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CBSE Class 12 Hindi Elective परियोजना
कवि-परिचय :
प्रकृति चित्रण के कुशल चितेर एवं भावों के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने छायावाद को एक नई पहचान दी। इससे पूर्व छायावाद की जो एक जटिल धारणा थी, अपनी सुकोमल एवं मुदुल वाणी देकर उसे सहजता एवं सौददर्य की ओर झुकाने का श्रेय पंत जी को ही जाता है। पंत जी सौंदर्य के उपासक थे। उनकी सौंदर्यानुभूति के तीन केंद्र थे- प्रकृति, नारी तथा कला सौंदर्य। प्रकृति की सुरम्य एवं वैभवशाली गोद में पले-बढ़े पंत जी ने काव्य-यात्रा का प्रारंभ ही प्रकृति चित्रण से किया। उनकी रचनाओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का अति सुंदर चित्रात्मक वर्णन देखने को मिलता है।
जीवन-परिचय :
प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तराखंड (पूर्व उत्तर प्रदेश) के अल्मोड़ा जिले के कौसानी ग्राम में 20 मई, 1900 ई० (संवत 1957) में हुआ था। उनके पिता का नाम गंगादत्त पंत और माता का नाम सरस्वती देवी था। प्रकृति ही कठोर हददय थी, जो जन्म के छह घंटे बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। दादी एवं पिता के वात्सल्य की छाँव में उनका बचपन व्यतीत हुआ। उनके बचपन का नाम गोसाई दत्त था। अल्मोड़ा में प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही उन्होंने अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। उन्होंने सात वर्ष की अल्पायु से ही काव्य-रचना प्रारंभ कर दी थी।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा कौसानी के ही ग्रामीण पाठशाला में हुई थी। इसके बाद राजकीय हाई स्कूल, अल्मोड़ा तथा जयनारायण कॉलेज, बनारस से उन्होंने क्रमशः हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने इलाहाबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। यहाँ पर उनकी काव्यात्मक रुचि और अधिक मुख हुई। 1920 में उनकी ‘उच्छ्वास’ एवं ‘ग्र्रथथ’, दो रचनाएँ प्रकाशित हुई, परंतु तभी 1921 में गांधी जी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। परंतु, अपनी कोमल प्रकृति के कारण अधिक समय तक उसमें सक्रिय नहीं रह पाए और पुन: अपने काव्य-सृजन में व्यस्त हो गए।
इसके पश्चात् 1927 में उनकी ‘वीणा’ तथा 1928 में काव्य-संग्रह ‘पल्लव’ का प्रकाशन हुआ। वे 1950 में ऑल इंडिया रेडियो के परामर्शदाता के पद पर नियुक्त हुए और 1957 तक प्रत्यक्ष रूप से रेडियो से संबद्ध रहे। उन्होंने अपने समय के अधिकांश पुरस्कार, उपाधियाँ एवं सम्मान प्राप्त किए। उन्हें अपनी रचना ‘कला और बूढ़ा चाँद’ पर ‘साहित्य अकादमी’, ‘लोकायतन’ पर ‘सोवियत’ और 1961 में ‘चिदंबरा’ पर ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुए तथा 1961 में ही उन्हें ‘पद्म भूषण’ सम्मान से भी अलंकृत किया गया। 28 दिसंबर, 1977 में सुमित्रानंदन पंत जी का देहावसान हो गया।
रचनाएँ :
लोकायतन – इस महाकाव्य में कवि की सांस्कृतिक एवं दार्शनिक विचारधारा, ग्राम्य जीवन एवं जनभावना का चित्रण है।
वीणा – इस रचना में कवि का प्रकृति के प्रति प्रथम प्रेम व्यक्त है। इसमें प्रकृति के अलौकिक सौंदर्य का चित्रण हुआ है।
पल्लव – प्रकृति-प्रेम एवं सौंदर्य का व्यापक चित्रण।
गुंजन – प्रकृति-प्रेम और सौदर्य से संबंधित प्रौढ़ एवं गंभीर रचनाएँ संकलित।
ग्रंधि – इस काव्य-संग्रह में प्रमुखतः वियोग का चित्रण प्रकृति के आलंबन के साथ हुआ है। इसके अतिरिक्त ‘स्वर्णधूलि’, ‘स्वर्ण-किरण’, ‘युगपथ’, ‘उत्तरा ‘, ‘युगवाणी’, ‘युगांत’, ‘ग्राम्या’, ‘कला और बूढ़ा चाँद’, ‘चिदंबरा ‘ इत्यादि उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
भाषा शैली – पंत जी ने सांस्कृतिक हिंदी की भाषा को काव्य सृजन का माध्यम बनाया है, परंतु भाषा की जटिलता कहीं दुष्टिगोचर नहीं होती है। उनकी रचनाओं में अलंकारों का सुंदर प्रयोग है। उपमा, रूपक, मानकीकरण के प्रयोग दर्शनीय हैं। गेयता, चित्रात्मकता, मधुरता, संगीतात्मकता उनके काव्य की विशेषताएँ हैं।
वे आँखें
अंधकार की गुहा सरीखी
उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुख का नीरव रोदन!
