In this post, we have given Class 11 Hindi Antra Chapter 14 Summary – Sandhya Ke Baad Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 11 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 11 Hindi subject.
संध्या के बाद Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 14 Summary
संध्या के बाद – सुमित्रानंदन पंत – कवि परिचय
कवि-परिचय :
प्रश्न :
सुमित्रानंदन पंत के जीवन एवं साहित्य पर प्रकाश डालते हुए उनकी काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-सुमित्रानंदन पंत का जन्म 1900 ई० में अल्मोड़ा ज़िले के कौसानी गाँव के एक संपन्न परिवार में हुआ था। जन्म के छह घंटे बाद ही इनकी माता का देहावसान हो गया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई और वहीं ये गुसाईदत्त से सुमित्रानंदन पंत बने। 1919 ई० में पंत जी प्रयाग आए और क्योर सेंट्ल कॉलेज़ में भर्ती हुए। असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर बिना परीक्षा दिए ही, इन्होंने पढ़ना छोड़ दिया और स्वाध्याय में लग गए। पंत जी ने छंद-रचना करना चौथी कक्षा में ही आरंभ कर दिया था, पर इनका स्वाभाविक कविकर्म कॉलेज में प्रारंभ हुआ।
पंत जी ने 1938 ई० में ‘रूपाभ’ पत्रिका निकाली, जिसकी प्रगतिशील साहित्य के विकास और प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1950 से 1957 ई० तक ये आकाशवाणी के हिंदी परामर्शदाता रहे। पंत जी को सोवियत भूमि का नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। पंत जी का निधन 1978 ई० में हुआ।
रचनाएँ-पंत जी की महत्वपूर्ण काव्य कृतियाँ हैं-वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, उत्तरा, कला और बूढ़ा चाँद, चिद्बरा आदि। पंत जी ने छोटी कविताओं और गीतों के साथ ‘परिवर्तन’ जैसी लंबी कविता और ‘लोकायतन’ जैसे महाकाव्य की भी रचना की है।
काव्यगत विशेषताएँ-पंत जी प्रकृति-प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं। ये सर्वाधिक भावुक तथा कल्पनाशील कवि के रूप में चर्चित रहे हैं। इनकी कविताओं में पल-पल परिवर्तित होने वाली प्रकृति के गत्यात्मक, मूर्त और सजीव चित्र मिलते हैं। इनके काव्य में प्रकृति का मानवीकरण भी हुआ है।
प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही पंत मानवीय सौंदर्य के भी कुशल चितेर हैं। इनके छायावादी दौर के काव्य में रोमानी दृष्टि से मानवीय सौंदर्य का चित्रण है, तो प्रगतिवादी दौर के काव्य में ग्रामीण जीवन के मानवीय सौंदर्य का यथार्थवादी चित्रण। कल्पनाशीलता के साथ-साथ रहस्यानुभूति और मानवतावादी दृष्टि इनके काव्य की मुख्य विशेषताएँ हैं। युग-परिवर्तन के साथ पंत की काव्य-चेतना बदलती रही है। पहले दौर में ये प्राकृतिक सौंदर्य से अभिभूत छायावादी कवि हैं, तो दूसरे दौर में मानव-सौंदर्य की ओर आकर्षित और समाजवादी आदर्शों से प्रेरित कवि। इनकी तीसरे दौर.की कविता में नई कविता की कुछ प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं, तो अंतिम दौर में ये अरविंद दर्शन से प्रभावित कवि के रूप में सामने आते हैं।
भाषा-शैली – पंत जी का संपूर्ण साहित्य आधुनिक चेतना का वाहक है। इन्होंने हिंदी कविता को अभिव्यंजना की नई पद्धति और काव्य-भाषा को नवीन दृष्टि से समृद्ध किया है। पंत जी की कविता में भाषा और संवेदना के सूक्ष्म तथा अंतरंग संबंधों की पहचान है। इससे हिंदी काव्य-भाषा में नए सौंदर्य-बोध का विकास हुआ है। इन्होंने खड़ी बोली हिंदी काव्य-भाषा की व्यंजना-शक्ति का विकास किया और उसे भावों तथा विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अधिक सक्षम बनाया, इसीलिए इन्हें शब्द-शिल्पी कवि भी कहा जाता है। यथा-
‘सरकाती पद
खिसकाती पट
शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट!’
