In this post, we have given Class 12 Hindi Antra Chapter 15 Summary – Samvadiya Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 12 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 12 Hindi subject.
संवदिया Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 15 Summary
संवदिया – फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ – कवि परिचय
प्रश्न :
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जीवन परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए तथा उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन परिचय – फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जन्म बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में सन् 1921 में हुआ था। उन्होंने सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो’ स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया। नेपाल के राणाशाही विरोधी आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही। वे राजनीति में प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। सन् 1953 में वे साहित्य-सृजन के क्षेत्र में आए और उन्होंने कहानी, उपन्यास तथा निबंध आदि विविध साहित्यिक विधाओं में लेखन-कार्य किया। उनकी मृत्यु सन् 1977 में हुई।
रचनाएँ – फणीश्वर नाथ रेणु बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। उन्होने कहानी, निबंध, उपन्यास आदि अनेक साहित्यिक विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई। उनकी साहित्यक रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
कहानी-संग्रह – अगिनखोर, हुमरी, आदिमरात्रि की महक, तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम।
उपन्यास-परती परिकथा एवं मैला आँचल। उनकी कहानी-तीसरी कसम उफ़ मारे गए गुलफ़ाम पर फ़िल्म भी बनाई जा चुकी है।
भाषा-शिल्प – फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ स्वतंत्र भारत के प्रख्यात कथाकार हैं। रेणु ने अपनी रचनाओं के द्वारा प्रेमचंद की विरासत को नई पहचान और भंगिमा प्रदान की। इनकी कला-सजग औँखें, गहरी मानवीय संवेदना और बदलते सामाजिक यथार्थ की पकड़ अपनी अलग पहचान रखते हैं। रेणु ने ‘मैला आँचल’, ‘परती परिकथा ‘ जैसे अनेक महत्वपूर्ण उपन्यासों के साथ अपने शिल्प और आस्वाद में भिन्न हिंदी कहानी-परंपरा को जन्म दिया। आधुनिकतावादी फैशन से दूर ग्रामीण समाज रेणु की कलम से इतना रससिक्त, प्राणवान और नया आयाम ग्रहण कर सका है कि नगर एवं ग्राम के विवादों से अलग उसे नई सांस्कृतिक गरिमा प्राप्त हुई।
‘रेणु’ हिंदी के आंचलिक कथाकार हैं। उन्होंने अंचल-विशेष को अपनी रचनाओं का आधार बनाकर, आंचलिक शब्दावली और मुहावरों का सहारा लेते हुए, वहाँ के जीवन और वातावरण का चित्रण किया है। अपनी गहरी मानवीय संवेदना के कारण वे अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा स्वयं भोगते-से लगते हैं। इस संवेदनशीलता के साथ उनका यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य के भीतर अपनी जीवन-दशा को बदल देने की अकूत ताकत छिपी हुई है। रेणु की कहानियों में आँचलिक शब्दों के प्रयोग से लोकजीवन के मार्मिक स्थलों की पहचान हुई है। उनकी भाषा संवेदनशील, संप्रेषणीय एवं भाव प्रधान है। ममांतक पीड़ा और भावनाओं के द्वंद्व को उभारने में लेखक की भाषा अंतर्मन को छू लेती है।
Samvadiya Class 12 Hindi Summary
