Students can find the 11th Class Hindi Book Antral Questions and Answers CBSE Class 11 Hindi Elective रचना परियोजना to develop Hindi language and skills among the students.
CBSE Class 11 Hindi Elective Rachana परियोजना
1. कबीरदास
कवि-परिचय :
संत कबीर हिंदी काव्य इतिहास में परिचय के मोहताज नहीं हैं। जिस प्रकार कीचड़ में खिलनेवाला कमल, कीचड़ की समस्त गंद्गी से विलग, अपने निर्मल सौंदर्य की छटा चारों ओर बिखेर, अपने अलग अस्तित्व का बोध कराता है, उसी प्रकार सांसारिक होते हुए भी कबीर एक महान संत, ज्ञानी एवं योगी थे। कबीर भक्तिकाल की निर्गुण शाखा के ज्ञानाश्रयी धारा के संत कवि थे। वे एक सजग कवि और विचारक थे, इसलिए उन्होंने काव्य-रचना के साथ-साथ एक कुशल समाज सुधारक का भी कार्य किया। उन्होंने अपने दोहों में तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों, आडंबरों आदि का डटकर विरोध किया।
जीवन-परिचय :
कबीदास की जीवन-संबंधी जानकारियाँ प्रामाणिक नहीं हैं। उनका जन्म 1398 ई० (संवत 1455) में काशी में माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि काशी के विख्यात महात्मा रामानंद ने भूलवश एक विधवा ब्राह्मणी को पुत्रवती होने का वरदान दे दिया था। कबीर का जन्म उसी विधवा ब्राह्मणी से हुआ, परंतु लोक-लाज के भय से उसने उन्हें काशी के लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ दिया। तभी नीरू एवं नीमा नामक एक निस्संतान मुस्लिम जुलाहा दंपती उधर से गुजर रहे थे, उन्होंने उस बालक को रोते हुए देखा, तो उसे उठा लाए और अपने सगे पुत्र के समान उसका लालन-पालन किया। यही बालक बड़ा होकर संत कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने विख्यात संत स्वामी रामानंद से दीक्षा ली। कुछ लोग उन्हें सूफी संत शेख तकी का शिष्य भी मानते हैं, परंतु स्वयं कबीर के शब्दों में-
“काशी में हम प्रगट भए हैं, रामानंद चैताये।”
इस दूसरी मान्यता को कबीर ने स्वयं ही निर्मूल सिद्ध कर दिया। अतः उन्हें स्वामी रामानंद का शिष्य मानना ही तर्कसंगत होगा। मुस्लिम परिवेश में पालन-पोषण और हिंदू गुरु की शिक्षा-दीक्षा का परिणाम यह हुआ कि उन्हें दोनों धर्मों का संपूर्ण ज्ञान ही नहीं हुआ, बल्कि वे दोनों धर्मों से संबंधित कुरीतियों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं पाखंडों से भी परिचित हो गए। इसलिए, अपने दोहों एवं पदों में उन्होंने इन सभी बुराइयों का डटकर विरोध किया है। कबीरदास जी ने औपचारिक रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, उन्होंने स्वयं ही कहा है-
“मसि कागद छुयौ नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथा”
साधु-संतों की सत्संगति में रहते हुए उन्होंने पर्याप्त ज्ञानार्जन किया। स्वामी रामानंद को गुरु मानते हुए, उन्होंने अपनी काव्य रचना प्रारंभ की। काव्य-पाठ करते हुए उनके जीवन का बड़ा भाग इन्हीं संतों के सान्निध्य में व्यतीत हुआ। शायद इसीलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में सत्संगति पर विशेष बल दिया। कबीरदास जी का विवाह ‘लोई’ नामक स्त्री के साथ हुआ था, जिससे उन्हें कमाल नामक एक पुत्र और कमाली नामक एक पुत्री प्राप्त हुई।
कबीदास की मृत्यु सन् 1518 ई० (संवत 1575) में मगहर में मानी जाती है। कुछ विद्वानों का मत है कि उन्होंने स्वेच्छा से मगहर में जाकर अपने प्राण त्यागे थे। इस प्रकार अपनी मृत्यु के समय में भी उन्होंने जनमानस में व्याप्त उस अंधविश्वास को आधारहीन सिद्ध करने का प्रयास किया, जिसके अनुसार यह मान्यता है कि काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक की प्राप्ति होती है।
उनकी मृत्यु से संबंधित एक बड़ी ही रोचक कथा प्रचालित है। कहते हैं कि जब उन्होंने अपना शरीर त्यागा तो उनके हिंदू एवं मुस्लिम शिष्यों में विवाद शुरू हो गया। मुस्लिम शिष्य उन्हें अपने धर्मानुसार दफ़नाना चाहते थे, जबकि हिंदू शिष्य उन्हें हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार अग्नि को समर्पित करना चाहते थे। इस विवाद के मध्य जब उनके पार्थिव शरीर से कफ़न उठाया गया तो वहाँ उनके मृत शरीर के स्थान पर कुछ पुष्प मिले, जिन्हें दोनों संप्रदाय के शिष्यों ने परस्पर बाँटकर अपनी-अपनी धार्मिक रीतियों के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया।
