Students can find the 12th Class Hindi Book Antra Questions and Answers Chapter 21 कुटज to practice the questions mentioned in the exercise section of the book.
NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 21 कुटज
Class 12 Hindi Chapter 21 Question Answer Antra कुटज
प्रश्न 1.
कुटज को ‘गाढ़े के साथी’ क्यों कहा गया है?
उत्तर :
कालिदास ने आषाढ़ माह के पहले दिन रामगिरि पर यक्ष को जब मेघ की उपासना के लिए नियोजित किया, तो उन्हें कुटज के ताजे फूलों की अंजलि देकर संतोष करना पड़ा था। उस पर्वत पर यदि कोई अन्य फूल उन्हें नहीं मिलता तो यक्ष को मेघ के प्रति पुष्पांजलि देने से वंचित रहना पड़ता। ऐसे में कुटज ने उनके संतृप्त चित्त को सहारा दिया था। वह मुसीबत में काम आया। इसलिए ‘कुटज’ को ‘गाढ़े के साथी’ कहा गया है।
प्रश्न 2.
‘नाम’ क्यों बड़ा है? लेखक के विचार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
लेखक ‘नाम’ को बड़ा कहता है। उसके अनुसार नाम से ही किसी व्यक्ति, पदार्थ, वस्तु आदि को जाना-पहचाना जाता है। नाम के अभाव में किसी निश्चित व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ आदि का ज्ञान नहीं किया जा सकता है। नाम को बड़ा मानने के पीछे एक कारण यह है कि नाम को सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। नाम उस पद को कहा जाता है, जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। इसी कारण ‘नाम’ को बड़ा कहा जाता है।
प्रश्न 3.
‘कुट’, ‘कुटज’ और ‘कुटनी’ शब्दों का विश्लेषण कर उनमें आपसी संबंध स्थापित कीजिए।
उत्तर :
‘कुट’ का अर्थ है-घड़ा। इसे घर भी कहते हैं। ‘कुटज’ का अर्थ है-घड़े से उत्पन्न। महर्षि अगस्त्य को घड़े से उत्पन्न माना जाता है। इसी कारण उन्हें ‘कुटज’ भी कहा जाता है। ‘कुटनी’ शब्द का अर्थ है-गलत ढंग की दासी या विषम परिस्थितियों को उत्पन्न करने वाली। हमारा मत है कि जिस प्रकार घर में रहने वाला बालक बचपन में दासी की देख-रेख में रहता है, वही संबंध इनका भी है। कुटज हिमालय पर्वत रूपी घर की ऊँचाई पर उगने वाला पौधा है। यह कुपित यमराज के दारुण निःश्वास के समान धधकती लू की उपस्थिति में भी जीवित रहता है। ये तीनों शब्द एक ही मूल के शब्द से उत्पन्न हुए हैं।
प्रश्न 4.
कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवन-शक्ति की घोषणा करता है?
उत्तर :
‘कुटज’ का नाम हज़ारों साल से चला आ रहा है। कठिन परिस्थितियों में भी उसके रूप तथा नाम में कोई बदलाव नहीं आया है। वह हिमालय की शिलाओं के बीच उगता है तथा लू में भी हरा रहता है। पाषाणों से वह अज्ञात जल-स्रोत का रस खींचकर सरस बना रहता है। कुटज अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हार नहीं मानता है। इस प्रकार वह अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है।
प्रश्न 5.
‘कुटज’ हम सभी को क्या उपदेश देता है? टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
‘कुटज’ शिवालिक की शृंखलाओं में पाया जाता है। वह हमें उपदेश देता है कि जीना एक कला है। जीवन में अनेक बाधाएँ आती हैं। मनुष्य को उनके साथ संघर्ष करना चाहिए तथा हर परिस्थिति में उल्लासपूर्ण जीवन जीना चाहिए। कुटज उपदेश देते हुए कहता है कि जीना चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर, अपना भोग्य संग्रह करो। वायुमंडल को चूसकर झंझा-तूफ़ान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल लो; आकाश को चूमकर, अकाश की लहरी में झुमकर उल्लास खींच लो। कुटज का यही उपदेश है कि विषम परिस्थितियों में भी जीवन से हार मत मानो।
प्रश्न 6.