वह स्वाधीन किसान रहा,
अभिमान भरा आँखों में इसका,
छोड़ उसे मँझधार आज
संसार कगार सदृश बह खिसका!
लहराते बे खेत दृगों में
हुआ बेदखल वह अब जिनसे,
हँसती थी उसके जीवन की
हरियाली जिनके तृन-तृन से।
आँखों ही में घूमा करता
वह उसकी आँखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
गया जवानी ही में मारा!
बिका दिया घर द्वार,
महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,
रह-रह आँखों में चुभती वह
कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!
उजरी उसके सिवा किसे कब
पास दुहाने आने देती ?
अह, आँखों में नाचा करती
उजड़ गई जो सुख की खेती!
बिना दवा दर्पन के घरनी
स्वरग चली-आँखें आतीं भर,
देख-रेख के बिना दुधमुँही
बिटिया दो दिन बाद् गई मर।
घर में विधवा रही पतोहू
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मँगाया कोतवाल ने,
डूब कुएँ में मरी एक दिन!
खैर, पैर की जूती, जोरू
न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
साँप लोटते, फटती छाती।
पिछले सुख की स्मृति आँखों में
क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
तीखी नोक सदृश बन जाती।
कवि-परिचय :
संत कबीर की विद्रोही छवि की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले निर्भीक फक्कड़ महाकवि थे, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’। ‘निराला’ में कबीर की निर्भीकता एवं फक्कड़पन था तो सूफी कवियों की सादगी, सूर और तुलसी की विलक्षण प्रतिभा तथा प्रसाद का सौंदर्य-बोध। वे एक ऐसे निर्भीक कवि थे, जिन्होंने तत्कालीन काव्य परंपरा के रूप को बदलकर, नित नए प्रयोग कर काव्य को एक नया रूप दिया। उनकी कविता में छायावादी, रहस्यवादी एवं प्रगतिवादी विचारधाराओं का समावेश था। उन्होंने किसान, मजदूर तथा अन्य निर्बल पीड़ित वर्ग के दैनिक जीवन एवं दिनचर्या का यथार्थ चित्रण किया है। उनके ‘जूही की कली’ नामक काव्य-संग्रह ने हिंदी काव्य की धारा ही बदल दी अतः उन्हें एक युगांतकारी कवि की संज्ञा सहज ही दी जा सकती है।
जीवन-परिचय :
स्वाभिमानी एवं भावुक हदय कवि निराला का जन्म 1897 ई० (संवत 1954) में बंगाल के मेदिनीपुर जिले में एक छोटे से गाँव महिषादल में हुआ था। उनके पिता जी का नाम पं० रामसहाय त्रिपाठी था। वे उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के गढ़ाकोला ग्राम के निवासी थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा कुछ घर में तथा कुछ राज्य के हाईस्कूल में हुई। निराला जी को बंगला, संस्कृत, अंग्रेज़ी और हिंदी भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने हिंदी साहित्य का अध्ययन किया तथा भारतीय दर्शन में भी उन्हें अत्यधिक रुचि थी। ‘निराला’ जी का पारिवारिक जीवन अत्यंत कष्टमय रहा। अल्पायु में ही माता-पिता का साया उठ गया। अल्प समय में ही एक पुत्र एवं एक पुत्री का उत्तरदायित्व सौंपकर पत्नी स्वर्ग सिधार गई। अपनी उदारवादी विचारधारा के कारण उन्हें सदा ही आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। ऐसे ही अभावों