जलाते चलो Class 6 Summary Notes in Hindi Chapter 7
‘जलाते चलो’ कविता के माध्यम से द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी समाज को प्रेरणा दे रहे हैं। वे मनुष्य के हृदय में आशा का संचार करते हुए आशावादिता, बलिदान और संघर्ष करने का संदेश दे रहे हैं। उन्होंने अँधेरी रात में स्नेह के दीपक जलाने का संदेश दिया है। वर्तमान समय में वैश्विक स्तर पर में अनेक बुराइयों ने आधिपत्य जमाया हुआ है। अनैतिकता, निराशा आदि बुराइयाँ मिलकर चारों तरफ़ अंधकार फैला रही हैं। कवि मनुष्य में नई चेतना जगाने का प्रयास करते हुए कह रहे हैं कि बुरी प्रवृत्तियाँ तो युगों-युगों से मनुष्य को आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास करती आ रही हैं, किंतु मानव ने अपने सतत प्रयास से स्नेह रूपी दिये जलाकर इन बुरी शक्तियों को रोकने का प्रयास भी किया है। अँधेरे को मिटाने के लिए एक अकेला दीपक भी काफ़ी है। वह अकेले ही अँधेरे का साम्राज्य खत्म करके ज्ञान का प्रकाश फैला सकता है।
सप्रसंग व्याख्या
1. जलाते चलो ये दिये स्नेह भर-भर
कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा ।
भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह
कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा – सी,
मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में
घिरी आ रही है अमावस निशा-सी ।
(पृष्ठ संख्या-60)
शब्दार्थ – जलाते – प्रकाशित करना। स्नेह-प्रेम, प्यार । धरा-धरती । अँधेरा-अंधकार, निराशा, बुराइयाँ ।, निहित- विद्यमान, समाहित। अमावस बने-अंधकार छाए । पूर्णिमा – रोशनी ( अमावस्या व पूर्णिमा हिंदी महीनों के हिसाब से 15-15 दिन बाद आने वाली दो तिथियाँ हैं ।) विश्व – संसार | दिवस – दिन । निशा – रात।
प्रसंग – ‘जलाते चलो’ कविता ‘द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी’ जी द्वारा रचित प्रेरणादायक कविता है । इस कविता के माध्यम से कवि ने मानव को प्रेम भरी राह पर चलने के लिए प्रेरित किया है। जब तक स्नेह रूपी ज्ञान के दीप प्रज्वलित नहीं करेंगे, तब तक बुराइयाँ, निराशा हम पर हावी होती रहेंगी और हम निराशा के गहरे अंधकार में डूबते जाएँगें ।
व्याख्या– कवि मानव समाज को प्रेरित करते हुए कह रहा है कि तुम बिना रुके, बिना थके संसार को ज्ञान का प्रकाश देने के लिए दियों में प्रेम का तेल भर-भर कर जलाते रहो। अपनी कोशिश कम न करना । कभी तो तुम्हारी मेहनत, तुम्हारा प्रयत्न रंग लाएगा। कभी तो विश्व में फैली नफ़रत, युद्ध की विभीषिका, स्वार्थ – लालच आदि बुराइयाँ कम होकर समाप्त होंगी।
आज विज्ञान ने बहुत उन्नति कर ली है, अनेक सुख-सुविधा के साधनों का आविष्कार कर लिया है। एक सेकेंड में अमावस्या की रात जैसा अँधेरा पूर्णिमा की रात से भी अधिक उज्ज्वल हो जाता है। इतने सुख-साधन हैं कि मानव ने दूरी को भी समेटकर कम कर दिया है। इतनी सुख-सुविधाएँ होने पर भी आज पूरे विश्व में अमावस्या की रात जैसा वातावरण बन रहा है। आज पूरा विश्व अधिक-से-अधिक विनाशकारी हथियार बनाने और उसका उपयोग करने की होड़ में लगा हुआ है। प्रकृति से खिलवाड़ करके स्वयं के लिए अंधकार तथा निराशा का वातावरण बना रहा है क्योंकि स्नेह से जलने वाले ज्ञान के दीपक समाप्त होते जा रहे हैं। चारों तरफ़ कृत्रिमता का ही साम्राज्य है। अपने स्वार्थ के लिए लोग अनैतिक कार्य कर रहे हैं। ज्ञान रूपी दिये में स्नेह का तेल भरकर जलाने से कभी तो अज्ञान रूपी अँधेरा मिटेगा ।
2. बिना स्नेह विद्यत – दिये जल रहे जो
बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा ।
जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की
चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी,
तिमिर की सरित पार करने तुम्हीं ने
बना दीप की नाव तैयार की थी।
बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर
कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा।
(पृष्ठ संख्या-60)
