In this post, we have given Class 12 Hindi Antra Chapter 12 Summary – Premghan Ki Chhaya Smriti Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 12 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 12 Hindi subject.
प्रेमघन की छाया-स्मृति Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 12 Summary
प्रेमघन की छाया-स्मृति – रामचंद्र शुक्ल – कवि परिचय
प्रश्न :
रामचंत्र शुक्ल के जीवन एवं साहित्य का परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम एवं भाषा शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
जीवन परिचय – रामचंद्र शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगोना गाँव में सन् 1884 में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, अंग्रेज़ी और फ़ारसी में हुई थी। उनकी विधिवत शिक्षा इंटरमीडिएट तक ही हो पाई। बाद में उन्होंने स्वाध्याय द्वारा संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदी के प्राचीन तथा नवीन साहित्य का गंभीरता से अध्ययन किया। कुछ समय तक वे मिर्ज़ापुर के मिशन हाई स्कूल में चित्रकला के अध्यापक रहे। सन् 1905 में वे काशी नागरी प्रचारिणी सभा में ‘हिंदी शब्द सागर’ के निर्माण कार्य में सहायक संपादक के पद पर नियुक्त होकर काशी आ गए और बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक बने। बाबू श्यामसुंदर दास के अवकाश ग्रहण के बाद वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्य करते रहे और इसी पद पर कार्य करते हुए, यहीं उनका निधन हुआ। काशी ही उनकी कर्मस्थली रही। उनका देहावसान सन् 1941 में हुआ।
रचनाएँ – आचार्य शुक्ल की कीर्ति का अक्षय स्रोत उनके द्वारा लिखित ‘ हिंदी साहित्य का इतिहास’ है। इसे उन्होंने पहले ‘हिंदी शब्द सागर’ की भूमिका के रूप में लिखा था जो बाद में परिष्कृत और संशोधित रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। उनके कुछ अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं-गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, चिंतामणि (चार खंड), रस मीमांसा आदि। इसके अलावा उन्होंने जायसी ग्रंथावली एवं भ्रमरगीत सार का संपादन किया तथा उनकी लंबी भूमिका लिखी।
भाषा-शिल्प – शुक्ल जी की गद्य-शैली विवेचनात्मक है, जिसमें विचारशीलता, सूक्ष्म तर्क-योजना तथा सहृदयता का योग है। व्यंग्य और विनोद का प्रयोग करते हुए, वे अपनी गद्य-शैली को जीवंत और प्रभावशाली बनाते हैं। उनके लेखन में विचारों की दृढ़ता, निर्भीकता और आत्मविश्वास की एकता मिलती है। उनका शब्द-चयन और शब्द-संयोजन व्यापक है, जिसमें तत्सम शब्दों से लेकर प्रचलित उर्दू शब्दों तक का प्रयोग दिखाई देता है। सारग्भित, विचार-प्रधान, सूत्रात्मक बाक्य-रचना उनकी गद्य-शैली की एक बड़ी विशेषता है। ये हिंदी साहित्य में अपना अनूठा स्थान रखते हैं।
Premghan Ki Chhaya Smriti Class 12 Hindi Summary
