In this post, we have given Class 11 Hindi Antra Chapter 12 Summary – Hansi Ki Chot, Sapna, Darbar Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 11 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 11 Hindi subject.
हँसी की चोट, सपना, दरबार Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 12 Summary
हँसी की चोट, सपना, दरबार – देव – कवि परिचय
कवि-परिचय :
प्रश्न :
देव के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय – महाकवि देव का जन्म इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। औरंगज़ेब के पुत्र आलमशाह के संपर्क में आने के बाद देव ने अनेक आश्रयदाता बदले, किंतु इन्हें सबसे अधिक संतुष्टि भोगीलाल नाम के सहृदय आश्रयदाता के यहाँ प्राप्त हुई, जिसने इनके काव्य से प्रसन्न होकर इन्हें लाखों की संपत्ति दान की। अनेक आश्रयदाता राजाओं, नवाबों, धनिकों से संबद्ध रहने के कारण राजदरबारों का आडंबरपूर्ण और चाटुकारिता-भरा जीवन देव ने बहुत निकट से देखा था, इसीलिए इन्हें ऐसे जीवन से वितृष्णा हो गई थी।
रचनाएँ – देवकृत कुल ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। उनमें रसविलास, भावविलास, भवानीविलास, कुशलविलास, अष्टयाम, सुमिलविनोद, सुजानविनोद, काव्यरसायन, प्रेमदीपिका आदि प्रमुख हैं।
काव्यगत विशेषताएँ – रीतिकालीन कवियों में देव बड़े प्रतिभाशाली कवि थे। दरबारी अभिरुचि से बँधे होने के कारण इनकी कविता में जीवन के विविध दृश्य नहीं मिलते, किंतु इन्होंने प्रेम और सौंदर्य के मार्मिक चित्र प्रस्तुत किए हैं। अनुप्रास और यमक के प्रति देव में प्रबल आकर्षण है। अनुप्रास द्वारा इन्होंने सुंदर ध्वनिचित्र खींचे हैं। ध्वनि-योजना इनके छंदों में पग-पग पर प्राप्त होती है। शृंगार रस के उदात्त रूप का चित्रण देव ने किया है।
भाषा-शैली – देव के कवित्त-सवैयों में प्रेम और सौंदर्य के इंद्रधनुषी चित्र मिलते हैं। संकलित सवैयों और कवित्तों में एक ओर जहाँ रूप-सौददर्य का आलंकारिक चित्रण हुआ है, वहीं रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ हुई है।
देव रसप्रिय कवि हैं। देव की रुचि शृंगार रस में अधिक रमी है। इनके काव्य में रस, अलंकार और शब्द-शक्ति का भरपूर वर्णन मिलता है। कवि देव की भाषा ब्रजभाषा है, जिसमें लालित्य और कोमलता है। भाषा में अलंकारों की छटा देखते ही बनती है। अनुप्रास अलंकार, प्रसाद गुण, गांभीर्य तथा यत्र-तत्र मुहावरों का प्रयोग इनकी भाषा की विशेषता है। देव मानवीकरण अलंकार में भी सिद्धहस्त हैं।
कविता-परिचय :
प्रस्तुत पाठ में महाकवि देव द्वारा लिखित तीन कविताओं को संग्रहीत किया गया है। इन कविताओं के सार क्रमशः इस प्रकार हैं :
‘हँसी की चोट’ विप्रलंभ शृंगार का अच्छा उदाहरण है। कृष्ण के मुँह फेर लेने से गोपियाँ हँसना ही भूल गई हैं। वे कृष्ण को खोज-खोजकर हार गई हैं। अब तो वे कृष्ण के मिलने की आशा पर ही जीवित हैं। उनके शरीर के पंचतत्वों में से अब केवल आकाश तत्व ही शेष रह गया है। ‘सपना’ में कोई गोपी सोई है। वह स्वप्न देखती है कि कृष्ग उसे अपने साथ झूला झूलने के लिए कह रहे हैं। यह सुनकर गोपी प्रसन्न हो जाती है। वह उठने का प्रयास करती है, तभी उसकी नींद खुल जाती है। उसका सपना खंडित हो जाता है। इस वियोग स्थिति में भी स्वप्न की सुखद अनुभूति उसके साथ बनी हुई है। ‘दरबार’ में पतनशील और निष्क्रिय सामंती व्यवस्था पर देव ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। इस व्यवस्था में लोग भोग-विलास में डुबे हैं। वे अकर्मण्य हो गए हैं। वे न कुछ कहने को तैयार हैं, न सुनने को। वे भोग-विलास में पागल होकर नटों के समान नाच रहे हैं।
