Students can find the 11th Class Hindi Book Antral Questions and Answers Chapter 3 आवारा मसीहा to practice the questions mentioned in the exercise section of the book.
NCERT Solutions for Class 11 Hindi Antral Chapter 3 आवारा मसीहा
Class 11 Hindi Chapter 3 Question Answer Antral आवारा मसीहा
प्रश्न 1.
“उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दुख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है।” लेखक ने ऐसा क्यों कहा? आपके विचार से साहित्य के कौन-कौन से उद्देश्य हो सकते हैं?
उत्तर :
लेखक का यह कथन बचपन के समय का है। भागलपुर आने पर उसने दुर्गाचरण एम॰ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में दाखिला लिया। अब तक उसने केवल ‘बोधोदय’ ही पढ़ा था। यहाँ उसे ‘सीता-वनवास’, ‘चारु पाठ’, ‘सद्भाव-सद्गुरु’ और ‘प्रकांड व्याकरण’ आदि पढ़ना था। उसे हर रोज़ याद करके परीक्षा देनी थी। अतः उसकी पिटाई होती थी। इसलिए उसने कहा कि उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दुख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है।
हमारे विचार में साहित्य के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं :
- मनुष्य की वैचारिक उन्नति।
- समाज की संवेदना से जुड़ना।
- उच्च आदर्शों की परिकल्पना।
- मनुष्य को समाजोपयोगी नागरिक बनाना।
प्रश्न 2.
पाठ के आधार पर बताइए कि उस समय के और वर्तमान समय के पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों में क्या अंतर और समानताएँ हैं? आप पढ़ने-पढ़ाने के कौन-से तौर-तरीकों के पक्ष में हैं और क्यों?
उत्तर :
उस समय की पढ़ाई | आज की पढ़ाई |
समानताएँ : उस समय बच्चे समय से स्कूल जाते थे तथा घर आकर गृह-कार्य करते थे। बच्चों को काम न करने पर शारीरिक दंड दिया जाता था। |
आज भी बच्चे समय पर स्कूल जाते हैं। वे घर आकर गृह-कार्य करते हैं। काम न करने पर उन्हें शारीरिक दंड दिया जाता है। |
असमानताएँ : उस समय बच्चों को खेलने-कूदने नहीं दिया जाता था। वे विद्या का निवास गुरु के डंडे में मानते थे। उस समय यह मान्यता थी कि बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार है। |
आज बच्चे का सर्वांगीण विकास किया जाता है। उन्हें खेलकूद में भाग लेने दिया जाता है। बच्चों को कठोर दंड नहीं दिया जाता। |
हम पढ़ने-पढ़ाने के नए तरीके के पक्ष में हैं। बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए उसे पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद आदि गतिविधियों में भाग लेने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।
प्रश्न 3.
पाठ में अनेक अंश बाल-सुलभ चंचलताओं, शरारतों को बहुत रोचक ढंग से उजागर करते हैं। आपको कौन-सा अंश अच्छा लगा और क्यों? वर्तमान समय में इन बाल-सुलभ क्रियाओं में क्या परिवर्तन आए हैं?
उत्तर :
इस पाठ से हमें बाल-सुलभ शरारतों का पता चलता है। इनमें हमें सबसे अधिक रोचक किस्सा स्कूल में घड़ी का समय आगे करने वाला लगा। शरत् स्कूल में भी शरारत करने से नहीं चूकता था। अकसर वहाँ की घड़ी समय से आगे चलने लगती। उसको ठीक करके चलाने का भार वैसे अक्षय पंडित पर था, लेकिन दो घंटे खूब जमकर काम करने के बाद तमाखू खाने की इच्छा हो आना स्वाभाविक था।
तब वे स्कूल के सेवक जगुआ की पानशाला में जा उपस्थित होते। इसी समय शरत् की प्रेरणा से दूसरे छात्र उस घड़ी को दस मिनट आगे कर देते। कई दिन तक जब उनकी चोरी नहीं पकड़ी गई, तो साहस और बढ़ गया। वे घड़ी को आधा घंटा आगे करने लगे। इसके बाद कभी-कभी वह एक घंटा भी आगे हो जाती थी। उस दिन तीन बजे का समय होने पर उसमें चार बजे थे। अभिभावकों के मन में संदेह होने लगा, लेकिन पंडित जी ने उत्तर दिया, “मैं स्वयं घड़ी की देखभाल करता हूँ।” उत्तर तो उन्होंने दे दिया, लेकिन शंका उनके मन में भी थी, इसलिए उन्होंने चुपचाप इस रहस्य का पता लगाने का प्रयत्न किया। एक दिन पानशाला से असमय ही लौट आए।
क्या देखते हैं कि बच्चे एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर घड़ी को आगे कर रहे हैं। बस वे गरज उठे। और सब लड़के तो निमिष-मात्र में वहाँ से भाग गए, लेकिन शरत् भले लड़के का अभिनय करता हुआ बैठा रहा। पंडित जी यह कभी नहीं जान सके कि इस सारे नाटक का निदेशक वही है। उसने कहा, “पंडित जी, आपके पैर छूकर कहता हूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम। मैं तो मन लगाकर सवाल निकाल रहा था।” उस समय की उसकी मुख-भंगिमा देखकर कौन अविश्वास कर सकता था? स्कूलों में बच्चों की शरारतें मन को छू लेती हैं। आज के तेज्ज युग में ये शरारतें समाप्त-सी हो गई है। आज बच्चों पर पढ़ाई का बहुत द्बाव है। प्रतिस्पर्ध की अंधी दौड़ में बचपन समाप्त हो रहा है। उनकी संवेदनाएँ समाप्त हो रही हैं।
प्रश्न 4.
