In this post, we have given Class 11 Hindi Antra Chapter 7 Summary – Naye Ki Janam Kundali Ek Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 11 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 11 Hindi subject.
नए की जन्म कुंडली : एक Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 7 Summary
नए की जन्म कुंडली : एक – गजानन माधव मुक्तिबोध – कवि परिचय
लेखक-परिचय
प्रश्न :
गजानन माधव मुक्तिबोध के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का परिचय दीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म श्योपुर कस्बा, ग्वालियर, मध्य प्रदेश में सन 1917 में हुआ था। इनके पिता पुलिस विभाग में सब-इंस्पेक्टर थे। बार-बार पिता की बदली होते रहने के कारण मुक्तिबोध की पढ़ाई का क्रम टूटता-जुड़ता रहा, इसके बावजूद इन्होंने सन 1954 में नागपुर विश्वविद्यालय से एम०ए० की डिग्री प्राप्त की। पिता के व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण इनमें ईमानदारी, न्यायप्रियता और दृढ़ इच्छा-शक्ति के गुण विकसित हुए। लंबे समय तक ‘नया खून’ (साप्ताहिक) का संपादन करने के बाद, इन्होंने दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव (मध्य प्रदेश) में अध्यापन-कार्य किया।
रचनाएँ – मुक्तिबोध की साहित्यिक कृतियाँ निम्नलिखित हैं :
(i) काव्य-संग्रह-चाँद् का मुँह टेढ़ा है तथा भूरी-भूरी खाक धूल।
(ii) आलोचनात्मक कृतियाँ-नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, कामायनी : एक पुनर्विचार, एक साहित्यिक की डायरी आदि।
छह खंडों में प्रकाशित ‘मुक्तिबोध रचनावली’ में इनकी सारी रचनाएँ अब एक साथ उपलब्ध हैं।
साहित्यिक विशेषताएँ – मुक्तिबोध का पूरा जीवन संघर्षों और विरोधों से भरा रहा। इन्होंने माक्स्सवादी विचारधारा का अध्ययन किया, जिसका प्रभाव इनकी कविताओं पर दिखाई देता है। पहली बार इनकी कविताएँ सन 1943 में अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तारसप्तक’ में छपीं। कविता के अतिरिक्त इन्होंने कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि भी लिखा है, जो कवि द्वारा लिखे गए गद्य का अद्भुत नमूना है। मुक्तिबोध एक समर्थ पत्रकार भी थे। इसकी ये विशेषताएँ अगली पीढ़ी को रचनात्मक ऊर्जा देती रही हैं। मुक्तिबोध नई कविता के प्रमुख कवि हैं। इनकी संवेदना और ज्ञान का दायरा अत्यंत व्यापक है। गहन विचारशीलता और विशिष्ट भाषा-शिल्प के कारण इनके साहित्य की एक अलग पहचान है। इसके साहित्य में स्वतंत्र भारत के मध्य वर्ग की जिद्गी की विडंबनाओं और विद्रूपताओं का चित्रण है और साथ ही एक बेहतर मानवीय समाज-व्यवस्था के निर्माण की आकांक्षा भी। मुक्तिबोध के साहित्य की एक बड़ी विशेषता है-आत्मालोचन की प्रवृत्ति।
गयाठ-परिवय :
‘नए की जन्म कुंडली : एक’, ‘एक साहित्यिक की डायरी’ का एक निबंध है, जिसमें लेखक ने व्यक्ति और समाज के बाहरी तथा आंतरिक परिवर्तन के फलस्वरूप प्राप्त चेतना को ‘नए’ के संदर्भों में देखने की कोशिश की है। लेखक का मानना है कि सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिवर्तन के फलस्वरूप प्राप्त यथार्थ की वैज्ञानिक चेतना को ही ‘नया’ मानना चाहिए। लेखक का यह भी कहना है कि ‘संघर्ष और विरोध’ के निष्कर्ष को व्यावहारिकता में न जीने के कारण ही हम पुराने को तो छोड़ देते हैं, किंतु ‘नए’ को वास्तविक रूप से अपना नहीं पाते।
