In this post, we have given Class 11 Hindi Antra Chapter 6 Summary – Khanabadosh Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 11 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 11 Hindi subject.
खानाबदोश Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 6 Summary
खानाबदोश – ओमप्रकाश वाल्मीकि – कवि परिचय
लेखक-परिचय :
प्रश्न :
ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन एवं रचनाओं का उल्लेख करते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म बरला, जिला मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनका बचपन सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाइयों में बीता। पढ़ाई के दौरान इन्हें अनेक आर्थिक, सामाजिक और मानसिक कष्ट झेलने पड़े।
वाल्मीकि जी कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहे। वहाँ ये दलित लेखकों के संपर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डॉ० भीमराव अंबेडकर की रचनाओं का अध्ययन किया। इससे इनकी
रचना – दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन हुआ। आजकल ये देहरादून स्थित ऑरडिनेंस फ़ैक्ररी में एक अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं।
रचनाएँ – ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित है :
- कविता-संग्रह – सदियों का संताप, बस! बहुत हो चुका।
- कहानी-संग्रह – सलाम, घुसपैठिए।
- आत्मकथा – दलित साहित्यिक सौददर्यशास्त्र तथा जूठन।
नाटकों में अभिनय और निर्देशन में भी इनकी रुचि है। इनकी आत्मकथा ‘जूठन’ के कारण इन्हें हिंदी साहित्य में पहचान और प्रतिष्ठा मिली। इन्हें सन 1993 में डॉ० अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार और सन 1995 में परिवेश सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है।
साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि की महत्वपूर्ण भूमिका है। इन्होंने अपने लेखन में जातीय अपमान तथा उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है। ये मानते हैं कि दलित ही दलित की पीड़ा को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। इन्होंने सुजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया है। इनकी भाषा सहज, तथ्यपरक और आवेगमयी है। उसमें व्यंग्य का गहरा पुट भी दिखता है। इन्होंने साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया है। राजस्थानी संवाद कहानी में रोचकता बढ़ाते हैं।
पाठ-परिचय :
‘खानाबदोश’ में मज़दूरी करके किसी तरह गुज़र-बसर कर रहे मज़दूर वर्ग के शोषण और यातना को चित्रित किया गया है। मज़दूर वर्ग यदि ईमानदारी से मेहनत-मज़दूरी करके इज्ज़त के साथ जीवन जीना चाहता है, तो सूबेसिह जैसे समृद्ध और ताकतवर लोग उन्हें जीने नहीं देते। कहानी इस बात की ओर भी संकेत करती है कि मज़दूर वर्ग हमारे समाज की जातिवादी मानसिकता से नहीं उबर पाया है।
पाठ का सार :