नाना के घर किन-किन बातों का निषेध था? शरत् को उन निषिद्ध कार्यों को करना क्यों प्रिय था?
उत्तर :
नाना के घर में पशु-पक्षी पालना, उपवन लगाना, खेलना-कूद्ना, तितली उद्योग, पतंगबाज़ी आदि कार्यों पर प्रतिबंध था। नाना का मानना था कि बच्चों को केवल पढ़ाई करनी चाहिए। यहाँ पतंग उड़ाना वैसे ही वर्जित था, जैसे शास्त्र में समुद्र-यात्रा। शरत् कल्पनाप्रिय था। उसे पतंग उड़ाना, लद्टू घुमाना, गोली और गुल्ली-डंडा जैसे निषिद्ध खेल बड़े प्रिय थे। वह बाग से फल चुराने में कुशल था। इन कार्यों को करने पर उसे सज्ञा भी मिलती थी।
प्रश्न 5.
आपको शरत् और उसके पिता मोतीलाल के स्वभाव में क्या समानताएँ नज़र आती हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
शरत् के पिता मोतीलाल यायावर प्रकृति के स्वप्नदर्शी व्यक्ति थे। जीविका का कोई धंधा उन्हें कभी बाँधकर न रख सका। उनके शिल्पी मन और दासता के बंधन में कोई सामंजस्य न हो सका। उन्हें कहानी, उपन्यास, नाटक आदि लिखने का शौक था। चित्रकला में भी रुचि थी। वे सुंदर अक्षर लिखते थे, लेकिन परिवार का खर्च पूरा न होने पर वे असफल सिद्ध हुए। लगभग यही गुण शरत् में भी थे। यायावर वृत्ति, साहित्य-लेखन के साथ पिता की तरह सौंदर्य-बोध भी उसमें था। वह पढ़ने के कमरे को सजाकर रखता था। उसकी पुस्तकें झक-झक करती थीं। वह अपरिग्रही भी था।
प्रश्न 6.
शरत् की रचनाओं में उनके जीवन की अनेक घटनाएँ और पात्र सजीव हो उठे हैं। पाठ के आधार पर विवेचना कीजिए।
उत्तर :
शरत्चंद्र ने अपनी रचनाओं में अपने जीवन में घटी घटनाओं का चित्रण किया है। इन्होंने जीवन में जैसा अनुभव किया, उसे अपने पात्रों के माध्यम से व्यक्त किया। बाल-सुलभ चेष्टाएँ; जैसे-पतंग उड़ाना, लट्टू घुमाना, गोली और गुल्ली-डंडा खेलना, बाग से फल चुराना आदि इनके प्रसिद्ध पात्र-देवदास, श्रीकांत, दुरांतराम और सव्यसाची में दिखाई देते हैं। शरत् ने साँपों को वश में करने का मंत्र सीखा। इन्होंने उसकी परीक्षा की। इस विद्या की चर्चा इन्होंने श्रीकांत और ‘विलासी’ आदि रचनाओं में की है। ‘काशीनाथ’ रचना में इन्होंने घर-जँवाई की व्यथा का वर्णन किया है, जो इनके पिता की कहानी है। काशीनाथ कहता है-“कभी-कभी वह ऐसा महसूस करने लगता है, जैसे अचानक उसे किसी ने गर्म पानी के कड़ाहे में छोड़ दिया हो।” शरत् की एक मित्र थी-धीरू। वह इनकी हर शरारत में साथ रहती थी। उसके साथ बीते समय को शरत् ने अपने कई उपन्यासों की नायिकाओं में दर्शाया। ‘देवदास’ की पारो, ‘बड़ी दीदी’ की माधवी और ‘श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी, ये सब धीरू का ही विकसित तथा विराट रूप हैं। इन्होंने अपनी दरिद्रता का भयावह चित्र ‘शुभदा’ में खींचा था। इस प्रकार शरत् ने अपने जीवन की घटनाओं तथा पात्रों को अपनी रचनाओं में जीवंत रखा।
प्रश्न 7.