संवदिया कहानी में मानवीय संवेदना की गहन एवं विलक्षण पहचान प्रस्तुत हुई है। असहाय और सहनशील नारी मन के कोमल तंतु की, उसके दुख और करुणा की, पीड़ा तथा यातना की ऐसी सूक्ष्म पकड़ रेणु जैसे ‘ आत्मा के शिल्पी’ द्वारा ही संभव है। हरगोबिन संवदिया की तरह अपने अंचल के दुखी, विपन्न, बेसहारा बड़ी बहुरिया जैसे पात्रों का संवाद लेकर रेणु पाठकों के सम्मुख उपस्थित होते हैं। रेणु ने बड़ी बहुरिया की पीड़ा को, उसके भीतर के हाहाकार को संवदिया के माध्यम से अपनी पूरी सहानुभूति प्रदान की है। लोक भाषा की नीव पर खड़ी ‘संवदिया’ कहानी पहाड़ी झरने की तरह गतिमान है। उसकी गति, लय, प्रवाह, संवाद और संगीत पढ़ने वाले के रोम-रोम में झंकृत होने लगता है।
गाँव में हरगोबिन नाम का संवदिया है। वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर संवाद पहुँचाने का कार्य करता था। आजकल डाकखाने खुलने से उसका महत्व समाप्त हो गया, परंतु जब भी किसी गुप्त समाचार को किसी स्थान पर शींत्र भेजना होता तो हरगोबिन को याद किया जाता था। ऐसे में जब हरगोबिन को बड़ी हवेली से बुलावा आया तो उसे हैरानी हुई। इसी बड़ी हवेली की बड़ी बहू ने अपने मायके संदेश भिजवाने के लिए उसे बुलाया था।
किसी समय यह हवेली अत्यंत समृद्धिशाली थी, जिसकी रौनक छाई रहती थी, पर समय के साथ-साथ सब खराब होता गया। बड़े भाई की मृत्यु के बाद् तीनों भाइयों ने बँटवारा किया। उन्होंने बँटवारे में मानवीय संबंधों की तनिक भी मर्यादा न रखी। उन्होंने बड़ी बहू की बनारसी साड़ी को भी तीन हिस्सों में बाँट लिया और गाँव छोड़कर शहर जा बसे। बड़ी बहू अकेली गाँव में रह गई। घर में कोई कमाने वाला था नहीं, ऐसे में बड़ी बहू के भूखों मरने की नौबत आ गई। बथुआ-साग उसके पेट भरने का एकमात्र साधन बचा था।
जिस समय हरगोबिन हवेली पहुँचा उस समय गाँव की मोदिआइन अपने उधार का तकाज़ा करने बैठी थी। उधार न मिलता देख वह बड़ी बहू को खरी-खोटी सुनाने लगी। उसके जाने पर बड़ी बहू ने अपना हृदयस्पर्शी संदेश हरगोबिन को सुनाकर उसे मायके में जाकर सुनाने का अनुरोध करने लगी। उन्होंने कहा-“माँ से कहना, मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पाल लूँगी। बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन अब यहाँ नहीं…अब नहीं रह सकूँगी।
कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएँगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी…बथुआ-साग खाकर कब तक जीऊँ। किसलिए…किसके लिए?”‘ ऐसा कहते हुए उसकी आँखें आँसुओं से भरी थीं, जिसे देख हरगोबिन को बड़ा दुख हुआ। वह परिवार के दूसरे सदस्यों की निर्दयता पर विचार करने लगा। बड़ी बहू ने आँचल से पाँच रुपये का पुराना नोट निकालकर राह खर्च देना चाहा, पर हरगोबिन ने नहीं लिया।
हरगोबिन अत्यंत दुखी मन से थाना बिंहपुर के लिए निकल पड़ा। उसने अपने पास रखे पैसों से बिंहुर के लिए टिकट लिया और डाकगाड़ी में जा बैठा। वह बड़ी बहू के सवादों को ज्यों-का-त्यों याद करने की कोशिश कर रहा था। उसकी आँखों के सामने बड़ी बहू का करुणा भरा चेहरा घूम रहा था। उनकी दीन-हीन दशा को याद कर वह अत्यंत दुखी हो रहा था। कटिहार पहुँचकर उसने बिंहपुर जाने वाली गाड़ी पकड़ी।
