Students can find the 12th Class Hindi Book Antral Questions and Answers CBSE Class 12 Hindi Elective रचना कैसे बनता है रेडियो नाटक to develop Hindi language and skills among the students.
CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana कैसे बनता है रेडियो नाटक
रेडियो: मनोरंजन का सस्ता सुलभ साधन :
कुछ दशक पहले तक दुनिया में टेलीविज़न, और कंप्यूटर न थे। सिनेमा हॉल और थियेटर तो थे, पर उनकी संख्या बहुत कम थी। ये आम आदमी के लिए उपलब्ध भी न थे। इस परिस्थिति में रेडियो ही मनोरंजन का सस्ता और सुलभ साधन था, जो घर बैठे मनोरंजन कराता था। उस समय रेडियो पर खबरें, ज्ञानवर्धक कार्यक्रम और खेलों का आँखों देखा हाल आदि प्रसारित होते थे। इस पर आने वाले नाटक टेलीफ़िल्म और टेलीविज़न पर आनेवाले धारावाहिकों की कमी पूरी करते थे।
रेडियो पर नाटक और उनका महत्व :
प्रसिद्ध साहित्यकार साहित्य रचना के साथ-साथ रेडियो के लिए नाटक भी लिखते थे। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के नाट्य आंदोलन के विकास में रेडियो नाटक बेहद अहम रहे हैं। हिंदी के कई नाटक जो मंच पर बेहद कामयाब रहे, मूलत: रेडियो के लिए ही लिखे गए थे। इनमें धर्मवीर भारती कृत ‘अंधा युग’ और मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन’ इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
रेडियो नाटक कैसे लिखे जाते हैं?
रेडियो नाटकों को लिखते समय सिनेमा और रंगमंच की भाँति चरित्रों को ध्यान में रखा जाता है। इन चरित्रों के आपसी संवाद होते हैं। इन्हीं संवादों के माध्यम से कहानी आगे बढ़ती है। अतः रेडियो नाटक में संवाद की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि रेडियो नाटक में दृश्य (विजुअल्स) नहीं होते हैं।
रेडियो नाटक और सिनेमा या रंगमंच के माध्यम में अंतर :
सिनेमा तथा रंगमंच दृश्य-श्रव्य माध्यम होते हैं जबकि रेडियो पूरी तरह से श्रव्य माध्यम है। अतः रेडियो नाटक का लेखन अन्य माध्यमों से भिन्न भी है और मुश्किल भी। इसमें सब कुछ संवादों और ध्वनि प्रभावों के माध्यम से संप्रेषित करना होता है। हाँ, कहानी का ढाँचा, शुरुआत, मध्य, अंत अर्थात परिचय – द्वंद्व समाधान सब कुछ अन्य माध्यमों जैसा ही होता है, पर यह सब कुछ आवाज़ के माध्यम से होता है।
रेडियो नाटक के लिए कहानी :
रेडियो नाटक लिखने के लिए कहानी मौलिक हो या किसी स्रोत से ली गई हो, उसमें निम्नलिखित बातों को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए –
1. कहानी पूरी तरह से एक्शन पर आधारित नहीं होनी चाहिए, क्योंकि रेडियो पर ज़्यादा ध्वनि आधारित एक्शन उबाऊ हो सकता है। साथ-साथ कथानक शायद अपना संपूर्ण प्रभाव संप्रेषित करने में बेअसर साबित हो सकता है। इसलिए रेडियो माध्यम को ध्यान में रखकर मात्र घटना प्रधान कहानी का चयन नहीं करना चाहिए।