कुटज के जीवन से हमें क्या सीख मिलती है?
उत्तर :
‘कुटज’ के जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि हमें कठिन परिस्थितियों में भी कभी विचलित नहीं होना चाहिए। मनुष्य को कष्टों का साहस के साथ सामना करना चाहिए तथा सदा मस्त रहना चाहिए। अपने पौरुष और परिश्रम से कामना कर फल प्राप्त करना चाहिए। इसके अलावा जीवन की अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों, सुख-दुख, हार-जीत, प्रिय-अप्रिय आदि को समान भाव से अपनाना चाहिए। यथासंभव अपने मन को वश में करके जीवन जीना चाहिए। इसके अलावा सदैव सिर उन्नत कर सफलता पाने का प्रयास करना चाहिए।
प्रश्न 7.
कुटज क्या केवल जी रहा है-लेखक ने यह प्रश्न उठाकर किन मानवीय कमज़ोरियों पर टिप्पणी की है?
उत्तर :
‘कुटज’ क्या केवल जी रहा है-लेखक ने यह प्रश्न उठाकर मानवीय कमजोरियों पर टिप्पणी की है। मानव दूसरे से सहायता माँगता है, वह भय से अधमरा हो जाता है। मनुष्य नीति तथा धर्म का उपदेश देता है। वह उन्नति के लिए अफ़सरों के जूते चाटता है। वह दूसरों को अपमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद करता है। मानव अपनी उन्नति के लिए नीलम, अँगूठियों की लड़ी पहना है। वह दाँत निपोरता है तथा बगलें झाँकता है।
प्रश्न 8.
लेखक क्यों मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर :
लेखक मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है। वह तर्क देता है कि संसार में प्रेम भी सिर्फ़ मतलब के लिए है। दुनिया में प्रेम, परार्थ, त्याग तथा परमार्थ का अभाव है। भीतर की जिजीविषा को जीवित रखने की प्रचंड इच्छा सबसे बड़ी होती है, जिसके वशीभूत होकर मनुष्य गलत कार्य कर बैठता है, परंतु उसके अंदर से आती आवाज़ उसे बताती है कि हे मनुष्य! तूने गलत काम किया। यही प्रचंड शक्ति मन को प्रेरणा देकर अच्छे कार्य कराती है तथा स्वार्थवश बुरे कार्य करने से रोकती है।
प्रश्न 9.
‘कुटज’ पाठ के आधार पर सिद्ध कीजिए कि ‘डुख और सुख तो मन के विकल्प हैं।’
उत्तर :
लेखक ने सुख-दुख को मानव-मन का विकल्प बताया है। मनुष्य जीवन-भर सुख और दुख के मध्य जीता है। जिसका मन नियंत्रित है, वह स्वयं को सुखी मानता है। जिसका मन पर नियंत्रण नहीं है, वह स्वयं को दुखी समझता रहता है। मानव कभी सुख-दुख के बंधन से मुक्त नहीं हो पाता। पाठ में ‘कुटज’ नामक पौधा कठिन परिस्थितियों में भी जीवित रहता है। उसने किसी अवधूत की भाँति अपने मन पर विजय पा ली है। उसका मन उसकी वश में है। वह सुख-दुख को समान भाव से ग्रहण करता है।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
(क) ‘कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्वर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।’
(ख) ‘रूप व्यक्ति – सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं, जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग, जिसे ‘सोशल सेक्सन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात!’
(ग) ‘रूप की तो बात ही क्या है! बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्त्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।’
(घ) ‘हुदयेनापराजितः! कितना विशाल वह हृदय होगा जो सुख से, दुख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित न होता होगा! कुटज को देखकर रोमांच हो आता है। कहाँ से मिली है यह अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवन दृष्टि!’