पंत जी ने शब्दालंकारों व अर्थालंकारों का सुंदर प्रयोग किया है। वे लय व संगीत का बहुत ध्यान रखते थे; यथा-
‘लो छन, छन, छन, छन,
छन, छन, छन, छन,
घिरक गुजरिया हरती मन’
कवि ने दृश्य, श्रव्य व स्पर्श बिंबों का निर्माण किया है। इन्होंने सामान्यतया मुक्त छंद में कविता की रचना की है।
कविता-परिचय :
‘संध्या के बाद’ कविता ‘ग्राम्या’ (1940) संकलन से ली गई है। ‘ग्राम्या’ संग्रह का मूल स्वर ग्रामीण जन-जीवन के विविध सामाजिक यथार्थ को उद्घाटित करता है। ‘संध्या के बाद’ कविता साँझ की जाती हुई लाली के विविध प्राकृतिक चित्र प्रस्तुत करती है। इन चित्रों में तरु-शिखर, स्वर्णिम-निर्शर एवं नील-लहरियों पर साँझ का प्रभाव गहरी व्यंजना के साथ दिखाया गया है। मंदिर में बजते शंख, घंटे तथा दीपशिखा के नभ में ज्वालित कलश भी संध्या की लाली में आलोकित हुए हैं। शाम के समय घर लौटते पशु-पक्षियों और कृषकों के चित्रों ने कविता में सामाजिकता का विस्तार किया है। कविता अपने उत्तरांश की ओर बढ़ते हुए समाज के निम्न मध्यवर्गीय जीवन की विडंबना की ओर उन्मुख हो जाती है। कवि ने दैन्य, दुख, अपमान, गाली, जो जीवन की परिभाषा बन चुके हैं, को विफल जीवन के उत्पीड़न-रूप में चित्रित किया है। लालाओं, बनियों और महाजनों आदि के मन में आलोचना का भाव जाग्रत करते हुए व्यवस्था-परिवर्तन की आकांक्षा को भी कवि ने स्वर दिया है।
कक्ता का सार :
‘ग्राम्या’ संकलन की कविता ‘संध्या के बाद’ में साँझ की लाली के विविध रूपों के प्राकृतिक चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। कवि ने सबसे पहले सायं के आगमन का चित्रण किया है, जिसमें सायंकाल की लाली सिमटकर पेड़ों पर जा बैठी है। इससे पेड़ों के पत्ते ताम्रवर्णी हो गए हैं। क्षितिज पर सूर्य डूब रहा है, जिसकी परछाईं गंगा-जल पर पड़कर उसे शांत, मंद और बड़े से सर्प का रूप प्रदान कर रही है।
इसी संध्या के कारण गंगा-तट की रेत धूपछाही रंग की हो गई है। इसी समय मंदिरों में आरती होने लगती है तथा शंखध्वनि सुनाई पड़ती है। मंदिरों के कलश का सौंदर्य अनुपम हो उठता है। गंगा-तट पर बैठी ध्यानमग्न वृद्धाओं को देखकर लगता है, मानो बगुलों की पंक्ति हो। इनके मन का रुदन धीरे-धीरे गंगा में बहता जा रहा है। सोन चिड़ियों का झुंड घोंसलों की ओर लौटते हुए मधुर स्वर से आकाश गुंजरित कर रहा है। गायें सुनहरी धूल उड़ाती आ रही हैं, तो चिड़ियों की तेज़ गति तेज़ी से आते तीर का भ्रम पैदा कर रही है।
शाम होने के कारण पक्षी, गायें और किसान घर को लौटने लगे हैं। अब व्यापार भी सिमटने लगा है। व्यापारी उस पार जाने के लिए नाव पर जा रहे हैं। इनमें से कुछ ऊँट और घोड़ों के पास खाली बोरे बिछाकर बैठे हैं। कुछ लोग हुक्का पी रहे हैं। संध्या के प्रभाव से खेत, बाग-बगीचे, घर, पेड़-पौधे, नदी का तट और लहरें अछूती नहीं हैं। ये सब अंधकार में डूब रहे हैं।
गाड़ीवान बिरहा गाते हुए घर की ओर आ रहे हैं। गाँवों से कुत्तों के लड़ने और खेतों-झाड़ियों से सियारों की हुआँ-हुआँ की आवाज़ें रात होने की जानकारी दे रही हैं। माली के छप्पर से धुआँ उठने लगा है। छोटे दुकानदारों ने ढिबरी जला ली है, जिनसे प्रकाश कम धुआँ अधिक निकलता है। सारी बस्ती में अंधकार छाया है। लेने-देने का काम करने वाला लाला परेशान है। रात्रि बढ़ती जाती है और लोग धीरे-धीरे नींद की गोद में चले जाते हैं। विश्राम करते लाला का मन अशांत है।
वह अपनी मुसीबतों के बारे में सोचकर व्याकुल है। कम आमदनी ही उसकी अशांति का कारण है। वह सोचता है कि दिन भर एक-एक पैसा जोड़ने और झूठ बोलने के बाद भी वह परिवार का भरण-पोषण अत्यंत कठिनाई से कर पा रहा है। वह सोचता है कि वह शहर के बनियों की तरह अमीर क्यों नहीं हो पाता। वह व्यवस्था-परिवर्तन की बात सोचते हुए शोषण-मुक्त समाज के निर्माण की कल्पना करता है। इसी बीच गरीब बुढ़िया पाव भर आटा लेने आती है। लाला ने शोषण-मुक्त समाज की कल्पना छोड़कर तौल में बेईमानी कर दी। उसकी करनी-कथनी का अंतर दिख गया। इसी बीच गहराती नींद का अजगर बस्ती को धीरे-धीरे निगलता जा रहा था।
सप्रसंग व्याख्या एवं काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –
1. सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी अब तरु शिखरों पर
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निर्शर!
ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
बृहद् जिह्म विश्लथ केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल!