“जो रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है, वह साधारण बालक नहीं है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।” अघोर बाबू के मित्र की इस टिप्पणी पर अपनी टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
अघोरनाथ अवकाश-प्राप्त अध्यापक थे। शरत् के रुदन-संबंधी विचार पर उनका कहना था कि शरत् बड़ा होकर मन के तत्वों को पहचानेगा तथा प्रसिद्ध होगा। उनकी टिप्पणी शत-प्रतिशत सही साबित हुई। शरत् ने बचपन में जो कुछ महसूस किया, उसे अपनी साहित्यिक रचनाओं में स्थान द्या। ‘श्रीकांत’ तथा ‘विलासी’ में इन्होंने साँप पकड़ने की विद्या पर चर्चा की। ‘काशीनाथ’ में घर-जँवाई की मानसिक पीड़ा का सशक्त वर्णन किया। ‘देवदास’ तथा ‘बड़ी दादी’ में नारी की दशा के बारे में बताया। ‘गृहदाह’ में डेहरी-प्रवास को अमर किया। इस प्रकार शरत् ने जो कुछ अनुभव किया, उसे अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया।
Class 11 Hindi NCERT Book Solutions Antral Chapter 3 आवारा मसीहा
विषयवस्तु पर आधारित प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
नाना के घर पहली बार आने पर शरत् के साथ कैसा सलूक किया गया था?
उत्तर :
शरत् अपने नाना के घर जब पहली बार आया था, तो नाना-नानियों ने उस पर धन और अलंकारों की वर्षा कर दी थी। नाना केदारनाथ ने उसे कमर में सोने की तगड़ी पहनाई थी तथा उसे गोद में उठाया था। उस परिवार में वह इस पीढ़ी का पहला लड़का था।
प्रश्न 2.
शरत् को नाना के घर स्थायी तौर पर क्यों रहना पड़ा?
उत्तर :
शरत् के पिता मोतीलाल यायावर प्रकृति के स्वप्नदर्शीं व्यक्ति थे। जीविका का कोई भी कार्य वे सही ढंग से नहीं कर सके। नौकरी के बंधन वे सहन नहीं कर सकते थे। उनका मन कहानी, उपन्यास, नाटक लिखने में लगता था। वे चित्रकला में भी रुचि रखते थे। उनमें अद्भुत सौददर्यबोध था। किंतु वे हर काम को बीच में ही छोड़ देते थे। शायद उनका आदर्श बहुत ऊँचा होता था या शायद अंत तक पहुँचने की क्षमता ही उनमें नहीं थी। यह कला साधना परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ थी। पति-पत्नी में पहले झगड़ा हुआ. फिर शरत् की माँ भुवनमोहिनी अपने पिता के घर हमेशा के लिए रहने आ गई।
प्रश्न 3.
भागलपुर में शरत् की शिक्षा का क्या प्रबंध किया गया?
उत्तर :
भागलपुर में शरत् के चाचा रहते थे। यहाँ उसे दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती करा दिया गया। यहाँ उसे सीता-वनवास, चारु पाठ, प्रकांड व्याकरण और सद्भाव-सद्गुरु आदि पढ़ना पड़ा। इन पुस्तकों का अध्ययन करके पंडित जी के सामने उसे हर रोज़ परीक्षा देनी होती थी। यहाँ उसने मेहनत से पढ़ाई शुरू की तथा शींघ्र ही वह अच्छे बच्चों में गिना जाने लगा।
प्रश्न 4.
शरत् के शौक कौन-कौन से थे?
उत्तर :
शरत् के अनेक शौक थे। वे पशु-पक्षी पालने व उपवन लगाने के शौकीन थे। शरत् का सबसे प्रिय शौक था-तितली उद्योग। उसने काठ के बक्स में कई रंगों की तितलियों को बंद कर रखा था। वह उनकी देखभाल करता था। उनकी रुचि के अनुसार भोजन की व्यवस्था भी करता था। उनके युद्ध का प्रदर्शन भी किया जाता था। इस खेल के कारण उसके सभी साथी उसकी सहायता करते थे तथा स्वयं को धन्य मानते थे। शरत् भी उनके साथ भेदभाव नहीं करता था।
प्रश्न 5.
शरत् को अपने शौक छिपकर क्यों पूरे करने पड़ते थे?
उत्तर :
शरत् के नाना अनुशासन-प्रिय थे। उनका मानना था कि बच्चों को केवल पढ़ने का ही अधिकार है। खेल, प्यार और आदर से उनका जीवन नष्ट हो जाता है। बच्चों को सबेरे व शाम को अध्ययन करना चाहिए। इस नियम को तोड़ने वाले को आयु के अनुसार दंड दिए जाते थे; जैसे-एक पैर पर घंटों तक खड़े रहना। इस कारण शरत् को अपने शौक छिपकर पूरे करने पड़ते थे।
प्रश्न 6.
रामरतन से पुरातनपंथी नाराज़ क्यों रहते थे?