उत्तर :
(क) प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ निबंधकार, आलोचक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। लेखक हिमालय पर पाए जाने वाले एक ऐसे वृक्ष को निबंध का विषय बनाकर प्रस्तुत करता है, जो अपने रूप-सौंदर्य से लेखक को प्रभावित करता है। यह वृक्ष जटिल परिस्थितियों में जीकर भी मस्त है। विषम परिस्थितियों में जीवन तलाश रहा है।
व्याख्या – हिमालय की कठोर शिलाओं पर उगने वाला कुटज एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो भयंकर लू सहकर भी हरा-भरा रहता है और अपनी जड़ों से मज़बूत चट्टाने फोड़कर अतल से जल खींचकर अपनी प्यास बुझाता है। लेखक ने ऐसे कुटज की तुलना उन व्यक्तियों से की है जो जीवन के दुखों से परेशान हुए बिना मस्ती भरा जीवन जीते हैं। ये लोग सुख-दुख, हार-जीत, प्रिय-अप्रिय आदि परिस्थितियों को खुशी-खुशी समभाव से अपनाते हैं। उनमें उत्कट जिजीविषा होती है। वे मस्ती से जीवन जीते हैं।
विशेष :
- कुटज और उत्कट जिजीविषा रखने वालों की जीवन शैली में समानता दिखाई गई है।
- कुटज का विपरीत परिस्थितियों में पुष्पित-पल्लवित होना मनुष्य को जीने का संदेश दे जाता है।
- तत्सम शब्दावली युक्त भाषा में सफल भावाभिव्यक्ति है।
(ख) प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ निबंधकार, आलोचक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। इस अंश में लेखक ने रूप और नाम की महत्ता पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या – वृक्ष का नाम बड़ा नहीं है। जब किसी नाम को समाज स्वीकृति दे देता है तो वह नाम बड़ा भी हो जाता है। व्यक्ति अथवा वस्तु का रूप सत्य है, किंतु उस रूप का नाम समाज का सत्य है। सारा समाज जिस वस्तु को सर्वमान्य शब्द से पुकारने लगता है तो हम उसे नाम कहते हैं। आज का सभ्य समाज इस नामकरण को ‘सोशल सेक्शन’ कहता है। लेखक को उस वृक्ष का नाम याद नहीं आया। अतः वह उस वृक्ष का नाम जानने के लिए परेशान है। लेखक चाहता है कि उसे उस वृक्ष का वह नाम याद आ जाए जिस नाम को समाज की स्वीकृति मिली हो। जो नाम इतिहास द्वारा प्रमाणित हो और सभी मनुष्यों की चित्त रूपी गंगा में स्नात हो अर्थात् नाम समाज और इतिहास द्वारा प्रमाणित हो।
विशेष :
- लेखक रूप को व्यक्ति का सत्य और नाम को समाज का सत्य मानता है।
- नाम समाज और इतिहास प्रमाणित होता है।
- तत्सम शब्दावली, विदेशी शब्दावली युक्त भाषा।
- भाषा सरल और सहज है।
(ग) प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ निबंधकार आलोचक डॉं० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। इस अंश में लेखक नीरस और उजाड़-सी शिवालिक पर्वत-शृंखला में सुंदर पुष्पों वाले कुटज को खिलता-फूलता देख वृक्ष की विकट परिस्थितियों में भी जीवंत बने रहने की शक्ति को मान्यता देते हुए उसके महत्व को प्रमाणित कर रहा है।
व्याख्या – लेखक अपने सम्मुख लहराते कुटज के पौधे की मस्ती देखकर नाम और रूप दोनों दृष्टियों से उसकी जीवनी-शक्ति के प्रति विनत है। यह उसकी (वृक्ष की) हार न मानने वाली शक्ति है, इसीलिए इतना आकर्षक है। यह नाम अमर है। सदियों से साहित्य, समाज में व्याप्त है। कुछ नाम आए-गए, दुनिया भूल गई पर यह साहित्य में भावना-प्रतीक के रूप में अभी तक विद्यमान है।
इसके रूप पर लेखक न्योछावर है। चारों तरफ शुष्क लू के समान गर्मी है। यह फिर भी हरा-भरा है, जैसे मानो अत्याचारी के बंदीगृह में कहीं छिपे जल-स्रोत से ऊर्जा पाता यह सरस बना हुआ है। मूर्ख व्यक्ति के मस्तिष्क से भी अधिक सूने इस पर्वतीय वन में इसकी मस्ती देख ईर्ष्या होती है। सच स्वयं जीवंत होता है, इसलिए दूसरों को जीवन देता है। जीवनी-शक्ति वाला ही दूसरे को जीवन दे सकता है।