शुक्ल जी ने हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति अपने प्रारंभिक रुझानों का बड़ा रोचक वर्णन किया है। उनका बचपन साहित्यिक परिवेश से भरा-पूरा था। बाल्यावस्था में ही किस प्रकार भारतेंदु एवं उनके मंडली के अन्य रचनाकारों विशेषत: प्रेमघन के सानिध्य में शुक्ल जी के भीतर छिपा साहित्यकार आकार ग्रहण करता है, उसकी अत्यंत मनोहारी झाँकी यहाँ प्रस्तुत हुई है। प्रेमघन के व्यक्तित्व ने शुक्ल जी की समवयस्क मंडली को किस तरह प्रभावित किया, हिंदी के प्रति किस प्रकार आकर्षित किया तथा किसी रचनाकार के व्यक्तित्व निर्माण आदि संबंधी पहलुओं का चित्रण इस निबंध में किया गया है।
लेखक बताता है कि उनके पिता जी फ़ारसी के अच्छे ज्ञाता तथा पुरानी हिंदी कविता के प्रेमी थे। वे रात को सभी घरवालों को रामचरितमानस तथा रामचंद्रिका को आकर्षक ढंग से पढ़कर सुनाते थे। उन्हें भारतेंदु के नाटक भी अत्यंत प्रिय थे। लेखक के मन पर भारतेंदु की छवि सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के रूप में स्थापित थी।
लेखक के पिता का तबादला मिर्जापुर हो गया। उनके मन में उपाध्याय जी से मिलने की तीव्र इच्छा थी। उन्होंने हमउम्र बालकों की एक मंडली बनाई तथा उनसे मिलने के लिए निकल पड़े। मील-डेढ़ मील का सफ़र तय करने के बाद वे पत्थर के एक बड़े मकान के सामने खड़े हो गए। नीचे का बरामदा खाली था तथा ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत था। सड़क के कई चक्कर लगाए। अंत में उपाध्याय जी लता-प्रतान के बीच खड़े दिखाई दिए। उनके कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। शीघ्र ही वे आँखों से ओझल हो गए।
लेखक जैसे-जैसे बड़ा होता गया, वैसे-वैसे उसका झुकाव हिंदी के नए साहित्य की ओर बढ़ता गया। जब वे क्वींस कॉलेज में पढ़ते थे, उस समय रामकृष्ण वर्मा पिता जी के सहपाठियों में से एक थे। उनके यहाँ से ‘भारत जीवन’ प्रेस की पुस्तकें आती थीं। उनके पिता जी उन्हें छिपाकर रखते थे, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं लड़के का ध्यान स्कूल की पढ़ाई से न हट जाए। उन्ही दिनों केदारनाथ जी पाठक ने हिंदी पुस्तकालय खोला। लेखक वहीं से पुस्तकें लाकर पढ़ने लगा। केदारनाथ जी लेखक की इस आदत से बहुत प्रभावित हुए।
सोलह वर्ष की आयु तक लेखक की हमउम्र हिंदी प्रेमियों की मंडली बन गई। उनमें श्रीयुत् काशीप्रसाद जी जायसवाल, भगवानदास जी हालना, पं० बदरीनाथ गौड़, पं० उमाशंकर द्विवेदी मुख्य थे। वे सभी हिंदी में चर्चा करते थे। उनका चौधरी साहब से अच्छा परिचय हो गया। लेखक उनके यहाँ लेखक की हैसियत से जाता था। चौधरी साहब एक हिंदुस्तानी रईस थे। हर त्योहार पर उनके यहाँ खूब नाचरंग तथा उत्सव होते रहते थे। उनकी हर अदा से रियासत तथा तबीयतदारी टपकती थी। वे लोगों को प्राय: बनाया करते थे। उनका व्यक्तित्व विलक्षण तथा बातचीत का ढंग एकदम निराला था।
उपाध्याय जी नागरी को भाषा मानते थे। उनका मानना था कि नागर अपश्रंश से जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई, वही नागरी कहलाई। वे मिर्ज़ापुर न लिखकर मीरजापुर लिखा करते थे। वे मीरजापुर का अर्थ लक्ष्मीपुर बताते थे।
शब्दार्थ और टिप्पणी –
- पृष्ठ 73 – ज्ञाता – जानकार (learned)।
- उक्तियाँ – कहावतें (idioms)।
- चित्ताकर्षक – मन को आकर्षित करने वाला (Attractive)।
- अपूर्व – अनूठी (extraordinary)।
- स्मृति – याद (memory)।