पाठ का सार :
लेखक ने एक व्यक्ति के माध्यम से समाज में घटित नए तथा पुराने के अंतद्वर्वद्व को प्रस्तुत किया है। लेखक क्षमा-याचना करते हुए कहता है कि वह एक ऐसे व्यक्ति को जानता है, जिसे एक ज़माने में (पहले) वह बहुत बुद्धिमान मानता था। वह आगे चलकर मेधावी तथा प्रतिभाशाली होगा-ऐसी उसकी आशाएँ थीं। लेखक ने उस व्यक्ति की स्थिति को हमारी भारतीय परंपरा के विचित्र परिणाम की तरह बताया है। लेखक नए समय में स्वयं को भी बुद्धिमान मानते हुए पुराने मित्र की ज़िदगी को अपनी बुद्धिमानी का कारण बताता है। उसके मित्र से उसकी मुलाकात बारह वर्षो के बाद होती है। एक ही नदी को जैसे पहाड़ दो धाराओं में बाँट देता है, उसी प्रकार दोनों की चितन-शैली में काफी परिवर्तन आ चुका है। रात्रि की चाँदनी में दोनों की मुलाकात होती है तथा आपस में बातें होती हैं। दोनों अपने बीच आई दूरी को पाटना चाहते हैं। लेखक को जब-जब दूरियों का भान होता है, तब-तब उसे अच्छा भी लगता है और बुरा भी। मित्रों के बीच की दूरी अवश्य खटकती है। अच्छा इसलिए लगता है, क्योंकि दूरियों से गति को चुनौती मिलती है। जीने और कुछ करने की इच्छा बढ़ती है। दूरी से मनुष्य खोजने-पाने में लगा रहता है।
लेखक के मित्र ने अपने एक विचार या कार्य पर खुद को कुर्बान किया है। जब भी उसके आत्मीय-स्वजनों ने उसके विरुद्ध युद्ध किया, तो उसने क्षति भी बर्दाश्त कर ली। जब उसने राजनीति में कदम रखा, तो लेखक ने उसके घर वालों के सामने गरजकर यह आरोप लगाया कि मित्र पलायनवादी है। लेखक ने उसे कहा कि वह राजनीतिक व्यक्ति है ही नहीं। राजनीति के साथ-साथ जब वह साहित्य के क्षेत्र में आया, तो लेखक को अच्छा लगा। लेकिन वह घर और बाहर के विरोध से काफी कमज़ोर हो गया था। जिद्दी होने के कारण वह अड़ा रहा। फलस्वरूप दोनों मित्रों के बीच दूरी बढ़ती गई थी।
अब लेखक समझता है कि सांसारिक समझौते से ज़्यादा विनाशक कोई चीज़ नहीं, खासतौर पर वहाँ, जहाँ किसी अच्छी महत्वपूर्ण बात करने के रास्ते में अपने-पराये आड़े आते हैं। ऐसी बाधा से लेखक के मित्र का व्यक्तित्व सामान्य लोगों से अलग हो गया था। लेखक ने स्वयं को सामान्य कहा है। वह अपने मित्र के समक्ष स्वयं को हीन मानता है। लेखक की और उसके मित्र की कार्य-शैली तथा चितन-शैली दोनों भिन्न-भिन्न हैं। लेखक लोगों के खुश होने के लिए काम करता है, जबकि वह निद्वंद्व होकर कार्य करता है। अब जबकि दोनों मिले हैं, लेखक उसे एक उल्कापिंड की भाँति मानता है, जो लंबे अवकाश के बाद एक बार सूर्य का चक्कर लगाकर अपने आकाश-मार्ग पर निकल जाता है। लेखक अपने मित्र के अनुभवों का आदर करता है। मिलने पर मित्र ने आज लेखक से कहा कि उसकी पूरी ज़िदगी एक भूल का नक्शा है।
अब वह छोटी-छोटी सफलताएँ चाहने लगा है। लेखक ने उसकी भूल को उसकी भव्य सफलता कहा है, क्योंकि उसके जीवन का नक्शा उसका अपना है। लेखक ने उसकी इस बात पर टिप्पणी की है- “लेकिन आज का ज़माना कैसा है, जबकि बुलबुल भी यह चाहती है कि वह उल्लू क्यों न हुई।” इस टिप्पणी के साथ लेखक ने पुराने तथा नए समय की मानसिकता पर प्रकाश डाला है। वार्ता चल रही है। लेखक पूछता है-“पिछले बीस वर्षों में सबसे महान घटना कौन-सी घटी है?” वह तुरंत उत्तर देता है-“संयुक्त परिवार का ह्रास!” लेखक स्तब्ध रह जाता है। उसका मित्र इस तथ्य का साहित्य से बहुत बड़ा संबंध बताता है। पुन: लेखक ने उससे पूछा-” और इन वर्षों में सबसे बड़ी भूल कौन-सी हुई?” उसने उत्तर दिया- “राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम न होना।