काव्यगत विशेषताएँ –
कबीरदास उदार विचारों के संत थे। उनका उद्देश्य काव्य-सृजन नहीं था, बल्कि वे लोगों को आध्यात्मिक, भक्ति एवं व्यावहारिक विषयों से संबंधित उपदेश दिया करते थे। उन्होंने अपनी सहज एवं स्वतःस्फुरित स्वाभाविक वाणी में तत्कालीन समाज को झकझोर कर उसे एक नई दिशा प्रदान की। उनकी रचनाओं में उनकी एक निर्भीक समाज सुधारक की स्पष्ट छवि दुष्टिगोचर होती है। कबीर भक्तिकाल की निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि थे, इसलिए उन्होंने धार्मिक कर्मकांडों एवं बाह्य आडंबरों का कड़ा विरोध किया। उन्होंने ‘हिंदू-मुस्लिम’ एकता पर बल देते हुए दोनों ही धर्मों की कट्टरता, अंधविश्वासों एवं कुरीतियों का विरोध किया। उनके अनुसार राम, रहीम और खुदा सब एक ही ईश्वर के नाम हैं, जो मंदिर-मस्जिद तक ही सीमित नहीं, बल्कि सर्वत्र व्याप्त हैं-
“ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।
कहे कबीर सुनो भई साधो, सब साँसों की साँस में।”
उन्होंने अपनी रचनाओं में गुरु महिमा, सदाचार, सत्संग तथा सत्य भाषण पर भी बल दिया है। उनके अनुसार सच बोलने वाले के ही हृदय में ईश्वर वास करता है-
“जा के हुदय साँच है, ताके हदय आप।”
सच बात कहने में कहीं-कहीं उनकी वाणी में कठोरता भी आ गई है, जो हृदय पर सीधी चोट करती है। उनके तर्क इतने सटीक हैं कि विरोधी को निरुत्तर कर देते हैं।
रचनाएँ –
कबीर स्वयं पढ़े लिखे नहीं थे, परंतु उनका ज्ञान किसी पंडित से कम नहीं था। समाज की परिस्थितियों के अनुसार कभी व्यंग्यात्मक तो कभी उपदेशात्मक शैली में अपनी अनपढ़ भाषा में कुछ भी कह देते थे। उनका यह ‘कुछ भी’ कह देना ही साहित्य की अमूल्य धरोहर बन गई। हालाँकि उन्होंने रहस्य, साधना, हठयोग एवं कुंडलिनी विद्या संबंधी कुछ जटिल रचनाएँ भी की हैं। उन्होंने स्वयं किसी ग्रंथ की रचना नहीं की। उनके शिष्यों ने ही उनके द्वारा कहे गए दोहों और पदों को लिपिबद्ध किया होगा। प्रामाणिक तौर पर उनकी रचनाएँ ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संकलित हैं, जिसके तीन भाग हैं –
साखी – इसमें कबीर के उपदेशों का संकलन दोहों के रूप में मिलता है।
सबद – इसमें कबीर के गेय पद संकलित हैं, जिनमें उनके अलौकिक प्रेम एवं साधना पद्धति के दर्शन होते हैं।
रमैनी – इसमें कबीर के रहस्यवादी एवं दार्शनिक बिचार व्यक्त हुए हैं।
भाषा एवं शैली
उनकी भाषा सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी है, जिसमें अरबी, फ़ारसी, अवधी, ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी आदि कई भाषाओं के शब्द पाए जाते हैं, फिर भी उसमें स्वाभाविक प्रवाह सहित गेयता, भावात्मकता, विचारात्मकता एवं व्यंयात्मकता है।
साखी
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कहया प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग।।1।।
राम नाम के पटतरे, देबे कौं कछु नाहि।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माँहिं।।2॥
ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ।
जब गोविंद कृपा करी, तब गुरु मिलिया आइ।।3।।
माया दीपक नर पतंग, श्रमि श्रमि इवैं पड़ंत।
कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत।।4।।
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं।।5।।
भगति भजन हरि नावँ है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बाचा कर्मनाँ, कबीर सुमिरण सार।।6॥
कबीर चित्त चरंकिया, चहुँ दिसि लागी लाइ।
हरि सुमिरण हाथू घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ।।7।।
अंषड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।।8।।
झूठे सुख को सुख कहै, मानत हैं मन मोद।
जगत चबैना काल का, कहु मुख में कछु गोद।19।।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।
सब अधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहिं।10।।
कबीर कहा गरबियौ, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि परूयूँ भवें लोटणाँ, ऊपरि जामै घास।।11।।
