In this post, we have given Class 11 Hindi Antra Chapter 10 Summary – Are In Dohun Rah Na Pai, Balam Aavo Hamare Geh Re Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 11 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 11 Hindi subject.
अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 10 Summary
अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे – कबीर – कवि परिचय
कवि-परिचय :
प्रश्न :
कबीर के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-निर्गुण भक्त कवियों की ज्ञानमार्गी शाखा में कबीर का स्थान सर्वोच्च है। इनका जन्म काशी में 1398 ई० में हुआ था। माना जाता है कि ये स्वामी रामानंद के शिष्य थे। कबीर ने अपनी रचनाओं में अपने को जुलाहा और काशी का निवासी कहा है। जीवन के अंतिम समय ये मगहर चले गए और वहीं अपना शरीर त्यागा दिए। कबीर ने विधिवत शिक्षा नहीं पाई थी। इन्होंने स्वयं कहा है- “मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ”, किंतु ये प्रारंभ से ही संतों और फ़कीरों की संगति में रहे थे। अतः इनके पास उच्च कोटि के ज्ञान और मौलिक चितन की विलक्षण प्रतिभा थी। इनकी मृत्यु सन 1518 ई० में मानी जाती है।
रचनाएँ – कबीर की रचनाएँ मुख्यत: ‘कबीर ग्रंथावली’ में संग्रहीत हैं, किंतु कबीर पंथ में ‘बीजक’ का विशेष महत्व है। इसकी कुछ रचनाएँ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में भी संकलित हैं। बीजक के तीन भाग हैं-साखी, सबद और रमैनी। काव्यगत विशेषताएँ-कबीर अत्यंत निर्भय तथा उदार संत थे। इसके काव्य में धर्म के बाह्य आडंबरों का विरोध है और राम-रहीम की एकता की स्थापना का प्रयत्न भी। इन्होंने जातिगत और धार्मिक भेदभाव का कदम-कदम पर खंडन किया है। ये हर प्रकार के भेदभाव से मुक्त मनुष्य की मनुष्यता को जगाने का प्रयत्न करते हैं।
कबीर के काव्य में गुरु-भक्ति, ईश्वर-प्रेम, ज्ञान तथा वैराग्य, सत्संग और साधु-महिमा, आत्म-बोध और जगत-बोध की अभिव्यक्ति है। इनकी कविता अनुभव के ठोस धरातल पर टिकी होने के कारण विश्वसनीय और प्रामाणिक है। भाषा-शैली-कबीर की भाषा जन-साधारण की सरल-सहज भाषा है। इसमें स्थूल-से-स्थूल और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति की क्षमता है। जब ये रूढ़ियों पर प्रहार करते हैं, तो इनकी भाषा तीर से भी अधिक चुभन पैदा करती है; यथा-
“मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारै, क्या साहब तेरा बहरा है।
चिउँटी के पग नेवर बाजै, सो भी साहब सुनता है।”
कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी या पँचमेल खिचड़ी कहा जाता है। इसमें खड़ी बोली, अवधी, पंजाबी, भोजपुरी, ब्रज, राजस्थानी, अरबी-फ़ारसी के शब्दों की बहुलता है।
इन्होंने अलंकारों का सहज प्रयोग किया है। ये शुष्क तथ्यों को उपमानों में लपेटकर प्रस्तुत करते हैं, जिससे उनके आकर्षण में अपार वृद्धि हो जाती है। इनके काव्य में रूपक, यमक, उपमा, अन्योक्ति, वक्रोक्ति आदि अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग मिलता है। इन्होंने मारू, मैरू, लालित, धनाश्री आदि रागों का प्रयोग किया है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा है।
कविता-परिचय :
इस पाठ में कबीर के दो पद संकलित हैं। इनमें से पहले पद में कवि ने हिंदू और मुसलमान दोनों के धर्मों की कुरीतियों और उनके अंदर व्याप्त आडंबरों पर प्रहार किया है। इन्होंने दोनों धर्मों की आलोचना करते हुए हिंदू-मुसलमान दोनों को ही सच्चाई से अवगत कराया है। दूसरे पद में कबीर ने स्वयं को विरहिणी स्त्री और ब्रह्म को स्वामी के रूप में प्रस्तुत करते हुए उन्हें घर आने का आह्वान किया है। इस पद में दाम्पत्य प्रेम और घर की महत्ता के माध्यम से ब्रह्म के बिना जीव की व्याकुलता एवं असंतोष को व्यक्त किया है।
पदों का सार :