2. श्रव्य माध्यम में नाटक या वार्ता जैसे कार्यक्रमों के लिए मनुष्य की एकाग्रता की अवधि 15 से 30 मिनट की होती है, अतः रेडियो नाटक की अवधि भी 15-30 मिनट की होनी चाहिए। क्योंकि सिनेमाघर या नाट्यगृह में दर्शक अनजाने लोगों का समूह का एक हिस्सा बनकर बैठते हैं। वे बोर होने पर भी सरलता से उठकर नहीं भागते हैं पर घर बैठकर रेडियो पर नाटक सुनने वाला श्रोता बोर होते ही किसी अन्य स्टेशन के लिए सुई घुमा सकता है या उसका ध्यान कहीं और भटक सकता है।
3. यदि कहानी लंबी है तो वह एक धारावाहिक के रूप में पेश की जा सकती है, जिसकी हर कड़ी की अवधि 15 मिनट या 30 मिनट हो सकती है।
4. चूँकि रेडियो नाटकों की अवधि छोटी होती है और श्रोता केवल आवाज़ के सहारे ही चरित्रों को याद रख पाता है। ऐसा स्थिति में किरदारों की अधिकता के कारण श्रोताओं का उनसे रिश्ता बनाए रखने में परेशानी होती है। इस कारण से पंद्रह मिनट के रेडियो नाटक में पात्रों की संख्या 5 या 6, 30-40 मिनट की अवधि वाले नाटक में पात्रों की संख्या 8-12 तथा 1 घंटा या उससे अवधि वाले नाटकों में पात्रों की संख्या 15 से 20 होनी चाहिए। पात्रों की यह संख्या एक अनुमान मात्र है। इसमें छोटे-मोटे किरदारों की संख्या को शामिल नहीं किया गया है।
रेडियो नाटक कैसे लिखें:
यूँ तो मंच का नाट्यालेख, फ़िल्म की पटकथा और रेडियो नाट्यलेखन में काफ़ी समानता है, पर इसमें दृश्य गायब होता है, जिसका निर्माण ध्वनि प्रभाव एवं संवादों के माध्यम से करना होगा।
रेडियो नाटक लेखन का उदाहरण :
दृश्य कुछ इस प्रकार का है, रात का समय है और जंगल में तीन बच्चे, राम, श्याम और मोहन रास्ता भटक गए हैं। फ़िल्म या मंच पर इसे प्रकाश, लोकेशन / मंच सज्जा, ध्वनि प्रभावों और अभिनेताओं की भाव-भंगिमाओं से दिखाया जा सकता था। रेडियो के लिए इसका लेखन कुछ इस प्रकार होगा।
कट – 1 या पहला हिस्सा
(जंगली जानवरों की आवाजें, डरावना संगीत, पदचाप का स्वर)
राम : श्याम, मुझे बड़ा डर लग रहा है, कितना भयानक जंगल है।
श्याम : डर तो मुझे भी लग रहा है राम! इत्ती रात हो गई घर में अम्मा-बाबू सब परेशान होंगे!
राम : ये सब इस नालायक मोहन की वजह से हुआ। (मोहन की नकल करते हुए) जंगल से चलते हैं, मुझे एक छोटा रास्ता मालूम है।
श्याम : (चौंककर) अरे! मोहन कहाँ रह गया? अभी तो यहीं था! (आवाज़ लगाकर) मोहन! मोहन!
राम : (लगभग रोते हुए) हम कभी घर नहीं पहुँच पाएँगे …
श्याम : चुप करो! (आवाज़ लगाते हुए) मोहन! अरे मोहन हो!
मोहन : (दूर से नज़दीक आती आवाज़) आ रहा हूँ। वहीं रुकना! पैर में काँटा चुभ गया था। (नज़दीक ही कोई पक्षी पंख पड़फड़ाता भयानक स्वर करता उड़ जाता है।) (राम चीख पड़ता है।)
राम : श्याम, बचाओ!
मोहन : (जो नज़दीक आ चुका है।) डरपोक कहीं का।
राम : (डरे स्वर में) वो…. वो…. क्या था?