हँसी की चोट, सपना, दरबार सप्रसंग व्याख्या
सप्रसंग व्याख्या एवं काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –
1. हैसी की चोट
साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि॥
‘देव’ जियै मिलिबेही की आस कि, आसहु पास अकास रह्यो भरि।
जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि॥
शब्दार्थ :
साँसनि-साँसों में ही (in the breath)। समीर–वायु तत्व (air)। नीर-पानी (water)। गयो ढरि-बह गया (blown away)। गुन-गुण (quality)। तन-शरीर (body)। तनुता-दुबलापन (weakness)। मिलिबेही-मिलने की ही (to meet)। आस-आशा (hope)। आसहू पास-आस-पास (surrounding)। अकास-आकाश (sky)। फेरि-मोड़ लेना (to turn)। हरै-छीन लेना (to snatch)। हँसि-हँसी (laugh)। हेरि-देखकर (to see)। हियो-हृय (heart)। हरि-श्रीकृष्ण (Lord Krishna)। हरि-हरण करना (taking away by force)।
प्रसंग – प्रस्तुत सवैया हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित देव का सवैया ‘हँसी की चोट’ से लिया गया है। इस सवैये में कवि ने कृष्ण-वियोग में पीड़ित गोपियों का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण ने एक बार एक गोपिका को मुस्कराकर देखा, तो गोपिका की खुशी का ठिकाना न रहा। वह उसी क्षण को अपना जीवन मान बैठी। पर जब श्रीकृष्ण ने अपना मुख फेर लिया, तो वह मरने जैसी स्थिति में पहुँच गई।
व्याख्या – कवि देव कहते हैं कि जिस दिन श्रीकृष्ण ने हँसकर मुँह फेर लिया, उस दिन से गोपी की हँसी कहीं खो-सी गई। वह वियोग की पीड़ा भोगते हुए दिनोंदिन कमज़ोर होने लगी। इस अवस्था में ज़ोर-ज़ोर से साँसे छोड़ने के कारण उसके शरीर का वायु तत्व कम होने लगा। (यह शरीर क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर नामक पाँच तत्वों से मिलकर बना है।) कृष्ण के वियोग में रोती रहने के कारण उसके शरीर का जल तत्व कम होने लगा। शरीर की गर्मी जाने से अग्नि तत्त्व का प्रभाव कम होने लगा। फलस्वरूप उसका शरीर अत्यंत कमज़ोर होता गया, जिससे उसका क्षिति (पृथ्वी) तत्व कम होता गया। कवि देव कहते हैं कि इन पाँचों में से चार तत्व कम होते जाने से केवल आकाश नामक तत्व ही पर्याप्त मात्रा में बचा है, जिसके बल पर वह श्रीकृष्ण से मिलने की आशा लगाए हुए है। ऐसा उस दिन से हुआ, जिस दिन से कृष्ण ने मुँह फेर लिया। उसकी हँसी गायब हो गई और कृष्ण को दूँढ़ने पर भी उन्हें न पा सकी।
विशेष :
- इस सवैये में कवि देव ने विप्रलंभ श्रृंगार का चित्रण किया है।
- अनुप्रास अलंकार की छटा है।
- ब्रजभाषा का माधुर्य है।
- सवैया छंद है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य-
गोपी की विरह-विदग्ध दशा का चित्रण है।
विरह के कारण गोपी के शरीर के तत्वों-क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर के एक-एक करके निकलते जाने की ओर संकेत है।
( ख) शिल्प-सौंदर्य-
(i) काव्यांश में ब्रजभाषा का माधुर्य है।
सवैया छंद है।
काव्यांश में लयात्मकता एवं गेयता विद्यमान है।