यहुं ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के ब्यौहार कौं, झूठै रंग न भूलि॥12॥
इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूँ पाली देह।
राम नाम जाण्या नहीं, अंति पड़ी मुख षेह॥13॥
यह तन काचा कुंभ है, लियाँ फिरै था साथि।
ढबका लागा फूटि गया, कछू न आया हाथि॥14।।
कबीर कहा गरबियौ, देही देखि सुरंग।
बीछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुवंग।।15।।
2. सूरदास
कवि-परिचय :
हिंदी साहित्याकाश के सूर्य कहे जाने वाले सूरदास भक्तिकाल की सगुण धारा के कृष्णमार्गीं शाखा के कवि हैं। कृष्ण भक्त कवियों में उनका नाम सर्वोपरि है। सूरदास एक नेत्रहीन कवि थे। वे जन्मांध थे या नहीं, इस विषय पर लोगों में मतभेद है। वे श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। कृष्ण भक्ति में स्वयं को पूर्णतया लीन करके उन्होंने श्रीकृष्ण का जो वात्सल्य वर्णन किया है, वह संसार में अद्वितीय है। सूरदास जी की श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से संबंधित रचनाएँ पढ़ते ही एक नटखट बालक की बाल-सुलभ क्रिया-कलापों के चित्र नेत्रों के सामने प्रस्तुत होने लगते हैं। ऐसा जीवंत चित्रण करनेवाला व्यक्ति नेत्रहीन कैसे हो सकता है, यही सोचकर कुछ विद्ववान उन्हें जन्मांध नहीं मानते।
जीवन-परिचय –
सूरदास जी के जन्मकाल एवं जन्मस्थान के विषय में भी विद्वानों में मतभेद है, परंतु अधिकांश विद्वान उनका जन्म 1478 ई० (संवत 1535) में मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रूनकता नामक गाँव में मानते हैं, परंतु कुछ लोग उनका जन्मस्थल दिल्ली के पास सीही को मानते हैं। अधिकांश लोग उन्हें जन्मांध मानते हैं, तो कुछ का मानना है कि वे जन्म से अंधे न होकर बाद में किसी दुर्घटना में अपने नेत्रों का प्रकाश खो बैठे थे। वे अपने पक्ष में यही तर्क देते हैं कि प्रकृति तथा बाल-मनोवृत्तियों एवं मानव-स्वभाव का जैसा सूक्ष्म और सुंदर वर्णन सूरदास जी ने किया है, कोई जन्मांध व्यक्ति नहीं कर सकता।
सूरदास जी महान ज्ञानी बल्लभाचार्य के शिष्य थे और उनके साथ ही गौघाट पर श्रीनाथ जी के मंदिर में रहते थे। प्रारंभ में वे भक्ति-संबंधी विनय-पद गाते थे, परंतु बाद में बल्लभाचार्य जी से प्रभावित हो श्रीकृष्ण के परम भक्त बन गए और उनकी भक्ति में पद गाने लगे। सूरदास जी की मृत्यु 1583 ई० (संवत 1640) में मथुरा के गोवर्धन के पास पारसौली नामक स्थान पर हुई थी।
काव्यगत विशेषताएँ –
श्रीकृष्ण भक्त कवियों में सूरदास का स्थान सर्वोपरि है। वे तत्कालीन वैष्णव कवियों के शिरोमणि माने जाते हैं। सूरदास ने अपने आराध्य देव श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का अतीव सुंदर वर्णन तो किया ही है, साथ ही श्रीकृष्ण के प्रति उनके माता-पिता एवं गोपिकाओं के प्रेम का भी अत्यंत सजीव वर्णन किया है। भ्रमर-गीत के गोपी-उद्धव संबाद में उद्धव के निर्गुण ब्रह्म संबंधी उपदेशों को सुनकर गोपियों द्वारा ‘निर्गुण कौन देश को बासी’ कहलवाकर निर्गुण ब्रह्म के अस्तित्व को सहज ही निराधार सिद्ध कर उस पर सगुण भक्ति की श्रेष्ठता निरूपित कर दी है। श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त, सूरदास के लिए श्रीकृष्ग ही सब कुछ हैं। वे सभी असंभव कायों को संभव करने वाले और कामधेनु के समान उनकी हर मनोकामना पूर्ण करने वाले हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में श्रीकृष्ग के बाल हट, माखन चोरी, बाल सुलभ चपलता, नटखटपन आदि का मनोहारी
चित्रण तो किया ही है, साथ ही शृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का भी मार्मिक एवं हृदयग्राही वर्णन भी किया है।
रचनाएँ
कहा जाता है कि भक्त सूरदास ने लगभग सवा लाख पदों की रचना की थी। उनके कुल ग्रंथों की संख्या 25 बताई जाती है, परंतु उनके केवल तीन ग्रंथ ही उपलब्ध हैं –
सूरसागर – यह एक गीति-काव्य है। इसके सभी पद तन्मयता के साथ गाए जाते हैं।
सूरसारावली – कई विद्वान इसे सूरसागर का सार या उसकी विषय-सूची मानते हैं।