विशेष :
- कुटज के मनोहारी सौंदर्य का वर्णन हुआ है।
- तत्सम शब्दावली युक्त भाषा में सफल भावाभिव्यक्ति है।
- वर्णनात्मक शैली है।
- कुटज के वृक्ष का बिंब साकार हो उठा है।
(घ) प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ निबंधकार, आलोचक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गईं हैं।
इस अंश में लेखक जीवन-संघर्ष तथा जीवन-शक्ति का प्रतीक कुटज वृक्ष को मानते हुए अपने मनोभावों को प्रकट कर रहा है।
व्याख्या – लेखक कुटज की जिजीविषा देखकर कहता है कि जो हदय से पराजित नहीं होता है, वह कितने बड़े हदय वाला होगा, क्योंकि सुख-दुख, प्रिय-अप्रिय से जो विचलित नहीं होता, ऐसा व्यक्ति स्थिर मन वाला ही होता है। इसीलिए इस कुटज को देखकर मन प्रसन्नता से रोमांचित हो उठता है। इस कुटज को यह निडर भावना कहाँ से प्राप्त हुई। उसका न हारने वाला स्वभाव, विचलित न होने वाली (स्थिर, अडिग) जीवन-दृष्टि वास्तव में सराहनीय है।
विशेष :
- लेखक ने कुटज की कूट-कूटकर भरी निडरता की प्रवृत्ति, कभी हार न मानने वाले स्वभाव का उल्लेख किया है।
- कुटज से मनुष्य को कुछ सीखने का संदेश निहित है।
- भाषा में तत्सम शब्दों की बहुलता है।
योग्यता-विस्तार –
प्रश्न 1.
‘कुटज’ की तर्ज पर किसी जंगली फूल पर लेख अथवा कविता लिखने का प्रयास कीजिए।
उत्तर :
विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 2.
लेखक ने ‘कुटज’ को ही क्यों चुना? उसको अपनी रचना के लिए जंगल में पेड़-पौधे तथा फूलों-वनस्पतियों की कोई कमी नहीं थी।
उत्तर :
‘कुटज’ का वर्णन अनेक पुरानी रचनाओं में है। यह साहसिक मनोवृत्ति का परिचायक है। कुटज हिमालय स्थित शिवालिक की ऊँची चोटियों की कठोर चट्टान पर उगता है। वह भयंकर गर्मी सहकर अपनी वृद्धि करता है। वह चोटियों को भेद अतल गहराई से जल ग्रहणकर हरा-भरा रहता है और अपने सौंदर्य से सभी को आकर्षित कर लेता है। वह अपने माध्यम से लोगों को विपरीत परिस्थितियों में उठकर जिजीविषा बनाए रखकर जीने का संदेश देता है। इसलिए लेखक ने कुटज को चुना।
प्रश्न 3.
कुटज के बारे में उसकी विशेषताओं को बताने वाले दस वाक्य पाठ से छाँटिए और उनकी मानवीय संदर्भ में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
- अजीब-सी अदा है, मुस्कराता जान पड़ता है।
- यह कूटज-कुटज है, मनोहर कुसुम-स्तबकों से झबराया, उल्लास-लोल चारस्मित कुटज!
- कुटज ने उनके संतृप्त चित्त को सहारा दिया था। बड़भागी फूल है यह!
- फूल गमले में होते अवश्य हैं, पर कुटज तो जंगल का सैलानी है।
- यह जो मेरे सामने कुटज का लहराता पौधा खड़ा है। वह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा कर रहा है।
- दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जल-स्तोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।
- कुटज क्या केवल जी रहा है।
- कितना विशाल वह हृदय होगा जो सुख से, दुख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित न होता होगा। कुटज को देखकर रोमांच हो आता है।
- कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है।
- कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता।
मानवीय संदर्भ में विवेचना-लेखक ने छोटे-से पौधे कुटज की विशेषताओं की मानवीय संदर्भ में विवेचना की है; जैसे-कुटज प्रत्येक अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में मुस्कुराता रहता है, स्वयं के साथ दूसरों को भी आनंदित करता रहता है, साहस के साथ विषम परिस्थितियों का सामना करता है, कुटज केवल जीवन को बोझ समझकर जीता नहीं है, बल्कि अपने पुरुषार्थ के द्वारा प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल करता है।
प्रश्न 4.
