Well-organized Class 11 Geography Notes in Hindi and Class 11 Geography Chapter 7 Notes in Hindi भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास can aid in exam preparation and quick revision.
Geography Class 11 Chapter 7 Notes in Hindi भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास
साधारण शब्दों में छोटे से मध्यम आकार के भूखण्ड भू-आकृति कहलाते हैं। अनेक सम्बन्धित भू-आकृतियां मिलकर भूदृश्य का निर्माण करती हैं जो कि भूतल के विस्तृत भाग हैं। प्रत्येक भू-आकृति की अपनी भौतिक आकृति, आकार व पदार्थ होते हैं जो कि कुछ भू-प्रक्रियाओं एवं उनके कारकों के द्वारा निर्मित हैं। जलवायु संबंधी बदलाव तथा वायुराशियों के ऊर्ध्वाधर अथवा क्षैतिज संचलन के कारण, भू-आकृतिक प्रक्रियाओं की गहनता से या स्वयं ये प्रक्रियाएँ स्वयं परिवर्तित हो जाती है जिनसे भू-आकृतिया रूपान्तरित होती है।
→ प्रवाहित जल:
आर्द्र प्रदेशों में, जहाँ अत्यधिक वर्षा होती है, प्रवाहित जल सबसे महत्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है जो कि धरातल के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है। प्रवाहित जल के द्वारा निर्मित अधिकांश अपरदित स्थलरूप ढाल प्रवणता के अनुरूप प्रवाहित होती हुई नदियों की आक्रामक युवावस्था से सम्बन्धित है। नदी अपरदन के द्वारा एक उच्चावच का निर्माण होता है जिन्हें मोनाडनोक कहते हैं। नदी अपरदन के द्वारा बने मैदान समप्राय मैदान या पेनीप्लेन कहलाते हैं। प्रवाहित जल से निर्मित अवस्थाओं की विशेषताएँ निम्न हैं-
- युवावस्था
- प्रौढ़ावस्था
- वृद्धावस्था
→ अपरदित स्थलरूप
- घाटियाँ :
घाटियों का प्रारम्भ तंग व छोटी-छोटी क्षुद्र सरिताओं से होता है। लम्बाई, चौड़ाई एवं आकृति के आधार पर घाटियाँ V आकार घाटी, गार्ज, नियन आदि में वर्गीकृत की जा सकती हैं। - जलगर्तिका तथा अवनमित कुण्ड :
पहाड़ी क्षेत्रों में नदी तल में अपरदित छोटे चट्टानी टुकड़े छोटे गर्तों में फंसकर वृत्ताकार रूप में घूमते हैं जिनको जलगर्तिका कहते हैं। - अधःकर्तित विसर्प या गभीरीभूत विसर्प :
तीव्र ढालों में तीव्रता से बहती हुई नदियाँ सामान्यतः नदी तल पर अपरदन करती हैं। मन्द ढालों पर बहती हुई नदियाँ अधिक पार्श्व अपरदन करती हैं। क्षैतिज अपरदन अधिक होने के कारण मन्द ढालों पर बहती हुई नदियाँ वक्रित होकर बहती हैं या नदी विसर्प बनाती हैं। कठोर चट्टनों में भी गहरे कटे और विस्तृत विसर्प पाए जाते हैं। इन विसर्पों को अधःकर्तित विसर्प या गभीरीभूत विसर्प कहा जाता हैं। - नदी वेदिकाएँ :
नदी वेदिकाएँ प्रारम्भिक बाढ़ मैदानों या पुरानी घाटियों के तलों के चिन्ह हैं। ये जलोढ़ रहित मूलाधार चट्टानों के धरातल या नदियों के तल हैं जो कि निक्षेपित जलोढ़ वेदिकाओं के रूप में पाए जाते हैं।