साहित्यलहरी – यह प्रसिद्ध दृष्टकूट पदों का संग्रह है। इसमें अर्थ-गोपन शैली में राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है। अलंकार निरूपण की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
भाषा एवं शैली – सूरदास जी ने अपने आराध्य ब्रजराज श्रीकृष्ण की जन्मभूमि की ब्रजभाषा को अपनाया है। कहीं-कहीं अवधी, संस्कृत और फ़ारसी के शब्द भी मिलते हैं, परंतु भाषा सर्वत्र सरस, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है।
सूरदास जी स्वयं गायक थे। अतः उनके पदों में गेयता एवं संगीतात्मकता है। उन्होंने मुक्तक काव्य शैली को अपनाया है। अलंकारों का प्रयोग उनके भाषा-सौंदर्य को और भी अनुपम बना देता है।
सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट कहे जाते हैं। उन्होंने अपनी आत्मा के नेत्रों से वात्सल्य एवं शृंगार के हर पक्ष को अनुभव कर उसका वर्णन किया है। वास्तव में सूर की रचनाएँ हिंदी काव्य की अनूठी धरोहर हैं।
पद
चरन-कमल बदौं हरि राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे कौं सब कुछ दरसाइ।
बहिरौ सुनै, गूँग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराइ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तिहिं पाइ॥1॥।
अविगत-गति कहु कहत न आवै।
ज्यौं गूँगे मीठे फल कौ रस, अंतरगत ही भावै॥
परम स्वाद सबही सु निरंतर, अमित तोष उपजावै।
मन-बानी कौं अगम-अगोचर, सो जानैं जो पावै।।
रूप-रेख-गुन जाति-जुगति-बिनु, निरालंब कित धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातैं, सूर सगुन-पद गावै।2॥
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नंद कैं आँगन, बिंब पकरिबैं धावत।।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वे दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत।।
कनक-भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति।
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति॥।3।।
मैं अपनी सब गाइ चरैहौं।
प्रात होत बल कै संग जैहौं, तेरे कहैं न रैहौं।।
ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैकहुँ डर नहिं लागत।
आजु न सोवौं नंद-दुहाई, रैनि रहौंगौ जागत।
और ग्वाल सब गाइ चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौं?
सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं दैहों।।4।।
मैया हौं न चरैहौं गाइ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसों, मेरे पाईँ पिराइँ।
जौं न पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौंहँ दिवाइ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ।
मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ॥5।।
सखी री, मुरली लीजै चोरि।
जिनि गुपाल कीन्हे अपनैं बस, प्रीति सबनि की तोरि।।
छिन इक घर-भीतर, निसि-बासर, धरत न कबहूँ छोरि।
कबहूँ कर, कबहूँ अधरनि, कटि कबहूँ खोंसत जोरि।।
ना जानौं कछु मेलि मोहिनी, राखे अँग-अँग भोरि।
सूरदास प्रभु कौ मन सजनी, बैध्यौ राग की डोरि॥6॥
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
बृन्दावन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की छाँहीं।।
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दहयौ सजायौ, अति हित साथ खवावत।।
गोपी ग्वाल बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।
सूरदास धनि-धनि ब्रजवासी, जिनसौं हित जदु-तात।।7॥।
ऊधौ मन न भए दस बीस।
एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधै ईस।।
इंद्री सिथिल भईं केसव बिनु, ज्यों देही बिनु सीस।
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।।
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस।।
सूर हमारें नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस।।8॥
ऊधौ जाहु तुमहिं हम जाने।
स्याम तुमहिं ह्याँ कों नहिं पठयौ, तुम हौ बीच भुलाने।।
ब्रज नारिनि सौं जोग कहत हौ, बात कहत न लजाने।
बड़े लोग न बिबेक तुम्हारे, ऐसे भए अयाने।।
हमसौं कही लई हम सहि कै, जिय गुनि लेहु सयाने।।
कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर, मष्ट करौ पहिचाने।।
साँच कहौं तुमकों अपनी सौं, बूझति बात निदाने।
सूर स्याम जब तुमहिं पढायौ, तब नैकहुँ मुसकाने।।9।।
निरगुन कौन देस कौ बासी?