के बीच उनकी प्रिय पुत्री सरोज का भी निधन हो गया। इस अवसादपूर्ण घटना ने उन्हें अंतर में कहीं भीतर तक तोड़ दिया। सरोज-स्मृति नामक कविता में उनकी व्यथा बहुत ही स्पष्ट रूप से उभरकर आई है। दुख और कष्टपूर्ण जीवन में भी उन्होंने अपने स्वाभिमान को बहुत ही सँजोकर रखा। अपने अहं के साथ उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। महाकवि ‘निराला’ स्वामी रामकृष्ण और विवेकानंद जी से बहुत प्रभावित थे 15 अक्टूबर, 1961 (संवत 2018) में निराला जी का देहावसान हुआ।
रचनाएँ :
परिमल – इस रचना में अन्याय और शोषण के प्रति तीव्र विद्रोह एवं निम्न वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति प्रकट हुई है।
गीतिका – इसमें मुख्य रूप से उनकी शृृंगार भावनाएँ प्रकट हुई हैं। इसमें देश-प्रेम एवं प्रकृति चित्रण संबंधी कुछ रचनाएँ भी हैं।
अनामिका – इस संग्रह की रचनाएँ उनकी कलात्मक स्वभाव की परिचायक हैं।
राम की शक्ति पूजा – इसमें कवि का ओज, पौरुष एवं छंद-सौंदर्य प्रकट हुआ है।
सरोज-स्मृति – यह उनकी पुत्री को समर्पित एक शोक व्यथा काव्य है।
जूही की कली – तत्कालीन क्रांतिकारी रचना है।
अन्य रचनाएँ – ‘कुकुरमुत्ता’, ‘आणिमा’, ‘अपरा’, ‘बेल’, ‘नए पत्ते’, ‘आराधना’, ‘अर्चना’ आदि भी उनकी अन्य सुंदर काव्य रचनाएँ हैं।
भाषा शैली – निराला जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है। कोमल कल्पना के अनुसार उनकी भाषा भी कोमल हो जाती है। भाषा में संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली की नीरसता एवं कठोरता नहीं वरन संगीत की मधुरिया है। विषयानुसार कभी सरल तो कभी दुरूह शैली का प्रयोग हुआ है।
बादल राग
तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुख की छाया –
जग के द्ध हृद्य पर
निर्द्य विप्लव की प्लावित माया –
यह तेरी रण-तरी
भरी आकांक्षाओं से,
घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, आशाओं से
नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,
ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल!
फिर-फिर
बार-बार गर्जन
वर्षण है मूसलधार,
हृद्य थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र-हुंकार।
अशनि-पात से शापित उन्नत शत-शत वीर,
क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,
गगन-स्पर्शी स्पर्धा धीर।
हैसते हैं छोटे पौधे लघुभार –
त्रस्त नयन मुख ढाँप रहे हैं,
जीर्ण बाहु है शीर्ष शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
शस्य अपार,
हिल-हिल,
खिल-खिल,
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।
अट्टालिका नहीं है रे
आतंक-भवन
सदा पंक पर ही होता
जल-विप्लव-प्लावन,
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
सदा छलकता नीर,
राग शोक में भी हँसता है
शैशव का सुकुमार शरीर।
रुद्ध कोष है, क्षुब्ध तोष
अँगना-अंग से लिपटे भी
आतंक अंक पर काँप रहे हैं।
धनी, बज्र निर्धन से बादल!
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़-मांस ही है आधार,
ऐ जीवन के पारावार!