मोहन : कोई चिड़िया थी। हम लोगों की आवाज़ों से वो खुद डर गई थी। एक नंबर के डरपोक हो तुम दोनों। श्याम : मोहन रास्ता भटका दिया, अब बहादुरी दिखा रहा है…
रेडियो नाटक के आरंभ में अंक या दृश्य की जगह कट-1 या पहला हिस्सा लिखा गया है। चूँकि नाटक में दृश्य नहीं होता है इसलिए अंग्रेज़ी शब्द ‘कट’ लिखने का रिवाज़ है। इन दृश्यों को अपने ढंग से भी लिखा या दर्शाया जा सकता है, क्योंकि यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि ध्वनि प्रभाव और संवाद महत्वपूर्ण हैं। जैसे – राम के संवाद – ‘कितना भयानक जंगल है’- से श्रोता जान जाते हैं कि ये लोग इस समय जंगल में है। श्याम कहता है- ‘इत्ती रात हो गई’ अर्थात स्थान जंगल और समय रात्रि। इस प्रकार संवाद द्वारा देशकाल स्थापित किया जा सकता है, परंतु यह स्वाभाविक होना चाहिए, जबरदस्ती ठूसा हुआ नहीं लगना चाहिए।
उक्त दृश्य हमें यह भी जानकारी दे रहा है कि राम सबसे ज़्यादा डरा हुआ है। डर तो श्याम को भी है, पर वह उस पर काबू करने की कोशिश कर रहा है। उनमें मोहन सबसे बेफ़िक्र है।
रेडियो नाटक में पात्रों से जुड़ी जानकारी हमें संवाद के माध्यम से मिलती है। अतः पात्रों के नाम, आपसी संबंध, चारित्रिक विशेषताएँ, संवादों द्वारा उजागर करना होता है। इसके अलावा भाषा पर ध्यान रखना होगा कि पात्र अनपढ़ पढ़ा-लिखा, वह शहर का रहने वाला है या गाँव का, उम्र, रोजगार आदि की जानकारियाँ उस चरित्र की भाषा को निर्धारित करती हैं।
एक ही व्यक्ति अपनी पत्नी से अलग ढंग से बातचीत करेगा, नौकर से अलग ढंग से बातचीत करेगा, अपने बॉस से सम्मानपूर्वक व्यवहार करेगा तथा मित्र के साथ बराबरी तथा गर्मजोशी से पेश आएगा। यह सब उसके संवाद से ही प्रकट होगा। रेडियो मूलतः संवाद प्रधान माध्यम है। अतः इसके संवाद पर एक बात और लागू होती है कि संवाद जिस चरित्र को संबोधित कर रहा है उसका नाम लेना आवश्यक होता है। इसके अलावा रेडिया नाटक में पात्र की हरकत को भी संवाद का हिस्सा बनना पड़ता है; जैसे-
हमारा चरित्र पार्क में है और उसे बेंच पर बैठना है तो उसका संवाद कुछ इस तरह का होगा – कितनी गरमी है आज पार्क में। चलूँ कुछ देर इस बेंच पर बैठ जाऊँ। (और वो आह की ध्वनि करता बेंच पर बैठ जाता है।)
उपरोक्त लिखी बातों को और बेहतर ढंग से समझने के लिए हम जगदीश चंद्र माथुर जी के नाटक के एक अंश को रेडिया नाटक में रूपांतरित करते हैं।
(हास्य भाव को पेश करने वाला संगीत। संगीत मद्धिम पड़ता है। अधेड़ उम्र के बाबू रामस्वरूप का स्वर उभरता है।)
बाबू : अब धीरे-धीरे चल… (लकड़ी के तख्त की दीवार से टकराने की आवाज़।)
बाबू : अरे-अरे एक तख्त बिछाने में ड्राइंगरूम की सारी दीवारें तोड़ेगा क्या?… अब तख्त को उधर मोड़ दे…. अरे उधर…. बस, बस!
नौकर : बिछा दूँ साहब?
बाबू : (तेज़ स्वर में) और क्या करेगा? परमात्मा के यहाँ अक्ल बँट रही थी तो तू देर से पहुँचा था क्या ? (नकल करते हुए)…. बिछा दूँ साब ! और ये पसीना किसलिए बहाया है?
(तख्त को ज़मीन पर रखने का ध्वनि प्रभाव, साथ ही नौकर की हँसी का स्वर!)
नौकर : ही-ही-ही-ही।
बाबू : हँसता क्यों है? अबे, हमने भी जवानी में कसरतें की हैं। कलसों से नहाता था लोटों की तरह। ये तख्त क्या चीज़ है? अच्छा सुन रतन, भीतर जा और बहू जी से दरी माँग ला, इसके ऊपर बिछाने के लिए।
रतन : जी साब!
बाबू : (थोड़ा स्वर बढ़ाकर, मानो पीछे से आवाज़ दे रहे हों।) ओ चद्दर भी, कल जो धोबी के यहाँ से आई है, वही!
रतन : (मानो दूर से ही जवाब दे रहा हो) जी साब!
(बाबू रामस्वरूप कोई भजन गुनगुनाते हैं, शायद ‘दर्शन दो घनश्याम, नाथ मोरी आखियाँ प्यासी हैं’ फिर स्वयं से कहते हैं।)
बाबू : ओहो, एकदम नालायक है ये रतन… देखो कैसी धूल जमी है, कुर्सियों पर… ये गुलदस्ता भी, जैसे बाबा आदम के ज़माने से साफ़ नहीं हुआ है क्या सोचेंगे लड़के वाले…. ओफ़्फ़ोह अब ये झाड़न भी गायब है, अभी तो यहीं था… हाँ ये रहा (कपड़े के झाड़न से कुर्सी साफ़ करने की आवाज़ के साथ-साथ बाबूजी का एकालाप जारी रहता है।)
बाबू : आज ये लोग उमा को देख कर चले जाएँ… फिर खबर लेता हूँ… श्रीमती जी की भी… और इस गधे रतन की भी…. (चौंक कर) ये क्या दोनों इधर ही आ रहे हैं…. रतन खाली हाथ!