मधुकर कहि समुझाइ सौंह दै, बूझतिं साँच न हाँसी।।
को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी?
कैसे बरन, भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलाषी?
पावैगो पुनि कियौ आपनौ, जो रे करैगो गाँसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ बाबरौ, सूर सबै मति नासी॥10।।
सँदेसो देवकी सौं कहियौ।
हौं तो धाइ तिहारे सुत की, दया करत ही रहियौ।।
जदपि टेव तुम जानति उनकी, तऊ मोहिं कहि आवै।
प्रात होत मेरे लाल लड़ैतें, माखन रोटी भावै।।
तेल उबटनौ अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते।
जोइ-जोइ माँगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करि कै न्हाते।।
सुर पथिक सुनि मोहिं रैनि-दिन, बढ़यौं रहत उस सोच।
मैरौ अलक लड़ैतो मोहन ह्वैहै करत सँकोच॥11।।
(सूरसागर’ से)
3. तुलसीदास
कवि-परिचय :
हिंदी काव्य की महान विभूति महाकवि तुलसीदास हिंदी काव्य साहित्य की भक्तियुगीन सगुण ध रा की राममार्गी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। ‘रामचरितमानस’ केवल भारत में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व में भारतीय प्राचीन धर्म एवं संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, जिसने तुलसीदास जी को भारत का ही नहीं, बल्कि विश्वभर की मानवता का कवि बना दिया। बाल्मीकि रचित राम कथा जो एक वर्ग विशेष तक ही सीमित थी, उसे तुलसीदास ने सरल अवधी भाषा में लिखकर जन-मानस तक पहुँचाया। इसीलिए तुलसीदास जी जन-मानस के कवि कहे जाते हैं।
जीवन-परिचय –
लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास के जीवन से संबंधित प्रामाणिक सामग्री अभी भी प्राप्त नहीं है। उनके जन्म एवं मृत्यु के विषय में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। अधिकांश विद्वानों का मत है कि उनका जन्म सन् 1532 ई० (संवत् 1589) में उत्तर प्रदेश में बाँदा जिले के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। जबकि कुछ लोग उनका जन्म 1497 ई० (संवत् 1554) में सोरों ग्राम, एटा जिला, उत्तर प्रदेश में मानते हैं। एक दोहा भी जन्म से संबंधित प्रचलित है –
“पंद्रह सै चौवन विषै, कालिंदी के तीर।
सावन सुक्ला सत्तमी, तुलसी धरेउ शरीर॥'”
उनकी मृत्यु सन् 1623 ई० (संवत् 1680) में काशी में मानी जाती है। जन्म के अनुसार मृत्यु दोहा भी प्रचलित है-
“संबत सोलह सो असि, असि गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो शरीर॥”
उनके पिता का नाम आत्माराम दूबे और माता का नाम हुलसी माना जाता है। माता-पिता की मृत्योपरांत उनका जीवन अत्यंत कष्ट में व्यतीत हुआ। उनका विवाह रत्नावली नामक अत्यंत सुंदर स्त्री से हुआ था, जिसके प्रति उनके मन में अगाध प्रेम था, परंतु उसी के उपदेश से उनका मन इस संसार से विरक्त हो गया और उन्होंने अपना जीवन राम-भजन में लगा दिया। उन्होंने गुरु नरहरिदास की शरण ली, जिन्होंने उनको वेद, पुराण तथा अन्य धर्म-शास्त्रों का ज्ञान कराया।
महाकवि तुलसीदास एक उत्कृष्ट कवि ही नहीं, महान लोकनायक और तत्कालीन समाज के दिशा-निर्देशक भी थे। उनके द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ अपने सभी पक्षों-भाषा, भाव, उद्देश्य, विषय-वस्तु, चरित्र-चित्रण, संवाद् आदि की दृष्टि से हिंदी साहित्य का एक उत्कृष्ट ग्रंथ है। तुलसीदास एक विलक्षण प्रतिभा संपन्न तथा लोकहित एवं समन्वय भाव से युक्त महाकवि थे।
रचनाएँ –
संवत् 1631 से संवत् 1633 के बीच में तुलसीदास जी ने ‘रामचरितमानस’ की रचना की। इसके अतिरिक्त दोहावली, गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, जानकीमंगल, पार्वती मंगल, वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण, हनुमान बाहुक आदि उनके प्रमुख ग्रंथ हैं।
भाषा शैली – तुलसीदास जी ने ब्रज एवं अवधी दोनों भाषाओं में रचनाएँ की हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में मुहावरे एवं लोकोक्तियों का प्रचुरता में प्रयोग किया है। तुलसीदास जी ने अपने समय में प्रचलित सभी शैलियों को अपनाया है। ‘रामचरितमानस’ में प्रबंध शैली ‘विनयपत्रिका’ में मुक्तक और ‘दोहावली’ में कबीर द्वारा प्रयुक्त साखी शैली का प्रयोग है।
‘रामचरितमानस’ उनका सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है। इसकी गणना विश्व के प्रमुख ग्रंथों में होती है। इस ग्रंथ में भारतीय प्राचीन संस्कृति, धर्म, दर्शन तथा भक्ति का अद्भुत समन्वय है। यह ग्रंथ आज भी जनमानस को आदर्श जीवन की प्रेरणा देता है। तुलसीदास जी ने राम की शक्ति, शील तथा सौंदर्य के समन्वित रूप की अवधारणा की है।
धनुष-भंग
दोहा- उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥1॥
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।।
