In this post, we have given Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary – Yathasamay Rochte Vishvam Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 12 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 12 Hindi subject.
यथास्मै रोचते विश्वम् Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary
यथास्मै रोचते विश्वम् – रामविलास शर्मा – कवि परिचय
प्रश्न :
रामविलास शर्मा के जीवन का संक्षिप्त परिचय वेते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का नाम तथा भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
जीवन परिचय-रामविलास शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के ऊँचगाँव-सानी गाँव में सन् 1912 में हुआ था। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम॰ए० तथा पी-एच॰डी० की उपाधि प्राप्ति की। पी-एच०डी० करने के उपरांत उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में ही कुछ समय तक अंग्रेज़ी विभाग में अध्यापन कार्य किया। सन् 1943 से 1971 तक वे आगरा के बलवंत राजपूत कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक रहे। सन् 1971 के बाद कुछ समय तक वे आगरा के ही के०एम० मुंशी विद्यापीठ के निदेशक रहे। जीवन के आखिरी वर्षों में वे दिल्ली में रहकर साहित्य, समाज और इतिहास से संबंधित चितन और लेखन करते रहे और यहीं उनका देहावसान सन् 2000 में हुआ।
रचनाएँ – रामविलास शर्मा की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं-भारतेंदु और उनका युग, महावीरप्रसाद द्विबेदी और हिंदी नवजागरण, प्रेमचंद और उनका युग, निराला की साहित्य-साधना (तीन खंड), भारत के प्राचीन भाषा-परिवार और हिंदी (तीन खंड), भाषा और समाज, भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद, इतिहास दर्शन, भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश आदि।
उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। ‘निराला की साहित्य साधना ‘पुस्तक पर उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था। अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों में ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’, उत्तर प्रदेश सरकार का ‘भारत-भारती पुरस्कार’, ‘व्यास सम्मान’ और हिंदी अकादमी दिल्ली का ‘शलाका सम्मान’ उल्लेखनीय हैं। पुरस्कारों के प्रसंग में शर्मा जी के आचरण की एक बात महत्वपूर्ण है कि वे पुरस्कारों के माध्यम से प्राप्त होने वाले सम्मान को तो स्वीकार करते थे, लेकिन पुरस्कार की राशि को लोकहित में व्यय करने के लिए लौटा देते थे। उनकी इच्छा थी कि यह राशि जनता को शिक्षित करने के लिए खर्च की जाए।
भाषा-शिल्प – रामविलास शर्मा आलोचक, भाषाशास्त्री, समाजचितक और इतिहासवेत्ता रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने कवि और आलोचक के रूप में पदार्पण किया। उनकी कुछ कविताएँ अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ में संकलित हैं। हिंदी की प्रगतिशील आलोचना को सुव्यवस्थित करने और उसे नई दिशा देने का महत्वपूर्ण काम उन्होंने किया। उनके साहित्य-चितन के केंद्र में भारतीय समाज का जन-जीवन, उसकी समस्याएँ और उसकी आकांक्षाएँ रही हैं।