कवि-परिचय :
हिंदी काव्य साहित्य में छायावाद के जनक एवं पोषक जयशंकर प्रसाद जी आधुनिक काव्य के प्रतिनिधि कवि भी हैं। प्रसाद जी छायावादी युग के सर्वश्रेष्ठ कवि रहे हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में उनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युग में प्रवर्तक साहित्यकार थे, जिन्होंने एक ही साथ साहित्य की सभी विधाओं-कविता, कहानी, उपन्यास एवं नाटक के क्षेत्र में हिंदी को गौरवान्वित करने वाली कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पंत एवं महादेवी के साथ छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
प्रसाद जी भाव एवं शिल्प दोनों दृष्टि से हिंदी के युग प्रवर्तक कवि के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं। उन्होंने द्विवेदी युगीन काव्यादर्श के विरुद्ध विद्रोह किया और एक नवीन काव्य धारा के रूप में छायावाद का सूत्रपात किया। उन्होंने छायावाद को पुष्ट किया और स्वयं उसके शीर्ष स्थान को प्राप्त किया। प्रेम एवं सौंदर्य उनके काव्य का प्रमुख विषय रहा, किंतु उनका दृष्टिकोण इसमें भी विशुद्ध मानवतावादी रहा है। उन्होंने इतिहास तथा भारतीय संस्कृति के प्राचीन गौरव को अपने काव्य एवं अन्य रचनाओं में स्थान दिया है।
उन्हें ‘कामायनी’ पर ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ प्राप्त हुआ था। उन्होंने जीवन में कभी साहित्य को अर्जन का माध्यम नहीं बनाया, अपितु वे साधना समझ कर ही साहित्य की रचना करते रहे। कुल मिलाकर ऐसा साहित्यकार हिंदी में कम ही मिलेगा, जिसने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से समृद्ध किया हो।
जीवन-परिचय :
जयशंकर प्रसाद जी का जन्म 30 जनवरी, 1889 में काशी के सराय गोवर्धन में हुआ। उनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने के लिए प्रसिद्ध थे और उनके पिता बाबू देवीप्रसाद तंबाकू के प्रसिद्ध व्यापारी थे और कलाकारों का सम्मान करने के लिए प्रसिद्ध थे। उनका काशी में बड़ा सम्मान था। बाल्यावस्था में ही माता, पिता और बड़े भाई का निधन हो जाने के कारण 17 वर्ष की अल्पायु में ही प्रसाद जी पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा। ऐसी विषम परिस्थितियों और कम उम्र में ही परिवार का सारा उत्तरदायित्व उनके कंधों पर आ पड़ा। अपना पैतृक व्यवसाय करते हुए उन्होंने अपनी काव्य-प्रेरणा को जीवित रखा और कविता लिखना प्रारंभ कर दिया।
प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कॉलेज में हुई, किंतु बाद में घर पर उनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ उन्होंने संस्कृत, हिंदी, उर्दू तथा फारसी का उच्च कोटि का अध्ययन किया। दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान उनके संस्कृत अध्यापक थे। उनके गुरुओं में रसमय सिद्ध की भी चर्चा की जाती है। घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि 9 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने कलाधर के नाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखकर रसमय सिद्ध को दिखाया था। प्रसाद जी ने वेद, पुराण, इतिहास तथा साहित्य का गहन अध्ययन किया था। उनकी मृत्यु केवल 48 वर्ष की आयु में ही 14 जनवरी, 1937 को काशी में हुई।
रचनाएँ :
उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नवत हैं:
काव्य – ‘कानन कुसुम’, ‘महाराणा कहा महत्व’, ‘झरना ‘, ‘आँसू’, ‘लहर’, ‘कामायनी’, ‘प्रेम पथिक’।
नाटक – ‘स्कंदगुप्त’, ‘चंद्रगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘जनमेजय का नाग यज्ञ’, ‘राजश्री’, ‘कामना’, ‘एक घूँट’, ‘कंकाल’ ‘तितली’ आदि।
कहानी-संग्रह – ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप, ‘आँधी’, ‘ इंद्रजाल’। उपन्यास – कंकाल, तितली, इरावती।
पुनर्मिलन
चौंक उठी अपने विचार से
कुछ दूरागत ध्वनि सुनती, इस निस्तब्ध निशा में कोई
चली आ रही है कहती-
“अरे बता दो मुझे दया कर
कहाँ प्रवासी है मेरा?