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने।।
भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरसहिं सुमन जनावहिं सेवा।।
गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा।।
सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी।।
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे।।
तौ सिवधनु मृनाल की नाई। तोरहुँ रामु गनेस गोसाई।।
दोहा- रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥2॥
सखि सब कौतुकु देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे।।
कोठ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।।
रावन बान हुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।।
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेही।।
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी।।
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी।।
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेड सुजसु सकल संसारा।।
रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा।।
दोहा- मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब।।3॥
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे।।
देबि तजिअ संसड अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी।।
सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती।।
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हदयँ बिनवति जेहि तेही।।
मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।।
करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई।।
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिडँ तुअ सेवा।।
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।।
दोहा- देखित देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर।।4।।
नीके निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।।
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई।।
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा।।
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।
अंति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं।।
दोहा- प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥5।।
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।
लोचन जल रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना।।
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रीतिति उर आनी।।
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर के दासी।।
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।।
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना।।
सियहि बिलोकि तकेड धनु कैसें। चितव गरुरु लघु व्यालहि जैसें।।
दोहा- लखन लखेड रघुबंसमनि ताकेड हर कोदंडु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥6।।
दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला।।
राम चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा।।
चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।।
सब कर संसड अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥
भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई।।
सिय कर सोचु जनक पहितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।
संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई।।
राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोड कड़हारू।।
दोहा- राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥7।।
देखी बिपुल बिकल बैंदही। निमिष बिहात कलप सम सेही।।
तृषित बारि बिन जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।।
का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें।।
अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।
गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।
दमकेंड दामिनि जिमि जबलयक। पुनि नभ धनु मंडल सम भयक।।
लेत चढ़ावत खंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
छंद – भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले।।
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेड राम तुलसी जयति बचन उचारहीं।।
(‘रामचरित मानस : बालकांड’ से)
4. मीराबाई
जीवन-परिचय –
जोधपुर के संस्थापक राव जोधा जी की प्रपौत्री, जोधपुर नरेश राजा रत्नसिंह की पुत्री और भगवान कृष्ण के प्रेम में दीवानी मीराबाई का जन्म राजस्थान के चौकड़ी नामक ग्राम में 1498 ई० में हुआ था। बचपन में ही माता का निधन हो जाने के कारण वे अपने पितामह राव दूदा जी के पास रहती थीं और प्रारंभिक शिक्षा भी उन्हीं के पास रहकर प्राप्त की थीं। राव दूदा जी बड़े ही धार्मिक एवं उदार प्रवृत्ति के थे. जिनका प्रभाव मीरा के जीबन पर पूर्णरूपेण पड़ा था। आठ वर्ष की मीरा ने कब श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार लिया, यह बात कोई नहीं जान सका।
