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CBSE Class 12 Hindi Elective श्रवण
श्रवण :
1. कविता – वाचन
कविता – वाचन भी अपने-आप में एक कला है। कुछ लोगों में यह कला जन्मजात पाई जाती है, लेकिन अभ्यास के द्वारा इस कला कौशल में निखार लाया जा सकता है। कवियों के सान्निध्य और कवि-सम्मेलनों में जाकर यदि उस माहौल में कविता – पठन को सुनकर अभ्यास किया जाए, तो सीखने का कार्य और भी सरल एवं रुचिकर हो सकता है। इसके अलावा कविता – वाचन सीखने के लिए निम्नलिखित बातों को भी ध्यान में रखना अति आवश्यक है :
- सबसे पहले ऐसी कविता का चयन करें, जो आपकी रुचि के अनुसार हो, जिसे आप अपने हृदय से पसंद करते हों, क्योंकि ऐसी कविता में ही आप उन भावों को भर सकते हैं, जो आपके दिल से निकलते हैं।
- कविता सुनाने के पहले उसे कंठस्थ कर लें। कंठस्थ कविता को ही आप लय में बाँध सकते हैं।
- अभ्यास के लिए बार-बार उस कविता को बोलकर देखें। अपने नज़दीकी लोगों को सुनाएँ तथा उनसे सही राय पाने का प्रयत्न करें।
- एकांत कमरे में शीशे के सामने खड़े होकर, स्वयं अपने हाव-भाव को देखने का प्रयत्न करें। उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन लाने का प्रयत्न करें।
- ऐसे शब्द या वाक्य जहाँ आपका प्रवाह ठीक नहीं है, उन्हें अभ्यास के द्वारा सही करें या आवश्यकता पड़ने पर उन्हें अपनी सुविधानुसार पर्यायवाची शब्दों से बदल दें।
- शब्दों को बदलते समय इस बात का विशेष ध्यान रहे कि कविता के अर्थ में कोई परिवर्तन न हो।
- कविता सुनाते समय मुक्त कंठ से कविता का उच्चारण करें।
- शब्दों के उच्चारण पर विशेष ध्यान दें, ताकि अर्थ का अनर्थ न हो जाए; जैसे ‘दिन’ और ‘दीन’ शब्द का अर्थ उच्चारण के आधार पर ही स्पष्ट किया जा सकता है।
- कविता का पाठ करते समय श्रोता के हाव-भाव को पढ़ने का प्रयत्न करें।
- श्रोता की रुचि और आराम का विशेष ध्यान रखें। शांत वातावरण में सुनाई जा रही कविता ही अधिक प्रभावित करती है।
- कविता के भावों के अनुसार आपकी आवाज़ में उतार-चढ़ाव होना भी अत्यंत आवश्यक है। हास्य, व्यंग्य व करुणा के भाव आपकी वाणी के उतार-चढ़ाव से अधिक प्रभावशाली बन सकते हैं।
- विद्यार्थी यह ध्यान रखें कि एक ही साँस में कविता सुनाना सही नहीं होता। कविता रुक-रुककर सुनाई जानी चाहिए, ताकि श्रोतागण पूरी तरह से समझ सकें और उसका पूरा आनंद ले सकें।
- श्रोतागण के आनंद को उनके द्वारा दी गई दाद / तालियों से समझा जा सकता है। ऐसे मौके पर कविता की उस पंक्ति को दुबारा दोहराया जाना चाहिए।
- कविता के भावपूर्ण स्थलों को हृदय से सुनाकर श्रोतागण को भाव-विभोर करना ही श्रेष्ठ कविता वाचन होता है।
- जिन पंक्तियों पर आप श्रोता का ध्यान आकर्षित करना चाहते हो, उन पंक्तियों को दोहराकर पढ़ना चाहिए।
- कविता को गाकर अर्थात सुर-लय में भी सुनाया जा सकता है।
- इस बात का विशेष ध्यान रखें कि भाव के अनुकूल ही लय में उतार-चढ़ाव हो।
- कविता का चयन मौके के अनुकूल होना अति आवश्यक होता है।
- यदि आप अवसर के अनुकूल सही कविता का चयन करके कविता प्रस्तुत करते हैं, तो श्रोतागण का भाव-विभोर हो जाना निश्चित है, क्योंकि हृदय से निकली आवाज़ मन को अवश्य बाँधती है।
कविता वाचन का उदाहरण :
अध्यापक निम्नलिखित कविता का कक्षा में प्रभावी ढंग से वाचन करें ताकि छात्र इन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दे सकें।
चींटी
चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा तम के तागे-सी जो हिल-डुल,
चलती लघुपद पल-पल मिल-जुल वह है पिपीलिका पाँति!
देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत!
कन-कन कनके चुनती अविरत!
गाय चराती,
धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती,
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना सँवारती,
घर आँगन, जनपथ बुहारती।
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की-सी कतरन,
छिपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भय
विचरण करती, श्रम में तन्मय,
वह जीवन की चिनगी अक्षय!
वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी!
दिन भर में वह मीलों चलती,
अथक, कार्य से कभी न टलती।
(‘युगवाणी’ से)
प्रश्न :
(क) चींटियों की पंक्ति कैसी दिखती है?
(ख) चींटियाँ ……………….काम करती हैं। (कभी-कभी/सतत)
(ग) चींटी श्रमजीवी जीव है।………………(सत्य/असत्य)
(घ) चींटियों का ……………….नहीं छिपता है।
(क) बचपन
(ख) अपनापन
(ग) छोटापन
(घ) परायापन
(ङ) चींटी दिनभर में कितनी दूर चलती है?
2. कहानी – वाचन
कहानी – वाचन भी एक कला है। जैसे एक अच्छा कवि कहानीकार भी हो यह जरूरी नहीं, वैसे ही कहानी कहने की कला भी प्रत्येक में हो यह जरूरी नहीं। यह एक ऐसी कला है, जिसका विकास अभ्यास के द्वारा भी किया जा सकता है। विद्यार्थियों को यदि इस कला से अवगत कराकर अभ्यास कराया जाए, तो उनमें इस गुण का विकास किया जा सकता है। एक अच्छे कहानी – वाचक में निम्नलिखित गुणों का होना अत्यंत आवश्यक होता है
- जिस कहानी को सुनाना हो उसका सार कहानी सुनाने वाले के दिमाग में बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए।
- उसे सारी घटनाएँ क्रमबद्ध तरीके से याद होनी चाहिए, जिससे वह कहानी को उलट-पलटकर न सुना दे। क्योंकि ऐसा होने पर कहानी का रस ही समाप्त हो जाता है।
- कहानी सुनाते समय कहानी के पात्रों, तिथियों, स्थानों के नाम पूर्णरूपेण याद होने चाहिए। केवल अनुमान लगाकर सुनाई गई कहानी अपनी वास्तविकता खो देती है।
- भाषा और संवाद ही कहानी की जान होते हैं। भाषा का स्तर उम्र, बौद्धिक स्तर आदि के अनुकूल होने पर ही कहानी प्रभावशाली बन पाती है। संवादों में बचपना या परिपक्वता सामने बैठे श्रोतागण के अनुसार होने पर ही कहानी में रुचि जाग्रत हो सकती है।
- कहानी को रोचक बनाने के लिए संवाद व वर्णन दोनों का उचित मात्रा में प्रयोग किया जाना चाहिए। जिस प्रकार भोजन में उचित मात्रा में तेल, मसाले आदि डाले जाएँ, तो भोजन रुचिकर बनता है। ठीक उसी प्रकार संवाद और वर्णन का सही मेल ही कहानी में जान डाल सकता है।
- कहानी सुनाते समय श्रोता के हाव-भाव को पढ़ना भी ज़रूरी होता है, क्योंकि श्रोता की रुचि और अरुचि का पता उनके हाव-भाव से लगाकर अपनी कहानी को अधिक रोचक या सरल बनाकर सुनाने पर ही श्रोता की वाहवाही लूटी जा सकती है।