इस बार उसे गाड़ी पकड़ने में परेशानी न हुई, क्योंकि स्टेशन पर लगे भोपूँ से घोषणा जो की जा रही थी, वरना कितनी बार तो उसकी गाड़ी इसी चक्कर में छूट गई थी। स्टेशन पहुँचकर हरगोबिन दुखी हो गया। उसे यह चिंता थी कि वह किस मुँह से बड़ी बहू का संदेश उनके मायके में सुनाएगा। उसको गाँव के लोग पहचानते थे। वे कहने लगे-“जलालगढ़ का संवदिया आया है।” वह घर गया और सबसे पहले बहू के बड़े भाई से मिला। उन्होंने अपनी दीदी का हाल-चाल पूछा। घर पहुँचकर हरगोबिन ने बड़ी बहू की माता जी को अभिवादन किया।
उनके हाल-चाल पूछने पर हरगोबिन ने सब कुशल बताया। उसने अपने आने के बारे में बहाना बनाते हुए कहा कि वह कल सिरसिया गाँव आया था और आज आप लोगों के दर्शन के लिए चला आया। जब माता जी ने अपनी बेटी का हाल-चाल पूछा तो हरगोबिन उनके वेदना भरे संदेश छिपा गया, उनकी दयनीय दशा को वह किस मुँह से कहे, अतः झूठ बोलते हुए बताया कि बड़ी बहुरिया दशहरा के समय छुट्टी होने पर गंगा जी के मेले में आकर माँ तथा अन्य लोगों से भेंट कर जाएँगी। कोई संवाद न पाकर दुखी माँ ने कहा-“मैं तो बबुआ से अपनी दीदी को लिवा लाने के लिए कह रही थी।
अब उसका वहाँ रह ही क्या गया है। उसकी खोज-खबर भी कोई नहीं लेता। मेरी बेटी अब वहाँ अकेली है।” हरगोबिन ने उन्हें सांत्वना देने के भाव में कहा, “नहीं माँ जी! गाँव में ज़मीन-जायदाद बहुत है, टूटने के बाद भी आखिर है तो बड़ी हवेली ही, बड़ी बहुरिया हमारे गाँव की लक्ष्मी हैं। यों भी देवर लोग हर बार उन्हें शहर ले जाने की ज़िद करते हैं।” बूढ़ी माँ ने उसे अपने हाथों से जलपान दिया। जलपान करते समय बड़ी बहुरिया का चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम गया। रात को भोजन के समय फिर बड़ी बहुरिया का भूखा-प्यासा चेहरा उसके सामने आ गया।
कई तरह के व्यंजन होने के बाद भी खा न सका। रात को उसे नींद नहीं आ रही थी। वह सोचने लगा कि वह क्या करने आया था और वह क्या कर बैठा। उसने झूठ क्यों बोला? उसने फैसला किया कि प्रात: उठकर माँ जी को सही संवाद सुना देगा। उसे रात भर नींद न आई। वह सुबह उठा और जी कड़ा करके संवाद सुनाने बूढ़ी माता के पास जा बैठा, परंतु वह संवाद न सुना सका। माँ जी के पूछने पर उसने बताया कि वह इसी गाड़ी से वापस जाना चाहता हैं। कई दिन हो गए हैं। दशहरा में बड़ी बहुरिया के साथ पंद्रह दिन के लिए आ जाएगा।
चलते समय बूढ़ी माँ ने चूड़ा की पोटली दी तथा बड़ी बहू के भाई ने औपचारिकतावश पूछा “क्यों भाई राह खर्च तो है?” हरगोबिन ने पैसे न होने पर भी कहा-” भैया जी! आपकी दुआ से किसी बात की कमी नहीं।” स्टेशन पहुँच कर हरगोबिन ने देखा कि उसके पास जितने पैसे हैं, उतने में वह कटिहार तक का ही टिकट खरीद सकता है और यदि उसके पास की चवन्नी नकली निकली तो सैमापुर तक का ही टिकट खरीद सकेगा। गाड़ी में बैठते ही वह सोचने लगा कि वह बड़ी बहुरिया को क्या जवाब देगा? वह कहाँ आया था? क्या करके जा रहा है? वह पाँच बजे भोर में ही कटिहार स्टेशन आ गया।
उसे जलालगढ़ जाना था। जलालगढ़! बीस कोस! वह बड़ी बहू द्वारा की जा रही प्रतीक्षा को याद कर महावीर विक्रम-बजरंगी का नाम लेकर पैदल ही चल पड़ा। दस कोस तो वह ते़़ गति से चला गया। कस्बे-शहर में उसने पानी पी लिया। उसके नथुनों में वासमती धान के चूड़े की महक समा रही थी, पर ‘माँ की सौगात-बेटी के लिए’ में से मुट्ठी भर न निकाल सका। वह चलते-चलते पंद्रह कोस आ गया। सोलह, सत्रह, अठारह और अब तो जलालगढ़ रेलवे का सिगनल भी उसे दिखने लगा। गाँव का ऊँचा ताड़ का वृक्ष भी दिखा, मानो सिर ऊँचा करके उसकी चाल को देख रहा हो। किसी तरह गिरता-पड़ता घर तक जा पहुँचा।