शब्दार्थ :
साँझ-सायंकाल (evening)। तरु शिखरों-पेड़ की चोटियों पर (top of the trees)। ताम्रपर्ण-ताँबे के रंग का पत्ता (copper-red leaves)। शतमुख-सौ मुखों वाला (of hundred mouths)। स्वर्णिम-सुनहला (golden)। निर्ईर-झरना (waterfall)। स्तंभ-खंभा (pole)। सरिता-नदी (river)। क्षितिज-वह स्थान, जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं (horizon)। ओझल-गायब (disappear)। बृहद्-विशाल (large)। जिह्म-मंद (slow)। विश्लथ-शिथिल, थका हुआ-सा (tired)। चितकबरा-काले-सफ़ेद रंग का (like white-black colour)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता ‘संध्या के बाद ‘ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। इस कविता में ढलती साँझ के समय गाँव के वातावरण, जन-जीवन तथा प्रकृति का सुंदर चित्रण है। इन काव्य पंक्तियों में कवि ने संध्या के आगमन की बेला का अति सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है। संध्या में पूर्व की गोधूलि बेला समाप्त हो चुकी है।
व्याख्या – सायंकाल को एक पक्षी के रूप में चित्रित करते हुए कवि कहता है कि संध्या रूपी पक्षी अपने लाली रूपी पंखों को समेटकर पेड़ की फुनगी पर जा बैठा है। अर्थात पेड़ों की फुनगी पर सूर्य की लालिमा दिख रही है। इससे पीपल के पत्ते ताँबे के रंग के लग रहे हैं। उनसे गुज़रती हवा से सर-सर की आवाज़ ऐसी आ रही है, मानो सैकड़ों चंचल झरने गिर रहे हों। सूर्य क्षितिज से ओझल हो रहा है। गंगा नदी के जल में उसकी परछाई सुंदर प्रकाश-स्तंभ की-सी शोभा उत्पन्न कर रही है। गंगा का विशाल जलक्षेत्र मंद, शांत और बड़े सर्प के चितकबरे रंग के केंचुल-सा लग रहा है।
विशेष :
(i) संध्या की लाली का प्रकृति के विभिन्न अंगों पर पड़ते प्रभाव का चित्रण है।
(ii) भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्घ –
संध्या की लाली समेटकर पक्षियों की तरह पेड़ों की फुनगी पर बैठने की कल्पना अद्भुत है।
संध्या की लालिमा के कारण सर्वत्र मनोहर वातावरण बन गया है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य –
(i) ‘सिमटा पंख साँझ की लाली जा बैठी अब तरु शिखरों पर’-पंक्ति में मानवीकरण अलंकार है।
‘ज्योति स्तंभ-सा’ तथा ‘केंचुल-सा’ में उपमा अलंकार है। गंगा के पार क्षितिज पर डूबते सूर्य के प्रकाश के लिए ज्योति-स्तंभ का तथा गंगा के चितकबरे जल के लिए केंचुल उपमानों का प्रयोग किया गया है।
इस काव्यांश में छायावादी कविता के प्रमुख गुण (बिंब) का आदर्श निरूपण देखने को मिलता है।
(ii) दृश्य बिंब विद्यमान है।
तत्सम-प्रधान शब्दावली है।
खड़ी बोली में सहज अभिव्यक्ति है।
2. धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल उर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोड़ित
पीला जल रजत जलद में बिंबित!
सिकता, सलिल, समीर सदा से
स्नेह-पाश में बँधे समुज्ज्वल,
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल
ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल
शंख घंट बजते मंदिर में
लहरों में होता लय कंपन,
दीप शिखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता नीराजन!
शब्दार्थ :
रेती-रेत, बालू (sand)। अनिल-वायु, पवन (air)। उर्मियों-लहरों (waves)। सर्पांकित-सर्प के आकार की तरह अंकित (marked like snake)। नील लहरियाँ-नीली लहरें (blue waves)। लोड़ित-लहरों से हिलाया-डुलाया गया, मथि (churned)। रजत-चाँदी (silver)। जलद-बादल (cloud)। बिंबित-परछाईं से युक्त (full of shadow)। सिकता-(sand)। सलिल-जल (water)। स्नेह-पाश-प्रेम का बंधन (attached with love)। समुज्ज्वल-अच्छी तरह उज्ज्वल, प्रकाशित (proper lightness)। लवोपल-बर्फ के टुकड़े, छोटे ओले (snow balls)। घंट-बड़े घंटे (large bells)। दीप शिखा-दीप की लौ का ऊपरी भाग (top of flame of light)। ज्वलित-चमकते हुए (burning)। नीराजन-आरती (prayer)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। इस काव्यांश में कवि ने संध्या के सौंदर्य का प्राकृतिक बिंब उकेरा है। प्रकृति-जगत में सर्वत्र संध्या का आह्वान हो रहा है, जिससे गंगा-तट की रेत, गंगा-जल, वायु, मंदिर के कलश आदि सौंदर्यमान हो उठे हैं।
व्याख्या – संध्या का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि सायंकालीन प्रकाश में गंगा-तट की बालुका राशि धुपछाही रंग की हो रही है। हवा के झोंकों ने उस पर साँपों की-सी आकृति बना दी है। गंगा-जल में पीले प्रकाश की चाँदी जैसी आभा नीले लहरों में हिलकर अद्वितीय हो रही है। नदी की रेत, जल तथा हवा सभी हमेशा से ही प्रकृति के स्नेह-पाश में बँधे हुए हैं। हवा ही पिघलकर मानो जल में गतिमान हो रही है। प्रकृति की इस सुंदरता में मानव-जगत भी शांत हो गया है। गंगा-तट पर मंदिर में शंखों और घंटों की आवाज़ हो रही हैं। उसके संगीत से जो लय उत्पन्न हो रही है, उससे गंगा का जल तरंगित हो गया है। आरती के दीपक की लौ के ऊपर उठने से जैसी अद्वितीय सुंदरता उत्पन्न होती है, उसी प्रकार प्रकाशित कलश की भाँति चाँद धीरे-धीरे ऊपर आकाश को प्रकाशित करने लगा है, जिसे देखकर ऐसा लगता है, जैसे मंदिर का कलश प्रकाशमान होकर स्वयं ही आरती कर रहा है।
विशेष :
(i) सांध्यकालीन वातावरण का सुंदर चित्रण है।
(ii) भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य-
इस काव्यांश में प्राकृतिक सुंदरता का वर्णन साकार हो उठा है।
गंगा-तट के वातावरण का मनोहारी चित्रण है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य-
(i) ‘सिकता, सलिल, समीर सदा से’ में अनुप्रास अलंकार की सुंदरता छाई हुई है।
‘दीप शिखा-सा ज्वलित कलश’ में उपमा अलंकार है।
कवि ने तत्सम शब्दों का चयन बहुत ही कुशलता से किया है।
लय और गति प्रभावशाली है।
‘सिकता, सलिल, समीर सदा से, स्नेह-पाश में बँधे समुज्ज्वल’ में प्रकृति के विभिन्न उपादानों में परस्पर प्रेम की कल्पना करके कवि ने अपनी काव्य-कला का सुंदर परिचय दिया है।
(ii) छायावादी शैली है।
श्रव्य एवं दृश्य बिंब साकार हो उठे हैं।
भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
मंदिर-कलश द्वारा स्वयं आरती करने के कारण मानवीकरण अलंकार है।
3. तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!