कबीर ने अपने पहले पद में हिंदू और मुसलमान दोनों को ही खूब खरी-खोटी सुनाई है। इन्होंने दोनों के धमों में व्याप्त कुरीतियों और आडंबरों पर कठोर प्रहार किया है। यूँ तो हिंदू और मुसलमान दोनों ही अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ बताते हैं, पर उनके आचरण अच्छे नहीं हैं। इन्होंने हिंदुओं द्वारा स्वयं को श्रेष्ठ बताने तथा वेश्या के पैरों में शयन करने पर खूब फटकारा है, तो मुसलमानों के पीर-फकीरों को मुर्गा-मुर्गी खाने, जीव-हत्या करने तथा खाला की बेटी से विवाह करने पर भी अपना व्यंग्य-बाण चलाया है। अंत में इन्होंने साधुओं को ईश्वर को पाने का रास्ता चुनने के लिए खुद निर्णय करने के लिए कहा है।
दूसरे पद में कबीर ने स्वयं (आत्मा) को विरहिणी और परमात्मा को स्वामी के रूप में प्रस्तुत करते हुए घर आने का आह्वान किया है। परमात्मा के आने से ही उसके प्रेम को पूर्णता प्राप्त होगी। विरह से व्याकुल आत्मा को घर-वन कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जिस प्रकार प्यासे को पानी, भूखे को अन्न और विरहिणी को पति के बिना चैन नहीं मिलता, उसी प्रकार जीव या आत्मा को परमात्मा के बिना चैन नहीं है। इस पद में कबीर का रहस्यवाद एवं आध्यात्मिकता प्रकट हुई है।
अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे सप्रसंग व्याख्या
सप्रसंग व्याख्या एवं काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न :
1. अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिंदू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई।
बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।
बाहर से इक मुर्द लाए धोय-धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिलि जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।
हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनौ भाई साधो कौन राह हूवै जाई।।
शब्दार्थ :
दोहुन-दोनों, हिंदू और मुसलमान (both Hindu and Muslim)। राह-रास्ता (way)। गागर-मटका (pitcher)। छुवन-छूने देना (to touch)। बेस्या-वेश्या, कुमार्गी स्त्री (harlot, prostitute)। पायन-तर-पैरों पर गिरना (under feet)। हिंदुआई-हिंदू होने से उत्पन्न बड़प्पन का भाव (Hinduism)। पीर-आध्यात्मिक शिक्षक, गुरु, साधना में मार्गदर्शक (spiritual teacher)। औलिया-संत, महात्मा, फकीर (follower)। खाला-मौसी, माँ की बहिन (sister of mother)। ब्याहै-शादी करे (to marry)। घरहिं-घर में (in house)। जेंवन-जीमना, भोजन करना (to take food)। तुरकन-कबीर के समय में भारत में बाहर से आए लोग, खासतौर पर मुसलमान शासक (Muslim)। ह्वै-होकर (being)।
प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कबीर के पहले पद से लिया गया है। इसके रचयिता निर्गुण परंपरा के संत कवि कबीरदास हैं। इस पद में कवि ने हिंदुओं और मुसलमानों के बाह्याडंबरों पर व्यंग्य किया है।
व्याख्या – कबीरदास कहते हैं कि इन दोनों को राह नहीं मिली अर्थात हिंदुओं और मुसलमानों ने मुक्ति का मार्ग नहीं पाया। वे हिंदुओं पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि हिंदू अपनी प्रशंसा करते हैं, परंतु अपने मटके को छूने नहीं देते। वे अपने को ऊँचा मानते हुए सोचते हैं कि उनके मटके छू जाने भर से ही अपवित्र हो जाएँगे। वे छुआछूत की भावना से ग्रसित हैं, फिर भी खुद को बड़ा समझते हैं। वही हिंदू वेश्या के पैरों पर गिरकर सोते हैं, तब उनका हिंदुत्व नष्ट नहीं होता। इसी तरह मुसलमान भी बाहरी दिखावे करते हैं। इनके भक्त तथा गुरु मुर्गी-मुर्गा खाते हैं अर्थात मांस-भक्षण करते हैं। वे हिंसा करते हैं, तब उनकी धार्मिकता और आध्यात्मिकता कहाँ चली जाती है। वे अपनी मौसी की बेटी ब्याह लाते हैं तथा घर में ही सगाई कर लेते हैं। वे बाहर से एक मृत शरीर लाते हैं तथा उसे साफ़ करके चढ़ाते हैं। फिर सब सखियाँ बैठकर उसे खाती हैं और घर भर में उसकी बड़ाई की जाती है। इस प्रकार हिंदुओं और मुसलमानों की धार्मिक क्रियाएँ देखीं। दोनों में आडंबरों और कुरीतियों का बोलबाला है। संत कबीर कहते हैं कि सुनो भई संतो! इनमें से कौन-सी राह पर जाया जाए? इसका निर्णय तुम्हें ही करना है।
विशेष :
- इस पद में संत कबीर ने हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक आडंबरों पर करारा व्यंग्य किया है।
