In this post, we have given Class 11 Hindi Antra Chapter 9 Summary – Bharatvarsh Ki Unnati Kaise Ho Sakti Hai Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 11 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 11 Hindi subject.
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 9 Summary
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? – भारतेंदु हरिश्चंद्र – कवि परिचय
लेखक-परिचय :
प्रश्न :
भारतेंदु हरिश्चंंद्र के जीवन एवं साहित्य का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-आधुनिक हिंदी-साहित्य के सूत्रधार भारतुंदु हरिश्चंद्र का जन्म 8 सितंबर, 1850 ई० को काशी में हुआ था। इनके पिता बाबू गोपाल चंद्र थे। पाँच वर्ष की अल्पायु में इनकी माता का और दस वर्ष की आयु में इनके पिता का निधन हो गया। ये विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने घर पर ही स्वाध्याय से अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त किया। इनका व्यक्तित्व देश-प्रेम और क्रांति-चेतना से समृद्ध था। कम आयु में ही इन्होंने स्वदेश की दुर्दशा का त्रासद अनुभव कर लिया था। मात्र 35 वर्ष की आयु में ही सन 1885 में इनका निधन हो गया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र पुनर्जांगरण की चेतना के अप्रतिम नायक थे। बंगाल के प्रख्यात मनीषी और पुनर्जागरण के विशिष्ट नायक ईश्वरचंद्र विद्यासागर से इनका अंतरंग संबंध था। बंधन-मुक्ति की चेतना और आधुनिकता की रोशनी से हिंदी क्षेत्र को आलोकित करने के लिए इनका मन व्याकुल रहता था। अपनी अभीप्सा को मूर्त करने के लिए इन्होंने समानधर्मा रचनाकारों को प्रेरित-प्रोत्साहित किया। इन्होंने ‘तदीय समाज’ की स्थापना की तथा पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं। इन्होंने विविध विधाओं में साहित्य-रचना की। इन्होंने ‘कविवचनसुधा’ नामक पत्रिका निकाली तथा ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’ का संपादन किया, जो बाद में ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ नाम से प्रकाशित होने लगी।
रचनाएँ-भारतेंदु जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। इन्होंने नाटककार, कवि, व्यंग्य-लेखक, समालोचक आदि रूपों में अपनी लेखनी चलाई। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं :
- नाटक-वैदिकि हिंसा, हिंसा न भवति, श्री चंद्रावली, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, नील देवी आदि।
- काव्य-प्रेम-फुलवारी, प्रेम-माधुरी, प्रेम-मल्लिका, प्रेम-प्रलाप आदि।
- बांग्ला नाटकों का अनुवाद-धनंजय विजय, विद्या सुंदर, पाखंड विडंबन, सत्य हरिश्चंद्र, मुद्रारक्षस।
भाषा-शैली-भारतेंदु हरिश्चंंद्र की धारणा के मुताबिक सन 1873 में ‘हिंदी नई चाल में ढली’। यह ‘चाल’ शिल्प और संवेदना की दृष्टि से सर्वथा नवीन थी। खड़ी बोली पद्य में हिंदी की यात्रा जातीय संवेदना से अनुप्राणित होकर शुरू हुई थी, जिसे भारतेंदु हरिश्चंद्र और इनके समकालीन रचनाकारों ने अपनी साधना से अपेक्षित गति दी। हिंदी नाटक और निबंध की परंपरा भारतेंदु से शुरू होती है। आधुनिक हिंदी गद्य के विकास में इनका उल्लेखनीय योगदान है। इन्होंने अपने समकालीन लेखकों का तो नेतृत्व किया ही, साथ ही परवर्ती लेखकों के लिए पथ-प्रदर्शक का भी कार्य किया।
पाठ-परिचय :
भारतेंदु जी विषयानुसार भाषा के प्रयोग में अत्यंत कुशल थे। इन्होंने अपने साहित्य में भाषा का निखरा रूप प्रस्तुत किया है। गंभीर विषयों के प्रतिपादन में संस्कृत शब्दावली की अधिकता मिलती है। भावपूर्ण प्रसंग आते ही यही शैली मधुर और रागात्मक हो जाती है। प्रसंगुसार उद्धरण और मुहावरों के प्रयोग से भाषा की मधुरता एवं सजीवता बढ़ जाती है।
पाठ का सार :
‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ नामक निबंध भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा दिया गया भाषण है, जो इन्होंने बलिया के मेले में दिया था। इस भाषण में भारतवासियों को आलस्य छोड़, देश की उन्नति के लिए जुट जाने का आह्वान किया गया है। यहाँ लोगों ने धर्मनीति और समाजनीति का घालमेल कर दिया है। बीच में खराबी यह आई कि लोगों ने धर्म का वास्तविक मतलब नहीं समझा और व्यर्थ की बातों को ही वास्तविक धर्म मान लिया। लेखक के अनुसार वास्तविक धर्म तो केवल ईश्वर के चरणों का भजन है। समाज के धर्म को देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बदला जा सकता है। दूसरी खराबी यह हुई कि ऋषियों और महापुरुषों के वंशजों ने अपने पूर्वजों का मतलब न समझकर नए-नए धर्म बनाकर शास्त्रों में रख दिया। आज देश-काल के अनुकूल उपयोगी एवं उपकारी बातों को ग्रहण करने की ज़रूरत है। अनेक समाज-विरुद्ध, परंतु धर्मशास्त्रों में विधान रखने वाली बातें; जैसे-जहाज का सफ़र, विधवा-विवाह आदि को चलाना चाहिए। इसके अलावा लड़कों का विवाह छोटी आयु में न करके उन्हें शारीरिक रूप से मज़बूत बनाएँ।
उन्हें पढ़ने की आज़ादी देने के बाद ही गृहस्थी के चक्कर में डालना चाहिए। लड़कियों को भी ऐसी शिक्षा देने की ज़रूरत है, जिससे वे देश और कुलधर्म सीखें। इसके अलावा समाज के सभी वर्गों के लोग आपसी भेदभाव, वैर तथा मत-मतांतर भूलकर एक हो जाएँ। छोटी जाति के लोगों का तिरस्कार न करके उन्हें समाज की मुख्य धारा में शामिल करना चाहिए। मुसलमानों को सीख देते हुए लेखक कहता है कि वे लोग हिंदुओं को नीचा न समझें और अपने भाइयों की तरह बरताव करें। अनेक धार्मिक बातें मुसलमानों को हिंदुओं की अपेक्षा आसानी से प्राप्त हैं। उनमें जाति, खाने-पीने में चूल्हा-चौका तथा विलायत जाने पर रोक-टोक नहीं है। इसके बाद भी उनकी दशा अब तक नहीं सुधरी है। अब हठधर्मी छोड़ हिंदुओं के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने और पुरानी बातें छोड़ने का समय आ गया है। लड़कों को मीरहसन की ‘मसनवी’ और ‘इंदरसभा’ पढ़ने का अवसर देकर बर्बाद होने से बचाना चाहिए। उन्हें अच्छी शिक्षा देनी चाहिए। पेंशन और वजीक़े का भरोसा छोड़कर उन्हें रोज़गार सिखाना चाहिए, विदेश भेजना चाहिए और छोटेपन से परिश्रम करने की आदत डालनी चाहिए।
हिंदुओं को समझाते हुए लेखक कहता है कि इसी प्रकार हिंदुओं को भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ आपस में प्रेम करना चाहिए। विभिन्न जाति, धर्म, प्रांत आदि का भेद त्यागकर एक हो जाना चाहिए। ऐसा हुनर सीखना चाहिए, जिससे अधिकांश वस्तुएँ हमारे देश में बनें और देश का रुपया देश में ही रहे। विदेशों में बने कपड़े पहनने से लगता है कि हम मँगनी के कपड़े पहने हुए हैं। अफ़सोस इस बात का है कि हम अपने उपयोग की वस्तुएँ भी नहीं बना पा रहे हैं। अब समय आ गया है कि नींद से जागकर अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। अब विदेशी वस्तुओं और विदेशी भाषा के भरोसे न रहकर अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करने की आवश्यकता है।
शब्दार्थ :
पृष्ठ 109-प्रगट-प्रकट (appear)। महसूल-कर, टैक्स (tax)। साधि-धारण करना (to retain)। बलवाना-शक्तिशाली, हनुमान जी (powerful, Hanumana)। हाकिम-अधिकारी (officer)।
पृष्ठ 110-अनमोल-जिसका मूल्य न हो (priceless)। खोवैं-बर्बाद करें, गवाएँ (to lose)। गैरों-परायों (others)। गम-दुख (sorrow)। प्रतिविन-हर रोज़ (daily)। वेध करना-ग्रह-नक्षत्र तारों आदि की गणना करना (observation of planets by means of telescope)। विलायत-विदेश (foreign)। कतवार-कूड़ा-करकट (garbage)। पाला-कबड्डी आदि खेलों में सीमा निर्धारित करने वाली रेखा (a type of line in kabadi etc. games)। कोटि-करोड़ (ten million)। कोप–गुस्सा (anger)।
पृष्ठ 111-अनुमोदन-समर्थन (support)। काठ का उल्लू-निरा मूर्ख (complete fool)। दून-दुगुना (twice)। छिन-क्षण (a moment)।
पृष्ठ 112-चाकरी-नौकरी (service)। दाता-देने वाला (giver, one who gives)। मर्दुमशुमारी-जनगणना (census)। कमती-कम होना (decrease)। हूस-असभ्य, उजड्ड (uncivilized)। ऐहैं-आएँगे (will come)। रसातल-पाताल (the lower region)। शब्दबेधी-शब्द (आवाज़) को सुनकर निशाना लगाने वाला (one who shoots by listening the sound)। नियत-तय (certain)। कमान-धनुष (bow)। को-कौन (who)। जिनि-मत (not)। चुक्के-चूके (to miss)। चौहान-पृथ्वीराज चौहान (Prithvi Raj Chauhan, a brave king)।
पृष्ठ 113-कंटक-काँटा (thorn)। होम करना-कुर्बान करना (to sacrify)। वरंच-बल्कि, अपितु (but)।
