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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana नाटक लिखने का व्याकरण
नाटक
भारतीय परंपरा में नाटक को दृश्य काव्य की संज्ञा दी गई है। यह लिखित रूप से दृश्यता की ओर अग्रसर होता हुआ अपनी निजी एवं विशेष प्रकृति ग्रहण करता है।
नाटक और अन्य विधाएँ :
साहित्य की अनेक विधाएँ हैं- कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, यात्रा – वृत्तांत आदि । इन्हीं की भाँति नाटक भी साहित्य के अंतर्गत आता है, पर गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि नाटक अपनी कुछ निजी विशिष्टताओं के कारण बाकी अन्य विधाओं से बिलकुल अलग हो जाता है। जहाँ साहित्य की अन्य विधाएँ अपने लिखित रूप में अपने एक निश्चित और अंतिम रूप को प्राप्त कर लेती हैं, वहीं नाटक अपने लिखित रूप में सिर्फ़ एकआयामी ही होता है। जब उस नाटक का मंचन हमारे सामने आता है, तब जाकर उसमें संपूर्णता आती है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि साहित्य की अन्य विधाएँ पढ़ने या सुनने तक सीमित रह जाती हैं, पर नाटक पढ़ने, सुनने के साथ-साथ दर्शन के तत्व को भी अपने भीतर समेटे हुए है।
नाटक में समय का बंधन :
नाटक की एक मूल विशेषता है – समय का बंधन। नाटककार को नाटक की इस विशेषता का सदैव ध्यान रखना पड़ता है, क्योंकि समय के इस बंधन का नाटक पर पूरा असर पड़ता है। इसी विशेषता के कारण नाटक को शुरू से लेकर अंत तक एक समय सीमा में पूरा करना होता है।
समय संबंधी नाटक की अन्य विशेषताएँ :
समय से जुड़ी नाटक की कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
नाटककार अपनी रचना को भूतकाल से उठाए या अन्य लेखक की रचना को भविष्यकाल से उठाए, पर दोनों ही स्थितियों में उस नाटक को वर्तमानकाल में ही संयोजित करना पड़ता है।
नाटक के मंच – निर्देश हमेशा वर्तमान काल में लिखे जाते हैं।
चाहे कोई भी काल हो, पर उसे एक विशेष समय में, एक विशेष स्थान पर वर्तमान काल में घटित होना होता है।
साहित्य की अन्य विधाओं- कहानी, कविता या उपन्यास को हम कभी भी पढ़ते समय बीच में रोक सकते हैं और कुछ समय बाद उसे वहीं से शुरू कर सकते हैं, पर नाटक के साथ ऐसा संभव नहीं।
दर्शक कितनी देर तक किसी कहानी को अपने सामने घटित होते देख सकता है, इसका ध्यान नाटककार को रखना अत्यंत आवश्यक है।
नाटक में यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि चरित्र का पूर्ण विकास हो सके और उसके लिए समय का अभाव न हो।
नाटक के अंक :
नाटक के तीन अंक होते हैं। अंकों की इस संख्या को ध्यान में रखकर भी समय विभाजन करना आवश्यक होता है। भरत द्वारा लिखित ‘नाट्यशास्त्र’ में नाटककारों से यह अपेक्षा की गई है कि नाटक के हरेक अंक की अवधि कम-से – कम 48 मिनट हो।
शब्द- नाटक का शरीर :
यद्यपि शब्द साहित्य की सभी विधाओं के लिए आवश्यक है परंतु नाटक और कविता के लिए इसका विशेष महत्व है। नाटक की दुनिया में शब्द अपनी एक नई निजी और अलग अस्मिता ग्रहण करता है। भारतीय नाट्यशास्त्रों में वाचिक अर्थात बोले जाने वाले शब्दों को नाटक का शरीर कहा जाता है।
कहानी तथा उपन्यास शब्दों के माध्यम से किसी स्थिति, वातावरण या कथानक का वर्णन करते हैं या उसका चित्रण करते हैं। इस कारण इसे वर्णित या नैरेटिव विधा कहते हैं। कहानी या उपन्यास में वर्णन घटित होता है, पर नाटक में वही कहानी हमारी आँखों के सामने घटित होती है।