साहित्य के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम न होना।” “दोनों के बीच जातिवाद के उदय से लेकर साहित्य की गड़बड़ी, परिवार की स्थिति आदि पर चर्चा हुई। सामंती परिवार प्रथा का ह्रास और अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ़ घर में और बाहर किए जाने वाले संघर्षों पर तर्क-वितर्क हुए। लेखक के मित्र ने पुन: कहा कि मध्यमवर्गीय शिक्षित परिवारों में पुराने सामंती अवशेष अब भी ज़िदा हैं। धर्म-भावना गई, लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि भी न पनप सकी। दोनों की हानि समाज ने उठाई है। नए जीवन, नए व्यापक मानसिक सत्ता के अनुशासन का रूप नहीं ले पाए। वे धर्म और दर्शन का स्थान नहीं ले सके। यह स्थान खाली रह गया है अर्थात पुराना खो दिया और नया भी नहीं ले पाए।
शब्दार्थ :
पृष्ठ 81-भान-ज्ञान, आभास (knowledge)। जीवंत-सजीव (alive)।
पृष्ठ 82 -रोमैंटिक कल्पना-प्रेम और रोमांचयुक्त कल्पना (romantic/lovely imagination)। मनोलोक-मस्तिष्क-जगत (world of mind)। ‘ओड टु वैस्ट विंड’-अंग्रेज़ी कवि शैले की एक रचना (Odd to West Wind)। स्क्वेयर रूट ऑफ़ माइनस वन-गणित का एक सूत्र (square root of minus one)। अभिधार्थ-किसी शब्द का साधारण अर्थ (general meaning)। ध्वन्यार्थ-वह अर्थ जिसका बोध व्यंजना शब्द-शक्ति से होता है (hidden meaning)। व्यंग्यार्थ-अभिधा और लक्षणा से हटकर निकलने वाला अर्थ (humorous meaning)।
पृष्ठ 83-कतई-बिलकुल (entirely)। आच्छन्न-ढँका हुआ (covered)। आत्मीय-अत्यंत प्रिय (dearer)। पलायन-छोड़कर अन्यत्र जाना (escape)। उत्तरदायित्व-ज़िम्मेदारी (responsibility)। जर्जर-अत्यंत कमज़ोर (too weak)। विनाशक-नाश करने वाला (destroyer)। निजत्व-अपनापन (ownness)। ऐंड़ा-वेंड़ा-टेढ़ा-मेढ़ा (curved)। हृदय-भेदक प्रक्रिया-गहराई तक प्रभावित करने वाली क्रिया (action that react deeply)।
पृष्ठ 84-नामी-गिरामी-सुप्रसिद्ध व्यक्ति (popular person)। उकसा देना-प्रेरित करना (to motivate)। वृहत-बड़ा (vast)। इंटीग्रल-अभिन्न (close)। आत्म प्रकटीकरण-स्वयं को प्रकट करने की कला (art of self-expression)। भद्र-सभ्य (gentle)। यशस्वी-सुप्रसिद्ध (famous)। नामहीन-गुमनाम (nameless)। विषाद-दुख (sorrow)।
पृष्ठ 85 -ह्रास-कम होना, टूटते जाना (downfall)। स्तब्ध–बिलकुल शांत, निश्चेष्ट (silent)। एकांत-सूनापन (loneliness)। अनइच्छित-अनचाही (unwanted)।
पृष्ठ 86 -बहुतेरे-बहुत-से (so many)। दिलचस्प-रुचिकर (interesting)। तान देना-बढ़ा-चढ़ाकर कहना (perception)। तैश-गुस्सा (anger)।
पृष्ठ 87-संयुक्त सामंती परिवार-साझा परिवार जिसके सभी सदस्य मुखिया का कहा मानते हैं (joint family)। शिष्टता-व्यवहार की शालीनता (gentleness)। अज़ीब-विचित्र (strange)। अवशेष-बचे-खुचे अंश (remains)। अवसरवादी-समय के अनुसार अपने स्वार्थ की सोच रखने वाले (opportunist)। सप्रश्नता-प्रश्न के साथ (questioning)। अवलंबन-सहारा (resort)। अंत: प्रवृत्तियाँ-आंतरिक या मन की प्रवृत्तियाँ (inner tendencies)। व्यापक-दूर-दूर तक फैला हुआ (vasted)। सर्वतोमुखी-हर ओर से (from all directions)। परिभाषाहीन-पहचान रहित (without identity)। निराकार-बिना आकार का (having no shape)। शब्द-शक्तियाँ