उत्तर :
रामरतन मजूमदार ने अपने सात बेटों के लिए कोठियाँ बनवाईं। वे चीनी-मिट्टी के प्यालों में खाना खा लेते थे। मुसलमान बैरे से काँच के गिलास में पानी लेने में उन्हें कोई परहेज़ नहीं था। वे अपने छोटे भाई की विधवा पत्नी से भी बातें करने में आपत्ति नहीं करते थे। वे मोजे पहनते, दाढ़ी रखते तथा क्लब जाते थे। ये सब बातें पुरातनपंथियों को सहन नहीं थीं, इसलिए वे उनसे नाराज़ रहते थे।
विषयवस्तु पर आधारित निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
‘शरत् के समय बंगाली समाज में ज़मींदारों का दबाव था।’ इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
शरत् का प्रारंभिक युग प्रबल प्रतापी ज़मींदारों का युग था। ज़मींदार लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए गरीब तथा अनपढ़ जनता का हर प्रकार से शोषण करते थे। कोई भी उनके सामने मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकता था। उनका विरोध करने का अर्थ अपनी मौत को बुलावा देना था। शरत्चंद्र के दादा बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय को भी मामूदपुर के ज़रीददार के विरोध में बोलने के कारण मौत का शिकार होना पड़ा था, जिसका उल्लेख करते हुए शरत्चंद्र ने लिखा है, ‘ज़मींदार का इतना आतंक था कि वह (शरत् की दादी) चिल्लाकर रो भी नहीं सकती थी। उसका अर्थ होता, पुत्र से भी हाथ धो बैठना।
गाँव के बड़े-बूढ़ों की सलाह के अनुसार उसने जल्दी-जल्दी पति की अंतिम क्रिया समाप्त की और रातों-रात देवानंदपुर अपने भाई के पास चली गई।’ शरत् के बाबा की प्रौढ़ावस्था में नवीन सामाजिक तथा राजनीतिक चेतना के परिणामस्वरूप ज़मींदारी प्रथा टूटने लगी थी और ज़मीदारों का आतंक भी धीरे-धीरे कम होने लगा था। जनता अब ज़मींदारों द्वारा किए जाने वाले शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने लगी थी। गोविंदपुर गाँव में शिव की मूर्ति की स्थापना को लेकर गाँव वालों और वहाँ के ज़मींदारों के बीच हुए झगड़े से इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
प्रश्न 2.
‘आवारा मसीहा : विशाहारा’ उपन्यास में वर्षित तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति के विषय में बताइए।
उत्तर :
शरत् के जीवनकाल में नारी की स्थिति तो सर्वाधिक दयनीय थी। यद्यपि युगों-युगों से शोषित और पीड़ित नारी के उत्थान के लिए 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध अर्थात शरत् के जीवन-काल में ‘ब्रह्म समाज’, ‘प्रार्थना समाज’, ‘आर्य समाज’ जैसी धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं द्वारा समाज-सुधार के लिए आंदोलन तो बहुत हुए थे, किंतु इन आंदोलनों से बंगाली समाज का एक छोटा-सा भाग ही प्रभावित हो सका था। अधिकांश जनता परंपरागत रूढ़ियों से चिपकी हुई थी। जीवनी-लेखक के शब्दों में, ‘बंग समाज में सुधार को बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था।
वह अंधविश्वास और कुसस्कारों से पूर्णतया घिरा हुआ था। विधवा-विवाह, जाति-विचार, कुलीनता, धर्म-आडंबर के विषयों में लोगों की भावनाएँ एक अत्यंत संकीर्ण दायरे में सीमित थीं।’ विष्णु प्रभाकर ने नारी की तत्कालीन सामाजिक स्थिति का उल्लेख करते हुए लिखा है, ‘पद-पद पर नारियों को अपमानित होना पड़ता था। वे घर के एक कोने में दुबकी बैठी रहती थीं। पुरुष की छाया के स्पर्श-मात्र से वे कलंकिनी हो जातीं। दूसरी ओर कुलीनता उनके जीवन का अभिशाप हो गई थी। अनेक कारणों से जिन लड़कियों का विवाह नहीं हो पाता था, कुलीन रसोइए कुछ रुपयों के बदले पाटे पर बैठकर उनको पार कर देते थे।
माँग में सिंदूर भरे वे सधवाएँ फिर सारा जीवन पति की न समाप्त होने वाली प्रतीक्षा में बिता देती थीं।” विधवा-विवाह के समर्थन को लेकर भी अनेक आंदोलन हुए थे। 1872 ई० में ‘सिविल मैरिज कानून’ भी बन गया था, किंतु शरत् बाबू के युवाकाल तक भी समाज उसे व्यावहारिक रूप में मानने को तैयार नहीं हुआ था। शरत् और निरुपमा के प्रेम-प्रसंग की घटना से इस कथन की पुष्टि हो जाती है। उनके प्रेम करने पर कोई भी समाजशास्त्री सिर उठाकर कठोर शब्दों में शरत् बाबू को कह सकता था, “तुम एक उच्च कुल की विधवा को अपमानित करना चाहते हो!