प्रेमा : (गुस्से में) मैं कहती हूँ तुम्हें इस वक्त धोती की क्या ज़रूरत पड़ गई। एक तो वैसे ही जल्दी-जल्दी में….
बाबू : (आश्चर्य से) धोती!
प्रेमा : हाँ, अभी तो बदलकर आए हो…
बाबू : लेकिन तुमसे धोती माँगी किसने?
प्रेमा : यही तो कह रहा था रतन।
बाबू : क्यों बे रतन, तेरे कानों में डॉट लगी है क्या? मैंने कहा था-धोबी! धोबी के यहाँ से जो चादर आई है, उसे माँग ला… अब तेरे लिए दूसरा दिमाग कहाँ से लाऊँ। उल्लू कहीं का।
प्रेमा : अच्छा, जा पूजा वाली कोठरी में लकड़ी के बक्स के ऊपर धुले कपड़े रखे हैं न, उन्हीं में से एक चादर उठा ला।
रतन : और दरी बीबी जी?
प्रेमा : दरी यहीं तो रखी है, कोने में…. वो पड़ी तो है।
बाबू : दरी हम उठा लेंगे, तू चादर ले कर आ और सुन बीबी जी के कमरे से हारमोनियम भी लेते आना।… अब जल्दी जा।
रतन – : जी साब!
बाबू : आओ तब तक हम दोनों दरी बिछा देते हैं… ज़रा पकड़ो उधर से इसे एक बार झटक देते हैं।
(दरी के झटकने का स्वर। बाबू जी के खाँसने का स्वर।)
बाबू : (खाँसते-खाँसते) ओ…हो… कितनी गर्द भरी है इस दरी में।
इस रेडियो नाट्य रूपांतरण में नाटक के आलेख और रेडियो के आलेख में कोई अंतर नज़र नहीं आता है, परंतु कुछ छोटे-छोटे अंतर हैं, जो रेडियो नाटक के लिए काफी महत्वपूर्ण बन जाते हैं।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न –
प्रश्न 1.
दृश्य-श्रव्य माध्यमों की तुलना में श्रव्य माध्यम की क्या सीमाएँ हैं? इन सीमाओं को किस तरह पूरा किया
जा सकता है?
उत्तर :
दृश्य-श्रव्य माध्यमों की तुलना में श्रव्य माध्यम की अनेक सीमाएँ हैं; जैसे- फ़िल्म, टेलीविज़न, नाटक जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यमों में दृश्य होते हैं, पर रेडियो नाटक में नहीं होते। रेडियो पूरी तरह से श्रव्य माध्यम है इसीलिए रेडियो नाटक का लेखन सिनेमा व रंगमंच के लेखन से थोड़ा भिन्न भी है और थोड़ा मुश्किल भी। इसमें सब कुछ संवादों और ध्वनि प्रभावों के माध्यम से संप्रेषित करना होता है। मंच सज्जा तथा वस्त्र – सज्जा के साथ-साथ अभिनेता के चेहरे की भाव-भंगिमाएँ आदि संपूर्ण परिवेश आवाज़ के माध्यम से प्रस्तुत करना होता है।
प्रश्न 2.
नीचे कुछ दृश्य दिए गए हैं। रेडियो नाटक में इन दृश्यों को आप किस-किस तरह से प्रस्तुत करेंगे, विवरण दीजिए।
(क) घनी अँधेरी रात
(ग) बच्चों को खुशी
(ख) सुबह का समय
(घ) नदी का किनारा
(ङ) वर्षा का दिन
उत्तर :
(क) घनी अँधेरी रात- रेडियो नाटक में झींगुरों की झनझनाहट, गीदड़ की हुआँ हुआँ की डरावनी आवाज़, चमगादड़ों की आवाज़ तेज़ हवा चलने की साँय साँय, दरवाजे की चरमराहट की आवाज़ें शामिल करके घनी अँधेरी रात का दृश्य प्रस्तुत किया जा सकता है।
इसी आधार पर अन्य दृश्यों के प्रस्तुति – विवरण विद्यार्थी की कल्पना की सहायता से स्वयं करें।
प्रश्न 3.