उन्होंने बाल्मीकि, कालिदास और भवभूति के काव्य का नया मूल्यांकन और तुलसीदास के महत्व का विवेचन भी किया है। रामविलास शर्मा ने आधुनिक हिंदी साहित्य का विवेचन और मूल्यांकन करते हुए हिंदी की प्रगतिशील आलोचना का मार्गदर्शन किया। अपने जीवन के आखिरी दिनों में वे भारतीय समाज, संस्कृति और इतिहास की समस्याओं पर गंभीर चितन और लेखन करते हुए वर्तमान भारतीय समाज की समस्याओं को समझने के लिए, अतीत की विवेक-यात्रा करते रहे। महत्वपूर्ण विचारक और आलोचक के साथ-साथ रामविलास जी एक सफल निबंधकार भी हैं।
उनके अधिकांश निबंध ‘विराम चिह्न’ नाम की पुस्तक में संग्रहीत हैं। उन्होंने विच्च-प्रधान और व्यक्ति-व्यंजक निबंधों की रचना की है। प्राय: उनके निबंधों में विचार और भाषा के स्तर पर एक रचनाकार की जीवंतता और सहुदयता मिलती है। स्पष्ट कथन, विचार की गंभीरता और भाषा की सहजता उनकी निबंध-शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
लेखक ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। भाषा प्रवाहपूर्ण व सशक्त है। उसमें विचार व भावना का अद्भुत समन्वय है। उनका झुकाव तत्सम शब्दों की तरफ अधिक है; जैसे- ‘वह समाज के द्रष्टा और नियामक के मानव-विहग से क्षुब्ध और रुद्धस्वर को वाणी देता है।’
उनके निबंधों में उर्दू तथा अरबी-फ़ारसी शब्दों का भी इस्तेमाल किया गया है; जैसे-दर्ज़ा, नवीस, मज़्रबूत आदि। लेखक की वाक्य-रचना विस्तृत रूप धारण कर लेती है। भावना के कारण वाक्यों का विस्तार बढ़ता जाता है; जैसे-‘धिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मज़बूत कर रहे हैं, जो भारतभूमि में जन्म लेकर और साहित्यकार होने का दंभ करके मानव-मुक्ति के गीत गाकर भारतीय जन को पराधीनता व पराभव का पाठ पढ़ाते हैं।
मुहावरों के प्रयोग से अर्थ-गांभीर्य की सृष्टि हुई है; जैसे-पंख फड़फड़ाना, सींकचे तोड़ना, वाणी देना, पंख कतरना आदि। उदाहरणों व विशेषणों का खुलकर प्रयोग किया गया है। सूक्तिपरक वाक्यों का प्रयोग हुआ है; जैसे-‘मानव-संबंधों से परे साहित्य नहीं है।’ प्रतीकात्मक शैली का भी इस्तेमाल तथा तार्किकता द्रष्टव्य है।
Yathasamay Rochte Vishvam Class 12 Hindi Summary
‘यथास्मे रोचते विश्वम्’ नामक निबंध उनके निबंध-संग्रह ‘विराम चिहून’ से लिया गया है। इसमें उन्होंने कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए, उसे उसके कर्म के प्रति सचेत किया है। लेखक के अनुसार साहित्य जहाँ एक ओर मनुष्य को मानसिक विश्रांति प्रदान करता है, वहीं उसे उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा भी देता है। सामाजिक प्रतिबद्धता साहित्य की कसौटी है। पंद्रहवी शताब्दी से आज तक के साहित्य के अध्ययन-मूल्यांकन के लिए रामविलास जी ने इसी जनवादी साहित्य-चेतना को मान्यता दी है।
इस निबंध में लेखक ने कवि व साहित्यकार को प्रजापति का दर्जा दिया है। कवि की तुलना प्रजापति से की गई है। कवि अपनी रूचि के अनुसार संसार को बदलता है। साहित्य समाज का दर्पण मात्र नहीं है। कवि प्रजापति की बनाई सृष्टि से असंतुष्ट होकर नया निर्माण करता है। यूनानी विद्ववान कला को जीवन की नकल मानते हैं, परंतु अरस्तू कला को नकल नहीं मानते। वे उसे मनुष्य का उदात्त स्वरूप प्रकट करने वाली बताते हैं। वाल्मीक ने भी दुर्लभ गुणों को राम के व्यक्तित्व में दिखाकर नई सृष्टि की थी।
कवि की सृष्टि निराधार नहीं होती। वह चारों तरफ फैले यथार्थ जीवन से चित्र बनाता है। वह चमकीले रंगों के साथ-साथ चित्र के पार्श्वभाग में काली छायाएँ भी यथार्थ जीवन से लेता है। राम के साथ रावण का दुष्चरित्र दिखाकर ही राम के गुणों को प्रकाशित किया जा सकता है। विश्व को परिवर्तित करते समय वह अपनी रुचि व असंतोष का कारण भी बताता है। प्रजापति कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, जिसके पाँव जमीन पर तथा ऑँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी होती हैं। वह साहित्य में मनुष्य के सुख-दुख के साथ आशा का स्वर भी सुनाता है।