जिसने पर-पुरुष की छाया तक नहीं देखी, वह प्रेम कैसे कर सकती है? ऐसा सोचना ही पाप है।” इसके विपरीत, समाज के एक वर्ग में तो यह भी मान्यता प्रचलित थी कि घर में विधवा का होना अनिवार्य है। प्रभुपाद श्री हरिदास गोस्वामी के शब्दों में, “जिस परिवार में विधवा नहीं होती, उस परिवार में सदाचार से देव-सेवा आदि कार्य सुसंपन्न होना दुष्कर है। उनके लिए गृहस्थाश्रम में विधवा की आवश्यकता है। यह श्री भगवान की अपूर्व सृष्टि तथा विशिष्ट दान है।” अतः स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज ने विधवा-विवाह की अनुमति नहीं दी थी।
प्रश्न 3.
तत्कालीन समाज की व्यवस्था एवं रूढ़ियों का शरत् ने किस प्रकार विरोध किया?
उत्तर :
नयन बागदी और शरत् के साथ लुटेरों द्वारा लूटपाट के प्रयास की घटना से जीवनी में सामाजिक लूटपाट तथा पुलिस के प्रति जनता के असंतोष के भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। लेखक ने लिखा है, ‘इसी जंगल में तो लुटेरे आदमी को मारकर गाड़ देते थे और पुलिस उधर मुँह भी नहीं करती थी। गाँव का आदमी भी रिपोर्ट करने नहीं जाता था, क्योंकि उन्हें शिक्षा मिली थी कि पुलिस के पास जाना आफ़त बुलाना है। बाघ के सामने पड़कर भी दैव-संयोग से कभी प्राण बच सकते हैं, लेकिन पुलिस के पल्ले पड़कर नहीं।’ गोविंदपुर गाँव के लोगों के पक्ष में शरत् बाबू की थानेदार के साथ हुई कहा-सुनी की घटना से भी पुलिस की मनमानी और रिश्वतखोरी का पर्दाफ़ाश हुआ है। शरत् की बाल्यावस्था में, ‘समुद्र-यात्रा करना पाप था। छोटे भाई की पत्नी से बात करना पाप था। नाच, गान, नाटक, क्लब, पार्टी, सब कुछ पाप था।’ परंतु उसके युवाकाल में इन कुरीतियों के प्रति विद्रोह व्यक्त होने लगा था। भागलपुर में स्थापित ‘आर्ट थियेटर’ और ‘आदमपुर क्लब’ ने परंपरागत रूढ़ियों के प्रति विद्रोह के स्वर व्यक्त किए।
प्रश्न 4.
शरत् के पिता मोतीलाल साहित्यकार होते हुए भी घर-जँवाई बनने के लिए क्यों विवश हुए?
उत्तर :
मोतीलाल यायावर प्रकृति के स्वप्नदर्शी व्यक्ति थे। जीविका का कोई भी धंधा उन्हें कभी बाँधकर नहीं रख सका। चारों ओर से लांछित होकर वे बार-बार काम-काज की तलाश करते थे। नौकरी मिल भी जाती थी, तो उनके शिल्पी मन और दासता के बंधन में कोई सामंजस्य न हो पाता। कुछ दिन उसमें मन लगाते, परंतु फिर एक दिन अचानक बड़े साहब से झगड़कर उसे छोड़ बैठते और पढ़ने में व्यस्त हो जाते या कविता करने लगते। कहानी, उपन्यास, नाटक सभी कुछ लिखने का शौक था। चित्रकला में भी रुचि थी। उनमें सौंदर्य-बोध भी कम नहीं था। सुंदर कलम में नया निब लगाकर बढ़िया कागज़ पर मोती जैसे अक्षरों में रचना आरंभ करते, परंतु आरंभ जितना महत्वपूर्ण होता, अंत उतना ही महत्वहीन होता। अंत की अनिवार्यता मानो उन्होंने कभी स्वीकार ही नहीं की। इस तरह मोतीलाल की सारी कला-साधना व्यर्थ सिद्ध हुई। वे परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सके। उनकी पत्नी बच्चों को साथ लेकर अपने पिता के घर चली गई। इस प्रकार शरत् के पिता को अंत में घर-जँवाई बनना पड़ा।
प्रश्न 5.