- कहानी सुनाने वाले की आवाज़ में एक विशिष्ट आकर्षण होना भी अत्यंत आवश्यक होता है। कहानीकार की आवाज़ केवल मधुर होना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि उसका बुलंद होना भी ज़रूरी होता है। यदि आखिरी पंक्ति में बैठा श्रोता उसकी आवाज़ नहीं सुन पा रहा है, तो वह कहानी उसके लिए रुचिकर कैसे हो सकती है। इसका अर्थ यह नहीं कि कहानी सुनाने वाला चिल्ला-चिल्लाकर कहानी सुनाए। ऐसा करने पर श्रोतागण के सिर में दर्द भी हो सकता है और अरुचिवश वे वहाँ से उठकर जा भी सकते हैं।
- कहानी को रोचक बनाने के लिए अच्छे मुहावरों व सूक्तियों के द्वारा भाषा को लच्छेदार बनाना भी आवश्यक होता है। सीधी, सरल भाषा ज्यादा देर तक श्रोताओं को नहीं बाँध सकती।
- लच्छेदार भाषा के साथ कहानी कहने वाले की आवाज़ में उतार-चढ़ाव होना भी अत्यंत आवश्यक होता है। आवाज़ का जादू अच्छे-अच्छे के होश उड़ा देता है। एक सी आवाज़ में कही गई कहानी श्रोता को बाँधने में असफल होती है। लेकिन आवाज़ में उतार-चढ़ाव आवश्यकता के अनुसार ही होना चाहिए, अन्यथा अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती।
- जोश और उत्साह की बात बताते समय चेहरे पर प्रसन्नता और आवाज़ में बुलंदी तथा दुख भरी घटना सुनाते समय भाव-विभोर होकर मंद आवाज़ में कही गई बात सीधी श्रोता के दिल में उतर जाती है।
- भाव-विभोर होकर कहानी सुनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि आपकी आवाज़ सामने बैठे श्रोताओं की आखिरी पंक्ति तक पहुँचनी चाहिए।
- कहानी की रोचकता बनाए रखने के लिए जिज्ञासा का बना रहना अत्यंत जरूरी है। श्रोता के मन में यदि हर पल यह जिज्ञासा बनी रहे कि अब आगे क्या होगा, तो कहानी सुनने का आनंद दोगुना हो जाता है। कहानी सुनाने वाले के द्वारा इस जिज्ञासा को बनाए रखना अति आवश्यक होता है।
- कहानी बहुत अधिक लंबी नहीं होनी चाहिए, अन्यथा श्रोता ऊबने लगते हैं।
- कहानी किसी उद्देश्य से परिपूर्ण हो, यह भी अति आवश्यक है। निश्चित निष्कर्ष को लेकर सुनाई गई कहानी अधिक रुचिकर होती है।
- कहानी में कहीं-कहीं हास्य या व्यंग्य का पुट होना भी अति आवश्यक होता है। केवल करुणा के भाव वाली या दुखद कहानी श्रोता पसंद नहीं करते।
- कहानी समय, स्थान, उम्र व परिस्थितियों के अनुकूल होनी चाहिए।
- कहानी चाहे घटना – प्रधान हो, चरित्र – प्रधान हो या वर्णात्मक हो – मार्मिक संवाद उसे सजीवता प्रदान करते हैं। मार्मिक संवादों के साथ सुनाई गई कहानी श्रोताओं के हृदय में घर कर लेती है।
कहानी – वाचन का उदाहरण :
निम्नलिखित कहानी का कक्षा में प्रभावी ढंग से वाचन करें –