उसी बावले से मिलने को
डाल रही हूँ मैं फेरा।
रूठ गया था अपनेपन से
अपना सकी न उसको मैं,
वह तो मेरा अपना ही था
भला मनाती किसको मैं!
यही भूल अब शूल सदृश हो,
साल रही उर में मेरे,
कैसे पाऊँगी उसको मैं
कोई आकर कह दे रे!”
इड़ा उठी, दिख पड़ा राज-पथ
धुँधली-सी छाया चलती,
वाणी में थी करुण वेदना
वह पुकार जैसी जलती।
शिथिल शरीर वसन विश्रृंखल
कबरी अधिक अधीर खुली,
छिन्न पत्र मकरंद लुटी-सी
ज्यों मुरझाई हुई कली।
नव कोमल अवलंब साथ में
व्य किशोर उँगली पकड़े,
चला आ रहा मौन धैर्य-सा
अपनी माता को जकड़े।
थके हुए थे दुखी बटोही,
वे दोनों ही माँ-बेटे,
खोज रहे थे भूले मनु को
जो घायल हो कर लेटे।
उधर कुमार देखता ऊँचे,
मंदिर, मंडप, वेदी को,
यह सब क्या है नया मनोहर
कैसे ये लगते जी को?
माँ ने कहा ‘अरे आ तू भी
देख पिता हैं पड़े हुए’
‘पिता! आ गया लो’ यह कहते
उसके रोएँ खड़े हुए।
इड़ा आज कुछ द्रवित हो रही
दुखियों को देखा उसने,
पहुँची पास और फिर पूछा
“तुमको बिसराया किसने?
इस रजनी में कहाँ भटकती
जाओगी तुम बोलो तो,
बैठो आज अधिक चंचल हूँ
व्यथा-गाँठ निज खोलो तो।
जीवन की लंबी यात्रा में
खोए भी हैं मिल जाते,
जीवन है तो कभी मिलन है
कट जातीं दुख की रातें।”
श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था
मिलता है विश्राम यहीं,
चली इड़ा के साथ जहाँ पर
वह्नि शिखा-प्रज्वलित रही।
सहसा धधकी वेदी-ज्वाला
मंडप आलोकित करती,
कामायनी देख पाई कुछ
पहुँची उस तक डग भरती।
और वही मनु! घायल सचमुच
तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?
‘आह प्राण प्रिय! यह क्या? तुम यों?”
घुला ह्वदय, बन नीर बहा।
इड़ा चकित, श्रद्धा आ बैठी
वह थी मनु को सहलाती,
अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था
व्यथा भला क्यों रह जाती?
उस मूर्च्छित नीरवता में कुछ
हलके से स्पंदन आए,
आँखें खुलीं चार कोनों में
चार बिंदु आकर छाए।
‘माँ जल दे, कुछ प्यासे होंगे
क्या बैठी कर रही यहाँ?’
मुखर हो गया सूना मंडप
यह सजीवता रही कहाँ?