- सधुक्कड़ी भाषा में भावाभिव्यक्ति की गई है।
- अनुप्रास अलंकार की छटा है।
- भाषा में गेयता तथा संगीतात्मकता है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य-
(i) हिंदू और मुसलमानों के धार्मिक आडंबरों एवं बुराइयों पर व्यंग्य करते हुए कहा गया है कि ये ईश्वर प्राप्ति में बाधक हैं।
(ii) कबीर द्वारा समाज की कड़वी सच्चाई को खरी-खरी कहने और कुरीतियाँ त्यागने के भावों की अभिव्यक्ति हुई है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य-
(i) – भाषा सधुक्कड़ी या पँचमेल खिचड़ी है।
– धोय-धाय, सब सखियाँ, कहै कबीर में अनुप्रास अलंकार है।
– पद छंद है और इसमें व्यंग्यात्मकता है।
(ii) – तुकांतयुक्त इस रचना में गेयता (संगीतात्मकता) का गुण विद्यमान है।
– रहस्यवाद की भावना प्रकट हुई है।
– भक्ति एवं शांत रस घनीभूत है।
2. बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।
दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।
है कोई ऐसा पर-उपकारी, पिवसों कहै सुनाय रे।
अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे।।
शब्दार्थ :
बालम-पति, प्रिय (dear, husband)। आवो-आना (to come)। गेह-घर (house)। बिन-बिना (without)। दुखिया-कष्ट पाती (to get pain)। देह-शरीर (body)। मोकों-मुझे (to me)। सनेह-प्रेम (love)। भावै-अच्छा लगना (feel good)। गृह-बन-घर रूपी वन (forest like house)। धरै-धारण करना (to retain)। धीर-धैर्य (patience)। कामिन-प्रेमी (beloved)। नीर-जल (water)। पर-उपकारी-दूसरों की भलाई करने वाला (beneficient)। पिवसों-प्रिय से (to dear)। बेहाल-बुरा हाल (bad condition)। जिव-आत्मा, प्राण (soul)।
प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित कबीर के दूसरे पद से लिया गया है। इसके रचयिता संत कवि कबीर हैं। इस पद में कवि ने स्वयं को विरहिणी नारी के रूप में प्रस्तुत किया है।
व्याख्या – कवि स्वयं को पत्नी (आत्मा) तथा ईश्वर को पति (परमात्मा) मानता है। आत्मा कहती है कि हे परमात्मा! आप हमारे घर आ जाओ। आपके बिना यह शरीर दुखी रहता है। आप मेरे पास आकर मेरी विरह-व्यथा दूर करो। सारा संसार मुझे आपकी पत्नी कहता है, परंतु आप मेरे पास नहीं आते। इस बात के कारण मुझे शर्म आती है। वह कहती है कि जब तक पति दिल से नहीं लगाएगा, तब तक प्रेम कैसे होगा अर्थात हृदय से लगाए बिना प्रेम को पूर्णता कैसे मिलेगी। आपके बिना मुझे न तो अन्न अच्छा लगता है और न ही नींद आती है। घर रूपी वन में धैर्य भी धारण नहीं होता। आत्मा कहती है कि जिस प्रकार प्रेमिका को अपना पति प्यारा लगता है और प्यासे को पानी अच्छा लगता है, उसी प्रकार आप भी मुझे अच्छे लगते हैं। वह लोगों से कहती है कि संसार में ऐसा भी कोई परोपकारी है, जो जाकर उसके प्रिय से उसके मन की बात कह सके। संत कबीर कहते हैं कि अपने प्रियतम के बिना आत्मा का हाल बुरा है। ऐसा लगता है कि जैसे प्रियतम के विरह में उसके प्राण निकलने को हैं। अर्थात उसके बिना वह जीवित नहीं रह सकती।
विशेष :
- इस पद में कवि ने आत्मा तथा पग्मात्मा के संबंध को व्यक्त किया है।
- सधुक्कड़ी भाषा है।
- वियोग की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति दर्शनीय है।
- अनुप्रास, रूपक एवं उत्प्रेक्षा अलंकार हैं।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क ) भाव-सौंदर्य-
कवि द्वारा स्वयं को विरहिणी आत्मा तथा परमात्मा को पति मानते हुए उसका सामीप्य पाने की तड़प के मुखरित होने का भाव प्रकट हुआ है।
प्रेम की उत्कट भावना की सहज, स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य-
(i) भाषा सधुक्कड़ी है, जिसमें मिश्रित शब्दावली है।
‘दुखिया देह’. ‘कोई कहै’, ‘धर न धीर’, ‘जिव जाय’ में अनुप्रास अलंकार, ‘ज्यों प्यासे को नीर रे’ में उत्प्रेक्षा अलंकार और ‘गृह-बन’ में रूपक अलंकार है।
(ii) वियोगावस्था की पीड़ा की गहन अभिव्यक्ति हुई है। अतः वियोग शृंगार रस एवं भक्ति रस है।
संबोधन शैली में प्रभावी अभिव्यक्ति है।