नाटक और कविता :
कविता के लिए शब्द विशेष महत्व रखते हैं। ये शब्द बिंब और प्रतीक में बदलने की क्षमता रखते हैं। इसी कारण साहित्य की सभी विधाओं में कविता नाटक के निकट प्रतीत होती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि एक कवि एक सफल नाटककार भी हो सकता है।
नाटक के तत्व
नाटक के तत्व निम्नलिखित हैं –
नाटक की भाषा :
नाटककार को चाहिए कि वह नाटक में अधिक-से-अधिक संक्षिप्त और सांकेतिक भाषा का प्रयोग करे जो अपने-आप में वर्णित न होकर क्रियात्मक अधिक हो, उन शब्दों में दृश्य बनाने की क्षमता भरपूर हो और वह अपने शाब्दिक अर्थ से ज्यादा व्यंजना की ओर ले जाए । यह कहा भी गया है कि अच्छा नाटक वही होता है जो लिखे अथवा बोले गए शब्दों से भी ज़्यादा वह ध्वनित करे, जो लिखा या बोला नहीं जा रहा। नाटक का मात्र एक मौन, अंधकार या ध्वनि प्रभाव कहानी या उपन्यास के बीस-पच्चीस पृष्ठों की बराबरी कर सकता है।
नाटक और उसका कथ्य :
किसी नाटक के लिए उसका कथ्य अत्यंत आवश्यक होता है। कहानी के रूप को किसी शिल्प या संरचना के भीतर पिरोना होता है। नाटककार को इसकी पूरी समझ, जानकारी और अनुभव होना चाहिए। एक नाटककार को रचनाकार के साथ-साथ एक कुशल संपादक भी होना चाहिए क्योंकि नाटक को मंचित भी होना है। इसके लिए घटनाओं, स्थितियों और दृश्यों का चुनाव करके उन्हें इस क्रम में रचना चाहिए कि वे शून्य से शिखर की ओर बढ़ सकें। इसका ज्ञान नाटककार को अवश्य होना चाहिए।
नाटक में संवाद :
संवाद नाटक का सबसे ज़रूरी और सशक्त माध्यम है। इसके बिना नाटक का काम चल ही नहीं सकता है। यह अन्य विधाओं के लिए उतना उपयोगी नहीं है। नाटक में तनाव, उत्सुकता, रहस्य, रोमांच और अंत में उपसंहार जैसे तत्व ज़रूरी हैं। इसके लिए विरोधी विचारधाराओं का संवाद आवश्यक है। इसके लिए नायक, प्रतिनायक, सूत्रधार आदि की परिकल्पना भारतीय और पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में की गई है।
संवाद की विशेषताएँ :
संवाद में वह गुण होता है जो किसी नाटक को सशक्त या कमज़ोर बना देता है। इसके लिए आवश्यक है कि संवाद अपने-आप में वर्णित या चित्रित न होकर क्रियात्मक, दृश्यात्मक हो तथा संवादों के पीछे निहित अनलिखे एवं अनकहे संवादों की ओर ले जाने वाला हो। जिस नाटक में इस तत्व की जितनी संभावना होती है, वह नाटक उतना ही सफल होता है । हैमलेट का प्रसिद्ध संवाद- ‘टूबी और नॉट टू बी’ या स्कंदगुप्त का ‘अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है’
अनगिनत संभावनाओं को उजागर कर देता है।
नाटक में स्वीकार एवं अस्वीकार की अवधारणा :
नाटक स्वयं में एक जीवंत माध्यम है। कोई भी दो चरित्र जब भी आपस में मिलते हैं तो विचारों के आदान-प्रदान में टकराहट पैदा होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि रंगमंच प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम है। वह कभी भी यथास्थिति को स्वीकार कर ही नहीं सकता। इस कारण उसमें अस्वीकार की स्थिति भी बराबर बनी रहती है। क्योंकि कोई भी जीता- जागता संवेदनशील प्राणी वर्तमान परिस्थितियों को लेकर असंतुष्ट हुए बिना नहीं रह सकता। मज़े की बात यह है कि जिस नाटक में इस तरह की असंतुष्टि, छटपटाहाट, प्रतिरोध और अस्वीकार जैसे नकारात्मक तत्त्वों की जितनी ज्यादा उपस्थिति होगी वह उतना ही गहरा और सशक्त नाटक साबित होगा।
नाटक में चरित्र और संवाद का महत्व :