पृष्ठ 114-मिसाल-उदाहरण (example)। उपवास-प्रत (fast)। विधान-नियम (rule)। विकार-दोष (fault)। बेर-समय (time)। बलने-जलने (burn)। तिहवार-त्योहार (festival)। हिकमत–उपाय (plan)। शोधना-खोज करना (to discover)।
बलिया जैसे छोटे-से स्थान पर इतने सारे उत्साही लोगों को एकत्रित देख लेखक खुश है। वह इतने लोगों के एक स्थान पर जुटने की प्रशंसा भी करता है, क्योंकि बनारस जैसे बड़े स्थान पर भी ऐसा नहीं हो पाता। इसका मानना है कि जहाँ रॉबर्ट साहब बहादुर जैसे कलेक्टर हों, वहाँ समाज ऐसा क्यों न हो। यह हिंदुस्तानी लोगों को रेल की गाड़ी के समान बताता है, जिनके सारे डिब्बे जुड़े तो हैं, पर इंजन के बिना जैसे रेल नहीं चलती है, वैसे ही इन लोगों को भी कोई चलाने वाला चाहिए। इन्हें हनुमान जी की तरह शक्ति की याद दिलाने वाला होना चाहिए। इस बल की याद कौन दिलाए। हिंदुस्तानी राजे-महाराजे अपनी पूजा, भोजन, गण्प में व्यस्त हैं। हाकिम सरकारी काम-काज, घुड़दौड़, थिएटर आदि में और कुछ समय बचा, तो वे गरीबों से मिलकर अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहते हैं। प्राचीन भारत में राजा और ब्राह्मणों पर नाना प्रकार की विद्या और नीति फैलाने की ज़िम्मेदारी थी, पर ये लोग खुद निकम्मेप्न का शिकार होकर रह गए। उस समय के पुरुषों ने अत्यंत सीमित साधनों से ग्रह-नक्षत्रों को बेधकर उनकी गति के बारे में जो कुछ लिखा है, आज विदेशी दूरबीनों से देखकर गणना करने पर वही गति मिलती है। हमें आज अंग्रेज़ी विद्या और दूसरे उन्नत देशों से लाखों पुस्तकें तथा यंत्र प्राप्त हैं, पर हम भारतीय उनका फ़ायदा नहीं उठाते हैं। अमेरिकन, अंग्रेज़, फ्रांसीसी तेज़ी से विकास-पथ पर भागे जा रहे हैं, पर भारतीय अपने आलस्य के कारण पीछे रह जाते हैं। भारतीय जापानी टट्टुओं को हाँफ़-हाँफ़कर भागते देखते हैं, पर उन्हें लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि एक बार जो पीछे रह गया, वह पीछे रह जाएगा।
लेखक ने अपने मित्रों के कहने पर इस विषय पर आगे बताया कि इस समय हिंदुस्तान की दशा कुछ ऐसी है कि अंग्रेज़ी राज में हर प्रकार का सामान और अवसर पाकर यदि हम उन्नति न करें, तो यह हमारा अभागय और ईश्वर का कोप ही है। बहुत-से लोग कहते हैं कि हमें पेट के धंधे से ही छुट्टी नहीं मिलती है, हम क्या उन्नति करें। जिनका पेट भरा है, वे उन्नति की बात सोचें। इस संबंध में लेखक कहता है कि इंग्लैंड के किसान, गाड़ीवान, मज़दूर, कोचवान भी ऐसे हैं, जिनके प्रेट भरे नहीं हैं, किंतु वे खेत जोतते-बोते समय ‘अधिक उपज कैसे मिले’, यह सोचते रहते हैं। विलायत में कोचवान उस समय अख़बार पढ़ लेता है, जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के पास गया होता है, पर हमारे यहाँ के कोचवान अपना खाली समय गण्प करने में बिताते हैं। यह गण्प भी किसी काम की नहीं होती। विलायत के लोगों की गप्प भी उद्देश्यपूर्ण होती है। वे अपना एक क्षण भी बेकार नहीं जाने देते। यहाँ जो जितना निकम्मा है, उतना ही अमीर समझा जाता है। यहाँ का आलस्य देखकर ही मलूकदास ने कहा है-
“अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥”
यहाँ निकम्मापन बढ़ता जा रहा है और काम न करनेवालों की संख्या निरंतर बढ़ती ही चली जा रही है। चारों ओर दरिद्रता का बोलबाला है। लोगों के लिए इज़ज़त बचाना कठिन हो गया है।
जनसंख्या की रिपोर्ट देखने से पता चलता है कि यहाँ जनसंख्या बढ़ती जा रही है और धन घटता जा रहा है। अब तो रुपया बढ़ाने का उपाय करना ही पड़ेगा। राजा-महाराजा और पंडित की कथाओं से कुछ नहीं मिलने वाला। ऐसे में अपना आलस्य, कायरपन त्यागकर उन्नति की दौड़ में शामिल हो जाओ, नहीं तो कहीं भी ठिकाना नहीं मिलने वाला। अवसर चूकने से व्यक्ति रसातल में पहुँच जाता है और अवसर पहचानने वाला सफल हो जाता है। पृथ्वीराज, जिसे गोरी ने अंधा बना दिया था, ने अपने मित्र चंदबरदाई के संकेत पर अवसर पहचाना और शब्दबेधी बाण मारकर अपने दुश्मन का काम तमाम कर दिया। इसी तरह इस सरकार का राज्य और उन्नति का सामान पाकर घर, बाहर, रोज़गार, शिष्टाचार, चाल-चलन, समाज, संपूर्ण देश और जाति में उन्नति करो। उन्नति के इस पथ में जो बाधाएँ हैं, उन्हें समूल नष्ट करने के लिए यदि त्याग और बलिदान करने की आवश्यकता पड़े, तो वह भी करो। इस कार्य में कुछ लोगों द्वारा की जाने वाली निंदा की परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। उन्नति के इस काम में कुछ लोगों को तकलीफ़ पहुँचेगी ही।