यह कहानी ईंट-भट्ठे पर काम करने वाले मज़दूरों की समस्याओं से जुड़ी है। सुकिया और उसकी पत्नी मानो ईंट के भट्टे पर मज़दूरी करने गाँव से दूर गए हैं। एक सप्ताह का काम देखकर असगर ठेकेदार ने सुकिया को ईंट बनाने का साँचा दिया था और ईंट पाथने का काम शुरू करने का निर्देश भी दिया था। अब एक महीना होने को आया है। आज उनकी बनाई ईंटों को पकने के लिए भट्ठे में लाया जा रहा है। सुकिया बहुत खुश है। भट्ठे पर लगभग तीस मज़दूर हैं, जो वही काम करते हैं। भट्ठा मालिक मुखतार सिंह और असगर ठेकेदार शाम होते ही शहर लौट जाते हैं। शहर से दूर, दिन-भर की गहमागहमी के बाद अँधेरा घिर आता है। छोटी-छोटी झोंपड़ियों में, जो इंट पर ईंट सजाकर बना ली गई हैं, झुककर ही घुसा जा सकता है। भट्ठे पर काम करने के बाद औरतें चूल्हा-चौका सँभालती हैं।
शाम होते ही वहाँ सन्नाटा पसर जाता है। थके-हारे मज़दूर अपने-अपने दड़बेनुमा झोंपड़ों में घुस जाते हैं। सुकिया की पत्नी मानो को यहाँ घबराहट होती है, लेकिन जीवन को बेहतर बनाने की लालसा ने उन्हें वहाँ कैद कर रखा है। सुकिया के मन में नरक की ज़िदगी से निकलने के लिए गाँव से बाहर रहकर रुपये कमाने की इच्छा है। वह मानता है कि परदेश में रहकर ही मर्द की औकात का पता चलता है। घर में तो चूहा भी शेर बनता है। पहले ही महीने में सुकिया ने कमाकर कुछ रुपये जुटा लिए हैं। वह कई बार गिनकर खुश हो चुका है। रुपये देखकर मानो को भी लगने लगा है कि उनकी ज़िदगी सँवर सकती है। सुकिया के हर काम में मानो सहायता करती है। असगर ने जसदेव नामक छोटी उम्र के एक लड़के को भी उनके काम पर लगा दिया है। उसके आने से मानो भी अब ईटें पाथने लगी है।
एक दिन मालिक मुखतार सिंह की जगह बेटा सूबेसिंह भट्ठे पर आया। वह बड़ा रोब-दाब वाला था। उसके सामने असगर ठेकेदार भीगी बिल्ली बन जाता था। दफ़्तर के बाहर एक अर्दली की ड्यूटी लग जाती, जिसकी इज़ाज़त के बिना कोई अंदर नहीं जा सकता था। सूबेसिंह की गिद्ध दृष्टि एक दिन किसनी पर पड़ गई। तीन महीने पहले किसनी और महेश भट्ठे पर काम करने आए थे। उनकी पाँच-छह महीने पहले ही शादी हुई थी। सूबेसिंह ने किसनी को दफ़्तर की सेवा-टहल का काम दे दिया था। अब किसनी ईंट-गारे का काम नहीं करती थी। दिन-भर दफ़्तर में घुसी रहती थी। तीसरे दिन सुबह-सुबह किसनी हैंडपंप पर साबुन से नहा रही थी। भट्ठे पर साबुन किसी के पास नहीं था। सबने देखा और कानाफूसी शुरू हो गई। महेश गुमसुम-सा अलग-अलग रहता। उधर किसनी की खिलखिलाहटें दफ़्तर के बाहर तक सुनाई पड़ती थीं। महेश किसनी को समझा नहीं पाया। भट्ठे पर मज़दूरों की ज़िदगी गाँव-बस्ती जैसी थी। गरीबी का जीवन था। रूखा-सूखा खाना और पानी पीकर सो जाना। किसनी और सूबेसिंह की कहानी आगे बढ़ चुकी थी। महेश को नशे की लत पड़ गई। वह नशा करने झोंपड़ी में पड़ा रहता था। किसनी के पास एक ट्रांज़िस्टर आ गया था, जिसे पूरी आवाज़ में बजाती। भट्ठे पर फ़िल्मी गानों का संगीत भी सुनाई पड़ने लगा।
भट्ठे में पकी ईंटों को देखकर मानो ने सुकिया से पूछा, ” एक घर में कितनी ईंटें लग जाती हैं?” “बहुत $\cdots$ कई हज़ार … लोहा, सिमेंट, लकड़ी और रेत अलग से।” उसे घर बनाने की इच्छा ने बेचैन कर दिया। अगले दिन वह काफी देर तक सोती रही, क्योंकि रात को ठीक से सो न पाई थी। सुकिया से बोली, “क्यों जी – क्या हम पक्की ईंटों का घर नहीं बना सके हैं?” सुकिया ने उसे बताया कि घर बनाने के लायक रुपये जोड़ते-जोड़ते तो उनकी पूरी उम्र ही निकल जाएगी। बचता ही क्या है? मानो ने उत्साह से कहा- “अगर हम दिन-रात काम करें, तो भी नहीं?” सुकिया मानो के सवालों से घबरा गया। मगर मानो तो कल्पना की उड़ान भर रही थी। कुछ भी हो, उसे एक घर चाहिए – पक्की ईंटों का। उन्हें एक लक्ष्य मिल गया था। उधर सूबेसिंह किसनी को शहर भी ले जाने लगा था। अब वह भट्ठे पर गारे-मिट्टी का काम क्यों करती! उसे कपड़े-लत्तों की भी कमी न थी। एक दिन सूबेसिंह ने भट्ठे पर आते ही असगर ठेकेदार से कहा-“किसनी की तबीयत ठीक नहीं, जाओ मानो को बुलाकर लाओ।” असगर ने कुछ कहा, तो उसे फटकार दिया गया।