उनका विवाह चित्तौड़ के महाराजा राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ वर्ष बाद ही मीरा विधवा हो गईं। अब तो उनका सारा समय श्रीकृष्ण-भक्ति में ही बीतने लगा। मीरा श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम मानकर उनके विरह में पद गातीं और साधु-संतों के साथ कीर्तन एवं नृत्य करतीं। उनके इस प्रकार के व्यवहार ने परिवार के लोगों को रुष्ट कर दिया और उन्होंने मीरा की हत्या करने का कई बार असफल प्रयास किया।
अंत में राणा के दुर्व्यवहार से दुखी होकर मीरा वृंदावन चली गईं। मीरा की कीर्ति से प्रभावित होकर राणा ने अपनी भूल पर पश्चात्ताप किया और उन्हें वापस बुलाने के लिए कई संदेश भेजे; परंतु मीरा सदा के लिए सांसारिक बंधनों को छोड़ चुकी थीं। कहा जाता है कि मीरा एक पद की पंक्ति ‘हरि तुम हरो जन की पीर’ गाते-गाते भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में विलीन हो गई थीं। मीरा की मृत्यु द्वारका में 1546 ई० के आस-पास हुई थी।
साहित्यिक सेवाएँ-
मीरा के काव्य का मुख्य स्वर कृष्ण-भक्ति है। उनके काव्य में उनके हृय की सरलता तथा निश्छलता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। उनकी भक्ति-साधना ही उनकी काव्य-साधना है। दाम्पत्य-प्रेम के रूप में व्यक्त उनके संपूर्ण काव्य में, उनके हृदय के मधुर भाव गीत बनकर बाहर उमड़ पड़े हैं। विरह की स्थिति में उनके वेदनापूर्ण गीत अत्यंत हदययस्पर्शी बन पड़े हैं। उनका प्रत्येक पद सच्चे प्रेम की पीर से परिपूर्ण है। भाव-विभोर होकर गए गए तथा प्रेम एवं भक्ति से ओत-प्रोत उनके गीत; आज भी तन्मय होकर गाए जाते हैं। कृष्ण के प्रति प्रेमभाव की व्यंजना ही उनकी कविता का उद्देश्य रहा है।
रचनाएँ –
मीरा की रचनाओं में उनके हदय की विह्वलता देखने को मिलती है। उनके नाम से सात-आठ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं- (1) नरसी जी का मायरा (2) राग गोविंद (3) गीत गोविंद की टीका (4) राग-सोरठ के पद (5) मीराबाई की मलार (6) गरबा गीत (7) राग विहाग तथा फुटकर पद। उनकी प्रसिद्धि का आधार ‘मीरा पदावली’ एक महत्वपूर्ण कृति है।
भाषा शैली – मीरा ने ब्रजभाषा को अपनाकर अपने गीतों की रचना की। उनके द्वारा प्रयुक्त इस भाषा पर राजस्थानी, गुजराती एवं पंजाबी भाषा की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है। उनकी काव्य-भाषा अत्यंत मधुर, सरस और प्रभावपूर्ण है। उनके सभी पद गेय हैं। उन्होंने गीतिकाव्य की भावपूर्ण शैली अथवा मुक्तक शैली को अपनाया है। उनकी शैली में हृदय की तन्मयता, लयात्मकता एवं संगीतात्मकता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।
पदावली
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुण तिलक दिए भाल।।
मोहनि मूरति साँवरि सूरति, नैना बने बिसाल।
अधर-सुधा-रस मुरली राजत, उर बैजंती-माल॥
छुद्र घंटिका कटि-तट सोभित, नूपुर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।॥1॥
पायो जी म्हैं तो राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।।
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खरचै नहिं कोइ चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो।।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भव-सागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस गायो।॥12॥
माई री मैं तो लियो गोविंदो मोल।
कोई कहै छाने कोई कहे चुपके, लियो री बकीत होल।।
कोई कहै मुँहघो कोई कहै सुँहघो, लियो री तराजू तोल।
कोई कहे कारो कोई कहै गोरो, लियो री अमोलक मोल।।
याही कूँ सब जाणत हैं, लियो री आँखी खोल।
मीरा कूँ प्रभु दरसण दीन्यौ. पूरब जनम कौ कौल।।3॥
मैं तो साँवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बाँधि पग घुँघरू, लोक-लाज तजि नाँची॥
गई कुमति लई साधु की संगति, भगत रूप भई साँची।
गाय-गाय हरि के गुण निसदिन, काल ब्याल सूँ बाँची॥
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब काँची।
मीरा श्री गिरधरन लाल सूँ, भगति रसीली जाँची॥4॥
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु, आपनो न कोई।।
छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई।
संतन ढिंग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई।।
अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई. आणंद फल होई।।
भगति देखि राजी हुई, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब मोई।।5।।
