रहीम के दोहे Class 6 Summary Notes in Hindi Chapter 5
रहीमदास द्वारा रचित इन सातों दोहों में कोरी नीति की नीरसता नहीं है अपितु इनमें मार्मिकता तथा संवेदना भी मिलती है। दैनिक जीवन पर आधारित दृष्टांतों के माध्यम से कहे गए उनके कथन हृदय परिवर्तन के लिए प्रेरित करते हैं। इन दोहों के सार क्रमशः इस प्रकार से हैं-
- किसी के महत्व का आकलन या मूल्यांकन उसके आकार और उसकी धन-संपत्ति के आधार पर नहीं करना चाहिए।
- जिस प्रकार पेड़, सरोवर इत्यादि प्राकृतिक उपादान भलाई के कार्यों में संलग्न रहते हैं उसी प्रकार मनुष्य को भी परोपकार हेतु तत्पर रहना चाहिए।
- मानव जीवन प्रेम के बिना अधूरा है, इसलिए इसका महत्व हमें समझना चाहिए ।
- जीवन में अपना मान-सम्मान बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। इसके बिना सब व्यर्थ है।
- जीवन में विपदा का आना भी आवश्यक है क्योंकि विपदा हमें बहुत कुछ सीख देकर जाती है।
- हमें बोलते समय अपने शब्दों का चयन काफी सोच-समझकर करना चाहिए क्योंकि गलत या सही बोले गए शब्द वापस नहीं आते।
- संपत्ति रहने पर सभी हमसे अपनापन जताते हैं किंतु जो मुसीबत के समय साथ होते हैं वे ही सच्चे मित्र होते हैं।
सप्रसंग व्याख्या
1. रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि ॥
(पृष्ठ संख्या – 457)
शब्दार्थ – रहिमन – रहीम जी । देखि-देखकर। बड़ेन – बड़ा या सबल । लघु – छोटा या निर्बल । डारि छोड़ना । आवे – आना। कहा- क्या । तलवारि-तलवार ।
प्रसंग- इस दोहे में कवि रहीम जी ने जीवन की महत्वपूर्ण सच्चाई को बहुत सुंदर ढंग से उजागर किया है। इनके दोहों के विषय में कहा गया है कि वे सीख से भरे होते हैं।
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि जीवन में हर वस्तु, हर व्यक्ति का अपना महत्व होता है। कोई भी वस्तु या व्यक्ति व्यर्थ नहीं होता । यदि हमारे पास बहुत अधिक धन-संपत्ति आ जाए तो हमें अपने पुराने दिनों के आर्थिक रूप से कमजोर मित्रों और सगे-संबंधियों को कभी नहीं भूलना चाहिए। वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु का अपना महत्व है, आकार के आधार पर कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। जो कार्य सुई के द्वारा किया जा सकता है, वह कार्य तलवार नहीं कर सकती । सुई छोटी होती है, पर वह जोड़ने का कार्य करती है। दूसरी तरफ़ तलवार सुई से बहुत बड़ी होती है, वह युद्ध में काम आती है, वह दुश्मनों को मौत के घाट उतारती है। अतः दोनों का अपना महत्व है।
2. तरुवर फल नहिं खात हैं सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान ॥
(पृष्ठ संख्या – 45)
शब्दार्थ – तरुवर – पेड़ । नहिं – नहीं । खात-खाना । सरवर – तालाब । पियसि पीना । पान – पानी । कहि कहना । पर काज- काम | हित- भलाई। संचहि – एकत्र करना । सुजान – भले लोग।
प्रसंग – पूर्ववत्।