- उत्कंठा – लालसा, बेसब्री (curiosity)।
- अगुआ हुए – आगे-आगे चलने लगे (a leader)।
- पृष्ठ 74 – आवृत – ढँका हुआ (covered)।
- लता-प्रतान – लताओं का फैलाव (bunch of creeping plants)।
- ओझल – अदृश्य, गायब (out of sight)।
- नूतन – नया (modern)।
- चित्त – मान (intellect)।
- चाह – इच्छा (desire)।
- कुतूहल – आश्चर्य और जिज्ञासा का मिला-जुला भाव (curiosity)।
- पृष्ठ 75 – परिणत हो गया-बदल गया (changed)।
- समवयस्क – बराबर उम्र वाले (of the same age)।
- मुख्तार – छोटे वकील, एजेंट (agent)।
- अमला – कर्मचारीगण (a group of employees)।
- चट – तुरंत(quickly)।
- वाकिफ़ – जानना (to know)।
- हैसियत – सामर्थ्य (ability)।
- रईस – संपन्न, धनी (rich)।
- अदा – क्रियाकलाप (performance)।
- विलक्षण – अनुपम, असाधारण (strange)।
- वक्रता – टेढ़ापन (curved)।
- पृष्ठ 76 – बनाया करते थे – व्यंग्यात्मक भाषा बोला करते थे (used to repartee)।
- परिपाटी – रीति, तरीका (tradition)।
- टेकि – सहाय लेकर (taking support)।
- नारि मुगलाने की – मुगलों की स्त्रियों जैसी (same as mughal ladies)।
- लफ़्त़ – शब्द (word)।
- विनोदपूर्ण – हँसी-मज़ाक युक्त (entertaining)।
- उत्पत्ति – पैदाइश (origin)।
- वृत्तांत – कहानी, गाथा (discription)।
- आवह – आना (coming)।
- अपश्रंश – प्राकृत भाषाओं का परवर्ती रूप, जिनसे उत्तर भारतीय आर्य भाषाएँ जन्मीं (corrupted form of a word or language)।
- शिष्ट – सभ्य, पढ़े-लिखे (well-mannered)।
प्रेमघन की छाया-स्मृति सप्रसंग व्याख्या
1. मेरे पिता जी फ़ारसी के अच्छे ज्ञाता और पुरानी हिंदी कविता के बड़े प्रेमी थे। फ़ारसी कवियों की उक्तियों को हिंदी कवियों की उक्तियों के साथ मिलाने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। वे रात को प्रायः रामचरितमानस और रामचंद्रिका, घर के सब लोगों को एकत्र करके बड़े चित्ताकर्षक ढंग से पढ़ा करते थे। आधुनिक हिंदी-साहित्य में भारतेंदु जी के नाटक उन्हें बहुत प्रिय थे। उन्हें भी वे कभी-कभी सुनाया करते थे। जब उनकी बदली हमीरपुर जिले की राठ तहसील से मिर्जापुर हुई, तब मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी। उसके पहले ही से भारतेंदु के संबंध में एक अपूर्व मधुर भावना मेरे मन में जगी रहती थी। ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक के नायक राजा हरिश्चंद्र और कवि हरिश्चंद्र में मेरी बाल-बुद्धि कोई भेंद नहीं कर पाती थी।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं। इस पाठ में लेखक ने अपनी प्रारंभिक प्रेरणाओं का वर्णन किया है। इस अंश में लेखक ने अपने पिता जी की साहित्यिक प्रकृति को और साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रति अपनी श्रद्धा और आस्था को व्यक्त किया है।
व्याख्या – लेखक अपना बचपन याद करते हुए कहता है कि उसके पिता जी को फ़ारसी का अच्छा ज्ञान था। वे पुरानी हिंदी कविता के बड़े प्रेमी थे। उन्होंने फ़ारसी कवियों की उक्तियों को हिंदी कवियों की उक्तियों से मिलाने का काम किया था। इस कार्य में उन्हें बड़ा आनंद आता था। लेखक के पिता रात के समय घर के सभी लोगों को इकट्ठा कर लेते थे तथा आमतौर पर रामचरितमानस और रामचंद्रिका को आकर्षक ढंग से पढ़कर सुनाया करते थे। उन्हें भारतेंदु के नाटक भी अच्छे लगते थे। भारतेंदु आधुनिक हिंदी साहित्य के महान लेखक थे। वे कभी-कभी उनके नाटकों को सुनाया करते थे।
