समय (long time)।
- आफ़त – मुसीबत (calamity)।
- ज्वलंत – स्पष्ट रूप से दिखाई देनेवाला (lustrous)।
- उर्वरा – उपजाऊ (fertile)। सीमित – कम, थोड़े (restricted)।
- अतुल – जिसकी तुलना न की जा सके (unparalleled)।
- जोखिम – खतरा (danger)।
- लोलुप – लोभी (greedy)।
- अभिशाप – श्राप (curse)।
- प्रतिष्ठित – सम्मानित (respected)।
- कारिंदे – कर्मचारी गण (workers)।
- जायज्ञा – सरसरी तौर से देखना (to have a glance)।
- लिप्सा – चाह, इच्छा (desire)।
- स्वातंत्योत्तर – आजादी के बाद (after independence)।
- नाजुक – कोमल (tender)।
- ट्रेजडी – दुखांत (tragedy)।
- मर्यादाओं – सीमाओं (propriety of conduct)।
जहाँ कोई वापसी नहीं सप्रसंग व्याख्या
1. अमझर-आम के पेड़ों से घिरा गाँव-जहाँ आम झरते हैं, किंतु पिछले दो-तीन वर्षों से पेड़ों पर सूनापन है, न कोई फल पकता है, न कुछ नीचे झरता है। कारण पूछने पर पता चला कि जब से सरकारी घोषणा हुई है कि अमरौली प्रोजेक्ट के अंतर्गत नवागाँव के अनेक गाँव उजाड़ दिए जाएँगे, तब से न जाने कैसे आम के पेड़ सूखने लगे। आदमी उजड़गा, तो पेड़ जीवित रहकर क्या करेंगे?
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित पाठ ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से उद्धृत है। इसके लेखक निर्मल वर्मां हैं। लेखक ने विकास प्रोजेक्टों के नाम पर होने वाले विस्थापन तथा पर्यावरण विनाश को बताया है। इस अंश में लेखक ने सरकारी घोषणा के बाद् प्रकृति के मूक सत्याग्रह का वर्णन किया है।
व्याख्या – लेखक अमझर गाँव की स्थिति के बारे में बताता है। इस गाँव के चारों ओर आम के पेड़ हैं। यहाँ आम झरते हैं। पिछले दो-तीन वर्षो से पेड़ों पर कुछ नहीं होता। एक अजीब तरह का सूनापन है। यहाँ न कोई फल पकता है और न आम नीचे गिरते हैं। इस स्थिति का जब कारण पूछा गया तो लोगों ने बताया कि अमरौली प्रोजेक्ट की सरकारी घोषणा के अनुसार नवागाँव के कई गाँव उजाड़ दिए जाएँगे। इस घोषणा के बाद आम के पेड़ सूखने लगे। यह प्रकृति की प्रतिक्रिया थी। आदमी का जब आश्रय खत्म होगा तो पेड़ जीवित रहकर क्या करेंगे।
विशेष :
- औद्योगिक विकास के नाम पर होने वाले विनाश तथा प्रकृति के मूक सत्याग्रह को दर्शाया है।
- लेखक द्वारा प्रकृति की संवेद्ना को वाणी प्रदान की गई है।
- भाषा प्रवाहमयी तथा मिश्रित शब्दावलीयुक्त है।
- हरे-भर वृक्षयुक्त ग्रामीण परिवेश का बिंब साकार हो उठा है।
- वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है।
2. ये लोग आधुनिक भारत के नए ‘शरणार्थी’ हैं, जिन्हें औद्योगीकरण के झंझावात ने अपने घर-ज्रमीन से उखाड़कर हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया है। प्रकृति और इतिहास के बीच यह गहरा अंतर है। बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घर-बार छोड़कर कुछ अरसे के लिए जरूर बाहर चले जाते हैं, किंतु आफ़त टलते ही वे दोबारा अपने जाने-पहचाने परिवेश में लौट भी आते हैं, किंतु विकास और प्रगति के नाम पर जब इतिहास लोगों को उन्मूलित करता है, तो वे फिर कभी अपने घर वापस नहीं लौट सकते।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित पाठ ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से उद्धृत है। इसके लेखक निर्मल वर्मा हैं। इस अंश में लेखक ने विकास प्रोजेक्टों के नाम पर होने वाले विस्थापन तथा पर्यावरण विनाश को बताया है, जिसकी क्षतिपूर्ति कभी नहीं होती है।
व्याख्या – लेखक उद्योगों की स्थापना से विस्थापित लोगों के बारे में बताता है कि आज़ादी के बाद देश में उद्योगों की स्थापना हुई। बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनीं। इन योजनाओं से हजारों लोगों को उनके आवास-स्थान से उजाड़ा गया तथा हमेशा के लिए निर्वासित कर दिया गया। ये आधुनिक भारत के नए शरणार्थी हैं, जिन्हें विकास के नाम पर उजाड़ा गया। लेखक बताता है कि कुदरत और इतिहास के बीच गहरा अंतर है।