आचार्य चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे, चाणक्य प्रतिभाशाली, चरित्रवान, सुस्पष्ट दूरदर्शिता एवं राजनीतिक बुद्धिमत्ता वाले व्यक्ति थे। उनकी सूझबूझ के कारण ही चंद्रगुप्त इस देश में एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने में समर्थ हो पाए थे। उन्हीं दिनों की बात है, सीरिया के राजा सैल्यूकस भारत भ्रमण के लिए आए। सैल्यूकस ने चाणक्य की प्रशंसा सुन रखी थी। चंद्रगुप्त के दरबार में नियुक्त राजदूत मैगस्थनीज भी चाणक्य का प्रशंसक था।
मैगस्थनीज के माध्यम से चाणक्य से मिलने के लिए सायंकाल का समय निश्चित किया गया था। सूर्यास्त होते ही चंद्रगुप्त अपने विशिष्ट अतिथि सैल्यूकस को लेकर आचार्य से मिलने के लिए चल पड़े। जब तक सैल्यूकस कुटिया पर पहुँचे, तब तक अँधेरा हो चुका था। सैल्यूकस ने सोचा कि इतने बड़े साम्राज्य के महामंत्री किसी भव्य और विशाल भवन में रहते होंगे। जीर्ण-शीर्ण कुटिया को देखकर वे हैरान हो गए। चंद्रगुप्त और सैल्यूकस कुटिया में प्रविष्ट हुए।
कुटिया के अंदर एक ओर जल का घड़ा रखा था। दूसरे कोने में उपलों और समिधाओं का ढेर था। एक चटाई बिछी थी। नमक आदि पीसने के लिए सिल बट्टा भी रखा था। एक बाँस लटका हुआ था, जिस पर कपड़े रखे हुए थे। एक चौकी, जिस पर पढ़ने-लिखने की सामग्री थी। पास ही दो दीपाधार भी रखे हुए थे। उस समय चाणक्य गंभीर और एकाग्रचित्त विचार मग्न होकर लेख के काम में व्यस्त थे। चंद्रगुप्त और सैल्यूकस दोनों चुपचाप श्रद्धाभाव से चरणवंदना कर चटाई पर बैठ गए।
जब चाणक्य अपना कार्य समाप्त कर चुके तो उन्होंने चंद्रगुप्त को आशीर्वाद दिया और सैल्यूकस को उचित सम्मान देते हुए जलता हुआ दीपक बुझा दिया और तुरंत दूसरा दीपक जला दिया। यह देखकर सैल्यूकस और भी चकित हो गया। चाणक्य ने सैल्यूकस से प्रश्न किया, “मित्र ! आपको हमारा देश कैसा लगा?” सैल्यूकस ने मुसकराकर उत्तर दिया, “बहुत प्रिंय और साथ ही बहुत विचित्र भी”, “विचित्र क्यों ?” चाणक्य ने मुस्कराते हुए जिज्ञासा जताई।
“अभी-अभी आपने एक दीपक को बुझाकर दूसरा जला दिया? कृपा करके शंका का समाधान करें, इसके पीछे क्या कोई रहस्य है?”
‘दूसरे दीपक को जलाने और पहले दीपक को बुझाने के पीछे कोई सनक या उन्माद की भावना काम नहीं कर रही थी। सच्चाई तो यह है कि जब आप यहाँ आए तो मैं राजकार्य से संबंधित कुछ जरूरी दस्तावेजों की जाँच कर रहा था। उस समय जो दीपक जल रहा था, उसमें राजकोष के पैसों से तेल डाला गया था, इस समय आपसे जो बातचीत करेंगे, वह हमारी निजी होगी। इस कारण मैंने राजकीय दीपक को बुझाकर अपने कमाए हुए धन से खरीदा हुआ दीपक जलाया है। ऐसा करके मैंने कोई विचित्र काम नहीं किया है। ”
सैल्यूकस यह सुनकर दंग रह गए और सोचने लगे कि शायद ही ऐसे ऊँचे आदर्शों वाला महामंत्री किसी और देश या राज्य में होगा।
प्रश्न
(क) चाणक्य किसके महामंत्री थे ?
(ख) सैल्यूकस किससे मिलना चाहते थे?
(ग) कुटिया में ……. ” दीपाधार रखे थे। (दो/तीन)
(ङ) सैल्यूकस को भारत कैसा लगा?