अभिधा – शब्दों की वह शक्ति, जिससे उनके नियत अर्थ ही निकलते हैं। कोई शब्द सुनते ही उसके अर्थ का जो बोध होता है, वह इसी शक्ति के द्वारा होता है। इसे ‘वाच्यार्थ’ भी कहते हैं।
लक्षणा – शब्द की वह शक्ति, जो मुख्य अर्थ के बाधित होने पर किसी विशेष प्रयोजन के लिए मुख्य अर्थ से संबद्ध किसी लक्ष्यार्थ का बोध कराती है।
व्यंजना – शब्द की वह शक्ति, जिससे वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ (अर्थात अभिधा और लक्षणा शक्तियों से निकलने वाले अर्थों) के अतिरिक्त ध्वनि के रूप में कुछ विशेष अर्थ निकलता है।
नए की जन्म कुंडली : एक सप्रसंग क्याख्या
1. दरअसल, उसके लिए न वे विचार थे, न अनुभूति। वे उसके मानसिक भूगोल के पहाड़, चट्टान, खाइयाँ, ज़मीन, नदियाँ, झरने, जंगल और रेगिस्तान थे। मुझे यह भान होता रहता कि वह व्यक्ति अपने को प्रकट करते समय, स्वयं की सभी इंद्रियों से काम लेते हुए, एक आंतरिक यात्रा कर रहा है। वह अपने विचारों या भावों को केवल प्रकट ही नहीं करता था, बल्कि उन्हें स्पर्श करता था, सूँघता था, उनका आकार-प्रकार, रंग-रूप और गति बता सकता था, मानो उसके सामने वे प्रकट, साक्षात और जीवंत हों।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कहानी ‘नए की जन्म कुंडली : एक’ से उद्धृत है। इसके लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध हैं। इस पाठ में लेखक ने बताया है कि सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिवर्तन के फलस्वरूप प्राप्त यथार्थ की वैज्ञानिक-मानसिक चेतना को ही नया मानना चाहिए। इस अंश में लेखक अपने मित्र की विशेषताएँ बता रहा है।
व्याख्या – लेखक बताता है कि उसका मित्र विचारवान है। वह अपने विचारों को गंभीरता से लेता है। वास्तव में ‘उसके लिए वे न तो विचार थे और न ही अनुभूति। वे उसके मानसिक भूगोल के पहाड़, चट्टान, खाइयाँ, ज्ञमीन, नदियाँ, झरने, जंगल तथा रेगिस्तान थे। लेखक को लगता था कि वह व्यक्ति जब स्वयं को प्रकट करता है, तो वह अपनी सभी इंद्रियों से काम लेते हुए एक आंतरिक यात्रा कर रहा होता है। वह अपने विचारों तथा भावों को केवल प्रकट नहीं करता, अपितु उन्हें स्पर्श भी करता है। वह उन्हें सूँघता है। वह उनका आकार-प्रकार, रंग-रूप और गति बता सकता है। ऐसा लगता था, मानो वे विचार उसके समक्ष प्रकट हैं तथा जीवंत हैं।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक द्वारा अपने मित्र की विशेषताओं के विषय में बताया गया है।
- भाषा चितन-प्रधान है।
- भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
- तत्सम शब्दावली का अधिक प्रयोग है।
2. जब-जब मुझे दूरियों का भान होता है, तब मुझे अच्छा भी लगता है और बुरा भी। अच्छा इसलिए कि दूरी हमारी गति को एक चुनौती है और बुरा इसलिए कि मित्रों के बीच दूरी खटकती है। हम एक ही भाषा का उपयोग तो करते हैं, लेकिन अभिधार्थ एक होते हुए भी ध्वन्यार्थ और व्यंग्यार्थ अलग-अलग हो जाते हैं।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘नए की जन्म कुंडली : एक’ से उद्धृत है। इसके लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध हैं। यहाँ लेखक ने अपने मित्र से दूर होने पर अपनी अनुभूति को व्यक्त किया है।