आत्मीयता घुली उस घर में
छोटा-सा परिवार बना,
छाया एक मधुर स्वर उस पर
श्रद्धा का संगीत बना।
कवयित्री-परिचय :
हिंदी की आधुनिक कविता की अद्भुत कवयित्री महादेवी वर्मा छायावादी एवं रहस्यवादी धारा की प्रतिनिधि कवयित्री हैं। उन्हें ‘आधुनिक काल की मीरा’ कहा जाता है। सरस कल्पना, भावुकता एवं वेदनापूर्ण भावों की कोमल अभिव्यक्ति हिंदी काव्य में इतने प्रभावशाली ढंग से पहले किसी ने नहीं की है। खड़ी बोली में भी इतना माधुर्य और इतनी संगीतात्मकता कहीं और नहीं मिलती है। विलक्षण प्रतिभा की धनी महादेवी जी का हिंदी काव्य को दिया गया योगदान अद्वितीय है। कोमल भावों की चितेरी महादेवी जी को सन् 1983 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से तथा उसी वर्ष उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से भारत-भारती सम्मान से सम्मानित किया गया। भारत सरकार की ओर से उन्हें सन् 1956 में पद्मभूषण एवं सन् 1988 में पद्मविभूषण की उपाधि प्रदान की गई। ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’, इस पंक्ति में उन्होंने अपना संपूर्ण व्यक्तित्व प्रकट कर दिया है।
जीवन-परिचय :
हिंदी छायावादी एवं रहस्यवादी धारा की इस महान कवयित्री का जन्म सन् 1907 ई॰ (संवत 1964) में होलिकादहन के पुण्य पर्व के दिन उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम गोविंद्रसाद वर्मा तथा माता का नाम हेमरानी था, जो एक विदुषी महिला एवं कवयित्री भी थीं। पिता भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे तथा नाना ब्रजभाषा के कवि। संयुक्त रूप में माता तथा नाना का उन पर काफी प्रभाव पड़ा और बचपन से ही उन्होंने काव्य सृजन प्रारंभ कर दिया।
पारिवारिक वातावरण एवं सुसंस्कारों का उन पर अत्यधिक प्रभाव था। नौ वर्ष की अल्पायु में ही महादेवी जी का विवाह स्वरूप नारायण वर्मा के साथ संपन्न हो गया। शीघ्र ही उनकी माता जी का निधन हो गया। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोड़ा और पूरे मनोयोग एवं लगन के साथ मैट्रिक से एम०ए० (संस्कृत) तक की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। घर पर ही चित्रकला एवं संगीत की शिक्षा प्राप्त की, शायद इसीलिए उनकी कविताओं में संगीतात्मकता हमेशा विद्यमान रहती है। कम ही लोग जानते हैं कि वे एक उच्चकोटि की चित्रकार भी थीं। सन् 1933 में केवल 26 वर्ष की अल्पायु में ही वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बन गई और लंबे समय तक इस पद पर आसीन रहीं।
मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद से ही उन्होंने काव्य सृजन प्रारंभ कर दिया था और सर्वप्रथम ‘चाँद’ पत्रिका में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हुईं। तभी से उन्होंने कवयित्री के रूप में अपनी पहचान बनानी प्रारंभ कर दी।
रचनाएँ :
महादेवी वर्मा के निम्नलिखित आठ कविता-संग्रह प्रकाशित हैं –
नीहार (1930) – इसमें महादेवी जी की भाव-भीनी कविताएँ, जिनमें उनकी वेदना मुखरित हुई हैं, संकलित हैं।
रश्मि (1932) – आत्मा-परमात्मा के मधुर संबंधों को दर्शाने वाली कविताएँ हैं, जो गीत रूप में संकलित हैं।
नीरजा (1934) – इसमें ऐसे प्रकृति प्रधान गीत संकलित हैं, जिनमें प्रकृति के माध्यम से सुख-दुख प्रकट किया गया है।
सांध्यगीत (1936) – इसमें परमात्मा से मिलन संबंधी श्रृंगारिक गीतों का संकलन है।
दीपशिखा (1942) – छायावादी-रहस्यभाव संबंधी गीतों का संकलन है।
सप्तपर्णा (अनुदित-1959)
प्रथम आयाम (1974)
अरिन रेखा (1990)
यामा – इसमें सभी काव्य-संग्रहों से चयनित विशिष्ट गीतों का संकलन है। इसी पुस्तक के लिए उन्हें भारत का सर्वोंच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
इसके अतिरिक्त ‘अतीत के चलचित्र ‘एवं’ शृंखला की कड़ियाँ’ आदि उनकी गद्य रचनाएँ हैं।
भाषा शैली – महादेवी जी ने अपनी रचनाओं में संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया है। जटिल शब्दों के प्रयोग के पश्चात भी उनकी कविताओं को मधुर गीतों की श्रेणी में रखा जा सकता है, जिनमें संगीतात्मकता एवं गेयता समान रूप से विद्यमान रहती हैं। उन्होंने मुक्तक गीत शैली का भी प्रयोग अपने गीतों में किया है।
हिमालय से
हे चिर महान!