‘जीना भी एक कला है’-कुटज के आधार पर सिद्ध कीजिए।
उत्तर :
यह सही है कि जीना भी एक कला है। संसार में हर तरह के मनुष्य मिलेंगे, कुछ मनुष्य सब कुछ होते हुए भी दुखी रहते हैं तो कुछ के पास कुछ भी नहीं है, फिर भी मस्त हैं। यह जीवन के प्रति नज़रिए का प्रतिफल है। नकारात्मक सोच वाले जीवन में उत्साह से दूर रहते हैं। सकारात्मक दृष्टि वाले व्यक्ति हर कठिनाइयों को सहजता से जीत लेते हैं। ‘कुटज’ पाठ भी यही संदेश देता है कि अभाव के बावजूद प्रसन्न रहो और प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बनाने के लिए संघर्ष करते रहो।
Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Antra Chapter 21 कुटज
लघूत्तरात्मक प्रश्न – I
प्रश्न 1.
शिवालिक के बारे में लेखक ने क्या बताया है?
उत्तर :
लेखक बताता है कि शिवालिक हिमालय के पाद देश में दूर तक फैले हुए हैं। लोग कहते हैं कि यह शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा है। इसकी नीरसता, कठोरता तथा सूखापन देखकर यह बात ठीक प्रतीत होती है। इस क्षेत्र में कहीं-कहीं पेड़-पौधे हैं, परंतु हरियाली नहीं है।
प्रश्न 2.
कालिदास ने हिमालय को पृथ्वी का मानदंड क्यों कहा है?
उत्तर :
‘तुला’ में दो पलड़े होते हैं। हिमालय की श्रेणियाँ पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा पश्चिम में पश्चिमी समुद्र अरब सागर में प्रवेश करती हैं। ये दो पलड़ों में बँटी प्रतीत होती हैं। पश्चिम से पूर्व तक फैले हिमालय पर्वत से ऐसा लगता है मानो इसने पृथ्वी को दो भागों में बाँट दिया है।
प्रश्न 3.
लेखक ने शिवालिक पर पाए जाने वाले पेड़ों को बेहया क्यों कहा है?
उत्तर :
शिवालिक श्रृंखला पर हरियाली नहीं है, क्योंकि यहाँ भयंकर गरमी है तथा पानी की पर्याप्त आपूर्ति नहीं है। यहाँ का इलाका पथरीला है। इन विकट स्थितियों में भी कुछ पेड़ हरे-भरे तथा मस्त हैं। इनकी जड़े गहरी होती हैं। ये बेशर्मों की तरह वहाँ टिके रहते हैं।
प्रश्न 4.
रहीम ने ‘कुटज’ को चपत क्यों लगाई?
उत्तर :
रहीम दरियादिल आदमी थे। वे महान कवि थे, परंतु दुनिया स्वार्थी है। जब उसका मतलब निकल जाता है तो वे उसे बहिष्कृत कर देते हैं। रहीम के साथ भी यही हुआ। एक राजा ने उनका आदर-सम्मान किया तथा दूसरे ने उन्हें बाहर निकाल दिया। इससे उन्हें समाज पर गुस्सा आ गया। इसी झुँझलाहट में उन्होंने कुटज को भी चपत लगा दी: वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकर छाँह गंभीर; बागन बिच-बिच देखियत, सेंहुड कुटज करीर।
प्रश्न 5.
याज्ववल्क्य के ‘आत्मन:’ का व्यापक अर्थ बताइए।
उत्तर :
याजवल्क्य ‘आत्मनः’ का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे। व्यक्ति की ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, वह व्यापक है। अपने में सब और सब में आप-इस प्रकार की एक समष्टि-बुद्धि जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनंद भी नहीं मिलता। अपने-आप को दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक ‘सर्व’ के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक ‘स्वार्थ’ खंड-सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय एवं कृपण बना देता है। कार्पण्य-दोष से जिसका स्वभाव उपहत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है। वह स्पष्ट नहीं देख पाता। वह स्वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।
प्रश्न 6.