व्याख्या – लेखक बताता है कि जब उसे दूरियों का आभास होता है, तो उसे अच्छा भी लगता है और बुरा भी। उसके लिए दोनों अनुभव अलग-अलग हैं। उसे यह दूरी इसलिए अच्छी लगती है, क्योंकि यह हमारी गति को चुनौती देती है। यह मनुष्य को तेज़ गति से चलने की प्रेरणा देती है। उसे यह दूरी बुरी भी लगती है, क्योंकि यह अलगाव पैदा करती है। इससे मित्रों के बीच दूरी बढ़ जाती है। लेखक और उसका मित्र एक ही भाषा का उपयोग करते हैं। उस भाषा का सामान्य अर्थ तो एक ही होता है, परंतु ध्वन्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ अलग-अलग हो जाते हैं।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक द्वारा दूरियों के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किए गए हैं।
- विश्लेषणात्मक शैली है।
- खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- भाषा में प्रवाहमयता तथा तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग है।
3. लेकिन आज मैं यह सोचता हूँ कि सांसारिक समझौते से ज्यादा विनाशक कोई चीज़ नहीं-खास तौर पर वहाँ, जहाँ किसी अच्छी महत्वपूर्ण बात करने के मार्ग में अपने या अपने जैसे लोग और पराए लोग आड़े आते हों। जितनी ज़बरदस्त उनकी बाधा होगी, उतनी ही कड़ी लड़ाई भी होगी अथवा उतना ही निम्नतम समझौता होगा।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘नए की जन्म कुंडली : एक’ से उद्धृत है। इसके लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध हैं। यहाँ लेखक ने अपने मित्र द्वारा समझौतावादी रुख अपनाने, समझौता करने तथा उसके दुष्परिणामों का वर्णन किया है।
व्याख्या – लेखक बताता है कि उसके मित्र को समझौते करने पड़े। वह इस विषय में सोचता है कि संसार में जो समझौते करने पड़ते हैं, उनसे ज़्यादा विनाशक कोई चीज़ नहीं है। ये वहाँ अधिक विनाशक हो जाते हैं, जहाँ व्यक्ति कोई महत्वपूर्ण काम करना चाहता है और उसके मार्ग में उसके चाहने वाले और पराए व्यक्ति बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं। वे उसका विरोध करते हैं। ये बाधाएँ जितनी ज़बरदस्त होंगी, उतना ही कड़ा संघर्ष करना पड़ेगा। यदि संघर्ष करने की क्षमता नहीं है, तो निम्नतम स्तर पर समझौता करना होगा। सांसारिक समझौते को विनाशक बताया गया है।
विशेष :
- इस गद्यांश में खड़ी बोली में सशक्त भावाभिव्यक्ति हुई है।
- लोकानुभव की बात कही गई है।
4. लेकिन मेरी गति और दृष्टि कुछ और थी। जब मैं कोई काम करता, तो इसलिए कि उससे लोग खुश होते हैं। वह काम करता, तो सिर्फ़ इसलिए कि एक बार कोई काम हाथ में लेने पर उसे अधिकारी ढंग से भली-भाँति कर ही डालना चाहिए। मेरी व्यावहारिक सामान्य बुद्धि थी। उसकी कार्य-शक्ति, आत्मप्रकटीकरण की एक निद्वर्व्व शैली। हम दोनों में दो ध्रुवों का भेद था। ज़िंदगी में मैं सफल हुआ, वह असफल। प्रतिष्ठित, भद्र और यशस्वी मैं कहलाया। वह नामहीन और आकारहीन रह गया।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘नए की जन्म कुंडली : एक’ से उद्धृत है। इसके लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध हैं। इस अंश में लेखक ने अपने और अपने मित्र के काम के प्रति सोच, दोनों के बीच अंतर एवं अपनी सफलता पाने के विषय में बताया है।