असगर ने आवाज़ देकर कहा-“मानो, छोटे बाबू बुला रहे हैं, दफ़्तर में।” मानो ने भयभीत नज़रों से सुकिया की तरफ देखा। सुकिया भी इस बुलावे पर हड़बड़ा-सा गया था। वह जानता था कि सूबेसिंह क्या चाहता है। उसकी नसें खिंचने लगी थीं। जसदेव भी समझ चुका था। उसने कहा-” तुम यहीं ठहरो “‘ मैं देखता हूँ।” वह असगर के साथ चल पड़ा। जसदेव को देखकर सूबेसिंह बौखला गया। “तुम्हें किसने बुलाया है?” उसने अपशब्दों और गालियों की बौछार कर दी। जसदेव बोला, तो एक ज़ोरदार थण्पड़ मारकर धमका दिया- 4 जानता नहीं भट्ठे की आग में झोंक दूँगा।” सूबेसिंह ने मार-मारकर उसे अधमरा कर दिया। मज़दूर उसकी चीख-पुकार सुनकर उसकी ओर भागे। तब तक जीप को लेकर सूबेसिंह शहर की ओर चल पड़ा और असगर दफ़्तर में घुस गया। जसदेव को सुकिया और मानो उठाकर झोंपड़ी में ले गए। सुकिया गुस्से से काँप रहा था। मानो इज्ज़त का खाना जानती थी। वह किसनी नहीं बनना चाहती थी। भट्ठे पर आज सन्नाटा था। ट्रांजिस्टर की आवाज़ भी नहीं आ रही थी। मानो ने अधूरे मन से रोटियाँ बनाकर सुकिया को भोजन दिया। सुकिया ने भी अनिच्छा से एक रोटी खाई। उसकी भूख मर गई थी। मानो को लेकर वह चिता में था। मानो रोटियाँ लेकर बाहर जाने लगी, तो सुकिया ने पूछा-” कहाँ जा रही है?” वह जसदेव को
भोजन देने जा रही थी। सुकिया ने कहा कि जसदेव बामन (ब्राह्मण) है और वह उसके हाथ की रोटी नहीं खाएगा। लेकिन मानो जसदेव की झोंपड़ी में गई। जसदेव ने खाना न खाया। मानो अपनी झोंपड़ी में आकर चुपचाप लेट गई। सुकिया और मानो ने भय में पूरी रात काटी। जसदेव बहुत डरा हुआ था। उसने तय कर लिया कि वह दुबारा इस पचड़े में न ही पड़ेगा। सुबह होते ही जसदेव असगर ठेकेदार से मिला। असगर ने उसे समझाया कि वह अपने काम से काम रखे। दूसरों के चक्कर में न पड़े। जसदेव का व्यवहार अब बदला हुआ था। मानो और सुकिया से उसका फ़ासला बढ़ गया। सूबेसिंह ने सुकिया और मानो को परेशान करना शुरू कर दिया। मानो ने निश्चय कर लिया था कि वह उसका मुकाबला करेगी और अपने घर बनाने के सपने को बिखरने न देगी।
सूबेसिंह ने सुकिया की ड्यूटी भट्ठे की मोरी के खतरनाक काम पर लगा दी थी। जसदेव के रंग बदल गए थे और वह मानो पर हुक्म चलाने लगा था। एक रात किसी ने मानो की पाथी ईंटों को बेरहमी से रौंद डाला था। उसकी मेहनत पर पानी डाल दिया था। मानो और सुकिया का कलेजा बैठ गया। हिम्मत टूट-सी गई। सपनों के दूट जाने से वे घबरा उठे। असगर ने साफ कह दिया कि टूट चुकी ईटें भट्ठे के लिए बेकार थीं। उन्हें कोई पैसा न मिलेगा। सुकिया के चेहरे पर तूफ़ान में घर टूटने की पीड़ा छलछला आई थी। उसे लगने लगा था, जैसे तमाम लोग उसके खिलाफ़ हैं। तरह-तरह की बाधाएँ उसके सामने खड़ी की जा रही हैं। वहाँ रूकना उसके लिए कठिन हो गया था। उसने मानो का हाथ पकड़ा, “चल। ये लोग म्हारा घर ना बणने देंगे।” सब कुछ छोड़कर दोनों चल पड़े थे। एक खानाबदोश की तरह, जिन्हें एक घर चाहिए था।
शब्दार्थ :