→ निक्षेपित स्थलरूप:
- जलोढ़ पंख: साधारणतया पर्वतीय क्षेत्रों में बहने वाली नदियाँ भारी व स्थूल आकार के नद्यभार को वहन करती हैं। मंद ढालों पर नदियाँ यह भार वहन करने में असमर्थ रहती हैं तो यह शंकु के आकार में निक्षेपित हो जाता है जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं।
- डेल्टा : डेल्टा जलोढ़ पंखों के ही समान होते हैं लेकिन इनके विकसित होने का स्थान अलग होता है। नदी अपने साथ लाए पदार्थों को समुद्र के किनारे बिखेर देती है। अगर यह भार समुद्र में दूर तक नहीं ले जाया जाये तो यह तल के साथ शंकु के रूप में फैल जाता है
- बाढ़ मैदान, प्राकृतिक तटबंध तथा विसर्पी रोधिका : यह प्रवाहित जल के निक्षेपित स्थलरूप हैं।
- नदी विसर्प : बाढ़ व डेल्टाई मैदानों में लूप के समान चैनल प्रारूप विकसित होते हैं जिनको विसर्प कहा जाता है।
→ भौम जल :
किसी भी चूना पत्थर या डोलोमाइट चट्टानों के क्षेत्र में भौम जल द्वारा घुलन प्रक्रिया और उसके निक्षेपण प्रक्रिया से बने स्थलरूपों को कार्स्ट स्थलाकृति के नाम से जाना जाता है। यह नाम एड्रियाटिक सागर के साथ बालकन कार्स्ट क्षेत्र में उपस्थित लाइमस्टोन चट्टानों पर विकसित नाकृतियों पर आधारित है।
→ अपरदित स्थलरूप:
- कुंड, घोलरन्ध्र, लैपीज और चूना पत्थर चबूतरे – चूना पत्थर चट्टानों के तल पर घुलन क्रिया द्वारा छोटे व मध्यम आकार के छोटे गोल गर्तों का निर्माण होता है जिनके विलय पर इन्हें विलयन रन्ध्र कहते हैं।
- कन्दराएँ ऐसे प्रदेश जहाँ चट्टानों के एकान्तर संस्तर हों और इनके बीच में यदि चूना पत्थर व डोलोमाइट चट्टानें हों या सघन चूना पत्थर चट्टानों के संस्तर हों वहाँ प्रमुखतया कन्दराओं का निर्माण होता है।
→ निक्षेपित स्थलरूप: कार्स्ट प्रदेशों में अधिकतर निक्षेपित स्थलरूप कन्दराओं के भीतर ही निर्मित होते हैं। इनमें प्रमुख हैं स्टैलेक्टाइट, स्टैलेग्माइट और स्तंभ-
→ हिमनद : पृथ्वी पर परत के रूप में हिम प्रवाह व पर्वतीय ढालों से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में प्रवाहित होती हिम संहति को हिमनद कहते हैं। हिमनद के अपरदन व निक्षेपण से बने स्थलरूप निम्न हैं-
→ अपरदित स्थलरूप:
- सर्क-अधिकांशतः सर्क हिमनद घाटियों के शीर्ष पर पाए जाते हैं। सर्क गहरे, लम्बे व चौड़े गर्त हैं जिनकी दीवार तीव्र ढाल वाली सीधी या अवतल होती है।
- हार्न या गिरि शृंग और सिरेटेड कटक : यदि तीन या अधिक विकीर्णित हिमनद लगातार शीर्ष पर तब तक अपरदन जारी रखें जब तक उनके तल आपस में मिल जाएं तो एक तीव्र किनारों वाली नुकीली चोटी का निर्माण होता है जिन्हें हार्न कहते हैं। लगातार अपरदन से सर्क के दोनों तरफ की दीवारें तंग हो जाती हैं और इसका आकार कंघी या आरी के समान कटकों के रूप में हो जाता है जिन्हें अरेत या तीक्ष्ण कटक कहते हैं।