उसे बड़ी बहुरिया की आवाज़ सुनाई दी- “हरगोबिन भाई! क्या हुआ तुम्हें…?” हरगोबिन ने हाथ से टटोलकर देखा, वह बिछावन पर लेटा हुआ है। बड़ी मुश्किल से बोला, “बड़ी बहुरिया!” अब तक वह होश में आ चुका था उसने बड़ी बहुरिया के पैर पकड़कर माफ़ी माँगी और कहा-” मैं तुम्हारा संदेश न कह सका। तुम गाँव छोड़कर मत जाओ। तुम्हें कोई कष्ट नहीं होने दूँगा।” बड़ी बहुरिया गरम दूध में मुट्ठी भर चूड़ा डालकर मसकने लगी और संवाद भेजने की अपनी गलती पर पछताती रही।
शब्दार्थ और टिप्पणी :
- संवदिया – संदेशवाहक, संदेश पहुँचाने वाला (messenger)।
- मारफफत – माध्यम, ज्ञरिया (medium)।
- बुलाहट – बुलावा (a call)।
- परेवा – कबूतर, तेज़ उड़ने वाला कोई पक्षी (a bird)।
- पीढ़ी – बैठने का छोटा पटरा (a small seat like stool)।
- सूपा – छाज, सूप (broth)।
- रैयत – प्रजा (public, subject)।
- हिकर – बेचैन होकर पुकारना (to call restlessly)।
- अफरना – जी भरकर खाना ( to eat fullfil)।
- चूड़ा – चिड़वा (product of rice)।
- बहुरिया – पुत्रवधू (daughter-in-law) ।
- दखल – हस्तक्षेप, अधिकार माँगना (interference)।
- टलती – हटती (to be postponed)।
- काबुली – कायदा-अत्याचारपूर्ण व्यवहार करना (to behave like a transgressor)।
- तमककर – क्रोधित होकर (annoying)।
- ओसारा – बरामदा (verandah)।
- ज़ोर-जुल्म – अत्याचार (aggression)।
- स्वाँग – भेष बनाना, नकल उतारना (an impersonation)।
- पोखरा – छोटा तालाब (small pond)।
- रोम-रोम कलपना – अत्यंत दुखी होना (to be sorrowful)।
- खूँट-छोर, किनारा (end)।
- राह देखना – इंतज़ार करना (to wait)।
- सहज – आसान (easy)।
- न आगे नाथ ना पाछे पगाह – ज़िम्मेदारी से मुक्त होना (free from responsibilities)।
- काँटे की तरह चुभना – दुख पहुँचाना (to be painful)।
- कुढ़कर – गुस्सा और ईर्ष्या का मिश्रित रूप (to grudge)।
- भोपा – ध्वनि विस्तारक यंत्र (loudspeaker)।
- सुराज – स्वराज, विकास (a good government)।
- आँखें फेर लेना – कोई संबंध न रखना (to neglect)।
- जी भारी होना – उदास हो जाना (to be sad)।
- अनिच्छापूर्वक – बिना इच्छा के (unwillingly)।
- पानी – बूँदी-बरसात (drizzling)।
- पाँवलगी – पैर छूकर अभिवादन करना (to respect by touching feet)।
- मायजी-माता जी (mother)।
- सवांग – स्वाँग, भेष (to copy any person)।
- अफर कर-जीभर कर खाना (to eat fullfil)।
- चौअन्नी – चार आने का सिक्का (a coin of 25 paise)।
- देह – शरीर (body)।
- निरगुन – निराकर ब्रह्म से संबंधित गाए जाने वाले पद (song sung belonging to brahm)।
- नैहरा – मायका (mother-father’s house)।
- सपन भयो – स्वप्न हो जाना, बड़ी कठिनाई से कभी-कभी मिलना (to meet now and then hardly)।
- करम – कर्म (duty)।
- गति-रीति – दशा (custom)।
- बाई – वायु ( air)।
- सौगात – उपहार (gift)।
- साँझ – संध्या (evening)।
- विछावन – विस्तर (bed)।
- निठल्ला – कुछ काम-काज न करने वाला (without employment)।
- मसकना – तोड़ना (to break)।
संवदिया सप्रसंग व्याख्या
1. हरगोबिन को अचरज हुआ-तो आज भी किसी को संवदिया की ज़रूरत पड़ सकती है। इस ज्ञमाने में, जबकि गाँव-गाँव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मारफ़त संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहाँ का कुशल-संवाद मँगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई?
हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी ड्योढ़ी पार कर अंदर गया। सदा की भाँति उसने वातावरण को सूँघकर संवाद का अंदाज़ लगाया।….. निश्चय ही कोई गुप्त समाचार ले जाना है। चाँद-सूरज को भी नहीं मालूम हो। परेवा-पंछी तक न जाने।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित पाठ ‘संवदिया’ से उद्धृत है। इसके लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ‘ हैं। इस पाठ में लेखक ने मानवीय संवेदना की गहन एवं विलक्षण पहचान प्रस्तुत की है। इस अंश में लेखक ने संवदिया की अप्रासंगिकता को बताया है, क्योंकि अब तो संचार के साधन विकसित हो गए हैं।
व्याख्या – हरगोबिन को हवेली से बुलावा आया है-यह जानकर उसे हैरानी हुई कि आज के ज़माने में भी किसी को संवदिया की ज्ररूरत पड़ सकती है। नए ज़माने में हर गाँव में डाकघर खुल गए हैं तथा संचार के अनेक साधन उपलब्ध हो गए हैं, इसलिए संवदिया के जरिए कोई संदेश क्यों भेजेगा ? आज आदमी घर बैठे-बैठे लंका तक खबर भेज सकता है। घर बैठे बिठाए दूर-दराज के क्षेत्रों से किसी की कुशलता का समाचार मँगा सकता है। इसके बावजूद आज उसे क्यों बुलाया गया है।
बड़ी हवेली, जो अब बस नाम की बड़ी हवेली, अपना सौंदर्य खोती जा रही थी। उसकी ड्योढ़ी टूटी हुई थी। उसे पारकर वह अंदर गया। उसका स्वभाव था कि वह वातावरण से संवाद की महत्ता का अंदाज़ा लगा लेता था। उसे यह आभास हो गया कि कोई गुप्त समाचार लेकर जाना है। ऐसे समाचार के बारे में चाँद-सूरज, पंछी, कबूतर आदि को कुछ नहीं मालूम होना चाहिए अर्थात् विशेष और महत्वपूर्ण समाचार ले जाना है।
विशेष :
- प्राचीन काल की संदेशवाहन प्रथा तथा संवदिया के मनोभावों का सूक्ष्म चित्रण है।
- भाषा सरल, सहज तथा प्रवाहमयी है, जिसमें आंचलिक शब्दों का प्रयोग है।
- खड़ी बोली है।
- दृश्य-चित्र उपस्थित है।
2. बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल खत्म हो गया। तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू किया। रैयतों ने ज़मीन पर दावे करके दखल किया, फिर तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसे, रह गई बड़ी बहुरिया-कहाँ जाती बेचारी! भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घंटे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते?…बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच –
छीनकर बँटवारे की लीला हुई थी। हरगोबिन ने देखी है अपनी आँखों से द्रौपदी चीर-हरण लीला! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दय भाइयों ने।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2 ‘ में संकलित पाठ ‘संवदिया’ से उदधृत है। इसके लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हैं। इस अंश में बड़ी हवेली, टूटती सामंती प्रथा और परिवार में बँटवारे का मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी चित्रण है।
व्याख्या – हरगोबिन बड़ी हवेली की खराब दशा तथा बड़ी बहू की दीन हालत के बारे में बताता है कि बड़े भाई के देहांत के बाद बड़ी हवेली का प्रभाव समाप्त होता गया। सारा बड़प्पन समाप्त हो गया। तीनों भाइयों के आपस में झगड़े शुरू हो गए। प्रजा ने ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद तीनों भाई गाँव को छोड़कर शहर में जा बसे। गाँव में बस अकेली बड़ी बहू रह गई। उसके पास कोई और आश्रय भी नहीं था।