पृष्ठ 64-बाली-पौधों के डंठल का ऊपरी भाग जिसमें दाने होते हैं (uppermost part of plant which contains grains)। निगरानी-देख-रेख (inspection)। तरतीब-क्रम, सिलसिला (in order)। मुआयना-निरीक्षण (inspection)। मोरी-नाली (drain)। पाथना-साँचे से ईंट बनाना (to prepare the brick of mould)। गहमा-गहमी-चहल-पहल (movement)।
पृष्ठ 65-ढिबरी-मिट्टी के तेल से जलने वाला दीया (an earthen lamp)। दड़बेनुमा-बहुत छोटी, दड़बे जैसी (a place like hen shelter)। पसरी-फैली हुई (stretched)। दुश्चिता-बुरी चिता (apprehension)। भाँय-भाँय करना-डरावना बन जाना (to be fearful)। सूरमा-वीर (brave)। बणा रह-बना रह (stay)। तसल्ली करना-आश्वस्त हो जाना (to confirm)। अंटी-कमर के ऊपर धोती की लपेट में बनी जगह (knot)। ढर्रा-रास्ता (path)।
पृष्ठ 66 -तगारी–गारा आदि बनाने के लिए बनाया गया गड्ढा (a big pit)। दिहाड़ी–एक दिन की मज़दूरी (wage for a day)। भीगी बिल्ली बन जाना-डरा-डरा सा रहना (to feel fear)। अर्दली-चपरासी (peon)। इज़ाज़त-आज्ञा (permission)। काना-फूसी-कान में कहीं जाने वाली बात (murmuring)।
पृष्ठ 67-अज़ीब-विचित्र (strangeful)। जिस्म-शरीर (body)। लत-आदत (habit)। गमक उठना-महक जाना (to be full with fragrance)। खनक-खनकने की आवाज़ (a low voice)। इंतहा-हद, सीमा (limit)। अनमनी-उदास-सी (unhappy)।
पृष्ठ 68-स्याहपन-कालिमा, कालापन (blackness)। खाइयाँ-लंबी, गहरी नालियाँ (deep drains)। शिद्दत-अधिकता, प्रबलता (strongness)। पुख्ता-मज़बूत (strong)। अखरना-अच्छा न लगना (bad feeling)। गुम-खोई (lost)। अवसाद-उदासी (depression)। मासूमियत-भोलापन (innocence)।
पृष्ठ 69-बवंडर-उमड़ता-घुमड़ता तूफ़ान (typhoon)। हाड़-गोड़ तोड़ के-अत्यधिक परिश्रम करके (working hardly)। टेम-समय (time)। बसंत खिल उठना-रंगीन एवं सुखद कल्पनाएँ जन्म लेना (colourful imaginations)। भड़ास-मानसिक असंतोष, गुबार (grudge)। निढाल-उत्साहहीन (down-hearted)।
पृष्ठ 70-अंजाम–परिणाम (result)। घिग्धी बँधना-कुछ न बोल पाना (unable to say something)। कातरता-अधीरता, बेचैनी (impatience)। वजूद-अस्तित्व (existence)। बिफरना-नाराज़ होना (to be angry)। खसम–पति (husband)। अपशब्द-गाली (abuses)।
पृष्ठ 71-अदम्य-दबाई न जा सकने वाली (unable to be subdued)। विध्न-बाधा (hindrance)। अनिच्छा-बेमन से (unwillingly)।
पृष्ठ 72-बामन-ब्राह्मण (Brahmin)। जिनावर-जानवर (animal)। सुबे-सुबह (morning)।
पृष्ठ 73-थारी-तुम्हारी (your)। पार पाना-पराजित करना (to defeat)।
पृष्ठ 74-ताड़ लेना-अनुमान कर लेना (to guess)। फ़ासला-दूरी (difference)। निरर्थक-बेकार (useless)। रियायत-रहम, नरमी (mercy)। हरकत-शरारत (mischief)। रंग बदलना-व्यवहार बदल जाना (to change the behaviour)।
पृष्ठ 75-रौंदना-पैरों से कुचल देना (to crush with feet)। अटकलें-अनुमान (guess)। बौरा गई-पागल हो गई (to be mental)। धराशाई करना-गिरा देना (laid down to ground completely)।
पुष्ठ 76-फटी आँखों से देखना-आश्चर्य से देखना (to be astonished)। अंतर्मन-हृदय (heart)। म्हारा-हमारा, अपना (our)। खानाबदोश-जिसके रहने की जगह अनिश्चित हो (zypsy)। अक्स-परछाई, चित्र (image)। टीस-कसक, पीड़ा (pain)।
खानाबदोश सप्रसंग क्याख्या