- हिमनद घाटी/गर्त : हिमानीकृत घाटियाँ अंग्रेजी के अक्षर U आकार की होती हैं। इनमें चट्टानी धरातल पर झील भी उभरी होती है।
→ निक्षेपित स्थलरूप:
- हिमोढ़: हिमोढ़ हिमनद टिल या गोलाश्मी मृत्तिका के जमाव की लम्बी कटकें हैं। हिमोढ़ मुख्यत: चार प्रकार के होते हैं– अंतस्थ हिमोढ़, पार्श्विक हिमोढ़, तलस्थ हिमोढ़ तथा मध्यस्थ हिमोढ़ हैं।
- एस्कर: ग्रीष्म ऋतु में हिमनद की जलधारा अपने साथ बड़े गोलाश्म, चट्टानी टुकड़े और मलबा बहाकर लाती है जो कि हिमनद के नीचे इस बर्फ की घाटी में जमा हो जाते हैं। ये बर्फ पिघलने के बाद एक वक्राकार कटक के रूप में मिलते हैं जिनको एस्कर कहते हैं।
- हिमानी धौत मैदान : हिमानी गिरिपद के मैदानों अथवा महाद्वीपीय हिमनदों से दूर हिमानी- जलोढ़ निक्षेपों से हिमानी धौत मैदान निर्मित होते हैं।
- ड्रमलिन : ड्रमलिन हिमनद मृत्तिका के अण्डाकार समतल कटकनुमा स्थल रूप हैं जिसमें रेत व बजरी के ढेर होते हैं। ड्रमलिन का हिमनद सम्मुख भाग स्टॉस कहलाता है।
→ तरंग व धाराएँ:
तटों के किनारों पर अधिकतर परिवर्तन तरंगों के द्वारा सम्पन्न होते हैं। सामान्य तरंग अवनमन की अपेक्षा सुनामी लहरें कम समय में अधिक परिवर्तन लाती हैं। तरंगों के कार्य निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करते हैं-
- स्थल व समुद्री तल की बनावट
- समुद्रोन्मुख उन्मग्न तट या जलमग्न तट। तटीय स्थलरूपों के विकास की दृष्टि से तटों को दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है।
- ऊँचे चट्टानी तट
- निम्न अवसादी तट।
→ अपरदित स्थलरूप:
भृगु, वेदिकाएँ, कन्दराएँ तथा स्टैक : ऐसे तट जहाँ अपरदन प्रमुख प्रक्रिया है वहां दो मुख्य आकृतियां तरंग घर्षित भृगु व वेदिकाएँ पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त कन्दराएँ व स्टैक स्थलरूप भी पाए जाते हैं।
→ निक्षेपित स्थल रूप:
- पुलिन और टिब्बे : तटों की प्रमुख विशेषता पुलिन की उपस्थिति है। वे अवसाद जिनसे पुलिन निर्मित होते हैं अधिकतर थल से नदियों व सरिताओं द्वारा अथवा तरंगों के अपरदन द्वारा बहाकर लाए गए पदार्थ होते हैं पुलिन अस्थाई स्थलाकृतियाँ हैं। पुलिन के ठीक पीछे पुलिन तल से उठाई गई रेत टिब्बे के रूप में जमा होती है।
- रोधिका, रोध तथा स्पिट:
समुद्री अपतट पर तट के समानान्तर पाई जाने वाली रेत और शिंगिल की कटक को अपतट रोधिका कहते हैं। ऐसी अपतटीय रोधिका जो कि रेत के अधिक निक्षेपण से ऊपर दिखलाई पड़ती है, रोध रोधिका कहलाती है। अनेक बार इन रोधिकाओं का एक सिरा खाड़ी से जुड़ जाता है तो इनको स्पिट कहते हैं।