जिन लोगों को उन्नति और सुधार के बारे पता नहीं है, उन्हें समझाते हुए लेखक कहता है कि धर्म सब उन्नतियों का मूल है। हमें सबसे पहले धर्म की उन्नति के बारे में सोचना चाहिए। अंग्रेज़ों की धर्मनीति और राजनीति परस्पर मिली है, इससे उनकी उन्नति हो रही है। वह बताता है कि बलिया का मेला और स्नान क्यों बनाए गए? ऐसा इसलिए ताकि दूर-दराज के लोग साल में एक स्थान पर एकत्र हों और परस्पर मिलें। एकादशी का व्रत मन की शुद्धि के लिए रखा जाता है। दीपावली का त्योहार सफ़ाई के लिए और होली का त्योहार वसंत की बिगड़ी हवा की शुद्धि के लिए मनाया जाता है।
आयुष्य-उम्र, आयु (age)। नोन-नमक (salt)।
पृष्ठ 115-डाह-ईर्ष्या (jealousy)। मयस्सर-उपलब्ध, आसानी से मिलना (available)। कायम-स्थापित (establish)। पट्टी पाटना-बड़े-बड़े बाल रखना एवं उनको सँवारना (to comb)। तालीम-शिक्षा (education)।
पृष्ठ 116-मिहनत-परिश्रम (hard work)। लंकिलाट-एक प्रकार का चिकना और मोटा कपड़ा (a thick and smooth cloth)। अंगा-कुरता (shirt)। महफ़िल-सभा (gathering, assembly)।
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? सप्रसंग व्याख्या
1. हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं। यद्यपि फ़र्स्ट क्लास, सेकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी हैं, पर बिना इंजिन ये सब नहीं चल सकर्ती, वैसे ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलानेवाला हो, तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए, “का चुप साधि रहा बलवाना” फिर देखिए कि हनुमान जी को अपना बल कैसे याद आ जाता है। सो बल कौन याद दिलावे या हिंदुस्तानी राजे-महाराजे या नवाब रईस या हाकिम। राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं। प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह मूलतः बलिया के ददरी मेले में दिया गया उनका भाषण है।
भारतेंदु जी ने भारत के विकास के लिए देश के कमज़ोर पक्ष की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया है और अपनी कमजोरियों के प्रति चिता भी दर्शाई है। लेखक ने भारतीय समाज को नेतृत्व की आवश्यकता भी बताई है। व्याख्या-लेखक ने भारतीयों को रेलगाड़ी की संज्ञा दी है। जिस प्रकार रेलगाड़ी में प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी आदि होती है, उसी तरह यहाँ भी विभिन्न योग्यता वाले लोग रहते हैं। रेलगाड़ी में इंजन ज़रूरी होता है। उसके बिना गाड़ी नहीं चल सकती, इसी प्रकार भारतीयों को कोई प्रेरणा देने वाला होना चाहिए। प्रेरणा मिलने पर भारतीय असंभव कार्य भी कर सकते हैं। इन्हें तो बस यह कहने वाला चाहिए कि हे बलवान, तुम चुप्पी क्यों साधे हुए हो। यह वाक्य सुनते ही हनुमान जी सिंधु पार कर गए थे। अब भारतीयों को यह बल कौन याद दिलाए-हिंदुस्तानी राजा-महाराजा या नवाब रईस या सरकारी कर्मचारी! इनमें राजा-महाराजाओं को तो अपनी पूजा, भोजन, झूठी गप से ही अवकाश नहीं है।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक ने भारतीयों की अपूर्व क्षमता का परिचय दिया है, जिसे प्रेरित करने की आवश्यकता है।
- राजाओं की कार्य-प्रणाली पर गहरा कटाक्ष है।
- बात को उदाहरण शैली से समझाया गया है।
- खड़ी बोली में भावों की सशक्त अभिव्यक्ति है।
2. भगवान कहते हैं कि पहले तो मनुष्य जनम ही बड़ा दुर्लभ है, सो मिला और उस पर गुरु की कृपा और मेरी अनुकूलता। इतना सामान पाकर भी जो मनुष्य इस संसार-सागर के पार न जाए, उसको आत्महत्यारा कहना चाहिए। वही दशा इस समय हिंदुस्तान की है। अंग्रेज़ों के राज्य में सब प्रकार का सामान पाकर, अवसर पाकर भी हम लोग जो इस समय पर उन्नति न करें, तो हमारा केवल अभाग्य और परमेश्वर का कोप ही है।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंंद्र के निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह मूलतः बलिया के ददरी मेले में दिया गया उनका भाषण है। इन पंक्तियों के द्वारा लेखक मनुष्य जन्म को सार्थक करने हेतु सुविचारित कर्म करने का आह्वान कर रहा है।