दूर तमस रेखाओं-सी,
उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरितः
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन् तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठों का स्वर!
शब्दार्थ :
मगन-मग्न, तल्लीन (busy)। मंथर-धीमा, गंभीर (slow)। अंतर-रोदन-अंतर्मन की रूलाई (cryness of heart)। तमस-अँधेरा, अंधकार (darkness)। चित्रित-चित्रों से युक्त (depicted)। पाँति-पंक्ति (line)। आर्द्र-नम (moist)। नीरव-शांत (calm)। मुखरित-आवाज़ से युक्त (with sound)। गोरज-गोधूलि, गायों के पैरों से उड़ने वाली धूलि (dirt flying from hooves of cows)। सनन् -सनसनाती हुई आवाज़ व गति (speed)। ज्योतित-प्रकाशित (lighted)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। इस कविता में कवि ने चराचर जगत की गतिविधियों का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है। इस अंश में कवि कहता है कि सायं बेला एक ओर गंगा-तट पर विधवाएँ जप-तप एवं ध्यान में लीन हैं, तो दूसरी ओर खग कुल की कलरव से आसमान की नीरवता भंग हो रही है।
व्याख्या – कवि बताता है कि संध्याकाल गंगा-तट पर बैठी वृद्धाओं का समूह ऐसा दिखाई देता है, मानो बगुलों की पंक्ति बैठी हो। विधवाएँ जप-ध्यान, पूजा-पाठ में मग्न हैं। विधवाओं के मन की पीड़ा का बिंब कवि ने गंगा की मंथर धारा में देखा है। इनके मन का रुदन गंगा के प्रवाह में धीरे-धीरे बहता जा रहा है। आसमान में सोन चिड़ियों के झुंड उड़कर अपने घोंसलों की ओर लौट रहे हैं। उनके काले-सुनहरे रंग से आसमान रेखांकित-सा हो रहा है। उनकी मीठी आवाज़ से शांत आसमान बोलने लगा है। सुनहरे प्रकाश की आभा में गायों के पैरों से उड़ती धूल सुंदर लग रही है। धूल के सुनहरे बादल ऊपर उठते नज़र आ रहे हैं। चिड़ियों के कंठों की तेज़ आवाज़ इस प्रकार गूँज रही है, मानो तेजी से कोई तीर जा रहा हो।
विशेष :
(i) इस काव्यांश में गंगा-तट पर शाम के समय बैठी वृद्धाओं, घोंसले की ओर लौटते पक्षियों तथा घर लौटती गायों का सुंदर चित्रण है।
(ii) सांध्यकालीन वातावरण का सुंदर चित्रण है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य –
गंगा-तट के वातावरण का सजीव चित्रण है।
ग्रामीण वातावरण में पक्षियों तथा गायों के लौटने से संध्या होने का भाव पुष्ट हुआ है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य –
(i) ‘बगुलों-सी वृद्धाएँ’, ‘तमस रेखाओं-सी’, ‘स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज’, ‘किरणों की बादल-सी जलकर’ तथा ‘सनन् तीर-सा’ में उपमा अलंकार का सौंदर्य है।
भाषा प्रवाहपूर्ण है।
तत्सम शब्दों का प्रयोग है।
साहित्यिक खड़ी बोली है।
(ii) दृश्य-बिंब एवं श्रव्य-बिंब क्रमशः साकार एवं मुखरित हो उठे हैं।
अनुप्रास अलंकार की छटा है।
छायावादी शैली का प्रभाव है।
4. लौटे खग, गायें घर लौटीं
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर
छिपे गृहों में म्लान चराचर
छाया भी हो गई अगोचर।
लौट पैंठ से व्यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
खाली बोरों पर, हुक्का भर!
जाड़ों की सूनी द्वाभा में
झूल रही निशि छाया गहरी,
डूब रहे निष्प्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी!
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक-भूँककर लड़ते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार
देते विषणण निशि बेला को स्वर!