→ पवनें : उष्ण मरुस्थलीय भागों में पवनें अपरदन का महत्त्वपूर्ण कारक हैं। मरुस्थलीय भाग शीघ्रता से गर्म एवं ठण्डे हो जाते हैं। पवन अपवाहन, घर्षण आदि के द्वारा अपरदन करती है। मरुस्थलीय भागों में पवनें अनेक रोचक अपरदनात्मक व निक्षेपणात्मक स्थल रूप बनाती हैं।
→ अपरदनात्मक स्थलरूप:
- पेडीमेंट और पदस्थली : मरुस्थलों में भूदृश्य का विकास मुख्य रूप से पेडीमेंट का निर्माण व उसका ही विकसित रूप है। पर्वतों के पाद पर मलबे रहित अथवा मलबे सहित मंद ढाल वाले चट्टानी तल पेडीमेन्ट कहलाते हैं। मरुस्थलीय प्रदेशों में जब एक उच्च धरातल, आकृति विहीन मैदान में परिवर्तित हो जाता है जिसे पेडीप्लेन अथवा पदस्थली कहते हैं।
- प्लाया : पर्याप्त जल उपलब्ध होने पर मरुभूमियों में मैदान उथले जल क्षेत्र में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार की उथली जल झीलें ही प्लाया कहलाती हैं।
- अपवाहन गर्त तथा गुहा : पवनों के एक ही दिशा में स्थायी प्रवाह से चट्टानों के अपक्षय जनित पदार्थ या असंगठित मिट्टी का अपवाहन होता है। इस प्रक्रिया से बने उथले गर्त अपवाहन गर्त कहलाते हैं। गहरे और विस्तृत वात गर्त गुहा कहलाते हैं।
- छत्रक, टेबल तथा पीठिका शैल : मरुस्थलों में अधिकांश चट्टानें पवन अपवाहन व अपघर्षण के द्वारा शीघ्रता से कट जाती हैं और प्रतिरोधी चट्टानों के घिसे हुए अवशेष टोपी के आकार के होते हैं जिनको छत्रक कहा जाता है।
→ निक्षेपित स्थलरूप
- बालू टिब्बे : उष्ण शुष्क मरुस्थल बालू-टिब्बों के निर्माण के उपयुक्त स्थान हैं। बलू-टिब्बे विभिन्न प्रकार के होते हैं, जैसेबरखान, परवलयिक, सीफ, अनुप्रस्थ टिब्बे और अनुदैर्ध्य टिब्बे।
→ भौगोलिक शब्दावली
- भू-आकृति : छोटे से मध्यम आकार के भूखण्ड।
- रैखिक प्रवाह : घाटियों में नदियों के रूप में प्रवाहित जल।
- मोनाडनोक : अवरोधी चट्टानों के अवशेष।
- V आकार की घाटी : पर्वतीय क्षेत्रों में नदी जल के अपरदन से निर्मित स्थलरूप।
- जल – गर्तिका : नदी त ल में अपरदित छोटे चट्टानी टुकड़े।
- अवनमित कुण्ड : जलप्रपातों के तल में पाए जाने वाले विशाल व गहरे कुण्ड।
- युग्म वेदिकाएँ : नदी के दोनों तरफ समान ऊँचाई वाली वेदिकाएँ।
- जलोढ़ पंख : शंकु के आकार में निक्षेपित पदार्थ।
- विसर्प : बाढ़ व डेल्टाई मैदानों में लूप जैसे विकसित प्रारूप।
- स्टैलेक्टाइट : कार्स्ट प्रदेशों में चूनामिश्रित जल से बने विभिन्न मोटाइयों के लटकते स्तंभ।
- U आकार की घाटी : हिमानी द्वारा निर्मित घाटी।
- फियोर्ड : समुद्री तटरेखा पर बनने वाली हिमनद गर्ते।
- रोध रोधिका : रेत के अधिक निक्षेपण से ऊपर दिखलाई देने वाली अपतटीय रोधिका।
- पेडीप्लेन : मरुस्थलीय प्रदेशों में निर्मित आकृति विहीन मैदान।
- प्लाया : मरुस्थलीय क्षेत्रों में निर्मित उथली जल झीलें।
- कल्लर भूमि : मरुस्थलीय क्षेत्रों में लवण से भरे प्लाया मैदान।