व्याख्या- कवि परोपकार को जीवन में सर्वोपरि मानते हुए कहते हैं कि प्रकृति में ऐसे अनेक उपादान दिखाई देते हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं। पेड़ फलों के भार से लदे रहते है, किंतु उन फलों को वे स्वयं नहीं खाते। सरोवर अपने आकार में पानी समाहित किए रहते हैं, किंतु वे कभी स्वयं पानी नहीं पीते । पेड़ दूसरों की भूख शांत करते हैं, सरोवर दूसरों की प्यास बुझाते हैं। इसी प्रकार सज्जन व्यक्ति
दूसरों की भलाई के लिए ही संपत्ति का संचयन करते हैं। उनकी विभूति या संपत्ति परोपकार के लिए ही होती है।
3. रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय ।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय ॥
(पृष्ठ संख्या-45)
शब्दार्थ- छिटकाय – झटककर । गाँठ – रुकावट । परि-पड़ना । जाय – जाना ।
प्रसंग – पूर्ववत् ।
व्याख्या – प्रेम जीवन का मूलभूत तत्व है, यह जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। जीवन में सुख-दुख, सही-गलत सभी कुछ होता है, अतः क्षणिक परेशानियों से घबराकर हमें जल्दबाजी में फैसले नहीं लेने चाहिए। रहीम जी कहते हैं कि जीवन में प्रेम रूपी धागे को बिना सोचे-समझे एक ही झटके में तोड़कर नहीं फेंकना चाहिए। यदि इसे बिना सोचे-समझे तोड़ दिया जाए तो इसे दुबारा जोड़ा नहीं जा सकता। जुड़ेगा भी तो गाँठ पड़ जाएगी। गाँठ रुकावट का प्रतीक होती है। सरलता, सादगी से भरा यह जीवन प्रेम में गाँठ लेकर नहीं चल सकता।
4. रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून ।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून ॥
(पृष्ठ संख्या-45)
शब्दार्थ- पानी- चमक, मान-सम्मान, जल। राखिये- रखना । बिनु – बिना । सूना – व्यर्थ । ऊबरै – उबरना । मानुष – मनुष्य । चून-आटा, चूना ।
प्रसंग – पूर्ववत् ।
व्याख्या – जीवन में मान-सम्मान सर्वोपरि होता है। इसी का महत्व रहीम जी ने इस दोहे में बताया है। वे कहते हैं कि जीवन में पानी अर्थात मान-सम्मान और विनम्रता का होना आवश्यक है। इसके बिना जीवन अर्थहीन या व्यर्थ है। मोती की शुद्धता उसका पानी अर्थात उसकी चमक होती है। चमकहीन मोती का कोई मूल्य नहीं होता। मनुष्य का पानी अर्थात उसकी इज्जत, उसका मान-सम्मान ही सब कुछ होता है। समाज में वह अपना पानी अर्थात सम्मान खोकर किसी काबिल नहीं रहता । यहाँ चून शब्द के दो अर्थ हैं- आटा और चूना । आटा भी पानी के बिना व्यर्थ है। वह किसी की क्षुधा नहीं शांत कर सकता। चूना भी पानी के बिना उपयोग रहित है। अतः जीवन में पानी अर्थात मान-सम्मान और विनम्रता का होना बहुत आवश्यक है।
विशेष – पानी शब्द में श्लेष अलंकार है। जहाँ शब्द के एक से अधिक अर्थ हों वहाँ श्लेष अलंकार होता है। यहाँ मोती के संदर्भ में ‘पानी’ शब्द का अर्थ उसकी आभा और चमक है, मनुष्य के संदर्भ में उसका मान-सम्मान और चून शब्द के संदर्भ में इसका अर्थ साधारण पानी है।
5. रहिमन बिपदाहू भली, जो थोरे दिन होय ।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय ॥
(पृष्ठ संख्या-45)
शब्दार्थ – बिपदाहू – विपत्ति, मुसीबत । भली-अच्छी । थोरे-थोड़े । हित – भलाई । अनहित – बुराई । या – इस । जगत – संसार । जानि- जानना । परत – पड़ना । कोय – किसी ।
प्रसंग – पूर्ववत् ।