प्राकृतिक आपदाओं; जैसे-भूकंप, बाढ़ आदि के कारण व्यक्ति अपना घर-बार कुछ समय के लिए छोड़ देता है। इस तरह से वहाँ के सभी लोग दूसरे स्थान पर चले जाते हैं। जैसे ही यह संकट समाप्त होता है, वे अपने पुराने माहोल या जगह पर लौट आते हैं। विकास और प्रगति इतिहास की चीज़ें हैं। इनके नाम पर जब लोगों को अपनी जगह से हटाया जाता है तो वे दोबारा कभी अपने घर वापस नहीं आ सकते। उनके निवास हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।
विशेष :
- विस्थापन की समस्या का सटीक विश्लेषण है, जो अपना कालजयी दुष्पभाव छोड़ जाता है।
- भाषा प्रवाहमयी तथा मिश्रित शब्दावलीयुक्त है।
- खड़ी बोली में भावों की सशक्त अभिव्यक्ति है।
- निर्वासित करना, आफ़त टलना मुहावरों का सुंदर प्रयोग है।
- कही-कहीं सूक्तियों का प्रयोग है; जैसे-ये लोग आधुनिक भारत के नए ‘शरणार्थी’ हैं।
3. भारत की सास्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूज़ियम्स और संग्रालयों में जमा नहीं थी-वह उन रिश्तों से जीवित थी, जो आदमी को उसकी धरती, उसके जंगलों, नदियों-एक शब्द में कहें उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ते थे। अतीत का सूमचा मिथक संसार पोथियों में नहीं, इन रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौज़द रहता था। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है-भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने का हो जाता है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित पाठ ‘जहाँ कोई वापसी नहीं से उद्धृत है। इसके लेखक निर्मल वर्मा हैं। इस अंश में लेखक ने विकास प्रोजेक्टों के नाम पर होने वाले विस्थापन तथा पर्यावरण विनाश को बताते हुए भारत और पाश्चात्य देशों की प्राकृतिक परिस्थितियों में अंतर की ओर संकेत किया है।
व्याख्या – लेखक के मतानुसार भारत तथा यूरोप की संस्कृति में अंतर है। यहाँ की संस्कृति यूरोप की संस्कृति से अलग है। यूरोप में सांस्कृतिक विरासत संग्रहालयों तथा म्यूज्ञियम्स में संग्रहित की जाती है। भारत में ऐसी परंपरा नहीं है। यहाँ सास्कृतिक विरासत रिश्तों में जीवित है। ये रिश्ते आदमी को उसके परिवेश से जोड़ते हैं। मनुष्य धरती, जंगल, नदी आद् सबके साथ अपने को जुड़ा महसूस करता है। अतीत की कथाएँ किताबों में नहीं पाई जातीं। वे मानवीय रिश्तों की अदृश्य लिपि में मौजूद रहते हैं।
पर्यावरण के मामले पर भी यूरोप तथा भारत में अंतर है। यूरोप में मनुष्य तथा भूगोल के बीच संतुलन बनाने को पर्यावरण संरक्षण माना जाता है। भारत में यह प्रश्न मनुष्य तथा उसकी संस्कृति के बीच पुराने संबंध बनाए रखने का होता है। यहाँ आध्यात्मिक रिश्तों पर जोर दिया जाता है।
विशेष :
- भारत तथा यूरोप की वैचारिक तथा पर्यावरणीय भिन्नता का उल्लेख किया गया है।
- भारतीयों के प्रकृति के साथ जुड़ाव को सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक जुड़ाव के समान मानने का भाव प्रकट हुआ है।
- भाषा प्रवाहमयी है, जिसमें मिश्रित शब्दावली का प्रयोग है।
- खड़ी बोली में प्रभावी अभिव्यक्ति है।
4. स्वातंत्योत्तर भारत की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह नहीं है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण का मार्ग चुना, ट्रेजेडी यह रही है कि पश्चिम की देखा-देखी और नकल में योजनाएँ बनाते समय-प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति के बीच का नाजुक संतुलन किस तरह नष्ट होने से बचाया जा सकता है-इस ओर हमारे पश्चिम-शिक्षित सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं गया। हम बिना पश्चिम को मॉडल बनाए, अपनी शर्तों और मर्यादाओं के आधार पर, औद्योगिक विकास का भारतीय स्वरूप निर्धारित कर सकते हैं, कभी इसका ख्याल भी हमारे शासकों को आया हो, ऐसा नहीं जान पड़ता।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित पाठ ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से उद्धृत है। इसके लेखक निर्मल वर्मा हैं। इस पाठ में लेखक ने विकास प्रोजेक्टों के नाम पर होने वाले विस्थापन तथा पर्यावरण-विनाश तथा स्वतंत्र भारत में विकास के नाम पर प्रकृति के साथ हुई अनदेखी का उल्लेख किया है।