व्याख्या – भारतेंदु हरिश्चंद्र श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण के कथन का हवाला देते हुए कहते हैं कि पहले तो मनुष्य जन्म ही दुर्लभ है, क्योंकि समस्त चर-अचर जगत में मनुष्य ही सब प्राणियों में प्रभु की श्रेष्ठ रचना है। कुल चौरासी लाख योनियाँ पार करके यह मनुष्य जन्म मिलता है। इसे गुरु कृपा और प्रभु की अनुकूलता ही समझना चाहिए और फिर इतने प्रयास के बाद भी जो मनुष्य अपना उद्धार न कर सके। अपने सत्कर्मों से जीवन न सुधार सके, उसे धिक्कार है, उसका जीवन अकारथ है। यह एक प्रकार से आत्महत्या के समान है।
श्रीकृष्ण के इस कथन को आधार-बिंदु मानकर भारतेंदु आगे कहते हैं कि हिंदुस्तान की दशा भी इसी प्रकार की है। अंग्रेज़ों के शासन में भारतीयों को विकास के लिए साधन उपलब्ध हैं। औद्योगीकरण ने देश में काम की अनेक संभावनाएँ जगा दी हैं। यदि हम अब भी ज़माने के साथ नहीं चलेंगे, तो इसे हमारा केवल दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि स्थितियाँ होने पर भी हम उनका लाभ नहीं उठा रहे हैं। इसे प्रभु का कोप ही मानना चाहिए।
विशेष :
- यहाँ भारतेंदु ब्रिटिश शासन की शिक्षा प्रसार योजना तथा औद्योगिकीकरण के कारण बढ़ते रोज़गार के नए अवसरों की संभावना का लाभ उठाने के लिए भारतीय युवकों को प्रेरित कर रहे हैं।
- मनुष्य जन्म की दुर्लभता की ओर संकेत है।
- खड़ी बोली में सशक्त भावाभिव्यक्ति है।
- भाषा प्रवाहमयी है।
3. उसने एक हाथ से अपना पेट भरा, दूसरे हाथ से उन्नति की राह के काँटों को साफ़ किया। क्या इंग्लैंड में किसान, खेतवाले, गाड़ीवान, मज़दूर, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी देश में भी सभी पेट भरे हुए नहीं होते।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह मूलतः बलिया के ददरी मेले में दिया गया उनका भाषण है। भारतेंदु जी ने भारत के विकास के लिए देश के कमज़ोर पक्ष की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया है और अपनी कमज़ोरियों के प्रति चिता भी दर्शाई है।
व्याख्या – यदि हम समझते हैं कि इंग्लैंड देश सदैव से विकसित और समृद्ध था, तो यह हमारी भूल है। इंग्लैंड के लोगों ने एक ओर परिश्रम करके अपना विकास किया, तो दूसरी ओर देश की उन्नति में बाधक तत्वों को समाप्त किया। इंग्लैंड का रूप आज जैसा विकसित पहले से नहीं था। वहाँ के किसान-मज़दूरों ने परिश्रम करके देश को विकसित और उन्नत किया।
विशेष :
- इंग्लैंड देश की उन्नति की प्रक्रिया की ओर संकेत किया है।
- भाषा सरल और सहज है।
- खड़ी बोली ‘पेट भरना’, ‘राह के काँटे साफ़ करना’ आदि मुहावरों के प्रयोग से भाषा की सजीवता बढ़ गई है।
4. उसके बदले यहाँ के लोगों में जितना निकम्मापन हो, उतना ही वह बड़ा अमीर समझा जाता है। आलस यहाँ इतनी बढ़ गई कि मलूकदास ने दोहा ही बना डाला-“अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम।” चारों ओर आँख उठाकर देखिए, तो बिना काम करनेवालों की ही चारों ओर बढ़ती है। रोज़गार कहीं कुछ भी नहीं है, अमीरों की मुसाहबी, दल्लाली या अमीरों के नौजवान लड़कों को खराब करना या किसी की जमा मार लेना, इनके सिवा बतलाइए और कौन रोज़गार है। जिससे कुछ रुपया मिलै। चारों ओर दरिद्रता की आग लगी हुई है।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह मूलतः बलिया के ददरी मेले में दिया गया उनका भाषण है।
इस गद्यांश में भारतुंदु जी ने भारत के विकास के लिए देश के कमज़ोर पक्ष की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया है और कमज़ोरियों के प्रति अपनी चिता भी दर्शाई है।
व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में भारतुंदु जी ने भारतीयों की मेहनत के प्रति अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया है। लेखक कहता है कि भारत में जो सबसे ज़्यादा निकम्मा है, उसे उतना ही बड़ा रईस माना जाता है। यहाँ अमीर शारीरिक श्रम से दूर रहते हैं। यहाँ के लोगों में आलस्य इतना बढ़ गया है कि कवि मलूकदास ने तो यहाँ तक कह दिया कि अजगर नौकरी नहीं करता तथा पक्षी काम नहीं करते, फिर भी चिंता की कोई बात नहीं है, इन सबके संरक्षक राम हैं। दूसरे शब्दों में, लोग भाग्यवादी हो गए हैं। लेखक कहता है कि आज हर तरफ कामचोरों की भीड़ दिखाई देती है। कोई भी सार्थक काम नहीं करता। रोज़गार के नाम पर अमीरों की चमचागीरी तथा दलाली की जाती है या अमीरों के नौजवान लड़कों को खराब किया जाता है। कुछ ने लोगों की जमा मारने का धंधा बना रखा है। इसके अलावा रोज़ागार नहीं है। चारों तरफ गरीबी दिखाई देती है।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक ने भारतीय समाज की भाग्यवादिता तथा चमचागीरी करने की प्रवृत्ति की ओर संकेत किया है।