हरगोबिन बताता है कि ईश्वर भी उन्हीं को कष्ट देता है जो भले होते हैं। नहीं तो बड़े भाई को गंभीर बीमारी नहीं थी। वे एक घंटे की बीमारी में ही शरीर छोड़ गए। छोटे भाइयों ने बड़ी बहू के शरीर से जेवर छीनकर आपस में बँटे थे। उसने अपनी आँखों से देखा था कि यह छीना-झपटी वैसी ही थी, जैसे द्रौपदी का चीरहरण हुआ था। मानवता और मानवीय संबंध कहीं खो गए थे। तीनों भाइयों ने बड़ी बहू की बनारसी साड़ी को तीन टुकड़ों में बाँटकर हिस्सा किया था।
विशेष :
- बड़ी हवेली में मुखिया के मरणोपरांत अन्यायपूर्ण बँटवारे तथा भाइयों की नीचता का चित्रण है।
- भाषा सरल, सहज, प्रवाहमयी है, जिसमें आंचलिक शब्दों का प्रयोग है।
- दृश्य-बिंब उपस्थित है।
- समाज में घटती समरसता का यथार्य चित्रण है।
3. हरगोबिन संवदिया!…… संवाद पहुँचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से संवदिया बनकर आता है। संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ढंग से जाकर सुनाना सहज काम नहीं। गाँव के लोगों की गलत धारणा है कि निठल्ला, कामचोर और पेट्ट आदमी ही संवदिया का काम करता है। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। बिना मज़दूरी लिए ही जो गाँव-गाँव संवाद पहुँचावे, उसको और क्या कहेंगे?… औरतों का गुलाम।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित पाठ ‘संवदिया’ से उद्धधत है। इसके लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हैं। इस पाठ में लेखक ने मानवीय संवेदना की गहन एवं विलक्षण पहचान प्रस्तुत की है। इस अंश में संवदिया के गुण तथा उसके प्रति गाँववालों के दृष्टिकोण को बताया गया है।
व्याख्या – लेखक बताता है कि हरगोबिन संदेशवाहक है। संदेश पहुँचाने का काम हर व्यक्ति नहीं कर सकता। ईश्वर ही उसे बनाकर भेजता है। यह दैवीय गुण है। संदेशवाहक को संवाद का हर शब्द याद रखना होता है। उसे वह उसी सुर तथा स्वर में सुनाना होता है, जिस ढंग से सुना है। यह काम बहुत मुश्किल है।
गाँव के लोग संवदिया के बारे में गलत धारणा रखते हैं। वे मानते हैं कि जो लोग निठल्ले, कामचोर तथा पेटू होते हैं, वे ही संवदिया का काम करते हैं। इनके आगे-पीछे कोई नहीं होता। उनका विचार है कि जो व्यक्ति बिना किसी मेहनताने के गाँव-गाँव संदेश पहुँचाए, उसे क्या कहा जाए। वे ऐसे लोगों को औरतों का गुलाम कहते हैं।
विशेष :
- संवदिया की विशेषताओं के साथ-साथ उसके प्रति लोगों में फैली धारणा का वर्णन है।
- भाषा सरल, सहज तथा प्रवाहमयी है, जिसके भावों में उतार-चढ़ाव है।
- लोकोक्ति के प्रयोग से भाषा की सजीवता बढ़ गई है।
4. हरगोबिन का मन कलपने लगा – तब गाँव में क्या रह जाएगा? गाँव की लक्ष्मी ही गाँव छोड़कर जावेगी! ..किस मुँह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा? कैसे कहेगा कि बड़ी बहुरिया बथुआ-साग खाकर गुज़ारा कर रही हैं?…सुननेवाले हरगोबिन के गाँव का नाम लेकर थूकेंगे- कैसा गाँव है, जहाँ लक्ष्मी जैसी बहुरिया दुख भोग रही है !