शरत् को भागलपुर और वहाँ के प्राकृतिक वातावरण से असीम लगाव था। स्पष्ट कीजिए।
अथवा
शरत् भागलपुर बार-बार आने की इच्छा क्यों प्रकट कर रहा था? आवारा मसीहा ‘दिशाहारा’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
शरत् और उसके मामा सुरेंद्र हमउम्र थे। किसी कारण से स्कूल की छुट्टी होने पर उसने अपने मामा से कहा, “चलो पुराने बाग में घूम आएँ।” इसी बीच शरत् को अपने ननिहाल से घर जाना था। वह बहुत दुखी था। दुख से छुटकारा पाने के लिए वह जंगल की ओर चला गया। नाते में मामा और आयु में छोटा होने पर भी दोनों में धीरे-धीरे मित्रता के बंधन गहराते आ रहे थे। बाग में पहुँचकर पेड़ों के पास घूमते-घूमते वह मानो मन ही मन उनसे विदा लेने लगा। शायद वह सोच रहा था कि अब वापस आना हो या न हो। फिर जैसा कि उसका स्वभाव था, सहसा कूदकर वह एक पेड़ की डाल पर बैठ गया और बातें करने लगा। इन बातों का कोई अंत नहीं था। कोई सूत्र भी नहीं था।
विदा के दुख को छिपाने के लिए ही मानो वह कुछ न कुछ कहते रहना चाहता था। बोला, “तू दुखी न हो, हम फिर मिलेंगे और बीच-बीच में तो मैं आता ही रहूँगा, क्योंकि भागलपुर क्या मुझे कम अच्छा लगता है? घाट के टूटे स्तूप पर से गंगा में कूदने में कितना मज़ा आता है! उस पार वह जो झाऊ का वन है, उसे क्या भूल सकूँगा! वह मुझे पुकारेगा और मैं चला आऊँगा।” फिर दीर्घ नि:श्वास लेकर बोला, “ओह, कितनी प्यारी जगह है यह भागलपुर, देख लेना मैं अवश्य आऊँगा।” इससे स्पष्ट होता है कि शरत् को भागलपुर और वहाँ के प्राकृतिक वातावरण से असीम लगाव था।
प्रश्न 6.
भागलपुर आने पर शरत् ने कैसा जाना कि वह कक्षा में बहुत पीछे है? उनको घर पर पढ़ाने आने वाले शिक्षक अक्षय पंडित का पढ़ाने का ढंग आज की परिस्थितियों में कितना प्रासंगिक है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भागलपुर आने के बाद शरत् को दुर्गाचरण एम.ई. स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहाँ तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने केवल ‘बोधोदय’ ही पढ़ा था। यहाँ उसे पढ़ना पड़ा ‘सीता-बनवास’, ‘चारु पाठ’, ‘सद्भाव-सद्गुरु’ और ‘प्रकांड व्याकरण’। यह केवल पढ़ जाना ही नहीं था, बल्कि स्वयं पंडित जी के सामने खड़े होकर प्रतिदिन परीक्षा देना था। इसलिए यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि बालक शरत् का साहित्य से प्रथम परिचय आँसुओं के माध्यम से हुआ। उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दुख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है, लेकिन शीघ्र ही वह यह अवश्य समझ गया कि वह क्लास में बहुत पीछे है। यह बात वह सह नहीं सकता था, इसलिए उसने परिश्रमपूर्वक पढ़ना आरंभ कर दिया। और देखते-देखते बहुतों को पीछे छोड़कर अच्छे बच्चों में गिना जाने लगा।
नाना लोग कई भाई थे और संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे। इसलिए मामाओं और मौसियों की संख्या काफ़ी थी। उनमें छोटे नाना अघोरनाथ का बेटा मणींद्र उसका सहपाठी था। उन दोनों को घर पर पढ़ाने के लिए नाना ने अक्षय पंडित को नियुक्त कर दिया था। वे मानो यमराज के सहोदर थे। मानते थे कि विद्या का निवास गुरु के डंडे में है। इसलिए बीच-बीच में सिंह-गर्जना के साथ-साथ रुदन की करुण-ध्वनि भी सुनाई देती रहती थी। इससे स्पष्ट होता है कि शिक्षक अक्षय पंडित पढ़ाई के लिए शारीरिक दंड को अनिवार्य समझते थे। इस तरह उनके पढ़ाने का दंग आज की परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं रह गया है, क्योंकि आज की शिक्षा में शारीरिक दंड के लिए कोई जगह नहीं है।
प्रश्न 7.
शरत् स्कूल में भी घर जैसी दुष्टता करने का दुस्साहस करता था? उसकी दुष्टता का उदाहरण देते हुए बताइए कि अक्षय पंडित उसे रंगे-हाथों क्यों नहीं पकड़ सके?