यह स्वर्णरशिम छू श्वेत भाल,
बरसा जाती रंगीन हास;
सेली बनता है इंद्रधनुष
परिमल-मल-मल जाता बतास!
पर रागहीन तू हिमनिधान!
नभ में गर्वित झुकता न शीश,
पर अंक लिए हैं दीन क्षार;
मन गल जाता नत विश्व देख,
तन सह लेता है कुलिश भार!
कितने मृदु कितने कठिन प्राण!
टूटी है तेरी कब समाधि,
झंझा लौटे शत हार-हार;
बह चला दृगों से किंतु नीर;
सुनकर जलते कण की पुकार!
सुख से विरक्त दुख में समान!
मेरे जीवन का आज मूक,
तेरी छाया से हो मिलाप;
तन तेरी साधकता छू ले,
मन ले करुणा की थाह नाप!
उर में पावस दृग में विहान!
वर्षा-सुंदरी के प्रति
रूपसि तेरा घन-केश-पाश!
श्यामल-श्यामल कोमल-कोमल
लहराता सुरभित केश-पाश!
नभ-गंगा की रजतधार में
धो आई क्या इन्हें रात?
कंपित हैं तेरे सजल अंग
सिहरा-सा तन है सद्यस्नात!
भीगी अलकों के छोरों से
चूती बूँदें कर विविध लास!
रूपसि तेरा घन-केश-पास!
सौरभ भीना झीना गीला
लिपटा मृदु अंजन-सा दुकूल;
चल अंचल में झर-झर झरते
पथ में जुगनू के स्वर्ण-फूल;
दीपक से देता बार-बार
तेरा उज्ज्वल चितवन-विलास!
रूपसि तेरा घन-केश-पाश!
उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है
बक पाँतों का अरविंद हार,
तेरी निश्वासें छू भू को
बन-बन जाती मलयज बयार;
केकी-रव की नुपुर-ध्वनि सुन
जगती जगती की मूक प्यास!
रूपसि तेरा घन-केश-पाश!
इन स्निर्ध लटों से छा दे तन
पुलकित अंकों में भर विशाल;
झुक सस्मित शीतल चुंबन से
अंकित कर इसका मृदुल भाल;
दुलरा देना, बहला देना ना
यह तेरा शिशु जग है उदास!
रूपसि तेरा घन-केश-पाश!
कवि-परिचय :
हिंदी साहित्यकाश को ‘दिनकर’ के समान ही अपने काव्य सृजन के प्रकाश से उज्ज्वल करने वाले रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिंदी के साहित्य में स्वर्ण हस्ताक्षर हैं। हिंदी काव्य के छायावादोत्तर काल के प्रगतिवाद के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में प्रतिष्ठित, अपने राष्ट्रीय भाव एवं ओजपूर्ण काव्य से जनमानस को नई चेतना एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले राष्ट्रकवि दिनकर जी की विलक्षण काव्य प्रतिभा ने उन्हें अपार लोकप्रियता प्रदान की है। वे एक क्रांतिकारी कवि के रूप में भी जाने जाते हैं। उनकी इन्हीं विशेषताओं के कारण उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की उपधि से विभूषित किया गया।
जीवन-परिचय :
जन-चेतना के क्रांतिकारी कवि दिनकर जी का जन्म सितंबर, 1908 ई० में बिहार राज्य के मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम रवि सिंह था, जो एक साधारण किसान थे। जब वे दो वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया था। उनका लालन-पालन उनकी माता मनरूप देवी ने ही किया।
‘दिनकर’ जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव की ही पाठशाला में हुई। मैट्रिक की परीक्षा उन्होंने मोकामा घाट स्थित हाई स्कूल से उत्तीर्ण की। मैट्रिक में हिंदी में सर्वाधिक अंक प्राप्त करके वे ‘भूदेव स्वर्ण पदक’ के विजेता रहे। सन् 1932 में पटना विश्वविद्यालय से इतिहास में बी॰ए० की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक माध्यमिक विद्यालय में प्राध्यापक बन गए। तत्पश्चात् उन्होंने बिहार सरकार के सब रजिस्ट्रार एवं प्रचार विभाग के उप निदेशक, मुजफ्फपुर के एक कॉलेज में विभागाध्यक्ष, भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति तथा भारत सरकार के हिंदी सलाहकार के रूप में कार्य किया।