- ‘आग लगना’, ‘आँख उठाना’, ‘जमा मार लेना’ आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग है।
- खड़ी बोली में सशक्त भावाभिव्यक्ति है।
- भाषा प्रवाहमयी है।
- भाषण शैली है।
5. मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट देखने से स्पष्ट होता है कि मनुष्य दिन-दिन यहाँ बढ़ते जाते हैं और रुपया दिन-दिन कमती होता जाता है। तो अब बिना ऐसा उपाय किए काम नहीं चलैगा कि रुपया भी बढ़ै और वह रुपया बिना बुद्धि बढ़े न बढ़ैगा। भाइयो, राजा-महाराजों का मुँह मत देखो, मत यह आशा रक्खो कि पंडित जी कथा में कोई ऐसा उपाय भी बतलावैंगे कि देश का रुपया और बुद्धि बढ़े। तुम आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो। कब तक अपने को जंगली, हूस, मूर्ख, बोदे, डरपोकने पुकरवाओगे। दौड़ो, इस घोड़दौड़ में जो पीछे पड़े, तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है। “फिर कब राम जनकपुर ऐहैं।” अबकी जो पीछे पड़े, तो फिर रसातल ही पहुँचोगे।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह मूलत: बलिया के ददरी मेले में दिया गया उनका भाषण है। यहाँ लेखक ने कर्म की महत्ता समझाते हुए आर्थिक विकास के लिए जुट जाने तथा जनसंख्या बढ़ाने की जगह आय बढ़ाने की ओर संकेत किया है।
व्याख्या – लेखक का विचार है कि जनगणना रिपोर्ट देखने से साफ़ प्रकट होता है कि हमारे देश की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है। इसके अनुपात में आय में दिन-पर-दिन कमी होती जा रही है। आय को बढ़ाने या जनसंख्या के अनुपात में आय को संतुलित रख पाने का अतिरिक्त प्रयास करना पड़ेगा। रुपये का अनुपात बढ़ाने के लिए बुद्धि-विचार से काम लेना होगा। लेखक संकेत कर रहा है कि समय बदल चुका है। अब राजा-महाराजाओं पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, क्योंकि स्वायत्तशासी राज्य रह ही कहाँ गए हैं, राज्य तो नाममात्र के हैं। राजा तो अंग्रेज़ों की अधीनता स्वीकार करके पेंशनभोगी हो गए हैं और अब पंडित भी पत्रा देखकर कोई उपाय नहीं बता पाएँगे। दुनिया भाग्य से नहीं, कर्म से, श्रम से चलती है। अपने बाहुबल पर, अपनी योग्यता पर भरोसा करना होगा। कब तक स्वयं को दूसरों के (विदेशियों के) सामने मूख, जंगली कहलवाओगे। यह विकास की दौड़ है। इस दौड़ में शामिल होकर ही बाज़ी जीती जा सकती है। और यदि जीवन की इस दौड़ में पीछे रह गए, तो फिर कहीं ठिकाना नहीं मिलेगा।
‘फिर कब राम जनकपुर आएँगे’ अर्थात मौका चूकने पर कुछ हाथ नहीं आता। फिर पिछड़ने पर रसातल ही है, जिससे उबरना मुश्किल होगा।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक नागरिकों के सम्मुख जनसंख्या-वृद्धि को अभिशाप बताते हुए आर्थिक संतुलन बनाने का आह्वान कर रहा है।
- ‘भाग्यवादिता छोड़ कर्मठ बनो ‘ ऐसी सीख निहित है।
- विचारों में आधुनिक दृष्टि का समावेश स्पष्ट झलकता है।
- खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- भाषण शैली है।
- भाषा प्रवाहमयी है।
6. जो लोग अपने को देश-हितैषी लगाते हों, वह अपने सुख को होम करके, अपने धन और मान का बलिदान करके कमर कस के उठो। देखा-देखी थोड़े दिन में सब हो जाएगा। अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो। कोई धर्म की आड़ में, कोई देश की चाल की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं। उन चोरों को वहाँ-वहाँ से पकड़-पकड़कर लाओ। उनको बाँध-बाँधकर कैद करो। हम इससे बढ़कर क्या कहें कि जैसे तुम्हारे घर में कोई पुरुष व्यभिचार करने आवै, तो जिस क्रोध से उसको पकड़कर मारोगे और जहाँ तक तुम्हारे में शक्ति होगी उसका सत्यानाश करोगे। उसी तरह इस समय जो-जो बातैं तुम्हारे उन्नति-पथ में काँटा हों, उनकी जड़ खोदकर फेंक दो। कुछ मत डरो। जब तक सौ-दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जाएँगे, दरिद्र न हो जाएँगे, कैद न होंगे, वरंच जान से न मारे जाएँगे, तब तक कोई देश भी न सुधरैगा।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह मूलतः बलिया के ददरी मेले में दिया गया उनका भाषण है। यहाँ लेखक देश को सुधारने के लिए त्याग और निष्ठा की आवश्यकता पर बल देते हुए कहना चाहता है कि उन्नति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को निर्ममता से दूर करना होगा।