प्रसंग – ‘जलाते चलो’ कविता ‘द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी’ जी द्वारा रचित प्रेरणादायक कविता है । इस कविता के माध्यम से कवि ने कहा है कि अंधकार को मिटाकर प्रेम रूपी ज्ञान का दीपक जलाने की चुनौती भी तो तुम्हीं ने स्वीकार की थी।
शब्दार्थ – विद्युत – बिजली । पथ – रास्ता । तिमिर – अँधेरा । चुनौती – ललकार । सरित-सरिता, नदी ।
व्याख्या- आज विज्ञान ने बहुत उन्नति कर ली है। आज उसने अनेक प्रकार के रोशनी फैलाने वाले उपकरण बना लिए हैं, जिनकी रोशनी से रात का अंधकार पूरी तरह प्रकाश से भर जाता है। तुम इनकी कृत्रिम रोशनी से बाहर निकलो, अपने मानव होने के अस्तित्व को पहचानो। इस कृत्रिम रोशनी को बुझाओ क्योंकि आजकल संसार में दिन भी रात समान निराशा की काली चादर में लिपटा हुआ है। स्नेह रिक्त ये बिजली के दिये हटाओ। इन ज्ञान और प्रेम रहित दीपकों की नकली रोशनी हटाकर स्नेह रूपी घी के दिये जलाकर ही मानव सुकून और अपनी मंज़िल प्राप्त कर पाएगा। हमें घबराकर पथ से भटकना नहीं है।
आदिकाल से ही हम भारतवासियों ने धरती पर फैले भयंकर अंधकार को मिटाकर प्रेम रूपी ज्ञान का दीपक जलाया है। हे मानव! तुमने ही तो अज्ञान, बुराई रूपी अंधकार की चुनौती को स्वीकार किया था। अज्ञान व निराशा से भरी हुई नदी को पार करने के लिए तुमने जो प्रेम की आशा से युक्त नाव तैयार की थी, उसे बिना घबराए आगे बढ़ाते चलो। तुम्हारा लगातार किया गया प्रयास कभी तो रंग लाएगा। कभी तो यह अंधकार समाप्त होगा और प्रकाश फैलेगा।
3. युगों से तुम्हीं ने तिमिर की शिला पर
दिये अनगिनत हैं निरंतर जलाए,
समय साक्षी है कि जलते हुए दीप
‘अनगिन तुम्हारे पवन ने बुझाए।
मगर बुझ स्वयं ज्योति जो दे गए वे
उसी से तिमिर को उजेला मिलेगा ।।
(पृष्ठ संख्या – 60-61)
शब्दार्थ – युगों से – प्राचीन काल से। शिला- चट्टान । अनगिनत – गिनती रहित । निरंतर – लगातार । साक्षी – गवाह । पवन – हवा । ज्योति – प्रकाश । उजेला- उजाला।
प्रसंग – ‘जलाते चलो’ कविता ‘द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी’ जी द्वारा रचित प्रेरणादायक कविता है । इस कविता के माध्यम से कवि ने बताया है कि तुमने अंधकार की चट्टानों पर जो दिये जलाकर प्रकाश फैलाया था, उसका गवाह स्वयं समय है।
व्याख्या- इतिहास इस बात का गवाह है कि सदियों से अज्ञान रूपी अँधेरी चट्टानों पर तुमने ज्ञान के अनगिनत दिये जलाए थे। ये चट्टानें अराजकता, स्वार्थ, लालच, वैमनस्य आदि बुराइयों से भरी हुई हैं। इन्हीं दोषों से भरी हुई पवन ने तुम्हारे इन दीपकों को बुझाने का प्रयास भी किया है। मंगर ये दीपक बुझकर भी ज्ञान का प्रकाश दे गए। इन दीपकों को बुझाने वाली प्रवृत्तियों के कारण ही विभिन्न संस्कृति के लोगों ने हमें अपना दास बनाकर हम पर राज किया। उनके अत्याचारों का सामना करते हुए जो जाँबाज़ वीरगति को प्राप्त हुए; उनकी शहादत से प्रेरणा लेकर आने वाली पीढ़ी ने सीख ली है। उसी से बुराई के अंधकार को ज्ञान का प्रकाश मिलेगा।
4. दिये और तूफ़ान की यह कहानी
चली आ रही और चलती रहेगी,
जली जो प्रथम बार लौ दीप की
स्वर्ण-सी जल रही और जलती रहेगी।
रहेगा धरा पर दिया एक भी यदि
कभी तो निशा को सवेरा मिलेगा ||
(पृष्ठ संख्या-61)
शब्दार्थ – लौ – ज्योति, प्रकाश । स्वर्ण – सी – सोने के समान ।
प्रसंग- ‘जलाते चलो’ कविता ‘द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी’ जी द्वारा रचित प्रेरणादायक कविता है । इस कविता के माध्यम से कवि पूरी तरह से आश्वस्त है कि एक न एक दिन विश्व से बुराइयाँ समाप्त होंगी। कभी-न-कभी तो लोगों में प्रेम रूपी ज्ञान जाग्रत होगा और सभी मिल-जुलकर प्रेमपूर्वक रहेंगे ।
व्याख्या – दिये और तूफ़ान की यह कहानी सदियों से चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी। जो प्रेम की लौ (उम्मीद की किरण, आशा की डोर) पहली बार जली थी, वह आगे भी इसी प्रकार जलती रहेगी और सोने के समान उसकी चमक बनी रहेगी। जब तक एक भी स्नेह के तेल से भरा दिया जलता रहेगा, तब तक उम्मीद की लौ भी जलती रहेगी। सफलता कभी भी आसानी से नहीं मिलती। रुकावटें आती ही हैं। तूफ़ान में दिया बुझने की कगार पर पहुँच जाता है। उसकी टिमटिमाती लौ ही मार्गदर्शक की भाँति सहारा बनती है।