भारत की प्रथम संसद का जब 1952 में निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनित किया गया। वे लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे। उन्हें सन् 1959 में भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया गया। ‘भारतीय संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उन्हें 1959 में ही साहित्य अकादमी से सम्मनित किया गया। वर्ष 1972 में काव्य रचना ‘उर्वशी’ के लिए उन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्रदान किया गया। 24 अप्रैल, 1974 को उनका स्वर्गवास हो गया।
रचनाएँ – उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं –
रेणुका – इस कृति में अतीत के गौरव के प्रति उनका आदर भाव एवं वर्तमान की नीरसता के प्रति वेदना का भाव परिलक्षित होता है।
हुंकार – वर्तमान के प्रति आक्रोश का भाव है।
रसवंती – सौंदर्य का काव्यमय वर्णन हुआ है।
सामधेनी – सामाजिक चेतना, स्वदेश प्रेम एवं विश्व वेदना संबंधी काव्य संकलन।
कुरुक्षेत्र – महाभारत के शांति पर्व के कथानक के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान परिस्थितियों का चित्रण है।
उर्वशी, रश्मिरथी – इन दोनों काव्य-कृतियों में विचार तत्व की प्रधानता है। ये उनके प्रसिद्ध काव्य हैं। ‘उर्वशी’ पर उनको ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ भी प्राप्त हुआ।
इनके अलावा ‘नील कुसुम’, ‘द्वंद्वगीत’, ‘सीपी और शंख’, ‘परशुराम की प्रतीक्षा’, ‘चक्रवाल’, ‘हारे की हरिनाम’ आदि उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
‘मिट्टी की ओर’, ‘अर्धनारीश्वर’, ‘रेती के फूल’ एवं ‘भारतीय संस्कृति के चार अध्याय’ आदि उनकी अन्य प्रसिद्ध गद्य विधाएँ हैं।
भाषा शैली – ओजपूर्ण भाषा उनकी प्रथम विशेषता है। उनके शब्दों में तूफान की गति है। संस्कृतनिष्ठ शुद्ध खड़ी बोली में उन्होंने अपनी रचनाएँ लिखी हैं, मुहावरे एवं लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया है। सच्ची संवेदना उनके शब्दों में प्रकट हुई है। उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रचुर प्रयोग किया गया है। प्रतीकात्मक, चित्रात्मक एवं प्रवाहमयी शैली का प्रयोग भी किया गया है।
लोहे के पेड़ हरे होंगे
लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।
सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों का हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा।
आशा के स्वर का भार, पवन को लेकिन लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।
रंगों के सातों घट उड़ेल, यह अँधियाली रंग जाएगी,
उषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल।
आदर्शों से आदर्श भिड़ें, प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही।
आवर्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है।
विज्ञान-यान पर चढ़ी हुई सभ्यता डूबने जाती है।
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह हददय, तू यह संवाद सुनाता चल।
सूरज है जग का बुझा-बुझा, चंद्रमा मलिन-सा लगता है,
सबकी कोशिश बेकार हुई, आलोक न इनका जगता है,
इन मालिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे।
जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इसको ताज़ा कर दे।
दीपक के जलते प्राण, दीवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल।
क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में,
फूलों को हैं जो गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों में,
मानवता का तू विप्र, गंध छाया का आद् पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद् मिले,
दर्पण में रचकर फूल, मगर उसका भी मोल चुकाता चल।