उत्तर :
शरत् स्वभाव से दुष्ट था। वह घर पर शरारतें करता था, पर वह स्कूल में भी दुष्टता करने से नहीं चूकता था। वह जिस स्कूल में पढ़ता था। अकसर वहाँ की घड़ी समय से आगे चलने लगती। उसको ठीक करके चलाने का भार वैसे अक्षय पंडित पर था। लेकिन दो घंटे खूब जमकर काम करने के बाद तंबाकू खाने की इच्छा हो आना स्वाभाविक था। तब वे स्कूल के सेवक जगुआ की पानशाला में जा उपस्थित होते। इसी समय शरत् की प्रेरणा से दूसरे छात्र उस घड़ी को दस मिनट आगे कर देते। कई दिन तक जब उनकी चोरी नहीं पकड़ी गई तो साहस और बढ़ गया। वे घड़ी को आधा घंटा आगे करने लगे। इसके बाद कभी-कभी वह एक घंटा भी आगे हो जाती थी। उस दिन तीन का समय होने पर उसमें चार बजे थे। अभिभावकों के मन में संदेह होने लगा, लेकिन पंडित जी ने उत्तर दिया, “मैं स्वयं घड़ी की देखभाल करता हूँ।”
उत्तर उन्होंने दे दिया, लेकिन शंका उनके भी मन में थी। इसलिए उन्होंने चुपचाप इस रहस्य का पता लगाने का प्रयत्न किया। एक दिन पानशाला से असमय ही लौट आए, क्या देखते हैं कि बच्चे एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर घड़ी को आगे कर रहे हैं। बस बे गरज उठे। और सब लड़के तो निमिष-मात्र में वहाँ से भाग गए, लेकिन शरत् भले लड़के का अभिनय करता हुआ बैठा रहा। पंडित जी यह कभी नहीं जान सके कि इस सारे नाटक का निदेशक वही है। उसने कहा, “पंडित जी, आपके पैर छूकर कहता हूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम। मैं तो मन लगाकर सवाल निकाल रहा था।” उसकी निर्दोष मुख-भंगिमा और भोलापन देखकर अक्षय पंडित उसे रंगे-हाथों न पकड़ सके।
प्रश्न 8.
साथियों के साथ खेलते-खेलते शरत् अचानक ‘तपोवन’ चला जाता था? इस तपोवन का पता उसने किसको बताया? पाठ के आधार पर इस तपोवन का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
अपने साथियों के साथ खेलते-खेलते शरत् अचानक गायब हो जाता था। उसके साथी उसे खोजकर थक जाते थे। जब वह अचानक प्रकट होता तो उसके साथी पूछते थे, वह कहाँ चला गया था? यह सुनकर शरत् जवाब देता कि तपोवन चला गया था। उसने किसी को भी तपोवन का पता नहीं बताया, लेकिन सुरेंद्र मामा से उसकी सबसे अधिक पटती थी। शायद इसलिए कि सुरेंद्र ने उसकी माँ का दूध पिया था। वह अभी छोटा ही था कि उसकी माँ के फिर संतान होने की संभावना दिखाई दी। उधर शरत् का छोटा भाई शैशव में ही चल बसा था, तब उसकी माँ ने सुरेंद्र को अपना दूध पिलाकर पाला था। इसलिए बहुत अनुनय-विनय करने पर एक दिन वह उसको साथ लेकर अपने तपोवन गया। जाने से पूर्व उसने सुरेंद्र से कहा, “‘मैं तुझे वहाँ ले तो चलूँगा, परंतु तू सूर्य, गंगा और हिमालय को साक्षी करके यह प्रतिज्ञा कर कि किसी और को इस स्थान का पता नहीं बताएगा।”
सुरेंद्र द्वारा प्रतिज्ञा करने के बाद शरत् उसे उधर ले गया, जहाँ घोष परिवार के मकान के उत्तर में गंगा के बिल्कुल पास ही एक कमरे के नीचे, नीम और करौंदे के पेड़ों ने उस जगह को घेरकर अंधकार से आच्छन्न कर रखा था। नाना लताओं ने उस स्थान को चारों ओर से ऐसे ढँक लिया था कि मनुष्य का उसमें प्रवेश करना बड़ा कठिन था। बड़ी सावधानी से एक स्थान की लताओं को हटाकर शरत् उसके भीतर गया। वहाँ थोड़ी-सी साफ़-सुथरी जगह थी। हरी-भरी लताओं के भीतर से सूर्य की उज्जवल किरणें छन-छनकर आ रही थीं। और उनके कारण स्निग्ध हरित प्रकाश फैल गया था। देखकर आँखें जुड़ाने लगीं और मन गद्गद होकर मानो किसी स्वप्नलोक में पहुँच गया। एक बड़ा-सा पत्थर वहाँ रखा था। नीचे खरस्रोता गंगा बह रही थी। दूर उस पार का दृश्य साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। मंद-मंद शीतल पवन की मृदु हिलोरें शरीर को पुलक से भर रही थीं। सुरेंद्र ने मुग्ध होकर कहा, “यह जगह तो बहुत सुंदर है।”
प्रश्न 9.
राजू कौन था? शरत् ने उसे पतंग प्रतियोगिता में किस तरह हराया। इस हार को उसने किस तरह सकारात्मक रूप में अपनाया?