नाटककार को चाहिए कि वह इस बात का ध्यान रखे कि नाटक में प्रस्तुत चरित्र सपाट सतही एवं टाइप्ड न हों। साथ-साथ चरित्रों के विकास में इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे परिस्थितियों के अनुसार अपनी क्रियाओं- प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करते चलें।
नाटककार कथानक के माध्यम से जो कुछ कहना चाहता है, उसे अपने चरित्रों और उनके बीच होनेवाले परस्पर संवादों से ही अभिव्यक्त करता है। ऐसे में संवाद के माध्यम से यह नहीं लगना चाहिए कि वह पहले से निश्चित विचारों को मात्र शब्दों के माध्यम से व्यक्त कर रहा है। यदि ऐसा होता है तो नाटक ‘नाटक’ न रहकर शब्दों के रूप में विचारों का ढेर मात्र बनकर रह जाता है। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन शब्दों को बोलने वाले पात्र मंच पर सचमुच के हाड़-माँस से युक्त जीवंत प्राणी होते हैं न कि कविता, कहानी और उपन्यास में उपस्थित रहनेवाले शाब्दिक चरित्र।
नाटक के संवाद की विशेषताएँ :
नाटक के संवाद ज़्यादा सहज और स्वाभाविक होने चाहिए ताकि वे दर्शकों के मर्म को छू सकें । यहाँ सहजता का आशय भाषा की सरलता नहीं है। यदि संवाद तत्सम और क्लिष्ट भाषा में भी हों तो भी वे स्थिति और परिवेश की माँग के अनुसार स्वाभाविक ही जान पड़ते हैं। ऐसे में दर्शक तक संप्रेषित होने में कोई मुश्किल नहीं होती है। जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, जगदीशचंद्र माथुर, धर्मवीर भारती आदि नाटककारों के नाटकों में भाषा की यह विशेषता देखी जा सकती है।
नाटकों का शिल्प और संरचना :
वर्तमान समय में नाटककारों के पास शिल्प की दृष्टि से कई विकल्प मौजूद हैं। ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ जैसे नाटकों का ढाँचा है, जिसे हम पारिभाषिक शब्दावली में शास्त्रीय कहते हैं, लोकनाटकों का एक रूप है, जिसमें कोई लिखित आलेख नहीं है और सब कुछ मौखिक प्रक्रिया के अंतर्गत घटित होता है। पारसी नाटकों का शिल्प शेरोशायरी, गीत-संगीत और अतिरंजित शब्दों पर आधारित होता है। यथार्थवादी नाटकों का अपना एक मुहावरा है जो गद्य पर आधारित होता है। इनके अलावा नुक्कड़ नाटकों की अपनी एक अहमियत होती है। यह नाटककार को तय करना होता है कि वह इनमें से किस शैली को अथवा विभिन्न विकल्पों के मिश्रण से एक नई शैली तैयार करे या इन्हें छोड़कर एक नया शिल्प तैयार कर ले। यद्यपि कथ्य अपना शिल्प स्वयं निर्धारित कर लेता है परंतु पहले से तय शिल्प में किसी कथ्य या कहानी को समायोजित कर पाना कठिन होता है।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न –
प्रश्न 1.
“ नाटक की कहानी बेशक भूतकाल या भविष्यकाल से संबद्ध हो, तब भी उसे वर्तमानकाल में ही घटित होना पड़ता है” – इस धारणा के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर :
नाटक की कहानी भले ही भूतकाल या भविष्य काल से संबद्ध हो, तब भी उसे वर्तमानकाल में ही घटित होना पड़ता है। इस धारणा के पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं – नाटक साहित्य की अन्य विधाओं से अलग एक दृश्य विधा है। इसमें हम भूतकाल एवं भविष्यकाल की घटनाओं को मंच पर वर्तमान में घटित होते देखते हैं। भूतकाल की घटना चाहे ऐतिहासिक हो या पौराणिक हो, को कविता या उपन्यास के रूप में पढ़ा या सुना तो जा सकता है, पर वर्तमानकाल में घटित होते हुए देखा नहीं जा सकता है।
प्रश्न 2.