साहित्य मानव-संबंधों पर आधारित है। कवि के असंतोष का आधार मानव-संबंध है। मानव-संबंधों से परे साहित्य नहीं है। जब समाज के बहुसंख्यक लोगों का जीवन मानव-संबंधों के पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने लगता है, तब कवि का प्रजापति रूप और स्पष्ट हो जाता है। पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी में हिंदी साहित्य ने मानव-जीवन को जाति व धर्म के सींकचों से बाहर निकालने का प्रयास किया था। नानक, सूर, तुलसी, कबीर, चंडीदास आदि गायकों ने मानव-संबंधों के पिंजड़ों को झकझोरा था। बीसवीं सदी में रवींद्रनाथ, भारतेंदु, वीरेश लिगम, वल्लतोल आद् ने अंग्रेज़ी राज में स्वाधीनता के गीत गाए थे। साहित्य का पांचजन्य समर भूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता।
वह मनुष्य को भागय के आसरे बैठने और पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा नहीं देता। वह कायरों और पराभव प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी समरभूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है। भरतमुनि से लेकर भारतेंदु तक चली आती हुई, हमारे साहित्य की यह गौरवशाली परंपरा है। आज भी मानव-संबंधों के पिंजड़े में भारतीय जीवन-विहग बंदी है। भारतीय जनमानस मुक्त गगन में उड़ान भरने के लिए व्याकुल है। कवि उन लोगों को धिक्कारता है जो बंधनों को तोड़ने की बजाय मजबूत कर रहे हैं। वे अतीत की ओर बढ़ते हैं। ये स्रष्टा नहीं हैं। कवि प्रजापति की भूमिका भूलकर दर्पण दिखाने वाला रह जाता है। वह केवल नकलची बन जाता है। उसे पुरोहित बनकर परिवर्तन करने वाली जनता का अगुआ बनना चाहिए।
शब्दार्थ और टिय्पणी :
- रोचते – रूचिकर लगता है (pleasing)।
- प्रजापति – ब्रहमा जी (th creator of world, Brahmaji)।
- परिवर्तते – बदलता है (changes)।
- यथार्थ – जैसा भी है (real)।
- दर्जा – श्रेणी, पद (status)।
- नकल – नवीस – नकल करने वाला (copy maker of any document)।
- खंडन – गलत ठहराना (negation)।
- सृष्टि – रचना (creation)।
- निराधार – बिना आधार के (baseless)।
- पाशर्व – पीछे (backside)।
- बीर्यवान – तेजयुक्त (brave)।
- प्रियदर्शन – जो देखने में सुंदर लगे (good looking, handsome)।
- विश्रांति – शांति, आराम (rest)।
- सींकचे – सलाखें, कैद (bars)।
- आतुर – उतावली, बेचेन (agitated)।
- द्रष्टा – दिखाने, देखने वाला (a looker on)।
- नियामक – नियम बनाने वाला (a rule maker)।
- परों – पंखों (wings)।
- अजेय – जो जीता न जा सके (unconquerable)।
- सामंती – जमींदारी (feudal)।
- जीर्ण – कमज़ोर, टूटे – फूटे (broken – down)।
- बटोरा – एकत्र किया (collected)।
- मनोबृत्ति – मन की स्वाभाविक स्थिति (tendency)।
- पांचजन्य – श्रीकृष्ण के शंख का नाम (name of a conch shell belonging to Shri Krishna)।
- आसरे – सहारे (assistance)।
- कतर देना – काट देना (to cut)।
- पराभव – हार, पराजय (defeat)।
- विहग – पक्षी (birds)।
- संगठित – एकजुट होकर (united)।
- दंभ – घमंड (proud)।
- स्रेष्टा – नई रचना करने वाले (progenitor)।
- विकृतियाँ – दोष, बुराइयाँ (a deformed appearance)।
- युगांतकारी – युग का अंत करने वाली (revolutionary epoch – making)।
- निखरना – खिलना (to blossom)।