व्याख्या – लेखक का विचार है कि स्वयं को देश-हितैषी मानने वालों को संकोच छोड़कर आगे आना होगा। बलिदान करना होगा और यह कठिन काम नहीं। कुछ लोग आगे आएँगे, तो उनका अनुकरण करने वाले पीछे-पीछे आ जाएँगे। देश के विकास में जो मूल बाधाएँ हैं, उन्हें खोजना होगा। ये कारण यहीं विद्यमान हैं। कोई धर्म की आड़ में छिपा है, कोई देश की रफ्तार की आड़ में, कोई सुख के पीछे पड़ा है। ये दोष वास्तविक शत्रु हैं, इन्हें दूर करना होगा। क्योंकि जब किसी व्यक्तिगत हानि पर हम अपराधी को सज़ा देने से नहीं रूकते, तो राष्ट्र की नींव को खोखला करने वाले देश के दुश्मनों के प्रति दया कैसी? निर्ममता से उनका संहार करना होगा, जो हमारी उन्नति में बाधा हैं। जो रुकावटें हैं, उन्हें उखाड़कर फेंकना होगा। इसमें डर किस बात का, कुछ लोगों का बलिदान देना होगा, पर कुछ बड़ा पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। इसीलिए कुछ सफ़ेदपोशों की काली करतूतों को उजागर करना पड़ेगा। कुछ नुकसान भी उठाना पड़ सकता है, लेकिन यदि देश के लिए इतना नहीं कर सके, तो समझो यह देश फिर नहीं सुधरेगा।
विशेष :
- भारतेंदु हरिश्चंद्र इस गद्यांश में देश की प्रगति में धार्मिक, रूढ़िगत, स्वार्थरूपी बाधाओं या मार्ग के काँटों को उखाड़ फेंकने का उद्घोष करते हुए लोगों को एकजुट होकर आगे आने का आह्वान कर रहे हैं।
- मिश्रित शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- भाषा प्रवाहमयी है।
- भाषण शैली है।
- मुहावरों का सार्थक प्रयोग है।
7. सो इन बातों को अब एक बेर आँख खोलकर देख और समझ लीजिए कि फलानी बात उन बुद्धिमान ऋषियों ने क्यों बनाई और उनमें देश और काल के लिए जो अनुकूल और उपकारी हों, उनको ग्रहण कीजिए। बहुत-सी बातें जो समाज-विरुद्ध मानी हैं, किंतु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है, उनको चलाइए।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग-1 में संकलित हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह मूलत: बलिया के ददरी मेले में दिया गया उनका भाषण है। अपने भाषण के इस अंश में लेखक ने भारत के विकास के लिए उपयुक्त और लाभदायी बातों को ग्रहण करने की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया है।
व्याख्या – लेखक कहता है कि यदि हम वास्तव में भारतवर्ष की उन्नति चाहते हैं, तो पुरानी परंपरा एवं नीतियों पर पुनः विचार करना होगा। पुरानी बातों को तर्कपूर्ण ढंग से समझना होगा। प्राचीन ऋषियों ने जो बातें बताई हैं, उन पर सोच-विचार कर निर्णय लेना होगा। अमुक ऋषि ने जो अमुक बात कही है, उसका वर्तमान भारत के लिए क्या उपयोग है। आज के समय में पुरानी परंपराएँ एवं बातें हमारे लिए उपयोगी हैं या अनुपयोगी, यह बात अच्छी प्रकार सोचनी होगी। यह सोचने के उपरांत ही उसे ग्रहण करना होगा। कुछ बातें हमारे शास्त्रों में लिखी हैं, किंतु समाज में उनकी मान्यता नहीं है। हमें देश और समाज की आवश्यकता के अनुसार अपनी पुरानी मान्यताओं में परिवर्तन करके उन्हें व्यवहार में लाना है। तर्कसम्मत ढंग से ही व्यवहार-परिवर्तन करके हम भारतवर्ष की उन्नति कर सकते हैं।
विशेष :
- इस गद्यांश में तर्कपूर्ण ढंग से पुरानी मान्यताओं को मानने का सुझाव है।
- भारतेंदु जी ‘लकीर के फकीर’ होने में विश्वास नहीं रखते।
- भारतेंदुयुगीन अवधी, ब्रज भाषा मिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग है।
- स्थानीय शब्दों का प्रयोग है।
- भाषण शैली प्रभावपूर्ण है।