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग में संकलित पाठ ‘संवदिया’ से उद्धृत है। इसके लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हैं। इस अंश में लेखक ने हरगोबिन की मन:स्थिति का वर्णन किया है।
व्याख्या – जब हरगोबिन बड़ी बहू की दुखद, दयनीय दशा और मायके वापस बुला लेने का संदेश लेकर उनके मायके पहुँचा तो वह बहुत दुखी हुआ। उसने सोचा कि यदि बड़ी बहू गाँव छोड़कर चली गई तो गाँव में क्या रह जाएगा। जिसे गाँव की लक्ष्मी समझा जाता है, वह गाँव छोड़कर चली जाएगी। वह उसके कष्ट की बात किस तरह सुना पाएगा। वह यह बात कैसे कहेगा कि बड़ी बहू साग-बथुआ खाकर गुज़ारा कर रही है। जो भी व्यक्ति यह बात सुनेगा, वह हरगोबिन के गाँव के नाम पर थूकेगा। सुननेवाले उस गाँव की निंदा करेंगे, जहाँ लक्ष्मी जैसी बहू दुख भोग रही है।
विशेष :
- हरगोबिन की दुविधापूर्ण मनोदशा का सटीक चित्रण है।
- सरल, सहज तथा प्रवाहमयी भाषा है, जिसमें आंचलिक शब्दों का प्रयोग है।
- मुहावरों के प्रयोग से भाषा की रोचकता, सजीवता और सरसता बढ़ गई है।
- वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है।
5. लेकिन, यह कहाँ चला आया हरगोबिन? यह कौन गाँव है ? पहली साँझ में ही अमावस्या का अंधकार ! किस राह से वह किधर जा रहा है?…नदी है। कहाँ से आ गई नदी? नदी नहीं, खेत हैं ।… झे झोपड़े हैं या हाथियों का झुंड? ताड़ का पेड़ किधर गया? वह राह भूलकर न जाने कहाँ भटक गया…इस गाँव में आदमी नहीं रहते क्या ?…कहीं कोई रोशनी नहीं, किससे पूछे?…
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित पाठ ‘संवदिया’ से उद्धृत है। इसके लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हैं। इस अंश में लेखक ने मानवीय संवेदना की गहन एवं विलक्षण पहचान प्रस्तुत की है।
व्याख्या – जब हरगोबिन वापस गाँव पहुँचा तो वह अर्ध-चेतनावस्था में पहुँच गया। वह बीस कोस चलकर जलालगढ़ पहुँचा, परंतु वह भूल गया। उसे लगा कि वह गलत गाँव में आ गया है। अभी साँझ ही है तथा अमावस्या-सा अंधकार दिखाई दे रहा है। वह किस रास्ते से कहाँ जा रहा है? नदी भी है, परंतु पहले यहाँ नहीं थी, फिर उसे वह खेत दिखाई देने लगे। उसे झोंपड़े हाथियों के झुंड दिखाई दे रहे थे। ताड़ के पेड़ की पहचान वह भूल चुका था। वह रास्ता भूल चुका था। वह अनजानी जगह पर आ गया। उसे लगा जैसे इस गाँव में आदमी रहते ही नहीं ? कहीं कोई रोशनी नहीं दिखाई देती है। वह किससे रास्ता पूछे।
विशेष :
- हरगोबिन की अर्ध-चेतनावस्था एवं उसकी मन:स्थिति का सटीक एवं अद्भुत चित्रण किया गया है।
- भाषा सरल, सहज व प्रवाहमयी है।
- प्रश्नवाचक वाक्यों के प्रयोग से भावों की अभिव्यक्ति अत्यंत प्रभावशाली हो गई है।