लेखक बताता है कि उनके पिता की बदली हमीरपुर जिले की राठ तहसील से मिर्जापुर हो गई । उस समय लेखक आठ वर्ष का था। मिर्जापुर आने से पहले ही लेखक के मन में भारतेंदु के प्रति एक अपूर्व मधुर भावना जाग गई थी। लेखक छोटा था। वह ‘सत्य हरिश्चंंद्र’ नाटक के नायक राजा हरिश्चंद्र तथा कवि हरिश्चंद्र में भेद नहीं कर पाता था। उसके लिए वे दोनों एक ही थे, क्योंकि तब लेखक बालक था।
विशेष :
- लेखक ने अपने पिता की साहित्यिक रुचि को रोचक ढंग से बताया है तथा प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है।
- लेखक की बाल स्मृतियों का वर्णन है।
- भाषा सहज व सरल है।
- साहित्यिक खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- तत्सम शब्दावली होने पर भी बोधगम्य है।
2. ज्यों-ज्यों मैं सयाना होता गया, त्यों-त्यों हिंदी के नूतन साहित्य की ओर मेरा झुकाव बढ़ता गया। क्वींस कॉलेज में पढ़ते समय स्वर्गीय बाबू रामकृष्ण वर्मा मेरे पिता जी के सहपाठियों में थे। भारत जीवन प्रेस की पुस्तकें प्रायः मेरे यहाँ आया करती थीं, पर अब पिता जी उन पुस्तकों को छिपाकर रखने लगे। उन्हें डर हुआ कि कहीं मेरा चित्त स्कूल की पढ़ाई से हट न जाए, मैं बिगड़ न जाऊँ। उन्हीं दिनों पं० केदारनाथ जी पाठक ने एक हिंदी पुस्तकालय खोला था। मैं वहाँ से पुस्तकें ला-लाकर पढ़ा करता।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं। इन पंक्तियों में लेखक ने अपने घर के शैक्षिक वातावरण और साहित्य की ओर अपने बढ़ते रुझान को व्यक्त किया है।
व्याख्या – लेखक बताता है कि जैसे-जैसे वह समझदार होता गया, वैसे-वैसे हिंदी के नए साहित्य की तरफ उसका झुकाव बढ़ता गया। वह क्वींस कॉलेज में पढ़ता था। उस समय बाबू रामकृष्ण वर्मा उनके पिता जी के सहपाठियों में से एक थे। लेखक के घर में भारत जीवन प्रेस की पुस्तकें प्राय: आया करती थीं। उनके पिता जी उन पुस्तकों को छिपाकर रखते थे। लेखक के पुस्तक-प्रेम को देखकर उन्हें यह डर था कि उसका मन स्कूल की पढ़ाई को छोड़कर दूसरी पुस्तकों में न लग जाए। वह अपने पथ से भटक न जाए। उन्हीं दिनों पं० केदारनाथ जी पाठक ने एक हिंदी पुस्तकालय खोला था। लेखक वहाँ से पुस्तकें लाता था तथा उनका अध्ययन करता था।
विशेष :
- लेखक ने आरंभिक जीवन में बढ़ती साहित्यक अभिरुचि का उल्लेख किया है।
- भाषा सहज व स्वाभाविक है।
- साहित्यिक खड़ी बोली है।
- तत्सम शब्दों की बहुलता है।
- ‘चित्त हटना’, ‘बिगड़ जाना’ आदि मुहावरों का सार्थक प्रयोग है।
3. मैं भी अब अपने को एक लेखक मानने लगा था। हम लोगों की बातचीत प्राय: लिखने पढ़ने की हिंदी में हुआ करती, जिसमें ‘निस्संदेह’ इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर में रहता था, वहाँ अधिकतर वकील, मुखारों तथा कचहरी के अफ़सरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों के उर्दू कानों में हम लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने हम लोगों का नाम ‘निस्संदेह’ लोग रख छोड़ा था।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं। इन पंक्तियों में लेख्रक ने अपनी साहित्यिक अभिरुचि तथा उसके संबंध में समाज की प्रतिक्रिया के बारे में बताया है।