शब्दार्थ :
श्रांत – थके हुए (tired)। श्लथ-थका हुआ (tired)। डग-मार्ग, रास्ता (path, way)। धर-पकड़कर (catch)। म्लान-फीका, निस्तेज (faded)। चराचर-चर और अचर (movable and immovable)। छाया-परछाई (shadow)। अगोचर-अदृश्य, गायब (invisible)। पैंठ-गाँव में लगने वाला छोटा बाज़ार (small market organised in the village)। द्वाभा-संध्या की चमक, प्रकाश (evening light)। निशि-रात्रि (night)। निष्प्रभ-प्रभाहीन, चमक रहित (without shine)। विषाद-दुख (sadness)। लहरी-लहरें (waves)। बिरहा-एक भोजपुरी लोक-गीत (a kind of folk song)। कूकर-कुत्ता (dog)। विषण्ण-विषाद से पूर्ण (full of sorrow)। निशि बेला-रात्रि का समय (night tune)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। इन पंक्तियों में कवि ने शीतकालीन शाम की शांति, श्रांति और सूनेपन का सजीव वर्णन किया है। कवि कहता है कि सायं गहराती जा रही है। वातावरण में नीरवता छाती जा रही है। समय बढ़ने के साथ अंधकार भी बढ़ता ही जा रहा है।
व्याख्या – कवि बताता है कि शाम होने के साथ ही पक्षी घर लौटने लगे हैं। गायें चरकर घर लौटने लगी हैं। किसान दिनभर के काम-धाम से थककर धीरे-धीरे अपने मार्ग पर लौट रहे हैं। थके चर-अचर अर्थात जीव-जंतु अपने-अपने घरों में छिपते जा रहे हैं। प्रकाश के लुप्त हो जाने से अब अपनी परछाई भी नहीं दिखाई देती। गाँव के छोटे बाज़ार (पैठ) में सामान बेच रहे व्यापारी गंगा के उस पार जाने के लिए नाव पर जा रहे हैं। कुछ व्यापारी खाली बोरे बिछाकर ऊँटों, घोड़ों के पास बैठे हैं। कुछ लोग हुक्का पी रहे हैं। गोधूलि की इस बेला में रात्रि की गहरी छाया आने लगी है। खेत, बाग-बगीचे, घर, पेड़-पौधे, नदी का तट और लहरें सभी इस अंधकार में डूबने लगे हैं। गड़ीवान (बैलगाड़ी चलाने वाले) भी अपने काम-काज से लौट रहे हैं। वे अपनी गाड़ी पर बैठकर बिरहा गाते हुए चले जा रहे हैं। गाँवों के आस-पास से कुत्तों के भूँकने और लड़ने की आवाज़ें आ रही हैं। खेतों में, झाड़ियों में सियार हुआँ-हुआँ की ध्वनि कर रहे हैं, जिसे सुनकर ऐसा लगता है, मानो रात्रि को स्वर मिल गया है, अर्थात रात्रि ही बोल रही है।
विशेष :
(i) इस काव्यांश में शाम की नीरवता का वर्णन है।
(ii) भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य –
इस काव्यांश में यह भाव प्रकट हुआ है कि शाम होने पर मनुष्य, पशु-पक्षी घर की ओर लौटने लगते हैं।
रात्रि में कुत्तों के भूँकने तथा सियारों के बोलने से नीरवता भंग होने का भाव प्रकट हुआ है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य –
(i) तत्सम शब्दों के साथ-साथ आंचलिक शब्दों का प्रयोग कुशलता से किया गया है।
बिंबों का प्रस्तुतीकरण सजीव हो उठा है।
‘तरु, तट लहरी’ में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
‘भूँक-भूँक’, ‘हुआँ-हुआ” में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
(ii) छायावादी शैली है।
दृश्य बिंब है।
तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग है।
खड़ी बोली में सहज अभिव्यक्ति है।
5. माली की मँड़ई से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली,
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जला दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँघ रही लंबी अधधियारी!
धुआँ अधिक देती है
टिन की ढिबरी, कम करती उजियाला,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
शब्दार्थ :
मँड़ई-झोपड़ी (hut)। धूमाली-धुएँ जैसी चादर (cloud of smoke)। तिरती-फैलती, तैरती (swims)। बत्ती-दीपक (light)। कस्बा-छोटा शहर (small town)। मौन मंद-चुप शांत (calm)। आभा-प्रकाश, चमक (light)। ढिबरी-मिट्टी के तेल से जलने वाला दीपक (a lamp with wick and kerosene oil to give light)। अवसाद -दुख (pain)। श्रांति-थकान (tireness)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। कवि ने इस काव्यांश में शाम के गहराने का चित्र खींचा है। कवि कहता है कि प्रकृति शाम के समय विषादमुक्त-सी लग रही है। उसने गाँव के बाज़ारों में अँधेरे से बचने के लिए ढिबरी जलाने का वर्णन किया है।
व्याख्या – कवि कहता है कि माली की झोंपड़ी से निकलते धुएँ ने एक धुँधली चादर फैला दी है, जो आसमान से नीचे एक सतह बना रही है। नीले रेशम की जाली की भाँति आसमान का रंग हवा में तैरता मालूम हो रहा है। कस्बे के व्यापारी अपनी दुकानों में बत्ती के मंद प्रकाश में बैठे हैं। चारों ओर एक मौन छाया हुआ है। सर्दी की रात ऊँघने लगी है। टिक की ढिबरी की क्षीण रोशनी में प्रकाश कम है, धुआँ अधिक। उससे निकलने वाला धुआँ ऐसा लगता है, जैसे मन से अवसाद, दुख निकलकर आँखों के आगे छा रहे हों।
विशेष :
(i) गहराती शाम का चित्रण है।
(ii) भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
( क) भाव-सौंदर्य –
उपर्युक्त काव्यांश में शाम के गहराने से वातावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन है।
गाँवों की साधनहीनता का वर्णन किया गया है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य –
(i) ‘मँड़ई’ तथा ‘ढिबरी’ जैसे आंचलिक शब्दों के प्रयोग से वर्णन में सजीवता उत्पन्न हो गई है।
‘नभ-सी धूमाली’, ‘रेशम की-सी हलकी जाली’ में उपमा अलंकार है।
‘हिम की ऊँघ रही लंबी अँधियारी’ तथा ‘अवसाद श्रांति आँखों के आगे बुनती जाला’ में मानवीकरण अलंकार है।
प्रकृति के साथ जनजीवन का साम्य चित्रित किया गया है।
(ii) ‘माली की मँड़ई’, ‘नभ के नीचे’, ‘मौन मंद आभा में’, ‘कम करती उजियाला’, ‘आँखों के आगे’ में अनुप्रास अलंकार है।
दृश्य बिंब साकार हो उठा है।
खड़ी बोली में तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग है।
6. छोटी-सी बस्ती के भीतर
लेन-देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
कँप-कूप उठते लौ के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिट्टी खपरे के घर-आँगन,
भूल गए लाला अपनी सुधि,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन!