(च) चाणक्य ने राजकीय दीपक जलाकर सैल्यूकस से बातचीत की। (सत्य/असत्य)
3. वार्तालाप
किसी समाज के सदस्य सभ्य हैं या असभ्य- इसकी पहचान उनके व्यवहार एवं वार्तालाप से होती है। वार्तालाप में अहंकार – शून्यता के साथ-साथ विनम्रता, एक-दूसरे के प्रति सम्मान और सहयोग की भावना की प्रधानता होनी चाहिए। कुल मिलाकर वार्तालाप अनौपचारिक बातचीत को कहते हैं, जिसमें न तो बनावटीपन होता है और न ही प्रभाव जताने की इच्छा।
वार्तालाप की विशेषताएँ :
- वार्तालाप दो या दो से अधिक लोगों में हो सकता है।
- वार्तालाप सामान्यतः परिचित लोगों में होता है।
- वार्तालाप में बात को सीधे, सच्चे और स्पष्ट अंदाज़ में कहा जाता है।
- वार्तालाप में आपसी संबंध और प्रेम झलकता है।
- वार्तालाप में सामने वाले के हाव-भाव और शब्दों के अनुरूप ही उत्तर देना होता है।
- उचित संबोधन वार्तालाप को प्रभावी बनाते हैं।
- वार्तालाप के लिए कोई नियत शब्दावली या औपचारिकता नहीं होती।
- वार्तालाप में भाव-पक्ष बौद्धिक-पक्ष से मज़बूत होता है।
- वार्तालाप में टीका-टिप्पणी, हँसी-मज़ाक, ठहाकों आदि का खुलकर आदान-प्रदान होता है।
- वार्तालाप करते समय सामने वाले व्यक्ति की मन:स्थिति के अनुसार ही वार्तालाप करना चाहिए। अन्यथा वार्तालाप प्रभावी और आनंददायक नहीं बन पाता।
वार्तालाप का उदाहरण :
दो छात्रों में वार्तालाप
- प्रशांत : भाई निशांत कैसे हो?
- निशांत : अच्छा हूँ! तुम कैसे हो ?
- प्रशांत : इस समय तो बिलकुल ठीक हूँ। निशांत! मुझे तुम्हारी हिंदी की कॉपी चाहिए।
- निशांत : भाई, मुझे भी उसमें कुछ काम करने हैं। क्या तुम शाम को मेरे घर से ले सकते हो ?
- प्रशांत : क्यों नहीं। इसी बहाने अंकल और आंटी से भी मिल लूँगा।
- निशांत : हाँ, मम्मी भी तुम्हारी तबीयत के बारे में पूछ रही थीं।
- प्रशांत : भाई निशांत ! शाम को पाँच बजे तक मैं ज़रूर तुम्हारे घर पहुँच जाऊँगा। कॉपी देकर तुम मुझ पर बहुत बड़ी कृपा करोगे।
- निशांत : प्रशांत! इतनी छोटी-सी बात के लिए इतने बड़े शब्द मित्रता में अच्छे नहीं लगते।
- प्रशांत : चलो, मैं अपने शब्द वापस लेता हूँ। आज शाम को पाँच बजे तुम्हारे घर पर मिलता हूँ। धन्यवाद, निशांत !
- निशांत : स्वागत है! मैं प्रतीक्षा करूँगा।
प्रश्न :
(क) किनके बीच संवाद हो रहा है? ……………..
(ख) प्रशांत क्या चाहता था ? ……………….
(ग) निशांत ने उसे …………….. बुलाया ? (एक दिन बाद / चार दिन बाद)
(घ) निशांत को क्या अच्छा नहीं लगा? ……………….