1. सुकिया के मन में एक बात बैठ गई थी। नर्क की ज़िदमी से निकलना है, तो कुछ छोड़ना भी पड़ेगा। मानो की हर बात का एक ही जवाब था, उसके पास। बड़े-बूढ़े कहा करे हैं कि आदमी की औकात घर से बाहर कदम रखणें पे ही पता चले है। घर में तो चूहा भी सूरमा बणा रह।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘खानाबदोश’ से उद्धृत है। इसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं। इस पाठ में मज़दूरों के शोषण तथा यातना को चित्रित किया गया है। इस गद्यांश में लेखक कहता है कि सुकिया की पत्नी मानो भट्ठे पर मज़दूरी नहीं करना चाहती। वह गाँव में रहना चाहती है, पर सुकिया की सोच इसके विपरीत है। वह मानो को समझाता है।
व्याख्या – लेखक सुकिया के मन के भाव को व्यक्त करता हुए कहता है कि उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि यदि नरक की ज़िदगी से निकलना है, तो कुछ छोड़ना पड़ेगा। उसे कुछ चीज़ें त्यागनी होंगी। जब भी मानो उससे कुछ पूछती है, तो वह उसका एक ही जवाब देता है कि उसके गाँव के बुजुर्ग कहते थे कि आदमी की औकात घर से बाहर कदम रखने पर ही पता चलती है। कहने का अभिप्राय यह है कि बाहर मनुष्य अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ सकता है। घर में तो चूहा भी वीर होता है।
विशेष :
- इस गद्यांश में लोकानुभव की बात एवं सुखिया की मनोदशा का यथार्थ वर्णन है।
- राजस्थानी शब्दों का प्रयोग आकर्षक है।
- ‘मन में बात बैठना’ मुहावरे का सफल प्रयोग है।
- भाषा प्रवाहमयी है।
2. झींगुरों की झिन-झिन और बीच-बीच में सियारों की आवाज़ें रात के सन्नाटे में स्याहपन घोल रही थीं। थके-हारे मज़दूर नींद की गहरी खाइयों में लुढ़क गए थे। मानो के खयालों में अभी भी लाल-लाल ईंटें घूम रही थीं। इन ईंटों से बना हुआ एक छोटा-सा घर उसके ज़ेहन में बस गया था। यह खयाल जिस शिद्दत से पुख्ता हुआ था, नींद उतनी ही दूर चली गई थी।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘खानाबदोश’ से उद्धृत है। इसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं। इसमें मज़दूरों के शोषण तथा यातना को चित्रित किया गया है। इस गद्यांश में यह बताया गया है कि मानो अपने हाथ से पाथी गई भट्ठे में पकी लाल-लाल ईंटों को देखकर अपने घर की कल्पना कर बैठती है। रात को सोने के समय भी लाल-लाल पकी ईंटों का मकान उसके मस्तिष्क में घूम रहा है।
व्याख्या – लेखक भट्टे की ज़िदगी तथा मानो की कल्पना के बारे में बताता है कि रात में झींगुरों की झिन-झिन की आवाज़ें आ रही थीं। बीच-बीच में सियारों की आवाज़ें उनके साथ मिलकर रात के सन्नाटे को और अधिक गहरा बना रही थीं। मज़दूर दिन में कड़ी मेहनत करते थे। अतः नींद में लुढ़क गए थे। मानो कल्पना में खोई हुई थी। उसके जेहन में लाल-लाल ईंटें घूम रही थीं। वह सपना देख रही थी कि उसका भी छोटा-सा घर इन ईंटों से बना हुआ था। यह खयाल जितनी तेज़ी से मज़बूत होता गया, उसकी नींद उतनी ही दूर होती चली गई।
विशेष :
- इस गद्यांश में रात्रि की भयावहता, मानो की कल्पना में उसका अपना मकान और उसे नींद न आने का यथार्थ चित्रण है।
- रात में सन्नाटे और अंधकार का बिंब साकार हो उठा है।
- भाषा प्रवाहमयी तथा मिश्रित शब्दावली से युक्त है।
- खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