- उन्नत – ऊँचा (high)।
यथास्मै रोचते विश्वम् सप्रसंग व्याख्या
1. यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती। कवि का काम यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना ही होता तो वह प्रजापति का दर्जा न पाता। वास्तव में प्रजापति ने जो समाज बनाया है, उससे असंतुष्ट होकर नया समाज बनाना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है।
विशेष :
- मानव-संबंधों की विसंगतियाँ ही साहित्य की प्रेरक हैं। यह भाव प्रकट हुआ है।
- कवि विधाता को काव्य-विषय बनाते हुए उसको मानवीय रूप प्रदान करता है।
- शैली विचारात्मक है।
- तत्सम शब्दावलीयुक्त भाषा में प्रवाहमयता है।
4. पंद्रहवी – सोलहवीं सदी में हिंदी-साहित्य ने यही भूमिका पूरी की थी। सामती पिंजड़े में बंद मानव-जीवन की मुक्ति के लिए उसने वर्ण और धर्म के सींकचों पर प्रहार किए थे। कश्मीरी ललद्यद्, पंजाबी नानक, हिंदी सूर-तुलसी-मीरा-कबीर, बंगाली चंडीदास, तमिल तिरुवल्लुवर आदि-आदि गायकों ने आगे-पीछे समूचे भारत में उस जीर्ण मानव-संबंधों के पिंजड़े को झकझोर दिया था। इन गायकों की वाणी ने पीड़ित जनता के मर्म को स्पर्श कर उसे नए जीवन के लिए बटोरा, उसे आशा दी, उसे संगठित किया और जहाँ-तहाँ जीवन को बदलने के लिए संघर्ष के लिए आमांत्रित भी किया।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंध ‘यथास्म रोचते विश्वम्’ से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध आलोचक, कवि रामविलास शर्मा हैं। यह निबंध ‘विराम चिहन’ नामक निबंध-संग्रह से लिया गया है। इस निबंध में कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए. उसे उसके कर्म के प्रति सचेत करते हुए कहा है कि सामाजिक प्रतिबद्धता साहित्य की कसौटी है।
इस अंश में लेखक ने भारतीय साहित्य की समाज हितकारी भूमिका को बताया है।
व्याखया – लेखक कहता है कि साहित्य समाज को बदलने की क्षमता रखता है। पंद्रहवीं तथा सोलहवीं सदी में हिंदी साहित्य ने यही भूमिका अदा की थी। उस समय सामंती-व्यवस्था थी। इसमें आदमी का जीवन गुलामों जैसा हो गया। हिंदी साहित्य ने आदमी की मुक्ति के लिए धर्म तथा जाति-प्रथा के जितने बंधन थे, उन पर प्रहार किए तथा समाज को नई राह दिखाई। कश्मीरी भाषा में ललदूयदू, पंजाबी में नानक, हिंदी में सूरदास, तुलसीदास, मीरा, कबीर, बंगाली में चंडीदास, तमिल में तिरुवल्लुवर आदि गायकों ने सारे देश में भ्रमण किया तथा यहाँ के जीर्ण मानव-संबंधों के बंधनों को तोड़ा। इन गायकों ने गीतों से पीड़त जनता कों संघर्ष के लिए तैयार किया। उनमें नए जीवन का संचार किया। उसे जीने के नए रास्ते दिखाए। इन गायकों ने जनता को संगठित किया तथा संघर्ष के लिए आयंत्रित भी किया।
विशेष :
- हिंदी साहित्य की प्रभावी भूमिका को बताया गया है, जिसने समय-समय पर समाज को चैतन्य बनाने का कार्य किया।
- भाषा प्रवाहमयी है।
- संस्कृतनिष्ठ शब्दावली है।
- खड़ी बोली में प्रभावपूर्ण भावाभिव्यक्ति है।
5. साहित्य का पांचजन्य समरभूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता। वह मनुष्य को भाग्य के आसरे बैठने और पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा नहीं देता। इस तरह की प्रेरणा देने वालों के वह पंख कतर देता है। वह कायरों और पराभव प्रमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी समरभूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंध ‘यथासमे रोचते विश्वम्’ से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध आलोचक, कवि रामविलास शर्मा है। यह निबंध ‘विराम चिहूं नामक निबंध-संग्रह से लिया गया है। इस निबंध में कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए, उसे उसके कर्म के प्रति सचेत करते हुए कहा है कि सामाजिक प्रतिबद्धता साहित्य की कसौटी है।