“संवाद चाहे कितने भी तत्सम और क्लिष्ट भाषा में क्यों न लिख गए हों, स्थिति और परिवेश की माँग के अनुसार यदि वे स्वाभाविक जान पड़ते हैं तो उनके दर्शक तक संप्रेषित होने में कोई मुश्किल नहीं है” क्या आप इससे सहमत हैं? पक्ष या विपक्ष में तर्क दें।
उत्तर :
नाटककार नाटक के कथानक के माध्यम से जो कुछ कहना चाहता है, उसे वह नाटक के पात्रों के बीच होनेवाले संवादों से ही अभिव्यक्त करता है। ऐसा करते हुए ऐसा नहीं लगना चाहिए कि वह पहले से निश्चित विचारों को व्यक्त कर रहा है। इन विचारों और इनमें निहित शब्दों को बोलनेवाले पात्र मंच पर सचमुच के हाड़-माँस से युक्त जीवंत प्राणी होते हैं, न कि कविता, कहानी और उपन्यास में उपस्थित रहने वाले शाब्दिक चरित्र। अतः संवाद जितने सहज और स्वाभाविक होंगे, उतने ही दर्शक के मर्म को छुएँगे। ऐसे संवाद क्लिष्ट और तत्सम शब्दावली युक्त होने पर भी स्वाभाविक लगते हैं। जैसे, रामलीला में अंगद की भूमिका निभाने वाला पात्र रावण से कहता है- हे रावण ! तू जगद्जननी सीता को राम के हवाले कर दे, वरना तेरा सर्वनाश निश्चित है।” यहाँ जगद्जननी का अर्थ दर्शक नहीं जानते हैं, पर उन्हें सीता के चरित्र के बारे में आसानी से पता चल जाता है।
प्रश्न 3.
समाचार पत्र के किसी कहानीनुमा समाचार से नाटक की रचना करें।
उत्तर :
छात्र समाचार-पत्र से कहानीनुमा कोई समाचार खोजें और अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से नाटक की रचना
करें।
प्रश्न 4.
(क) विद्यार्थी और शिक्षक के बीच गृह कार्य को लेकर पाँच-पाँच संवाद लिखिए।
(ख) एक घरेलू महिला एवं रिक्शा चालक को ध्यान में रखते हुए पाँच-पाँच संवाद लिखिए।
उत्तर :
(क) शिक्षक और विद्यार्थी के बीच गृह कार्य के विषय में संवाद –
- शिक्षक – अमर, लगता है आज तुमने फिर गृह कार्य नहीं किया है !
- अमर – सर, गृह कार्य तो किया था, पर कॉपी नहीं मिल रही है।
- शिक्षक – तुमने कल भी यही बहाना बनाया था।
- अमर – नहीं सर, सचमुच आज तो मैंने काम किया था।
- शिक्षक – फिर तुम्हारी कॉपी कहाँ है?
- अमर – याद आया सर, वह कॉपी मैं मेज पर भूल आया।
- शिक्षक – मैं तुम्हारे पिता जी के पास फ़ोन करके पता कर लेता हूँ।
- अमर – नहीं सर, फ़ोन मत कीजिए, हो सकता है कि वह कॉपी मेरी छोटी बहन ने वहाँ से हटा दी हो। कल मैं आपको अवश्य दिखा दूँगा।
- शिक्षक – सच कह रहे हो?
- अमर – हाँ सर, यदि गृह कार्य न दिखाया तो आप मेरे पिता जी को फ़ोन करके बता दीजिएगा।
(ख) घरेलू महिला एवं रिक्शावाले के बीच संवाद –
- महिला – ओ रिक्शावाले! अमर कॉलोनी चलोगे ?
- रिक्शावाला – हाँ चलूँगा। कितनी सवारियाँ हैं ?