शब्दार्थ :
थोथे-बेकार, व्यर्थ (useless)। मंडल-प्रकाशमंडल, रोशनी (lightness)। कातर-भय से त्रस्त, परेशान (sad)। उर-हृर (heart)। क्रंदन-रूलाई (cryness)। मूक-शांत, चुप (silent)। क्षीण-दुर्बल, पतली (weak)। गोपन-गुप्त (hidden)। खपरे -मिट् के घर के ऊपर रखा जाने वाला मिट्टी से बना पक्का खपड़ा, खपरैल (earthen tiles)। लाला-महाजन (money-lender)। सुधि-ध्यान, ज्ञान (remembrance)। ब्याज-सूद (interest)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। इन काव्य-पंक्तियों में कवि ने मानव-जीवन की उलझनों का रेखाचित्र प्रस्तुत किया है। दीपक के धुँधले प्रकाश को जीवन के धुँधलके के रूप में देखा है।
व्याख्या – छोटे-से कस्बे में रहने वाले लोगों की मनोदशा का चित्रण करते हुए कवि कहता है कि रात्रि की शांति में भी बनिया या महाजन अशांत है। संध्या में नीरवता और शांति बढ़ती जा रही है, कितु कस्बे का बनिया बेचैन है। वह लेन-देन, मूलधन और ब्याज के चक्कर में प्रकृति-प्रदत्त विश्राम के क्षणों में भी बेचैन है। दीपक के प्रकाश में मन का अँधेरा दिखाई देता है। ऐसा लगता है, जैसे मन को दीपक की भाषा मिल गई है। जैसे-जैसे रात्रि का समय बढ़ता जा रहा है, बस्ती के मिट्टी एवं खपरैल के घर अंधकार में डूबते जा रहे हैं। लोग धीरे-धीरे निद्रा की गोद में चले जा रहे हैं। नींद की गोद में सब अपनी सुध-बुध खोते जा रहे हैं। गाँव का महाजन भी ब्याज, मूलधन आदि भूलकर नींद में खो गया है।
विशेष :
(i) इस काव्यांश में सांध्यकाल के उपरांत गहराती रात में ग्राम्य जीवन का चित्रण है।
(ii) भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाष-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-संवर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य –
इस काव्यांश में गाँव की गरीबी का स्वाभाविक चित्रण किया गया है।
बढ़ते अंधकार में घर, खपरैल आदि के खोने के साथ लोगों के नींद की गोद में डूबने का वर्णन है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य –
(i) इस काव्यांश में यत्र-तत्र उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग दिखाई देता है। गोपन मन की ज्योति भाषा नहीं दे सकती. क्योंकि उसकी भाषा नहीं होती, लेकिन कवि ने ऐसी संभावना उत्पन्न कर दी है।
पंत जी की भाषा में तत्सम शब्दों के साथ देशज व आंचलिक शब्दों का प्रयोग कविता में सजीवता उत्पन्न कर रहा है।
भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
(ii) दृश्य बिंब साकार हो उठा है।
‘कँप-कंप’ में पुनरुक्ति-प्रकाश अलंकार है।
छायावादी भैली का सर्वत्र प्रभाव है।
7. सकुची-सी परचून किराने की छेरी
लग रहीं ही तुच्छत्तर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न!
वैन्य दुख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बन रही
उसके जीवन की परिभाषा!
शब्दार्थ :
सकुची-सिमटकर छोटी हो चुकी (shrink)। परचून-दैनिक उपभोग की वस्तुएँ (things of daily use)। किराना-पंसारी की दुकान (grocery)। तुच्छतर-हेय, बहुत हल्का, कम कीमती (too light, low cost) । नीरव-शांत (calm)। प्रदोष-सूर्यास्त का समय, संध्या (evening)। आकुल-व्याकुल, बेचैन (restless)। अंतर-मन (mind)। हस्ती-हैसियत, सामर्थ्य (power)। यीड़न-सताना, दबाना (vexation)। दैन्य-दीनता, गरीबी (poverty)। ग्लानि-दुख, खेद (sorry)। चिर-लंबे समय से (long time)। क्षुधित-भूखा (hungry)। पिपासा-प्यास, अतृप्त इच्छा (thirst)। मृत-मरी हुई (dead)। अभिलाषा-इच्छा (wish)। क्लांति-शिथिलता, थकावट (tireness)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। इस काव्यांश में एक छोटे-से बनिए के माध्यम से कवि ने जन-साधारण के जीवन के संघर्ष का चित्र खींचा है, जिसे कम आय के कारण कष्ट सहना पड़ रहा है। इसमें प्रकृति की समानता तथा मानव-समाज की असमानता की तुलना की गई है।
व्याख्या – कवि कहता है कि लाला की दैनिक उपभोग की वस्तुओं की दुकान सिमटी-सी लगती है, क्योंकि उसमें सामान बहुत कम बचा है। यह दुकान छोटी और छोटी होती जा रही है। रात के इस अंधकारपूर्ण वातावरण में लाला जब विश्राम कर रहा है, तो उसका मन अशांत है। उसके मन में अपनी छोटी हस्ती, दीनता और असफल जीवन का अवसाद उभर रहा है। सारी प्रकृति सो रही है, मगर मनुष्य बेचैन है, क्योंकि गाँव के लोग घोर गरीबी में जीवन बिता रहे हैं। वे दीनता, दुख, अपमान और घृणा के भाव झेल रहे हैं। लंबे समय से अपूर्ण रहने से उनकी इच्छाएँ मर चुकी हैं। कवि ने लाला को बेचैन मानव-मन का प्रतीक बताया है, क्योंकि उसे अपना जीवन असफल लगता है। उसकी आय कम है, इसके कारण उसका जीवन दुख की परिभाषा बनकर रह गया है। अर्थात वह हर प्रकार से दुखी है।
विशेष :
(i) इस काव्यांश में ग्रामीण जीवन का वर्णन है।
(ii) भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य-
इस काव्यांश में गाँव की गरीबी का मर्मस्पर्शी चित्रफ है।
गरीबी के कारण झेली जाने वाली यातनाओं का मार्मिक चित्रण है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य –
(i) ‘सकुची-सी’ में उपमा अलंकार का प्रयोग किया गया है।
‘क्षुधित पिपासा’, ‘मृत अभिलाषा’ में मानवीकरण अलंकार है।
अनुप्रास अलंकार की छटा है।
खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
(ii) जीवन का यथार्थपरक चित्रण है।
तत्सम शब्दों की बहुलता है।
छायावादी शैली का प्रभाव है।
8. जड़ अनाज के बेर सदृश ही
वह दिन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौड़ी-की स्पर्धा में मर-मर!