3. मानो भी गुमसुम अपने-आप से ही लड़ रही थी। बार-बार उसे लग रहा था कि वह सुरक्षित नहीं है। एक सवाल उसे खाए जा रहा था-क्या औरत होने की यही सज़ा है। वह जानती थी कि सुकिया ऐसा-वैसा कुछ नहीं होने देगा। वह महेश की तरह नहीं है। भले ही यह भट्ठा छोड़ना पड़े। भद्ठा छोड़ने के खयाल से ही वह सिहर उठी। नहीं …. भट्ठा नहीं छोड़ना है। उसने अपने-आप को आश्वस्त किया, अभी तो पक्की ईंटों का घर बनाना है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘खानाबदोश’ से उद्धृत है। इसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं। इसमें मज़दूरों के शोषण तथा यातना को चित्रित किया गया है। सूबेसिंह द्वारा मानो को बुलवाए जाने पर जसदेव चला जाता है, जिससे क्रोधित होकर वह जसदेव की पिटाई कर देता है। इससे सभी मज़दूर भयभीत हो जाते हैं। ऐसे में मानो के मन में उठ रहे ज्वार-भाटा सरीखे परिस्थितिजन्य अंतर्द्वंद्व से लेखक यहाँ पाठकों को रूबरू करता है।
व्याख्या – यहाँ मानो की मानसिक दशा का वर्णन है। सूबेसिह ने उसे बुलवाया था। इसी बात पर जसदेव की पिटाई हुई। मानो अपने-आप से लड़ रही थी। वह गुमसुम थी। उसे बार-बार यही अहसास हो रहा था कि वह सुरक्षित नहीं है। उसे एक प्रश्न बार-बार परेशान कर रहा था कि औरत होना इतना बड़ा गुनाह है कि वह अपने सपनों को साकार करने हेतु सच्चाईपूर्वक इस समाज में सुरक्षित रहकर संघर्ष भी नहीं कर सकती! वह यह भी जानती थी कि सुकिया उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं होने देगा। वह महेश की तरह कमज़ोर नहीं है। वह मानो की खातिर भट्ठे को भी छोड़ सकता है। भट्ठा छोड़ने के खयाल से ही वह सिहर उठी, क्योंकि यहीं तो उसका सपना पूरा होना था। वह अपने-आप को समझाती है कि उसे भट्ठा नहीं छोड़ना है, क्योंकि पक्की ईंटों का घर बनाना है।
विशेष :
- इस गद्यांश में मानो के मानसिक द्वंद्व का सजीव चित्रण किया गया है।
- भट्ठे पर काम करने वाले मज़दूरों की ज़िदगी का यथार्थ दर्शन होता है।
- भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है, जिसमें प्रवाहमयता है।
- भाषा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
4. मानो का हुदय फटा जा रहा था। दूटी-फूटी ईंटों को देखकर वह बौरा गई थी। जैसे किसी ने उसके पक्की ईंटों के मकान को ही धराशाई कर दिया था। जसदेव काफ़ी देर बाद आया था। वह निरपेक्ष भाव से चुपचाप खड़ा था। जैसे इन टूटी-फूटी ईंटों से उसका कुछ लेना-देना ही न हो।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘खानाबदोश’ से उद्धृत है। इसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं। इसमें मज़दूरों के शोषण तथा यातना को चित्रित किया गया है। इस गद्यांश में लेखक ने बताया है कि अपने घर के सपने को साकार करने के लिए सुखिया और मानो जी-तोड़ मेहनत करते हैं। रात में उनकी पाथी ईंटों को कोई तोड़-फोड़ जाता है। मानो को लगता है कि उसका सपना टूटकर बिखरा पड़ा है।
व्याख्या – भट्ठे पर सुबह-सुबह मानो ने देखा कि उनकी बनाई ईंटें तोड़ दी गई हैं। उसका हदय फटा जा रहा था। वह पागल-सी हो गई थी। उसका सपना किसी ने तोड़ दिया था। टूटी-फूटी ईंटों को देखकर उसे लगा कि किसी ने उसके पक्की ईंटों के मकान को तहस-नहस कर दिया है। उसके कुछ देर बाद जसदेव वहाँ आया। वह भी निरपेक्ष भाव से चुपचाप खड़ा था। ऐसा लग रहा था कि उसे उन टूटी-फूटी ईंटों से कोई लेना-देना ही न हो। मज़दूर होते हुए भी जातिगत आधार पर अपने को श्रेष्ठ या निम्न समझकर एक मज़दूर दूसरे मज़दूर की लड़ाई को अपनी नहीं समझता है, तो ऐसे में शोषणमुक्त समाज की कल्पना भी दम तोड़ देती है। ऐसे में मानो का अस्थिर हो जाना परिस्थितिजन्य प्रक्रिया का परिणाम ही था।