उत्तर :
राजू, राम रतन मजूमदार डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर का पुत्र था। गांगुली परिवार से ज़मीन के वाद-विवाद के कारण शरत् और राजू के परिवार में काफ़ी मन मुटाव था। मजूमदार परिवार की कुछ बातें बंगाली समाज को पसंद न थीं। इसी परिवार का युवक राजू पतंगबाजी के द्वंद्व युद्ध में शरत् की भाँति पारंगत था। वे दोनों ही एक दूसरे को हराने की कामना करते थे। राजू के पास पैसे का बल था। पतंग का बढ़िया से बढ़िया सरंजाम जुटाने में उसे ज़रा भी कठिनाई नहीं हुई। लेकिन शरत् के पास पैसा कहाँ से आता। उसके दल ने बोतल के काँच को मैदा की तरह पीसकर और उसमें नाना उपक्रम मिलाकर माँझा तैयार किया।
उस दिन शनिवार था। संध्या होते ही शरत् की गुलाबी पतंग मचचाही दिशा में उड़ चली। उसी समय देखा गया कि एक सफ़ेद पतंग धीरे-धीरे उसके पास आ रही है। यह थी राजू की पतंग। बस द्वंद्वयुद्ध आरंभ हो गया। पेंच पर पेंच लड़े जाने लगे। दोनों दल अपनी-अपनी विजय के लिए उत्तेजित हो उठे। ‘वह मारा’, ‘वह काटा’ का कर्णभेदी स्वर सबको डोलायमान करने लगा। सहसा लोगों ने देखा कि सफ़ेद पतंग कटकर इधर-उधर लड़खड़ाती हुई धरती की ओर आ रही है। फिर क्या था, शरत् के दल के हर्ष का पारावार नहीं रहा। उधर राजू ने उसी क्षण पतंग का सभी सरंजाम गंगा को अर्पित कर दिया।
लेकिन इसी प्रतियोगिता और संघर्ष के बीच से होकर वे धीरे-धीरे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगे। राजू असाधारण प्रवृत्ति का बालक था-अमित साहस, अपूर्व प्रत्युत्पन्नमति, सब कार्यों में सफलता प्राप्त करने वाला। शरत् की स्थिर, धीर और शांत बुद्धि अभिभावकों के दुर्ग की मोटी दीवारों को लाँघकर उसे चकित करती रहती थी और वह उससे मित्रता करने के लिए आतुर हो उठता था। आखिर एक दिन सब विघ्न-बाधाओं को लाँघकर दोनों किशोर एक हो गए।
प्रश्न 10.
शरत् की शरारतें बढ़ते-बढ़ते चोरी की आदत में बदल गई। पर ऐसा क्या था कि इसके बाद भी शरत् की लोकप्रियता में कमी नहीं आ सकी? पठित पाठ के आधार पर लिखिए।
उत्तर :
शरत् के पिता की आय अच्छी न थी। इससे घर में घोर गरीबी थी। शरत् की पढ़ाई की फीस और कॉपी किताब के लिए भी घोर अभाव था। आभूषण बेच देने और मकान गिरवी रख देने पर भी वह अभाव नहीं मिट सका। पेट भी तो भरना होता था। फिर भी किसी तरह वह प्रथम श्रेणी तक पहुँच गया, परंतु अब तक पिता पर ऋण बहुत चढ़ गया था। वे फ़ीस का प्रबंध न कर सके और फ़ीस के अभाव में स्कूल जाना कैसे हो सकता था! शुरू-शुरू में वह किसी साथी के घर मुट्टी भर भात खाकर, स्कूल के मार्ग में, पेड़ों के तले, शरारती बालकों की संगति में दिन काट देता था। फिर धीरे-धीरे उन लड़कों के दल का सरदार बन गया।
विद्या पीछे छूट गई और हाथ में आ गई दुधारी छुरी, जिसे लेकर वह दिन-रात घूमा करता था। उसके भय के कारण उसके दल के सदस्यों की संख्या बड़ी तेज़ी से बढ़ रही थी। वह दूसरों के बागों के फल-फूल चोरी करने लगा था। लेकिन वह दोस्तों और गरीबों में बाँट देता था। दूसरों के ताल में मछली पकड़ने की उसकी जो पुरानी आदत थी वह और भी बढ़ गई थी। थोड़े ही दिनों में उसके आस-पास के लोग उससे तंग आ गए। लेकिन उसे पकड़कर दंड देने में वे सब असमर्थ थे।
एक तो इसलिए कि वह फल और मछली को छोड़कर किसी और वस्तु को नहीं छूता था, दूसरे बहुत से निर्धन व्यक्ति उसकी लूट पर पलते थे। और गाँवों में निर्धनों की ही संख्या अधिक होती है। इन्हीं में एक व्यक्ति था बहुत दिनों से बीमार, गरीबी के कारण इलाज की ठीक-ठीक व्यवस्था कर पाना उसके लिए संभव नहीं था। आखिर उसे इसी दल की शरण लेनी पड़ी। तुरंत ये लोग बहुत-सी मछलियाँ पकड़ लाए और उन्हें बेचकर उसके इलाज का प्रबंध कर दिया। उपेक्षित-अनाश्रित रोगियों की वे स्वयं भी यथाशक्ति सेवा करते थे। अनेक अँधेरी रातों में लालटेन और लंबी लाठी लेकर मीलों दूर, वे शहर से दवा ले आए हैं, डॉक्टर को बुला लाए हैं। इसलिए जहाँ कुछ लोग उनसे परेशान थे, वहाँ अधिकांश लोग उन्हें मन ही मन प्यार भी करते थे।