व्याख्या – लेखक अपनी उत्तरोत्तर बढ़ती साहित्यिक अभिरुचि के बारे में बताता है कि वह सोलह वर्ष की उम्र तक स्वयं को लेखक मानने लगा था। उसके साथ साहित्य में रुचि रखने वालों की एक मंडली बन गई थी। वे सभी बातचीत, लिखाई-पढ़ाई आदि सभी कार्य हिंदी में ही किया करते थे। इनके हर काम में ‘निस्संदेह’ शब्द का प्रयोग अधिक होता था। लेखक जिस स्थान पर रहता था, वहाँ अधिकतर लोग वकील, कोर्ट के अफसर तथा कर्मचारी आदि थे। ये लोग उर्दू का अधिक प्रयोग करते थे। इन लोगों को लेखक की मंडली के द्वारा शुद्ध हिंदी का प्रयोग अनोखा लगता था। इसलिए इन्होंने लेखक मंडली का नाम ही ‘निस्संदेह’ रख दिया था।
विशेष :
- तत्कालीन समाज में हिंदी का शुद्ध रूप कम ही प्रचलित था। उर्दू लोगों की आम भाषा थी।
- लेखक की बढ़ती साहित्यिक रुचि का परिचय मिलता है।
- उर्दू मिश्रित शब्दावली युक्त सरल, सहज भाषा है।
- वर्णनात्मक शैली में सफल भावाभिव्यक्ति है।
- खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
4. चौधरी साहब एक खासे हिंदुस्तानी रईस थे। वसंत पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ खुब नाचरंग और उत्सव हुआ करते थे। उनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। कंधों तक बाल लटक रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिए पीछे-पीछे लगा हुआ है। बात की काँट-छाँट का क्या कहना है। जो बातें उनके मुँह से निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से एकदम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका संवाद सुनने लायक होता था।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंध ‘प्रेमधन की छाया-स्मृति’ से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं। इस अंश में बदरीनारायण चौधरी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है।
व्यखख्या – लेखक बताता है कि बदरीनारायण चौधरी हिंदुस्तानी रईस थे। उनमें विशिष्टता थी। वसंत पंचमी हो या होली हो, इन सभी अवसरों पर उनके यहाँ खूब नाच-गाना होता था। यहाँ समारोह मनाया जाता था। चौधरी साहब की हर अदा में रियासती गुण दिखाई देते थे। उनके बाल कंधों तक लटकते रहते थे। वे इधर-से-उधर टहलते हैं। उनके पीछे-पीछे एक छोटा लड़का पान की तश्तरी लिए लगा रहता था। उनकी बातचीत का ढंग निराला था। उनके मुँह से जो बात निकलती थी, उसका कोई जवाब नहीं था। बातों को अद्भुत ढंग से मोड़ा जाता था। वे जैसी भाषा लेखों में इस्तेमाल करते थे, बातचीत में बिलकुल अलग भाषा होती थी। नौकरों के साथ वे जैसे संवादों का प्रयोग करते थे, वे सुनने लायक होते थे।
विशेष :
- लेखक ने चौधरी जी की जीवन-शैली पर प्रकाश डाला है।
- मिश्रित शब्दावली है।
- खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- चित्रात्मक एवं वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है।