(ङ) दोनों ने कब मिलने का वायदा किया? ……………
4. वाद-विवाद
वाद-विवाद का अर्थ है- किसी विषय के पक्ष और विपक्ष में अपने विचार व्यक्त करना। वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ मौखिक अभिव्यक्ति के विकास का एक मुख्य साधन हैं। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के माध्यम से विद्यार्थियों में तर्कशीलता और भाषा कौशल का विकास होता है। हर टीम में दो-दो सदस्य होते हैं। एक सदस्य विषय के पक्ष में बोलता है, तो दूसरा विपक्ष में। दोनों वक्ता अपने-अपने तर्कों और उदाहरणों के माध्यम से अपना-अपना पक्ष निर्णायकों के सामने रखते हैं। निर्णायक मंडल पक्ष और विपक्ष में बोलने वाले सभी वक्ताओं को सुनकर श्रेष्ठ वक्ता और अव्वल आने वाली टीमों की घोषणा करता है। वाद-विवाद प्रतियोगिता का मुख्य लक्ष्य होता है- चुने गए विषय को सत्य की कसौटी पर परखना। वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेते हुए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जाना आवश्यक है
- अकसर विषय के पक्ष में बोलने वाला वक्ता ही प्रतियोगिता की शुरुआत करता है और अपने विचार तर्कशीलता के साथ प्रस्तुत करता है।
- वाद-विवाद प्रतियोगिता में विषय का विरोध करने वाला प्रतिभागी अकसर जोशीली आवाज़ में बोलता है और पक्ष में बोलने वाले वक्ता के तर्कों को अपने तर्कों से काटता है।
- हर वक्ता बोलने से पहले ही स्पष्ट कर देता है कि पक्ष में बोलेगा या विपक्ष में।
- कभी-कभार विषय की माँग होती है और पक्ष में बोलने वाला भी आक्रामक भाषा का प्रयोग करता है।
- वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वालों को अपनी सीमा में रहना चाहिए और व्यक्तिगत आक्षेपों, अभद्र टिप्पणियों और असंसदीय शब्दावली से बचना चाहिए; जैसे- “मेरे विपक्षी साथी का यह सुझाव मूर्खतापूर्ण है कि
- बार- बार संबोधन भी उबाऊ और यांत्रिक होता है, अतः इससे बचना चाहिए।
- वाद-विवाद जैसे शुष्क विषयों में भी हास्य-व्यंग्य बना रहे, तो प्रतियोगिता प्रभावी बन सकती है, किंतु विरोध करते यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि विरोध, तर्कों व तथ्यों के आधार पर हो, न कि सिर्फ़ विरोध के लिए।
- उचित संबोधन और भाषण कला के गुणों का उपयोग वाद-विवाद में काफी मायने रखता है।
वाद-विवाद का उदाहरण :
हुए राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित की गई। इस प्रतियोगिता का विषय था – ‘निजीकरण से शिक्षा के स्तर में सुधार होगा।’ प्रतियोगिता का विवरण निम्नलिखित है:
उद्घोषक – आदरणीय अध्यक्ष महोदय, निर्णायकगण एवं सभा में उपस्थित विद्वानो !
आज की इस वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय एक ज्वलंत समस्या को लेकर है। रोज़ अखबारों और दूसरे संचार माध्यमों में यह आवाज़ उठती है कि शिक्षा के निजीकरण से शिक्षा के स्तर को सुधारा जा सकता है। इसी विषय पर अपने-अपने विचार रखने के लिए विभिन्न सदनों की टीमें भाग ले रही हैं। सर्वप्रथम मैं नीलगिरी सदन के प्रतिभागी रमण को विषय के पक्ष में बोलने के लिए आमंत्रित करता हूँ।
रमण – आदरणीय सभापति महोदय, नीर-क्षीर विवेकी निर्णायक मंडल, अध्यापकवृंद एवं प्रिय सहपाठियो !
आज की इस प्रतियोगिता में मैं इस सामयिक विषय के पक्ष में अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। आज निजीकरण एक आवश्यकता बन गया है। जैसे औद्योगिक ढाँचे को सुधारने, आर्थिक क्षेत्र में तरक्की के लिए लगातार निजीकरण हो रहा है, उसी प्रकार शिक्षा के बुनियादी ढाँचे में सुधार के लिए भी शिक्षा के निजीकरण की आवश्यकता है। सरकारी विद्यालयों में न तो साधन हैं और न ही अध्यापकों में शिक्षा के प्रति समर्पण। सरकारी विद्यालयों का परिणाम प्रतिशत भी हर साल 10-20 प्रतिशत होता है। वहाँ पर कक्षाएँ न तो नियमित रूप से लगती हैं और न ही विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास के लिए प्रयास होता है।
खेलों, लोककलाओं और दूसरी सांस्कृतिक गतिविधियों से तो विद्यार्थी रूबरू हो ही नहीं पाते। सरकारी विद्यालय शिक्षा के स्तर को लगातार गिराने में योगदान देते हैं। न तो परिणामों की दृष्टि से और न ही बौद्धिक, सामाजिक विकास की दृष्टि से विद्यार्थियों का भला होता है। अतः निजी हाथों में विद्यालयों का प्रबंधन देकर शिक्षा के सुधार के प्रयास किए जाने चाहिए। निजी स्वामित्व वाले विद्यालयों में साधन-संपन्नता भी है और समर्पण का भाव भी। उनकी योजनाएँ और लक्ष्य पहले से ही तय होते हैं और उस लक्ष्य को पाने के लिए निरंतर प्रयास भी किए जाते हैं।
अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा, कंप्यूटर शिक्षा, खेलों की सुविधा, शिक्षक-शिक्षिका का औसत, साफ़-सुथरे कक्षा-कक्ष, पीने का स्वच्छ जल आदि कुछ ऐसी बुनियादी जरूरतें हैं, जिनको केवल निजी विद्यालय प्रबंधक ही पूरा कर सकते हैं। गरीब विद्यार्थियों के लिए सरकार वजीफ़ों और आर्थिक सहायता के रूप में सहायता कर सकती है। अतः मैं पूर्णरूपेण इस बात से सहमत हूँ कि शिक्षा का निजीकरण शिक्षा के गिरते स्तर को सुधारने के लिए आवश्यक है।
धन्यवाद!