8. भाई हिंदुओ! तुम भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जाप करो। जो हिंदुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जाति का क्यों न हो, हिंदू, हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मराठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्रह्मो, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी जिसमें तुम्हारे यहाँ बढ़ै, तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहै वह करो। देखो, जैसे हज़ार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली है, वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हज़ार तरह से इंग्लैंड, फरांसीस, जर्मनी, अमेरिका को जाती हैं।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक, अंतरा भाग-1 में संकलित हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह मूलतः बलिया के ददरी मेले में दिया गया उनका भाषण है। लेखक ने भारत के विकास के लिए देश के हिंदुओं को एकजुट होने, आपस में प्रेम करने तथा देश का धन विदेशों में जाने से रोकने के लिए उद्यमशील बनने का आह्वान किया है।
व्याख्या – लेखक ने भारतीयों को कहा है कि वे संप्रदाय के आग्रह को छोड़ें तथा आपस में प्रेम बढ़ाएँ। वे इस मंत्र का जाप करें कि भारत में जो भी रहे, उसकी सहायता करो। वह चाहे किसी भी जाति का हो। भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों में लोग रहते हैं। हम सभी प्रांत के निवासियों एवं धर्मों को मानने वालों को एकजुट हो जाना चाहिए। जाति, धर्म, प्रांत के विभाजन की बात त्यागकर एक होकर रहना चाहिए। यहाँ बंगाली, मराठी, पंजाबी, मद्रासी, हिंदू, जैन, ब्राह्मण सभी एक देश के निवासी हैं। भारतवर्ष की उन्नति के लिए सबको सबकी सहायता करनी होगी। हमें अपनी कार्य-कुशलता में वृद्धि करनी है। हमारी कार्य-कुशलता के बढ़ने से हमें छोटी-मोटी चीजों के लिए इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका आदि अन्य देशों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। भारतेंदु जी ने उदाहरण देकर समझाया है कि गंगा की अनेक धाराएँ एक होकर समुद्र में मिली हैं. उसी प्रकार हमारी धनलक्ष्मी अनेक बहानों से विदेशों को चली जाती है। कार्य-कुशलता के बढ़ने से देश का रुपया देश में ही रहेगा और विदेशों को नहीं जाएगा। हमारे लिए यह विचारणीय बात है कि दियासलाई जैसी छोटी वस्तु भी विदेशों से आती है। अतः हम सभी को एकजुट होकर कार्य-कुशलता बढ़ाने की आवश्यकता है।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक ने सभी देशवासियों को एक होकर कार्य-कुशलता बढ़ाने की प्रेरणा दी है।
- विदेशों पर आश्रित रहने का विरोध किया है।
- ब्रजभाषा मिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग है।
- भाषण शैली प्रभावपूर्ण है।
9. जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो। परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत रखो। अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक, अंतरा भाग-1 हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह मूलतः बलिया के ददरी मेले में दिया गया उनका भाषण है। इस अंश में लेखक ने भारत के विकास के लिए देश के लोगों से उन्नत बनाने वाली पुस्तकें पढ़ने, विदेशी वस्तुओं एवं विदेशी भाषा का मोह छोड़ने के लिए कहा है। कमज़ोर पक्ष की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया है और अपनी कमज़ोरियों के प्रति चिता भी दर्शाई है।
व्याख्या – देश की उन्नति करने के लिए देशवासियों को नींद से जागना आवश्यक है। देश का बहुमुखी विकास करने के लिए हमें अपनी कार्य-कुशलता बढ़ानी होगी। जिस ज्ञान से देश की उन्नति संभव है, उसी प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन करना ज़रूरी है। देश की उन्नति करने वाले खेल खेलने हैं। ऐसी बातों पर ही विचार-विमर्श करना है, जिनसे देश का विकास हो। जो वस्तुएँ विदेश से मँगगाई जाती हैं, उन पर हमें भरोसा नहीं करना। हमें उन वस्तुओं का निर्माण अपने देश में ही करना है। अंग्रेज़ी भाषा द्वारा इस देश की उन्नति नहीं हो सकती। अपने देश की उन्नति के लिए अपनी हिंदी भाषा का विकास करना है। भारत की भाषा हिंदी है और भारत में हिंदी का विकास होने पर ही देश की उन्नति संभव है।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक यह संकेत दे रहा है कि अच्छी पुस्तकें लोगों का भला करती हैं।
- विदेशी वस्तुओं एवं विदेशी भाषा त्यागने की सीख दी गई है।
- भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है।
- भाषण शैली प्रयुक्त है।
- भाषा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।