By going through these Sanskrit Class 8 Notes and NCERT Class 8 Sanskrit Chapter 13 Hindi Translation Summary Explanation Notes वर्णोच्चारण-शिक्षा १ students can clarify the meanings of complex texts.
Sanskrit Class 8 Chapter 13 Hindi Translation वर्णोच्चारण-शिक्षा १ Summary
वर्णोच्चारण-शिक्षा १ Meaning in Hindi
Class 8 Sanskrit Chapter 13 Summary Notes वर्णोच्चारण-शिक्षा १
यह पाठ संस्कृत वर्णों के उच्चारण स्थानों की वैज्ञानिक एवं स्पष्ट रूप से व्याख्या करता है, जिसमें कण्ठ, तालु, मुर्धा, दन्त, ओष्ठ, नासिका आदि छह प्रमुख उच्चारण स्थानों का वर्णन है । पाठ में यह बताया गया है कि प्रत्येक वर्ण का शुद्ध उच्चारण उसके उचित स्थान से ही संभव है, जिससे भाषा की स्पष्टता, मधुरता और प्रभावशीलता बनी रहती है। उच्चारण की शुद्धता को वैदिक परंपरा में विशेष महत्व प्राप्त है, क्योंकि अशुद्ध उच्चारण से अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। यह पाठ विद्यार्थियों को भाषा के सूक्ष्म पक्षों को समझने, अभ्यास करने और वाणी में शुद्धता लाने की प्रेरणा देता है ।
Class 8 Sanskrit Chapter 13 Hindi Translation वर्णोच्चारण-शिक्षा १
(1) शब्दानां सम्यक् शुद्धं च उच्चारणं नितान्तं महत्त्वपूर्णम् अस्ति इति वयं पूर्वस्मिन् पाठे दृष्टवन्तः । कस्यचित् शब्दस्य सम्यग् – उच्चारणार्थं, तस्य शब्दस्य प्रत्येक-वर्णस्य शुद्धं निर्दुष्टम् उच्चारणं भवेत् अतः प्रत्येक – वर्णस्य शुद्धम् उच्चारणं कथं भवतीति अत्र ज्ञास्यामः। वर्णानां स्वर-व्यञ्जनादीनां विविध-भेद – उपभेदानां विषये वयं पूर्वासु कक्षासु ज्ञातवन्तः । तत्र आस्ये षट् उच्चारण-स्थानानि अपि वयं दृष्टवन्तः। परन्तु, वर्णानाम् उच्चारणे केवलम् आस्यस्य एव उपयोगः भवति इति-न। वर्णानाम् उच्चारणार्थम् आस्येन सह शरीरस्य इतरेषाम् अपि अङ्गानाम् उपयोगः भवति, यथा-
सरलार्थ-
शब्दों का सही और शुद्ध उच्चारण अत्यंत महत्वपूर्ण है, ऐसा हमने पिछले पाठ में देखा है। किसी भी शब्द का सही उच्चारण करने के लिए उस शब्द के प्रत्येक वर्ण का शुद्ध और दोषरहित उच्चारण होना आवश्यक है। इसलिए यहाँ हम जानेंगे कि प्रत्येक वर्ण का शुद्ध उच्चारण कैसे होता है।
वर्णों के स्वर, व्यंजन आदि विभिन्न भेदों और उपभेदों के विषय में हमने पहले की कक्षाओं में जाना। वहाँ हमने मुख (आस्य) में स्थित छह उच्चारण स्थानों को भी देखा । परन्तु, वर्णों के उच्चारण में केवल मुख का ही उपयोग होता है, ऐसा नहीं है। वर्णों के उच्चारण के लिए मुख के साथ-साथ शरीर के अन्य अंगों का भी उपयोग होता है; जैसे-
१. नाभि – प्रदेश : (Navel-region – Abdominal Muscles)
मांसपेशी -बल-तन्त्रम् – (Muscular-pressure System)
२. उर: (Chest – Lungs & Diaphragm)
वायु-बल-तन्त्रम् – (Air-pressure System)
३. कण्ठ- बिल: – (Voice-box – Larynx/Vocal-cords)
ध्वनि-तन्त्रम् – (Phonatory & Resonatory System)
४. आस्यम् (Head – Mouth & Nose)
उच्चारण-तन्त्रम् – (Articulatory System)
आस्यस्य अभ्यन्तरे – (क) मुखम् – (Mouth /Oral cavity),
(ख) नासिका – (Nose/Nasal cavity) – च उभौ भवतः ।
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(2) यदा वयं कञ्चित शब्दं वर्णं वा उच्चारयितुम् इच्छामः, तदा-
- सर्वप्रथमं नाभि- प्रदेशे स्थिताः मांसपेश्यः उरः नोदयन्ति ।
- उरः पुनः श्वासकोश – स्थितं वायुम् ऊर्ध्वं निःसारयति ।
- सः वायुः ऊर्ध्वं सरन् कण्ठ- बिलं प्राप्नोति ।
- ततः, सः वायुः पुनः ऊर्ध्वं सरन् आस्यं प्रविशति ।
आस्यस्य अभ्यन्तरं प्रविश्य मुखे, नासिकायां च स्थितेषु षट्सु उच्चारण-स्थानेषु वर्णानुसारं स्वकीयं स्थानं प्राप्य, सः वायुः तस्मिन् स्थाने वर्णरूपेण प्रकटीभवति ।
सरलार्थ-
जब हम कोई शब्द या वर्ण उच्चारण करना चाहते हैं, तब –
1. सबसे पहले नाभि – प्रदेश में स्थित मांसपेशियाँ छाती को ऊपर उठाती हैं।
2. छाती (उर:) फेफड़ों में स्थित वायु को ऊपर की ओर निकालती है।
3. वह वायु ऊपर की ओर बढ़कर गले की नली तक पहुँचती है।
4. फिर वह वायु पुनः ऊपर की ओर बढ़कर मुख के अंदर प्रवेश करती है।
मुख के अंदर प्रवेश कर, मुख और नाक में अंदर स्थित छ: उच्चारण स्थानों में यह वायु अपने-अपने वर्ण के अनुसार अपना स्थान प्राप्त करती है और वहाँ वर्ण के रूप में प्रकट होती है।
मनुष्येषु वाग् – उत्पत्ति – प्रक्रिया
(Voice Production Mechanism in Humans)