‘मुँह फेर लेना’ मुहावरे का सुंदर प्रयोग है।
(ii) ‘साँसनि ही सौं समीर, अरु आँसुन, गयो गुन लै, तन की तनुता, हरै हैसि, हेरि हियो’ में अनुप्रास अलंकार तथा ‘हरि’ में यमक अलंकार है।
वियोग शृंगार रस घनीभूत है।
संपूर्ण काव्यांश में अतिशयोक्ति अलंकार है।
सवैये में माधुर्य गुण विद्यमान है।
2. सपना
झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कहयो स्याम मो सौं ‘चलौ झूलिबे को आज’
फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं।।
चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद ,
सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।
आँख खोलि देखौं तौ न घन हैं, न घनस्याम,
वेई छाई बूँदैं मेरे आसु हूवै दईगन में।।
शब्दार्थ :
झहरि-बरसाती बूँदों की झड़ी लगना (showering)। झीनी-पतली, बारीक (thin)। परति-पड़ना (to fall)। घहरि-चारों ओर से आकर (surrounded from all round)। घेरी-घेरना (to spread)। आनि-आकर (to come)। गगन-आकाश (sky)। स्याम-कृष्ण (Lord Krishna)। उठ्योई-उठना (to get up)। निगोड़ी-निर्दय (cruel)। भाग-भाग्य (fate)। जगन-जाग्रत (wake up)। घन-बादल (cloud)। घनस्याम-कृष्ण (Lord Krishna)। वेई-वे ही (only they)। हूवै-होकर (to be)। दृगन-आँखें (eyes)।
प्रसंग – प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित देव का कवित्त ‘सपना’ से लिया गया है। इसमें कवि ने संयोग-वियोग का सुंदर चित्रण किया है।
वर्षा ऋतु में आसमान बादलों से घिरा है। बूँदे पड़ रही हैं। ऐसे में सपना देखती एक गोपी संयोग अवस्था में पहुँचते-पहुँचते वियोग अवस्था में पहुँच जाती है। जागने पर उसकी क्या मनोद्शा होती है, उसका सुंदर वर्णन है।
व्याख्या – कवि कहता है कि एक गोपी सो रही है। वह सोते-सोते स्वप्न देखती है कि वर्षा ऋतु में झड़ी लगी है अर्थांत हल्की-हल्की बूँदें पड़ रही हैं। आसमान में काली घटाएँ छाई हुई हैं। गोपी ऐसे मनोरम वातावरण में सपने में देखती है कि कृष्ण आकर उससे कहते हैं कि चलो दोनों साथ-साथ झूला झूलते हैं। यह सुनकर वह अत्यधिक प्रसन्न हो जाती है। वह कृष्ण के साथ जाने के लिए उठना ही चाहती है कि निगोड़ी नींद टूट जाती है और वह स्वप्न से जाग्रत अवस्था में आ जाती है। यह जागना ही उसकी किस्मत को सुला देता है। कृष्ण के साथ उसका मिलन होते-होते रह जाता है। गोपी देखती है कि अब न तो काले बादल हैं और न कृष्ण। सपने में बादलों से बरसती बूँदे उसकी आँखों में आँसू बनकर तैर जाते हैं, क्योंकि वह वियोगावस्था में आ चुकी है।
विशेष :
- इस कवित्त में कवि ने संयोग-वियोग का सुंदर चित्रण किया है।
- कवित्त छंद है।
- अनुप्रास अलंकार की छटा है।
- ब्रजभाषा का माधुर्य व्यक्त है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
( क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य –
- इस कवित्त में गोपी की संयोगावस्था एवं वियोगावस्था का मिला-जुला चित्रण है।
- वर्षा ऋतु में सावन की झड़ी का स्वाभाविक वर्णन है।
- स्वप्न की अवस्था हो या जागरण, गोपियाँ श्रीकृष्ण का सान्निध्य चाहती हैं।
- गोपियों के लिए श्रीकृष्ण का वियोग असह्य है, यह भाव प्रकट हुआ है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य-
(i) ब्रजभाषा का माधुर्य विद्यमान है।
काव्यांश कवित्त छंद है।