‘कुटज’ वृक्ष की किन्हीं सात विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
‘कुटज’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सुप्रसिद्ध ललित निबंध है। निबंध के अनुसार कुटज वृक्ष की सात विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(क) अपराजेय जीवन – शक्ति से युक्त-शिवालिक पर्वत शृंखलाओं में कठोर चट्टानों पर कुटज उत्पन्न होता है। वह कठोर चट्टानों को फोड़कर, गर्मी की भयंकर मार खाकर, भूख-प्यास की चोट सहकर भी प्रसन्नता के साथ जीता है।
(ख) उजाड़ का साथी – शिवालिक पर्वत शृंखलाओं पर जहाँ हरियाली नहीं पाई जाती। केवल उजाड़ ही दिखाई देता है। ऐसे उजाड़ में भी कुटज वृक्ष पृष्पों से सुशोभित रहता है।
(ग) विषम परिस्थिति में भी प्रसन्न रहने वाला-पर्वतों पर भीषण गर्मी पड़ती है। चारों ओर यमराज की श्वास के समान धधकती गर्मी में भी कुटज हरा-भरा बना रहता है। पत्थरों के द्वारा जल खींचकर भी सरस बना रहता है।
(घ) स्वाभिमानी-‘कुटज’ शान से जीता है, वह भीख माँगने दूसरों के द्वार पर नहीं जाता, किसी को नीति-धर्म का उपदेश नहीं देता। अपनी उन्नति के लिए अफ़सरों के जूते नहीं चाटता। ‘कुटज’ की प्रकृति स्वाभिमानी है।
(ङ) निर्भीक भावयुक्त – द्विवेदी जी ने ‘कुटज’ को ‘अकुतोभया’ की संज्ञा प्रदान की है। वह निर्भीक भाव से जीवन जीता है।
(च) परोपकारी – कुटज की प्रकृति परोपकारी है। कुटज अपनी जड़ों को पर्वतों में दबाकर नदियों को बता देता है कि रस का स्रोत यहीं है।
(छ) दुख – सुख में समभाव रखने वाला-कुटज परवश नहीं है। वह मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। वह दूसरों को अपने जाल में नहीं फँसाता। वह राजा जनक की भाँति संसार में रहकर संसार से विरक्त है। वह सुख-दुख, प्रिय और अप्रिय में समान भाव से जीता है।
प्रश्न 7.
आग्नेय परिवार और कोल परिवार को परिभाषित कीजिए।
उत्तर :
दक्षिण-पूर्व दिशा को अग्निकोण कहा जाता है। इसलिए आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की भाषा होने के कारण इसे आग्नेय परिवार की भाषा कहा जाता है। भारतीय भाषा के संथाल, मुंडा या मिलती-जुलती भाषा का वर्ग कोल भाषा परिवार कहा जाने लगा है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न-II
प्रश्न 1.
‘कुटज’ पाठ का प्रतिपाद्य बताते हुए उसका उद्देश्य भी बताइए।
उत्तर :
‘कुटज’ हिमालय पर्वत की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली फूल है, इसी फूल की प्रकृति पर यह निबंध ‘कुटज’ लिखा गया है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानस के लिए एक संदेश पाया है। ‘कुटज’ में अपराजेय जीवन-शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। सामान्य से सामान्य वस्तु में भी विशेष गुण हो सकते हैं, यह जताना इस निबंध का अभीष्ट है।
प्रश्न 2.