(3) ‘आस्यस्य अभ्यन्तरे स्थितेषु षट्सु स्थानेषु सः वायुः वर्णरूपेण कथं प्रकटीभवति ?’ इति अग्रे ज्ञास्यामः । आस्यस्य अभ्यन्तरे वर्णानाम् उत्पत्त्यर्थं वस्तुतः त्रीणि तत्त्वानि आवश्यकानि भवन्ति-
(क) प्रथमम् – स्थानम्
(ख) द्वितीयम् – करणम्
(ग) तृतीयम् – आभ्यन्तर प्रयत्नः
अस्मिन् पाठे ‘स्थानस्य’, ‘करणस्य’ च चर्चां कुर्मः । ‘ आभ्यन्तर प्रयत्नस्य’ विषये अग्रिमायां कक्षायां ज्ञास्यामः ।
सरलार्थ-
मुख के अंदर स्थित छह स्थानों में वह वायु किस प्रकार वर्ण के रूप में प्रकट होती है ? – यह हम आगे जानेंगे। मुख के अंदर वर्णों की उत्पत्ति के लिए वास्तव में तीन तत्व आवश्यक होते हैं-
(क) पहला – स्थान
(ख) दूसरा – करण
(ग) तीसरा – आभ्यन्तर प्रयत्न
इस पाठ में हम ‘स्थान’ और ‘करण’ की चर्चा करेंगे। ‘आभ्यन्तर – प्रयत्न’ के विषय में अगली कक्षा में जानेंगे।
(4) (क) स्थानम्
वर्णस्य उच्चारण-समये, श्वासकोशतः ऊर्ध्वं सरन् वायुः, कण्ठ – बिल – माध्यमेन आस्यस्य अभ्यन्तरं प्रविश्य तत्र मुखे नासिकायां वा यस्मिन् स्थले वर्णरूपेण प्रकटीभवति, तत् – ‘स्थानम्’ इति उच्यते ।
आस्ये – षट् स्थानानि वयं दृष्टवन्त:, यथा-
सरलार्थ-
(क) स्थान-
जब कोई वर्ण उच्चारित होता है, तब फेफड़ों से ऊपर की ओर बढ़ती हुई हवा, गले की नली के माध्यम से मुख के अंदर प्रवेश करती है। वहाँ मुख या नासिका में जिस वर्ण के रूप में प्रकट होती है, उसे ‘स्थान’ कहा जाता है। में कुल छह स्थान होते हैं, जैसे-

आस्ये वर्णानां षट् उच्चारण-स्थानानि
(मस्तक में उच्चारण के छह स्थान )