फिर भी क्या कुटुंब पलता है?
रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन?
बना पा रहा वह पक्का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गई कंधों से कथड़ी
ठिठुर रहा अब सरीं से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का निज कारणा
शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन?
शब्दार्थ :
जड़-जो गतिहीन हो, बेजान (lifeless)। सदृश-समान (similar, like)। स्पर्धा-प्रतियोगिता (competition)। कुटुंब-परिवार (family)। सुघर-सुंदर, साफ़ (beautiful, clean)। परिजन-परिवार के लोग (family-members)। कथड़ी-एव प्रकार का बिछौना, लेवा, गुदड़ी (a bedsheet made by old clothes)। विवशता-लाचारी, मजबूरी (helplessness)। निज-अपना (own)। महाजन-बड़ा दुकानदार, व्यवसायी (big shopkeeper)। उन्नति-तरक्की (progress)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता संध्या के बाद से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। इस कविता में कवि ने उन्नति के लिए चिंतित मनुष्य की चिंता और उसकी जीवन-चर्चा पर प्रकाश डाला है। इस काव्यांश में कवि बता रहा है कि गरीबी के कारण मनुष्य को गलत काम करने पड़ते हैं। गरीब अर्थात् छोटे दुकानदार गरीबी की मार से त्रस्त होकर बड़ा बनने की सोचने लगते हैं।
व्याख्या – कवि बताता है कि रात्रि की नीरवता में लाला को नींद नहीं आ रही है। उसे चिता ने घेर लिया है। वह सोचता है कि वह निर्जीव अनाज की ढेरी की तरह दिनभर दुकान की गद्दी पर बैठा रहता है, क्योंकि उसकी बिक्री बहुत कम होती है। दिनभर कौड़ी-कौड़ी यानी एक-एक पैसा कमाने में वह कई बार झूठ भी बोलता है। फिर भी परिवार का भरण-पोषण करना कठिन है। सभी परिजन ठीक से जीवनयापन नहीं कर पाते। उसका पक्का घर नहीं बन सका है। उसके मन में सुख नहीं है। वह धन भी नहीं जुटा पा रहा। इसी बीच उसने जो गुदड़ी ओढ़ रखी है, शरीर से खिसक जाती है। उसका शरीर सर्दी से काँपने लगता है। वह अपनी गरीबी और विवशता का कारण सोचने लगता है कि वह ऐसा जीवन जीने के लिए विवश क्यों है? शहर के बनियों की तरह वह बड़ा सेठ किस प्रकार बन सकता है? वह महाजन क्यों नहीं बन पाता? उसकी उन्नति की सभी राहें किसने रोक दी हैं? इस प्रकार की चिंताएँ उसे घेर लेती हैं।
विशेष :
(i) इस काव्यांश में बनिये के माध्यम से गरीब मनुष्यों की चिता का स्वाभाविक चित्रण है।
(ii) भाषा खड़ी बोली है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य –
उपर्युक्त काव्यांश में गरीब बनिये की छोटी दुकान और उसकी दीन-हीन दशा का चित्रण है।
गरीबी से छुटकारा पाने के लिए आत्मचितन एवं सुखी जीवन जीने की अभिलाषा की सार्थक अभिव्यक्ति हुई है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य –
(i) बस्ती के बनिये की गुदड़ी गिरने एवं काँपने में दृश्य-बिंब साकार हो उठा है।
‘स्वच्छ सुघर सब’ में अनुप्रास अलंकार की सुंदरता है।
तत्सम शब्दों के साथ-साथ देशज शब्दों; जैसे-ढेर, गद्दी, कथड़ी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया गया है।
‘मर-मर’, ‘बात-बात’ में पुनरक्ति ग्रकाश अलंकार है।
(ii) ‘अनाज के ढेर सदृश’, ‘बनियों-सा’ में उपमा अलंकार है।
छायावादी शैली है।
भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
9. यह क्या संभव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-व्यय का हो वितरण?
घुसे घरौदों में मिट्टी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोग करें जीवन का,
जन विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का ?