व्याख्या – लेखक भारत के नीति-निर्धारकों की आलोचना करते हुए कहता है कि आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी औद्योगीकरण का मार्ग चुनने की नहीं है। सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि शासक वर्ग ने पश्चिम की नकल की। उन्होंने योजनाएँ बनाते समय यहाँ की संस्कृति को अनदेखा किया। योजनाओं से प्रकृति-मनुष्य तथा संस्कृति के बीच के संतुलन को बचाए रखने का प्रयास नहीं किया गया। संस्कृति तथा प्रकृति के बीच सामंजस्य बनाए रखने का प्रयास विदेशों में पले-बढ़े सत्ताधारियों ने कभी नहीं किया। लेखक कहता है कि भारत को पश्चिम के मॉडलों के अंधानुकरण की ज़रूरत नहीं थी। हम अपनी शर्तों तथा मर्यादाओं के आधार पर औद्योगिक विकास का स्वरूप बना सकते हैं, परंतु शायद हमारे शासकों ने इस तरफ कभी ध्यान ही नहीं दिया।
विशेष :
- विकास के लिए पाश्चात्य देशों के सिद्धांत अपनाने तथा भारतीय परिस्थितियों की अनदेखी करने का भाव प्रकट हुआ है।
- आज्ञादी के बाद भारतीय विकास की आलोचनात्मक समीक्षा है।
- विश्लेषणात्मक शैली है।
- भाषा प्रवाहमयी है, जिसमें मिश्रित शब्दावली का प्रयोग है।
- प्रकृति, मनुष्य और संस्कृति में संतुलन बनाए रखने का संदेश निहित है।
5. सिंगरौली, जो अब तक अपने सौंदर्य के कारण ‘बैकुंठ’ और अपने अकेलेपन के कारण ‘काला पानी’ माना जाता था, अब प्रगति के मानचित्र पर राष्ट्रीय गौरव के साथ प्रतिष्ठित हुआ। कोयले की खदानों और उन पर आधारित तापविद्युत्गृहों की एक पूरी शृंखला ने पूरे प्रदेश को अपने में घेर लिया। जहाँ बाहर का आदमी फटकता न था, वहाँ केंद्रीय और राज्य सरकारों के अफ़सरों, इंजीनियरों और विशेषज्ञों की कतार लग गई।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित पाठ ‘जहाँ कोई वापसी नहीं’ से उद्धृत है। इसके लेखक निर्मल वर्मा हैं। इस अंश में लेखक ने विकास प्रोजेक्टों के नाम पर होने वाले विस्थापन तथा पर्यावरण विनाश को बताते हुए भारत और पाश्चात्य देशों की प्राकृतिक परिस्थितियों में अंतर की ओर संकेत किया है।
व्याख्या – सिगरौली के प्राकृतिक सौंदर्य, उसकी प्रगति, प्रसिद्धि और तापविद्युतग्हहों की स्थापना का क्रमिक वर्णन करते हुए कहते हैं कि सिंगरौली की प्रसिद्धि का कारण अब तक उसका प्राकृतिक सौंदर्य था। वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य मनोहरी है। इस कारण उसे स्वर्ग कहा जाता है, किंतु वह निर्जन स्थान था, इसलिए ‘काली पानी’ की सजा भोगने जैसा स्थान भी कहा जाता था। आज सिंगरौली को राष्ट्रीय पहचान मिल चुकी है। वहाँ की कोयला खदानें और उस कोयले से वहाँ के तापविद्युतगृहों की शृंखला ने पूरे प्रदेश में जाल फैला लिया है। कभी काला पानी के नाम से बदनाम सिंगरौली में केंद्रीय और राज्य सरकारों के अनेक अधिकारियों, कर्मचारियों, इंजीनियरों और विशेषजों की भरमार हो गई है। तापविद्युतगृहों की स्थापना से सिगरौली का काया-पलट हो गया है।
विशेष :
- ‘काला पानी’ कहे जाने वाला सिगरौली आज राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हो चुका है, यह भाव प्रकट हुआ है।
- भाषा में प्रवाहमयता है।
- तत्सम शब्दावली का प्रयोग होने के बाद भी भाषा दुरुह नहीं होती है।
- मुहावरों के प्रयोग से भाषा की सरसता बढ़ गई है।