आचार्य दविवेदी की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
द्विवेदी जी के निबंधों में विचारात्मक गंभीरता विद्यमान है। यह गंभीरता दो दृष्टियों से आई है। एक तो अध्ययन की प्रामाणिकता से, दूसरे विषय के व्यापक और सर्वांग विवेचन से। इस कारण द्विवेदी जी की भाषा में एक विशेष प्रकार की साहित्यिकता विद्यमान है। साथ ही गतिशील चितन में उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ है।
द्विवेदी जी ने संस्कृत के व्यावहारिक शब्दों का ही अधिकतर प्रयोग किया है। ऐसे शब्दों से लेखक सर्वथा बचता रहा है, जो पाठक की पहुँच के बाहर हो। आलोचनात्मक कृतियों में सिद्धांतवादिता की प्रमुखता के कारण भाषा अधिक सारगर्भित हो गई है, कहीं-कहीं पर जटिल हो गई है और सामान्य पाठक की समझ में कठिनता से आती है।
शैली-दृविवेदी जी की शैली भी मौलिक है। उनके लिखने और कहने का ढंग निराला है। उनके कई निबंध ऐसे हैं, जिनमें प्रारंभ किसी हल्के-से दृश्य से होता है। उत्तरोत्तर विचारात्मक गंभीरता आती रहती है। उनकी शैली सरल, प्रवाहमयी और भाव-व्यंजक है। उनका प्रत्येक वाक्य उनके अंतर में निहित विचारधारा का प्रतिबिंब होता दिखाई देता है। उनके निबंधों में इतिवृत्तात्मक शैली, भावनात्मक एवं व्यंग्यात्मक शैली, प्रसंगात्मक शैली और इन सबसे परे विवेचनात्मक शैली प्रमुख है।
विवेचनात्मक शैली का एक उदाहरण देखिए :
जब मेघ की अभ्यर्थना के लिए नियोजित किया तो कम्बर्त को ताजे कुटज पुष्पों की अंजलि देकर ही संतोष करना पड़ा-चंपक नहीं, बकुल नहीं, नीलोत्पल नहीं, मल्लिका नहीं, अरविंद नहीं-फकत कुटज के फूल। यह और बात है कि आज आषाढ़ का नहीं, जुलाई का पहला दिन है।
समग्र रूप से विचार करने पर पता चलता है कि द्विवेदी जी की भाषा-शौली अत्यंत सफल है। वे अपने विचारों को पाठक के पास उसी तीव्रता से पहुँचाते हैं, जितनी से स्वयं अनुभव करते हैं। गंभीर विषय के प्रतिपादन में उनकी भाषा समस्त पदावली युक्त हो जाती है।
प्रश्न 3.
कुटज जनक की भांति क्या घोषणा करता है?
उत्तर :
कुटज वैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। जनक की ही भॉँति वह घोषणा करता है-“ममैं स्वार्थ के लिए अपने मन को सदा दूसरे के मन में घुसाता नहीं फिरता, इसलिए मैं मन को जीत सका हूँ, उसे वश में कर सका हूँ,
नाहमात्मार्थमिच्छामि मनोनित्यं मनोन्तरे।
मनो मे निर्जित तस्मात् वशे तिष्ठति सर्वदा।।
कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। मनस्वी मित्र, तुम धन्य हो!”
प्रश्न 4.
“रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य है।” सूक्ति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
रूप व्यक्ति के गुण का परिचायक है और वस्तु के वर्तमान को दर्शाता है, लेकिन नाम से वस्तु समाज में प्रतिष्ठा पाती है। वस्तु की अनुपस्थिति में भी समाज उसका परिचय, उसके गुण, विशेषता आद् से लेता है, क्योंकि व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। समाज में ही उसका अस्तित्व (रूप) सार्थकता पाता है।
प्रश्न 5.
प्रस्तुत निबंध द्वारा लेखक क्या संदेश देना चाहता है?
उत्तर :
‘कुटज’ ललित निबंध के लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी निबंध के माध्यम से संदेश देते हैं कि हमें कुटज वृक्ष की भाँति संघर्षशील, परोपकारी, सुख-दुख में समान रहने वाला, निर्भीक, स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर होना चाहिए। हमें उपकार और अपकार के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। जीवन को विधाता की योजना मानकर सत्कर्म में लीन रहना चाहिए।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित सूक्ति की व्याख्या कीजिए :
“कार्पणयोष से जिसका स्वभाव उपहत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है।”
उत्तर :
मनुष्य स्वार्थ के कारण दयनीय और कृपण या कंजूस हो जाता है। यह कृपणता मनुष्य का भारी दोष है। इस कृपणता के दोष से मनुष्य का स्वभाव ही बिगड़ गया है। स्वभाव के बिगड़ने से उसकी सोचने की दृष्टि बदल गई है। मानव मन इतना विकृत हो जाता है कि स्वार्थ की बात तक नहीं सोच पाता, परमार्थ की बात तो बहुत दूर है।