विशेष :
- इस गद्यांश में मानो की मानसिक दशा और जसदेव की तटस्थता का चित्रण है।
- ‘हदयय फटना’, ‘बौरा जाना ‘ आदि मुहावरों के प्रयोग से भाषा सजीव हो उठी है।
- खड़ी बोली में भावों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
5. असगर ठेकेदार ने साफ़ कह दिया था। टूटी-फूटी ईंटें हमारे किस काम की? इनकी मज़दूरी हम नहीं देंगे। असगर ठेकेदार ने उनकी रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया था। मानो ने सुकिया की ओर डबडबाई आँखों से देखा। सुकिया के चेहरे पर तूफ़ान में घर टूट जाने की पीड़ा छलछला आई थी। उसे लगने लगा था, जैसे तमाम लोग उसके खिलाफ़ हैं। तरह-तरह की बाधाएँ उसके सामने खड़ी की जा रही हैं। वहाँ रुकना उसके लिए कठिन हो गया था।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘खानाबदोश’ से उद्धृत है। इसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं। इस गद्यांश में लेखक बताता है कि सुबेसिंह की इच्छा के विपरीत चलने के कारण वह मानो को तरह-तरह से परेशान करता है। मानो की पाथी ईंटों को तुड़वा देता है, जिसके लिए ठेकेदार पैसे देने से मना कर देता है। ऐसे में मानो का घर बनाने का सपना बिखर जाता है।
व्याख्या – मानो और सुकिया की बनाई ईंटें रात में किसी ने तोड़ दीं। असगर ठेकेदार ने उन्हें स्पष्ट कह दिया कि ये टूटी-फूटी ईँटें उसके किसी काम की नहीं हैं। वह इनकी मज़दूरी नहीं देगा। मानो और सुकिया को ठेकेदार से ही उम्मीद थी, परंतु उसके व्यवहार ने उनकी रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया। मानो ने सुकिया की तरफ डबडबाई आँखों से देखा। वह भी परेशान था। उसके चेहरे पर सपने की टूटन दिखाई देती थी। ऐसा लगता था, मानो तूफ़ान में उसका घर टूट गया हो। सुकिया को यह लगने लगा था कि तमाम लोग उसके खिलाफ़ हैं। उसके सामने तरह-तरह की बाधाएँ खड़ी की जा रही हैं। अब वह वहाँ नहीं रुक सकता।
विशेष :
- इस गद्यांश में भट्ठे पर मज़दूरों के शोषण और उनकी दयनीय स्थिति का सजीव चित्रण है।
- घर का सपना टूटने से मानो की परेशानी और नैराश्य का बिंब साकार हो उठा है।
- खड़ी बोली में भावों की सशक्त अभिव्यक्ति है।
- भाषा में प्रवाहमयता है।
6. भद्ठे से उठते काले धुएँ ने आकाश तले एक काली चादर फैला दी थी। सब कुछ छोड़कर मानो और सुकिया चल पड़े थे। एक खानाबदोश की तरह, जिन्हें एक घर चाहिए था, रहने के लिए। पीछे छूट गए थे, कुछ बेतरतीब पल, पसीने के अक्स जो कभी इतिहास नहीं बन सकेंगे। खानाबदोश ज़िदगी का एक पड़ाव था, यह भट्ठा।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘खानाबदोश’ से उद्धृत है। इसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं। इसमें मज़दूरों के शोषण तथा यातना को चित्रित किया गया है। इस गद्यांश में लेखक बताता है कि मानो से अपनी इच्छा-पूर्ति में असफल सूबेसिंह सुखिया और मानो को तरह-तरह से परेशान करता है, जिससे वे भट्ठा छोड़कर कहीं और जाने को विवश हो जाते हैं।