शब्दार्थ :
परिवर्तन-बदलाव (change)। सकल-पूरा, संपूर्ण (total)। घरौंदों-छोटे-छोटे घरों (small houses)। सामूहिक-समूह का, सबका (of group, of all)। भोग करना-आनंद उठाना (to enjoy)। विमुक्त-स्वतंत्र, आज़ाद (independent)। शोषण-चूसना, हक मारना (exploitation)।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। इन काव्य-पंक्तियों में कवि ने सामाजिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया है। यहाँ समाज के परिवर्तन की सुंदर कल्पना की गई है। ग्रामीण जन-जीवन के सामाजिक यथार्थ का चित्रण किया गया है।
व्याख्या – चिंतित बनिया सोच रहा है-क्या यह संभव नहीं कि वर्तमान में जो व्यवस्था कायम है. उसमें परिवर्तन हो? परिवर्तन से ही उसके जैसे दीनहीन जनों की दशा में बदलाव आ सकता है। काम और गुण के अनुसार समाज में आय-व्यय का बँटवारा किया जाए, जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं हो रहा है। गाँव वाले अपने-अपने कच्चे घरों में घुसकर सोच रहे हैं कि किस प्रकार सामूहिक जीवन को सब लोग अपनाएँ तथा अपने स्वार्थों का त्याग कर दें और एक समान सुविधाओं का भोग करें तथा सुखी हों। शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का अंत करके नए समाज का निर्माण किया जाए, ताकि सभी सुखी हों।
विशेष :
(i) इस काव्यांश में बस्ती के बनिये के मनोभावों का वर्णन है।
(ii) भाषा खड़ी बोली है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य-
उपर्युक्त गद्यांश में व्यवस्था-परिवर्तन के माध्यम से सभी को सुखी देखने का भाव व्यक्त हुआ है।
कवि ने समाज के नवनिर्माण के प्रति अपने विचार लाला के माध्यम से व्यक्त किए हैं।
(ख) शिल्प-सौंदर्य-
(i) ‘घुसे घरौंदों में’ में अनुप्रास अलंकार है।
‘अपनी-अपनी’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
तत्सम शब्दों का प्रयोग है।
(ii) काव्यांश छंदमुक्त रचना है, पर तुकांतयुक्त है।
खड़ी बोली में भावों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
काव्यांश में प्रश्न शैली है।
10. दरिद्रता पापों की जननी,
मिटें जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हों अधिवास, वसन, तन,
पशु पर फिर मानव की हो जय?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दुख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!
टूट गया वह स्वप्न वणिक का,
आई जब बुढ़िया बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर ङंडी मारी!
चीख उठा घुग्यू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को धीरे,
गाढ अलस निद्रा का अजगर!
शब्दार्थ :
जननी-माता (mother)। ताप-दुख (sorrow)। अधिवास-रहने का स्थान, घर (house)। वसन-वस्त्र (clothes) जग-संसार (world)। परिपाटी-चलन, परंपरा (tradition)। क्लेश-दुख (pain)। स्वप्न-सपना (dream)। वणिक-व्यापारी, बनिया (businessman, grocer)। डंडी मारना-कम तौलना (to weigh less)। घुग्घू-उल्लू (owl)। अलस-अलसाई हुई (laziness)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। इस रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं। इस काव्यांश में समाज के परिवर्तन की कामना की गई है। देश का जनसामान्य सुखी हो जाए, ऐसी कवि की इच्छा है। कवि मानवता की विजय कराना चाहता है और जन-जन को भोजन, वस्त्र तथा आवास की न्यूनतम सुविधा मिले, ऐसी भावना की अभिव्यक्ति की है।
व्याख्या – कस्बे का बनिया सोच रहा है कि दरिद्रता ही सभी पापों को जन्म देती है। वही लोगों से हर तरह के पाप करवाती है। वह चाहता है कि सभी लोगों के पाप, दुख और भय नष्ट हो जाएँ। पशुता पर मानवता की जीत हो। लोगों के परिश्रम की कमाई लोगों में बँट जाए। कहीं शोषण न हो। देश की समस्त प्रजा सुखी हो। सभी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो। लोगों को उत्तम स्वास्थ्य मिले। कोई दुखी न हो। ऐसी कामना करता हुआ, वह कल्पना में मग्न था। इतने में एक गरीब बुढ़िया आधा पाव आटा लेने आई। लाला ने देश का विचार छोड़ दिया, उसने तौल में फिर डंडी मारी। अर्थात कम आटा तौलकर बेईमानी की। अर्थात व्यवस्था-परिवर्तन की बात करने वाला स्वयं शोषण में शामिल हो गया। यह देखकर व्यवस्था का पक्षधर डाल पर बैठा उल्लू चीख उठा। लोगों ने अपने घरों के दरवाज़े बंद कर लिए। अर्थात एक घुड़की में ही शांत हो गए। धीरे-धीरे गहरी नींद का अजगर बस्ती को निगल गया। अर्थात लोग नींद की गोद में डूबते गए।
विशेष :
(i) इस काव्यांश में दरिद्रता को पापों की जड़ बताया गया है।
(ii) भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य –
उपर्युक्त काव्यांश की प्रारंभिक पंक्तियों में कवि ने अपना समाजवादी चितन व्यक्त किया है।
लोगों की कथनी-करनी में अंतर होता है, इस ओर संकेत किया गया है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य –
(i) ‘देश-देश’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
‘डंडी मारना’, ‘चीख उठना’ मुहावरे का प्रयोग है।
खड़ी बोली में भावों की सशक्त अभिव्यक्ति है।
तत्सम शब्दों की बहुलता है।
(ii) भाषा में प्रवाह तथा लय है।
निद्रा का मानवीकरण किया गया है।
‘निद्रा का अजगर’ में रूपक अलंकार है।
भाषा में श्रव्य और दृश्य दोनों बिंब उपस्थित हैं।