व्याख्या – लेखक बताता है कि उसकी चाल और सोच दूसरों से अलग थी। उसकी कार्य-शैली भी अलग थी। वह जब कोई काम करता था, तो उसका मकसद दूसरों को प्रसन्न करना होता था। उसके काम से लोग खुश होते थे। उसका मित्र कोई काम करता था, तो वह यह दृष्टिकोण रखता था कि यदि कोई काम एक बार हाथ में लें, तो उसे अधिकारिक ढंग से कर देना चाहिए। यहीं पर दोनों की कार्य-प्रणाली में अंतर था। लेखक की बुद्धि व्यावहारिक थी। उसके मित्र की शैली आत्मप्रकटीकरण का अनोखा ढंग थी। दोनों की कार्य-शैली में इतना अंतर था, जितना दो ध्रुवों के बीच होता है। व्यावहारिक होने के कारण लेखक जीवन में सफल हो गया और उसका मित्र असफल हो गया। लेखक प्रतिष्ठित, भद्र तथा यशस्वी कहलाया। उसका मित्र नामहीन तथा आकारहीन रह गया।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक द्वारा स्वयं अपने और अपने मित्र का विश्लेषण अत्यंत प्रभावी ढंग से किया गया है।
- लेखक व्यावहारिक बुद्धि को श्रेष्ठ बताता है।
- ‘हाथ में लेना’ मुहावरे का प्रयोग है।
- खड़ी बोली में भावों की प्रभावी अभिव्यक्ति है।
- तत्सम शब्दावली का बहुत प्रयोग है।
5. “राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। साहित्य के पास सामाजिक सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। सबने सोचा कि हम जनरल (सामान्य) बातें करके, सिर्फ और एकमात्र राजनीतिक या साहित्यिक आंदोलन के ज़रिए, वस्तुस्थिति में परिवर्तन कर सकेंगे। फलतः सामाजिक सुधार का कार्य अप्रत्यक्ष प्रभावों को सौंप दिया गया”
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘नए की जन्म कुंडली : एक’ से उद्धृत है। इसके लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध हैं। इस गद्यांश में लेखक का मित्र राजनीतिक और सामाजिक कमियों की ओर संकेत कर रहा है।
व्याख्या – लेखक का मित्र समाज और साहित्य के बीच समाज-सुधार के लिए संबंधों पर चर्चा करता हुआ कहता है कि भारत में जो राजनीति की जाती है, उसमें समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम नहीं होता। साहित्य की भी कमोवेश यही स्थिति थी। उसके पास भी कोई कार्यक्रम नहीं था। सबका यही विचार था कि हम आम जनता से जुड़ी बातें करके या सिर्फ़ राजनीतिक या साहित्यिक आंदोलन के माध्यम से वस्तुस्थिति में परिवर्तन कर देंगे। अतः समाज-सुधार का काम अप्रत्यक्ष प्रभावों को सौंप दिया गया।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक के मित्र का विश्लेषण भारतीय परिस्थितियों के पूर्णतया अनुरूप है।
- भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
- विचार-प्रधान भाषा-शैली का प्रभावी प्रयोग है।
6. लड़के बाहर राजनीति या साहित्य के मैदान में खेलते, और घर आकर वैसा ही सोचते या करते, जो सोचा या किया जाता रहा। समाज में, बाहर, पूँजी या धन की सत्ता से विद्रोह की बात की गई, लेकिन घर में नहीं। वह शिष्टता और शील के बाहर की बात थी। मतलब यह कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर में नहीं, घर के बाहर दी गई। घर का संघर्ष कठिन था। उसमें भावनाओं की टकराहट उन्हीं से होती थी, जो अपने प्राण के अंश थे। इसीलिए न केवल उस संघर्ष को टाल दिया गया, वरन एक अज़ीब ढंग का समझौता किया गया।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘नए की जन्म कुंडली : एक’ से उद्धृत है। इसके लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध हैं। यहाँ समाज और घर में राजनीति, पूँजी की सत्ता से विद्रोह, अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति दोहरा मापदंड अपनाए जाने की ओर संकेत किया गया है।