व्याख्या – मानो और सुकिया एक भट्ठे पर ईंट पाथने का काम करते थे। भट्ठा मालिक सूबेसिंह के शोषण से वे भट्ठा छोड़कर अन्यत्र जा रहे थे। उस समय भट्ठे से काला धुआँ निकल रहा था। उस धुएँ ने आकाश के नीचे एक काली चादर-सी फैला दी थी। बादलों के नीचे धुएँ की परत बन गई थी। मानो और सुकिया सब कुछ यहीं छोड़कर चल पड़े थे। उनका जीवन खानाबदोश जैसा था। वे एक घर की इच्छा मन में पाले हुए थे, जिसमें वे निश्चितता के साथ रह सकें। उनका यह सपना चकनाचूर हो गया। उन्होंने परिश्रम करके अपना पसीना बहाया था, पर उन्हें कुछ भी हासिल न हो सका। वे तो अपनी जीवन-यात्रा पर निरंतर चले जा रहे थे। इस खानाबदोश ज़िदगी में भट्ठे का जीवन एक पड़ाव था। अब यह जीवन आगे भी अनिश्चितता में चलता रहेगा। इस प्रकार के जीवन में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं हो सकता।
विशेष :
- इस गद्यांश में भट्ठे से उठे धुएँ के कारण काले पड़े आकाश और अन्यत्र जाते खानाबदोश मानो तथा सुकिया का बिंब साकार हो उठा है।
- खानाबदोश, बेतरतीब जैसे उर्दू शब्दों का सटीक प्रयोग हुआ है।
- भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
- गद्यांश में दार्शनिकता का भाव समाया है।
7. सुकिया के पीछे-पीछे चल पड़ने से पहले मानो ने जसदेव की ओर देखा था। मानो को यकीन था, जसदेव उनका साथ देगा। लेकिन जसदेव को चुप देखकर उसका विश्वास टुकड़े-टुकड़े हो गया था। मानो के सीने में एक टीस उभरी थी जो सर्द साँस में बदलकर मानो को छलनी कर गई थी। उसके होंठ फड़फड़ाए थे, कुछ कहने के लिए, लेकिन शब्द घुटकर रह गए थे। सपनों के काँच उसकी आँख में किरकिरा रहे थे। वह भारी मन से सुकिया के पीछे-पीछे चल पड़ी थी, अगले पड़ाव की तलाश में, एक दिशाहीन यात्रा पर।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘खानाबदोश’ से उद्धृत है। इसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं। इसमें मज़दूरों के शोषण तथा यातना को चित्रित किया गया है। इस गद्यांश में लेखक कहता है कि अपने घर का सपना टूटने, भट्ठे पर साथी मज़दूरों के साथ अपना विश्वास टूटने से निराश मानो और सुकिया भट्ठा छोड़कर एक दिशाहीन यात्रा पर जा रहे हैं।
व्याख्या – इंटें टूटने के बाद दोनों ने भट्ठा छोड़ने का फैसला किया। मानो अपने पति सुकिया के पीछे-पीछे चलने को तैयार हुई, उसने जसदेव की ओर देखा। उसे यकीन था कि जसदेव उनके साथ अवश्य आएगा, लेकिन जसदेव चुप खड़ा रहा। उसने कुछ भी न कहा। मानो के हुदय में दुख अवश्य हुआ था। इसी जसदेव ने उसके लिए सूबेसिंह से मार खाई थी। उसका विश्वास टूट गया। मानो का दिल छलनी होकर रह गया। वह कुछ कहना तो चाहती थी, पर कुछ कह नहीं पाई। उसके शब्द उसके भीतर ही रह गए। उसका घर बनाने का सपना टूटकर चकनाचूर हो गया था। अब उस (सपने रूपी) टूटे काँच के टुकड़े उसकी आँखों में चुभ रहे थे। वे किरकिरी की तरह लग रहे थे। वह निराश होकर सुकिया के पीछे-पीछे चलने लगी। उसे पता नहीं था कि वह कहाँ जा रही है। उसकी यात्रा की कोई निश्चित दिशा नहीं थी।
विशेष :
- इस गद्यांश में भट्ठे से चलते समय मानो की निराशापूर्ण मनःस्थिति का मार्मिक चित्रण हुआ है।
- मुहावरों का सटीक प्रयोग है।
- भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है, जिसमें प्रवाहमयता है।
- भट्ठा छोड़कर अन्यत्र जा रहे सुखिया और मानो का दृश्य बिंब साकार हो उठा है।