(‘मीरा सुधा-सिंधु’ से)
5. रसखान
जीवन-परिचय :
रसखान सगुण काव्य-धारा की कृष्ण-भक्ति शाखा के कवि थे। उनका नया नाम इब्राहीम था। उनका जन्म 1533 ई० में पिहानी जिला-हरदोई (उ०प्र०) में हुआ था और उनका बचपन ताल्लुकेदारी माहौल में सुख से व्यतीत हुआ। वे बाल्यावस्था में ही पिहानी से दिल्ली आए और वहाँ राजतंत्र से जुड़ गए। सन् 1555-56 के लगभग दिल्ली में भीषण राज-विप्लव और अकाल के कारण कवि का हृय दुखी हो गया, जिसके कारण वे ब्रजधाम पधारे। उन्होंने दिल्ली से ब्रज आने की कथा इस प्रकार दी है-
देखि गदर, हित, साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादसा-बंस की, ठसक छोरि रसखान।
प्रेम निकेतन श्री वनहिं, आइ गोबर्धन-धाम।
लह्यो सरन चित चाहि कै, जुगल सरुप लालम।।
राज विप्लव से व्यथित होकर वे गोवर्धन चले आए और वहाँ अपना जीवन श्रीकृष्ण के भजन-कीर्तन में समर्पित कर दिया तथा उन्हें गोस्वामी विद्ठल नाथ जी ने दीक्षा दी।
रसखान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे, उसी दिव्य प्रेम के सहारे जीवनयापन करते हुए 1618 ई० में गोलोक वासी हुए। उनकी समाधि महावन में आज भी विद्यमान है।
रचनाएँ –
अब तक रसरखान के दो ग्रंथ प्रमाणिक रूप से प्राप्त हैं-
1. प्रेम वाटिका- इसमें 53 दोहे हैं, जिसमें प्रेम विषयक वर्णन है।
2. सुजान रसखानि- यह 267 छंदों का संग्रह है, जिसमें दोहा, सोरठा, कवित्त और सवैया हैं तथा छंदों द्वारा श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन किया गया है। संक्षिप्त होते हुए भी यह रचना लोगों के हृदय में विराजमान है।
काव्यगत विशेषताएँ –
रसखान के काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों का अनुपम वर्णन हैं। वे सच्चे हृदय से अपने आराध्य के प्रति समर्पित रहे हैं।
“मानुष हौं तौ वही रसखानि बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।”
रसखान के काव्य में सौंदर्य, प्रेम और माधुर्य परस्पर पूरक बनकर आए हैं। उन्होंने विरह का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रेम में तन्मय एवं समर्पित होकर काव्य रचना की, श्रीकृष्ण और उनसे संबंधित सभी वस्तुएँ तथा ब्रजभूमि से उनका असीम प्रेम प्रकट होता है; जैसे- बाँसुरी, वेशभूषा, यमुना का तट, वृंदावन, पशु-पक्षी, पर्वत एवं वृक्ष आदि।
रसखान के काव्य में शृंगार और शांत रस का अधिक प्रयोग हुआ है। उन्होंने ब्रजभाषा में काव्य रचना की। रसखान ने मुक्तक-छंद शैली में रचना की है। कवित्त और सवैया छंदों पर उनका पूर्ण अधिकार है। उन्होंने कहीं-कहीं पर यमक और अनुप्रास अलंकारों का भी प्रयोग किया है।
काव्य के सभी गुणों का समावेश उनकी रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है।
साहित्य में स्थान –
रसखान रस की खान हैं। उनका संपूर्ण काव्य अत्यंत सरल एवं मधुर है। उनके सवैये हिंदी साहित्य में अतुलनीय हैं। श्रीकृष्ण के प्रति उनके प्रेम-भाव में बड़ी तीव्रता, गहनता और तन्मयता मिलती है। इसीलिए उनकी रचनाओं का मानव-हृदय पर मार्मिक प्रभाव पड़ता है। अपने माधुर्य के कारण उनकी रचनाएँ बहुत लोकप्रिय हो गई हैं।
सवैये
मानुष हौं तौ वही रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरा, चरौं नित नंद की धेनु मँझारना।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर-धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन।।1।।
आजु गई हुती भोर ही हौं, रसखानि रई बहि नंद के भौनहिं।
वाको जियौ जुग लाख करोर, जसोमति को सुख जात कह्यौ नहिं।।
तेल लगाइ लगाइ कै अंजन, भौहें बनाइ बनाइ डिठौनहिं।
डारि हमेलनि हार निहारत, बारत ज्यौं पुचकारत छौनहिं।।2॥
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरें अँगना, पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी।।
वा छबि को रसखानि बिलोकत, वारत काम कला निज कोटी।।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि-हाथ सों लै गयौ माखन-रोटी।।3।
जा दिन तें वह नंद को छोहरा, या बन धेनु चराइ गयौ है।
मोहिनी ताननि गोधन गावत, बेनु बजाइ रिझाइ गयौ है।।
वा दिन सो कछु टोना सो कै, रसखानि हियै मैं समाइ गयौ है।
कोऊ न काहू की कानि करै, सिगरो ब्रज बीर, बिकाइ गयौ है।।4।।
कान्ह भए बस बाँसुरी के, अब कौन सखी, हमकों चहिहै।
निसद्यौस रहै संग-साथ लगी, यह सौतिन तापन क्यौं सहिहै।।
जिन मोहि लियौ मनमोहन कौं, रसखानि सदा हमकौं दहिहै।
मिलि आओ सबै सखी, भागि चलैं अब तो ब्रज मैं बँसुरी रहिहै।।5।।
मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी, बन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी।।
भावतो वोहि मेरो रसखानि, सो तेरे कहें सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥6।।