व्याख्या – लेखक कहता है कि नौजवान बाहर राजनीति या साहित्य के मैदान में खेलते हैं और घर आकर वैसा ही सोचते या करते हैं, जो सोचा या किया जाता रहा है। समाज में पूँजी या धन की सत्ता से विद्रोह की बात की गई, परंतु घर में वही ढर्रा चलता रहा। बाहर और अंदर के व्यवहार में अंतर था। घर में विद्रोह की बात शिष्टता और शील के खिलाफ़ मानी जाती थी। इसका अर्थ यही हुआ कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर के बाहर ही दी गई, घर के अंदर नहीं। घर के अंदर जो संघर्ष होता है, वह अत्यंत कठिन होता है। घर में भावनाओं का संघर्ष उन्हीं से होता है, जो प्राणों के अंश हैं। इस तरह संघर्ष को न केवल टाल दिया जाता है, अपितु एक अज़ीब-सा समझौता कर लिया जाता है।
विशेष :
- इस गद्यांश में लोगों की कथनी और करनी में अंतर तथा संघर्ष से समझौता करने के कारणों की ओर संकेत किया गया है।
- साहित्यिक खड़ी बोली में सशक्त भावाभिव्यक्ति हुई है।
- भाषा प्रवाहमयी है।
- विश्लेषणात्मक शैली है।
7. धर्म-भावना गई, लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि नहीं आई। धर्म ने हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष को अनुशासित किया था। वैज्ञानिक मानवीय दर्शन ने, वैज्ञानिक मानवीय दृष्टि ने, धर्म का स्थान नहीं लिया, इसलिए केवल हम अपनी अंतःप्रवृत्तियों के यंत्र से चालित हो उठे। उस व्यापक, उच्चतर, सर्वतोमुखी मानवीय अनुशासन की हार्दिक सिद्धि के बिना हम ‘नया-नया’ चिल्ला तो उठे, लेकिन वह-‘नया’ क्या है-हम नहीं जान सके! क्यों? मान-मूल्य, नया इंसान परिभाषाहीन और निराकार हो गए। वे दृढ़ और नया जीवन, नए व्यापक मानसिक सत्ता के अनुशासन का रूप धारण न कर सके। वे धर्म और दर्शन का स्थान न ले सके।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘नए की जन्म कुंडली : एक’ से उद्धृत है। इसके लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध हैं। इस अंश में लेखक ने बताया है कि सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिवर्तन के फलस्वरूप प्राप्त यथार्थ की वैज्ञानिक-मानसिक चेतना को ही नया मानना चाहिए।
व्याख्या – लेखक का मित्र बताता है कि समय में परिवर्तन के साथ धर्म की भावना समाप्त हो गई, परंतु उसके स्थान पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास नहीं हुआ। धर्म ने मानव-जीवन के हर पक्ष को अनुशासित किया था। वह एक बंधन का काम करता था। वैज्ञानिक मानवीय दर्शन तथा दृष्टि धर्म का स्थान नहीं ले सकी। हम केवल अपनी आंतरिक प्रवृत्तियों के यंत्र से चल पड़े। केवल यांत्रिक सुविधाएँ लेने लगे। हम नया-नया तो चिल्लाते रहे, पर यह जानने की कोशिश नहीं की कि यह ‘नया’ क्या है? नया जीवन हो, नए मान-मूल्य हों तथा नया इंसान हो। जब इनकी कोई परिभाषा तय नहीं हुई अर्थात इनके स्वरूप का कोई निश्चय ही नहीं हुआ, तो ये सभी आकारहीन हो गए, ये गायब हो गए। इन्हें दृढ़ और नया जीवन, मानसिक सत्ता के अनुशासन का रूप धारण करना चाहिए था, पर ऐसा हो न सका। नया-नया कहा तो गया, पर वह वास्तविक रूप न ले सका। वे बातें धर्म और दर्शन की जगह न ले सकीं। वे बातें केवल हवा में ही रह गई।
विशेष :
- इस गद्यांश में लोगों के जीवन में धर्म-भावना का महत्व तथा मूल्यों के आकारहीन होते जाने का उल्लेख है।
- समाज का गंभीर विश्लेषण है।
- साहित्यिक खड़ी बोली में भावों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
- भाषा प्रवाहमयी है, जिसमें तत्सम शब्दावली की बहुलता है।