उद्घोषक – अब हिमालय सदन के छात्र रजत शर्मा विषय के विपक्ष में अपना मत प्रस्तुत करेंगे।
रजत – आदरणीय सभापति जी, मुझे ताज्जुब होता है यह सोचकर कि क्या शिक्षा के निजीकरण की बात सोची भी जा सकती है। भारत जैसे देश में जहाँ लाखों-करोड़ों की संख्या में गरीब जनता रहती है, ऐसे में निजीकरण से शिक्षा के स्तर को कैसे सुधारा जा सकता है? क्या गरीब, जो रोटी के एक कौर के लिए भी तरसते हैं, निजी स्वामित्व वाले तथाकथित प्रगतिशील विद्यालयों का खर्च उठा सकते हैं? क्या शिक्षा के मायने केवल अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा लेना, कंप्यूटर सीखना ही है। लोकतांत्रिक प्रणाली में सरकार लोक – कल्याण के लक्ष्य को लेकर चलती है, लोक- घात के लक्ष्य को लेकर नहीं। हमें जन-जन तक शिक्षा पहुँचाने के लिए निःशुल्क सरकारी विद्यालयों की आवश्यकता है। शिक्षा कोई फ़ैक्ट्री नहीं है, जहाँ निवेश के साथ-साथ आमदनी भी प्राप्त हो। शिक्षा से प्राप्त होने वाला लाभ तात्कालिक न होकर दीर्घकालिक होता है, जो कि शिक्षित-सभ्य समाज व प्रगतिशील नागरिकों के रूप में सामने आता है। आवश्यकता है, सरकारी विद्यालयों में सुधार लाने की, सुविधाएँ व साधन उपलब्ध करवाने की, शिक्षकों को प्रेरित करने की और कुछ सख्त कदम उठाए जाने की। प्राइवेट विद्यालयों को महत्त्व देना हमारे लिए आवश्यक नहीं है। सरकारी विद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति सामयिक हो, पाठ्यक्रमों को सुधारा जाए, तो शिक्षा का स्तर सुधर सकता है। शिक्षा का निजीकरण देश और समाज पर कुठाराघात होगा और यह राष्ट्रहित में नहीं है। आवश्यकता है, सारे देश के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की, न कि शिक्षा के निजीकरण की !
धन्यवाद!
नोट – पक्ष और विपक्ष के दूसरे और प्रतिभागियों ने भी अपने-अपने मत प्रस्तुत किए।
प्रश्न :
(क) वाद-विवाद का विषय क्या था ? ………………
(ख) रमण वाद-विवाद के विपक्ष में बोल रहा था। (सत्य/असत्य) ……………..
(ग) ………………. स्वामित्व वाले विद्यालयों में धन-संपन्नता होती है। (सरकारी/निजी)
(ङ) रजत ने किसे संबोधित करते हुए भाषण दिया? ………………
(च) किसका निजीकरण देशहित में नहीं होगा ? …………….