व्याख्या- रहीम जी कहते हैं कि सुख-दुख जीवन के दो पहलू हैं, जो जीवन में बारी-बारी से आते-जाते रहते हैं। ये दोनों ही जीवन में आवश्यक हैं और हमें सीख देते हैं। जीवन में थोड़े समय के लिए विपदा का आना भी हमें सीख देकर जाता है कि सुख में हमें अहंकारी नहीं होना चाहिए। सभी दिन एक समान नहीं होते। इसके साथ-साथ विपदा के समय ही हम अपना भला और बुरा चाहने वालों को परख सकते हैं। दुख के समय स्वार्थी लोग हमारा साथ छोड़ देते हैं, जबकि हमारे हितैषी घोर विपदा के समय में भी हमारे साथ हर पल खड़े रहते हैं। इस संसार में विपदा के समय बहुत कुछ सीखने को मिलता है। सुख में तो सभी सहायक, हितैषी बनने का नाटक करते हैं। अत: हमें अपनों को पहचानने में कभी भूल नहीं करनी चाहिए।
6. रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग पताल ।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥
(पृष्ठ संख्या-45)
शब्दार्थ – जिह्वा – जीभ । बावरी-बावली, पागल । कहि- कहना । सरग – स्वर्ग । पताल – पाताल । आपु – स्वयं । भीतर – अंदर । खात-खाना । कपाल – खोपड़ी, मस्तक, माथा।
प्रसंग – पूर्ववत ।
व्याख्या- रहीम जी ने इस दोहे में जीभ से होने वाले अनर्थों का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि जब हम बिना सोचे-समझे कुछ भी बोल जाते हैं तो यही बिना बात की लड़ाई-झगड़े का कारण बन जाता है। बने-बनाए काम बिगड़ जाते हैं। जीभ तो कुछ भी बिना सोचे-समझे बोल जाती है। वह स्वर्ग पाताल तक की बात कर जाती है। वह स्वयं तो कुछ भी कहकर मुँह के अंदर रहती है अर्थात जीभ का कोई भरोसा नहीं, उसका स्वयं पर कोई नियंत्रण नहीं होता। हमें अपनी जीभ पर नियंत्रण रखना चाहिए। बिना सोचे-समझे कुछ भी नहीं बोलना चाहिए। यदि हम किसी को भी गलत बोलते हैं तो इसके भयंकर परिणाम हमें भोगने पड़ते हैं । उस बुराई का फल हमारे सिर अर्थात सम्मान या मस्तिष्क को भोगना पड़ता है। गलत बोलकर हम गहरी चिंता में डूबकर स्वयं अपराध बोध से पीड़ित हो जाते हैं या हमें सामने वाले की तीखी प्रतिक्रिया सुननी या सहनी पड़ती है।
7. कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत ।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत ॥
(पृष्ठ संख्या-45)
शब्दार्थ- कहि-कहना । संपत्ति – धन-दौलत । सगे – हितैषी । बनत – बनना । बहु- बहुत ज्यादा। कसे—कसना, परखना । ते- वो। साँचे – सच्चे | मीत – मित्र ।
प्रसंग – पूर्ववत ।
व्याख्या- रहीम जी ने इस दोहे में स्वार्थी और हितैषी लोगों को परखने के विषय में बताया है। जब हमारे पास धन-दौलत होती है, तो उस समय अनजान व्यक्ति भी मित्र बनना चाहते हैं। जब तक हम उस संपत्ति को दूसरों पर खर्च करते हैं, तब तक लोग अलग-अलग तरीके से हमारा हितैषी बनने का दिखावा करते हैं। जब हमारा समय खराब आता है, तब हमें किसी कारणवश संपत्ति कम हो जाती है, सच्चे मित्रों का ज्ञान होता है। जो व्यक्ति विपत्ति में हमारे साथ खड़ा रहता है, वही वास्तव में हमारा सच्चा हितैषी होता है । कवि कहते हैं कि हमें सोच-समझ कर ही व्यवहार करना चाहिए। लोगों के झूठे दिखावे को सच नहीं मानना चाहिए ।