- महिला – मैं अकेली और यह थोड़ा-सा सामान।
- रिक्शावाला – ठीक है, पचास रुपये दे देना।
- महिला – पचास रुपये! तुम तो लूट रहे हो भैया।
- रिक्शावाला – मैंने तो मुनासिब किराया ही बताया है। ज़्यादा लग रहा है तो दो-चार रुपये कम दे देना।
- महिला – पर आते हुए तो मैं पच्चीस रुपये ही देकर आई थी।
- रिक्शावाला – तब सामान नहीं था आपके साथ। फिर वहाँ से मुझे खाली ही लौटना पड़ेगा।
- महिला – चालीस रुपये लेना, यह सामान उठाकर रिक्शे पर रखो और चलो।
- रिक्शावाला – खून जलाकर रिक्शा चलाना पड़ता है बहिन जी, पर आप लोग हम लोगों की मेहनत को नहीं समझते हो। आप पैंतालीस रुपये दे देना। बस कुछ मत कहना।
अन्य हल प्रश्न –
नाटक की रचना प्रक्रिया पर आधारित प्रश्न –
प्रश्न 1.
भारतीय परंपरा में नाटक को किस काव्य की संज्ञा दी गई है ?
उत्तर :
भारतीय परंपरा में नाटक को दृश्य-काव्य की संज्ञा दी गई है।
प्रश्न 2.
नाटक साहित्य की अन्य विधाओं से किस तरह अलग है?
उत्तर :
नाटक का लिखित रूप दृश्यता की ओर बढ़ता है, वहीं साहित्य की अन्य विधाएँ अपने लिखित रूप में ही एक निश्चित और अंतिम रूप को प्राप्त कर लेती हैं।
प्रश्न 3.
नाटक में संपूर्णता कब आती है?
उत्तर :
नाटक अपने लिखित रूप में एकआयामी होता है। जब उस नाटक का मंचन किया जाता है तब उसमें संपूर्णता आती है।
प्रश्न 4.
नाटक लिखते समय नाटककार को मूल रूप से किस बात का ध्यान रखना पड़ता है?
उत्तर :
नाटक लिखते समय नाटककार को इसकी मूल विशेषता – ‘समय का बंधन’ का ध्यान रखना होता है। अर्थात् नाटक को शुरू से अंत तक एक समय-सीमा के भीतर पूरा हो जाने वाला होना चाहिए।
प्रश्न 5.
‘नाटक को वर्तमानकाल में ही संयोजित करना होता है’- का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इसका आशय यह है कि किसी ऐतिहासिक या पौराणिक घटना को कहानी, उपन्यास या कविता में उसके मूल संदर्भ में उसी काल में रखकर भी पाठ किया जा सकता है, पर नाटक में उसे हमारी आँखों के सामने ही एक बार फिर घटित होना होता है।
प्रश्न 6.
साहित्य की अन्य विधाओं और नाटक में कोई एक मुख्य अंतर लिखिए।
उत्तर :
साहित्य की अन्य विधाओं अर्थात कहानी, उपन्यास या कविता आदि को हम कभी भी पढ़ते हुए या सुनते हुए बीच में रोक सकते हैं और अपने समय के अनुसार उसे फिर शुरू कर सकते हैं, परंतु नाटक का कोई भाग देखकर शेष भाग कल या बाद में नहीं देखा जा सकता है।
प्रश्न 7.
नाटक के संबंध में भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में नाटककारों से क्या अपेक्षा की गई है ?
उत्तर :
नाटक के संबंध में भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में नाटककारों से यह अपेक्षा की गई है कि नाटक के हरेक अंक की अवधि कम-से-कम 48 मिनट की हो।
प्रश्न 8.
नाट्यशास्त्र में नाटक का शरीर किसे कहा गया है और क्यों ?
उत्तर :
नाट्यशास्त्र में नाटक का शरीर शब्द को कहा गया है क्योंकि नाटक की दुनिया में शब्द अपनी एक नई, निजी और अलग अस्मिता ग्रहण करता है।
प्रश्न 9.
कहानी तथा उपन्यास को वर्णित या नैरेटिव विधा क्यों कहते हैं?
उत्तर :
कहानी तथा उपन्यास को वर्णित या नैरेटिव विधा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि कहानी तथा उपन्यास शब्दों के माध्यम से किसी स्थिति, वातावरण या कथानक का वर्णन करते हैं या उसका अधिक-से-अधिक चित्रण करते हैं।
प्रश्न 10.
साहित्यिक विधाओं में कविता ही नाटक के निकट क्यों प्रतीत होती है?