‘झहरि-झहरि’, ‘घहरि-घहरि’ में पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार तथा ‘घटा घेरी ‘. ‘जानि वा जगन में’ में अनुप्रास अलंकार है।
‘सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में’ में विरोधाभास अलंकार है।
काव्यांश में दृश्य बिंब साकार हो उठा है।
(ii) संयोग एवं वियोग शृंगार रस है।
अभिधा शब्द-शक्ति है।
कवित्त में गेयता एवं संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।
‘फूला न समाना’ मुहावरे का सुंदर प्रयोग है।
नींद का खुलना और भाग्य का सो जाना- इस विरोधाभास में गोपी की मार्मिक अभिव्यक्ति है।
3. दरबार
साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो।।
भेष न सूझ्यो, कहूयो समझ्यो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो।।
शब्दार्थ :
साहिब-स्वामी (master)। अंध-अंधा (blind)। मुसाहिब-दरबारी (courtiers)। मूक-गूँगा (dumb)। बहिरी-कुछ न सुनने वाली (deaf)। रंग रीझ-भोग-विलासिता में डूबकर (merriment)। माच्यो-अत्यधिक खुशी दिखाना (too happy)। भटक्यो-भटकना, फिरना (lost)। औघट-कठिन (hard)। भेष-वेश-भूषा (dress)। सुन्यो-सुना (heard)। रुचि राच्यो-रुचिकर लगा (Interested)। बिगरी-बिगड़ी (annihilated)। मति-बुद्धि (cognition)। सगरी-सारी (total)। निसि-रात (night)। नाच्यो-नाचता रहा (remain dancing)।
प्रसंग – प्रस्तुत सवैया हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित देव कवि का ‘दरबार’ सवैया से लिया गया है। इस सवैये में कवि ने मध्यकालीन राजाओं की दशा पर कटाक्ष किया है। मध्यकालीन राजा अपने भोग-विलास में इस तरह डूब गए थे कि राज-समाज दोनों ही दयनीय स्थिति में पहुँच चुके थे। इसी स्थिति का वर्णन इस सवैये में किया गया है।
व्याख्या – कवि एक कलाकार को चेताते हुए कहता है कि यहाँ का राजा विवेकहीन है। दरबारी गूँगे हैं तथा राजसभा बहरी है। यहाँ राग-रंग का ज़ोर रहता है अर्थात सभी भोग-विलास में डूबे रहते हैं। हे कलाकार! तुम यहाँ भूले-भटके भी नहीं आना, क्योंकि यहाँ हर बुरा कार्य होता है। यहाँ लोगों का कोई स्वरूप नहीं है। इन्हें समझाने से भी बात समझ में नहीं आती। ये कुछ सुनना नहीं चाहते। फिर भी ये कहते हैं कि हम कला में रुचि रखते हैं, जबकि इन्हें अपने कपड़े, बुद्धि-विवेक और स्वयं का होशोहवास नहीं है, तो वे कला की कद्र कैसे कर सकते हैं। देव कवि कहते हैं कि यहाँ अपनी कला से भटके कलाकार की बुद्धि मारी गई थी, जो यहाँ सारी रात अपनी कला का प्रदर्शन करता रहा।
विशेष :
- इस सवैये में दरबारी वातावरण का यथार्थपरक चित्रण है।
- अनुप्रास अलंकार की छटा है।
- ब्रजभाषा में सुंदर अभिव्यक्ति है।
- गेयता तथा संगीतात्मकता का गुण है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य –
तत्कालीन दरबारी एवं सामंती वातावरण पर करारी चोट की गई है।
इस सवैये में सामंतकालीन समाज की भोग-विलासिता और अकर्मण्यता का चित्रण है।
अधिक भोग-विलास बुद्धि का नाशक होता है. इस तथ्य का उल्लेख है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य –
(i) इस सवैये में लालित्यपूर्ण ब्रजभाषा का माधुर्य विद्यमान है।
शांत रस घनीभूत है।
इसमें गेयता एवं संगीतात्मकता का गुण है।
(ii) ‘बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो’, ‘रुचि राच्यो’, ‘निसि नाच्यो’ तथा ‘निबरे नट’ में अनुप्रास अलंकार है।
प्रसाद गण है।