व्याख्या – साहित्य समाज को बदलने की क्षमता रखता है। यह सदा से मनुष्य के लिए प्रेरणा-स्रोत रहा है। लेखक साहित्य की तुलना श्रीकृष्ण के शैल्य पांचजन्य से करते हुए कहता है कि जैसे पांचजन्य ने पांडवों को युद्ध के लिए प्रेरित किया था. वैसे ही साहित्य मनुष्य को प्रेरित एवं उत्साहित करता है। साहित्यकार अपने लेखन से लोगों का आलस्य, उदासीनता एवं निराशा दूर करता है। वह लोगों को संघर्ष करने तथा जूझने की प्रेरणा देता है। वह लोगों को भागयवादी नहीं बनाता है। वह व्यक्ति को असहाय बनकर छटपटाने के लिए नहीं कहता है। वह ऐसी दुष्प्रेरणा देने वालों की निंदा करता है, ताकि वे जीवन की समरभूमि में उतरकर विजय का वरण कर सकें।
विशेष :
- गद्यांश में साहित्य को जीवन-संग्राम के लिए प्रेरणादायी बताया गया है।
- भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त है।
- मुहावरों के प्रयोग से भाषा की सरसता बढ़ गई है।
- खड़ी बोली में प्रभावपूर्ण भावाभिव्यक्ति है।
6. अभी भी मानव-संबंधों के पिंजड़े में भारतीय जीवन विहग बंदी है। मुक्त गगन में उड़ान भरने के लिए वह व्याकुल है। लेकिन आज भारतीय जनजीवन संगठित प्रहार करके एक के बाद एक पिजड़े की तीलियाँ तोड़ रहा है। धिवकार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मज़बूत कर रहे हैं, जो भारतभूमि में जन्म लेकर और साहित्यकार होने का दभ करके मानव मुक्ति के गीत गाकर भारतीय जन को पराधीनता और पराभव का पाठ पढ़ाते हैं।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध आलोचक, कवि रामविलास शर्मा हैं। यह निबंध ‘विराम चिहून’ नामक निबंध-संग्रह से लिया गया है। इस निबंध में कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए, उसे कर्म के प्रति सचेत करते हुए कहा गया है कि सामाजिक प्रतिबद्धता साहित्य की कसौटी है।
इस अंश में लेखक ने भारतीय जनमानस की मुक्ति की आकुलता का वर्णन किया है। साथ-साथ उन साहित्यकारों को धिक्कारा है जो मानव मुक्ति के गीत गाते हैं, परंतु व्यवहार में पराधीनता के पक्षधर हैं।
व्याख्या – लेखक का कथन है कि आज भी भारतीय जीव रूपी पक्षी मानव-संबंधों के पिंजड़े में बंदी है। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय जीवन अभी भी रूढ़ियों, परंपराओं, जाति-पाँति के भेदभावों से ऊपर नहीं उठा है। भारतीय जनमानस मुक्त आकाश में उड़ान भरने के लिए व्याकुल है अर्थात् वह इन बंधनों को तोड़ना चाहता है। आज भारतीय जनजीवन एकजुट होकर प्रहार करके एक के बाद एक पिजड़े की तीलियाँ तोड़ रहा है।
दूसरे शब्दों में, भारतीय मानस संगठित होकर एक-एक बंधन से मुक्ति प्राप्त कर रहा है। लेखक उन साहित्यकारों की भर्त्सना करता है जो भारत में जन्मे हैं और साहित्यकार होने का दावा करते हैं। वे अपने साहित्य में मानव मुक्ति के गीत गाते हैं, किंतु व्यवहार में भारतीयों को पराधीनता और पतन का पाठ पढ़ाते हैं। वे देश का भला नहीं चाह सकते।
विशेष :
- लेखक प्रगतिवादी विचारधारा का पोषक है।
- कुछ साहित्यकारों की दोहरी मानसिकता पर व्यंग्य करने का भाव प्रकट हुआ है।
- तत्सम शब्दावली का सुंदर प्रयोग है।
- भाषा प्रवाहमयी व सहज है।
- प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग है।