उत्तर :
साहित्य की विभिन्न विधाओं – कहानी, कविता, उपन्यास आदि में कविता ही नाटक के अधिक निकट इसलिए प्रतीत होती है क्योंकि कविता के शब्द, बिंब और प्रतीक में बदलने की क्षमता रखते हैं।
प्रश्न 11.
नाटक की भाषा संबंधी विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
नाटक की भाषा अधिक-से-अधिक संक्षिप्त और सांकेतिक होनी चाहिए जो अपने-आप में वर्णित न होकर क्रियात्मक अधिक हो। इसमें प्रयुक्त शब्दों में दृश्य बनाने की भरपूर क्षमता हो तथा वह अपने शाब्दिक अर्थ से अधिक योजना की ओर ले जाए।
प्रश्न 12.
एक नाटककार को रचनाकार होने के साथ कुशल संपादक होना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर :
एक नाटककार पहले अनेक घटनाओं, स्थितियों अथवा दृश्यों का चुनाव करने वाला होना चाहिए । फिर उन्हें इस क्रम में रखने की कला का ज्ञाता होना चाहिए कि वे शून्य से शिखर की तरफ़ विकास की दिशा में आगे बढ़ें। इस कारण एक नाटककार का कुशल संपादक भी होना चाहिए।
प्रश्न 13.
नाटक में संवाद की क्या महत्ता है?
उत्तर :
संवाद नाटक का सबसे ज़रूरी और सशक्त माध्यम है। नाटक में इसके बिना तो काम ही नहीं चल सकता है। नाटक के लिए तनाव, उत्सुकता, रहस्य, रोमांच आदि तत्त्व अनिवार्य हैं। इसके लिए आपस में विरोधी विचारधाराओं का संवाद ज़रूरी होता है।
प्रश्न 14.
नाटक की सफलता में संवाद की महत्ता स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर :
नाटक में बोले जाने वाले संवादों से भी ज़्यादा उन संवादों के पीछे निहित अनलिखे एवं अनकहे संवादों का योगदान होता है। वास्तव में संवाद ही नाटक को सशक्त या कमज़ोर बनाते हैं।
प्रश्न 15.
रंगमंच को प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम क्यों कहा जाता है?
उत्तर :
नाटक स्वयं में एक जीवंत माध्यम है। जब दो चरित्र आपस में मिलते हैं तो विचारों के आदान-प्रदान में टकराहट पैदा होना अवश्यंभावी है। इस कारण रंगमंच प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम है।
प्रश्न 16.
उन तत्वों का उल्लेख कीजिए जो नाटक को सशक्त बनाते हैं?
उत्तर :
नाटक में असंतुष्टि, छटपटाहट, प्रतिशोध और अस्वीकार जैसे नकारात्मक तत्त्व होते हैं, ये तत्व नाटक को सशक्त बनाते हैं।
प्रश्न 17.
नाटक में प्रस्तुत किए जाने वाले चरित्रों की क्या विशेषता होनी चाहिए?
उत्तर :
नाटक में जो चरित्र प्रस्तुत किए जाएँ, वे सपाट, सतही और टाइप्ड नहीं होने चाहिए। इन चरित्रों के विकास में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि स्थिति – परिस्थितियों के अनुसार वे अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करते चलें।
प्रश्न 18.
संवाद दर्शकों तक सरलता से कब संप्रेषित हो जाते हैं?
उत्तर :
संवाद भले ही तत्सम या क्लिष्ट भाषा में लिखे गए हों, पर स्थिति एवं परिस्थित की माँग के अनुसार यदि वे स्वाभाविक जान पड़ते हैं तब संवाद दर्शकों तक सरलता से संप्रेषित हो जाते हैं।
प्रश्न 19.
पारसी नाटकों के शिल्प की क्या विशेषता होती है?
उत्तर :
पारसी नाटकों का अपना एक अलग शिल्प होता है। यह शेरो-शायरी, गीत-संगीत और अतिरंजित संवादों पर आधारित होता है।
प्रश्न 20.
शिल्प के संबंध में नाटककार का कौन-सा प्रयास प्रायः असफल सिद्ध होता है ?
उत्तर :
नाटककार जब-जब पहले शिल्प या संरचना को निश्चित कर लेता है और बाद में किसी कहानी या कथ्य को उसमें फिट करना चाहता है तो उसका यह प्रयास प्रायः असफल सिद्ध होता है।