रेडियो नाटक लेखन का प्रारूप बनाइए और अपनी पुस्तक की किसी कहानी के एक अंश को रेडियो नाटक में रूपांतरित कीजिए।
उत्तर :
छात्र अपने शिक्षक/शिक्षिका की सहायता से स्वयं करें।
लघुत्तरात्मक प्रश्न
अन्य हल प्रश्न –
प्रश्न 1.
पहले रेडियो मनोरंजन का सबसे सस्ता एवं सुलभ साधन क्यों हुआ करता था ?
उत्तर :
रेडियो मनोरंजन का सबसे सस्ता एवं सुलभ साधन इसलिए हुआ करता था क्योंकि उन दिनों न टेलीविज़न होते थे और न कंप्यूटर। सिनेमा हॉल और थियेटर बहुत कम संख्या में थे। साथ-साथ वे आम आदमी की पहुँच से दूर हुआ करते थे।
प्रश्न 2.
टी०वी० धारावाहिक और टेलीफ़िल्मों की कमी उन दिनों कैसे पूरी होती थी ?
उत्तर :
टी०वी० धारावाहिक और टेलीफ़िल्मों की कमी उन दिनों रेडियो पर आनेवाले नाटकों के माध्यम से पूरी की जाती थी।
प्रश्न 3.
रेडियो के लिए लिखे गए उन नाटकों का उल्लेख कीजिए जो बाद में मंच पर भी बहुत सफल रहे।
उत्तर :
ऐसे रेडियो नाटक हैं- धर्मवीर भारती कृत ‘अंधा युग’ और मोहन राकेश कृत ‘आषाढ़ का एक दिन’।
प्रश्न 4.
रेडियो नाटक और रंगमंच के माध्यम में सबसे बड़ा अंतर क्या है?
उत्तर :
रेडियो नाटक और रंगमंच के माध्यम में सबसे बड़ा अंतर यह है कि रेडियो श्रव्य माध्यम है जबकि रंगमंच दृश्य-श्रव्य माध्यम है।
प्रश्न 5.
रेडियो नाटकों का लेखन अन्य माध्यम के लेखन से कुछ कठिन क्यों होता है?
उत्तर :
रेडियो नाटकों का लेखन अन्य माध्यम के लेखन से इसलिए कठिन होता है क्योंकि इसमें मंचसज्जा, वस्त्रसज्जा और अभिनेताओं के चेहरे की भाव-भंगिमाओं आदि को संवादों और ध्वनि प्रभावों के माध्यम से संप्रेषित करना होता है।
प्रश्न 6.
रेडियो नाटक लेखन हेतु कहानी का चयन करते समय क्या सावधानी रखनी चाहिए?
उत्तर :
रेडियो नाटक लेखन हेतु ऐसी कहानी का चयन करना चाहिए जो ज्यादा एक्शन प्रधान न हो क्योंकि ज्यादा एक्शन रेडियो पर उबाऊ एवं संप्रेषणहीन साबित हो सकता है।
प्रश्न 7.
सामान्यतया रेडियो नाटकों की अवधि कितनी होती है और क्यों?
उत्तर :
सामान्यतया रेडियो नाटकों की अवधि 15 से 30 मिनट की होती है, क्योंकि मनुष्य की एकाग्रता की अवधि 15 से 30 मिनट तक ही मानी गई है।
प्रश्न 8.
रेडियो नाटकों में पात्रों की संख्या कितनी रखनी चाहिए?
उत्तर :
यदि रेडियो नाटकों की अवधि 15 मिनट तो 5-6 पात्र, 30 से 40 मिनट अवधि होती है तो 8 से 12 पात्र तथा घंटा या उससे अधिक अवधि होने पर पात्रों की संख्या 15 से 20 तक हो सकती है।
प्रश्न 9.
रेडियो नाटकों में पात्रों की संख्या कम क्यों रखी जाती है?
उत्तर :
रेडियो नाटकों में पात्रों की संख्या इसलिए कम रखी जाती है, क्योंकि श्रोता सिर्फ आवाज़ के सहारे पात्रों को याद रख पाते हैं। पात्रों की संख्या अधिक होने पर उनको याद रख पाना कठिन हो जाता है।
प्रश्न 10.
रेडियो के लिए संवाद लेखन में किस बात का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर :
रेडियो नाटक के लिए संवाद लेखन में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि संवाद जिस चरित्र को संबोधित कर रहा हो उसका नाम लेना आवश्यक है क्योंकि रेडियो में कौन, किससे बातें कर रहा है यह हम देख नहीं पाते हैं।