(5) स्थानस्य सम्यक् कार्य- निदर्शनार्थं ‘मुरली’ समुचितम् उदाहरणम् अस्ति । मुरल्या: ‘अङ्गुलिच्छिद्राणि’ आस्यस्य ‘स्थानानि’ इव व्यवहरन्ति। मुरली-नलिकया आगच्छन् वायुः अङ्गुलिच्छिद्रेषु एव विविध – ध्वनि – रूपेण प्रकटीभवति ।
सरलार्थ –
स्थान के सही कार्य को समझाने के लिए मुरली उपयुक्त उदाहरण है। मुरली के अंगुलि -छिद्र उच्चारण स्थानों के समान व्यवहार करते हैं। मुरली की नलिका से निकलने वाली हवा अंगुली के छिद्रों से ही विभिन्न प्रकार की ध्वनि के रूप में प्रकट होती है ।
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(6) (ख) करणम्
वर्णस्य उच्चारण-समये, आस्यस्य यः भागः स्थानं स्पृशति, स्थानस्य समीपं वा याति, सः भागः- ‘करणम्’ इति कथ्यते। यथा निदर्शने-मुरलीं वादयन्त्यः ‘अङ्गुलयः ‘ – आस्यस्य करणानि इव व्यवहारन्ति । अङ्गुलयः यदा अङ्गुलिच्छिद्राणि विविधरूपेण स्पृशन्ति, तेषां समीपं वा यान्ति; तदा तेषु अङ्गुलिच्छिद्रेषु विविध- ध्वनयः प्रकटीभवन्ति ।
तालु मूर्धा, दन्तः च – एतेषु त्रिषु स्थानेषु ‘जिह्वा’ करणं भवति ।
तालव्यानां मूर्धन्यानां दन्त्यानां च वर्णानाम् उच्चारणार्थं → जिह्वा यथाक्रमं तालु मूर्धानं दन्तं च स्थानं स्पृशति, समीपं वा यति, येन यथाक्रमं तत् – तद्-वर्णानाम् उत्पत्तिः भवति । अतः, एतेषां त्रिविधानां वर्णानाम् उच्चारणार्थं (जिह्वा-‘करणम्’ अर्थात् ‘उपकरणं’ भवति-
सरलार्थ-
(ख) करण ( मस्तक में उच्चारण का उपकरण )
वर्ण उच्चारण करते समय, मुख का जो भाग उच्चारण स्थान को छूता, या उसके समीप जाता है, वह भाग ‘करण’ कहा जाता है।
जैसे – मुरली बजाने वाले की अंगुलियाँ मुख के करणों के समान व्यवहार करती हैं। जब अंगुलियाँ मुरली के छिद्रों को विभिन्न रूप से छूती या उनके पास जाती हैं, तब उन अंगुली – छिद्रों में से विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ निकलती हैं।
तालु, मूर्धा और दंत- इन तीनों स्थानों में → जीभ करण होती है।
तालव्य, मूर्धन्य और दंत्य वर्णों के उच्चारण के लिए → जीभ क्रमशः तालु, मूर्धा (तालु के ऊपर का भाग) और दाँतों के स्थान को स्पर्श करती है या उनके समीप जाती है, जिससे क्रमशः उन-उन वर्णों की उत्पत्ति होती है। इसलिए इन तीनों प्रकार के वर्णों के उच्चारण में ‘जीभ’ ही करण अर्थात् ‘उपकरण’ होती है।

(7) अङ्गुलयः → करणानि इव

कण्ठः, ओष्ठः, नासिका च- एतेषु त्रिषु स्थानेषु → ‘स्व-स्थानम् ‘ एव करणं भवति ।
कण्ठ्यानाम्, ओष्ठ्यानां, नासिक्यानां च वर्णानाम् उच्चारणे जिह्वा प्रायः निष्क्रिया भवति । एतेषां वर्णानाम उच्चारणार्थं → तत्-तत्-स्थानस्य एव कश्चित् पर-भागः तत्-तत्-स्थानस्य पूर्व-भागं स्पृशति, समीपं वा याति । अतः, एतेषां त्रिविधानां वर्णानाम् उच्चारणार्थं→ स्व-स्थानं – ‘करणम्’, अर्थात् ‘उपकरणं’ भवति–
सरलार्थ-
‘कंठ, होंठ और नाक- इन तीनों स्थानों में- अपना स्थान ही ‘करण’ होता है।
कंठ्य, ओष्ठ्य और नासिक्य वर्णों के उच्चारण में जीभ लगभग निष्क्रिय रहती है। इन वर्णों के उच्चारण के लिए स्थान का कोई पर भाग या कोई पूर्व भाग स्पर्श करता है या उसके समीप जाता है। इसलिए, इन तीनों प्रकार के वर्णों के उच्चारण में उनका अपना स्थान ही ‘करण’ अर्थात् उनका ‘उपकरण’ होता है।

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Class 8 Sanskrit Chapter 13 क्षितौ राजते भारतस्वर्णभूमिः Summary Notes
क्षितौ राजते भारतस्वर्णभूमिः Summary
भारत का इतिहास अत्यधिक गरिमामय रहा है। प्राचीनकाल में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। किसी समय भारतवर्ष विश्व में अग्रणी हुआ करता था तथा इसे विश्वगुरु का सम्मान प्राप्त था। ‘अनेकता में एकता’ जैसी अनेक विशेषताएँ भारत की हुआ करती थीं।
भारत की प्राकृतिक सुषमा भी विलक्षण है। कवि ने इन्हीं विशेषताओं और दिव्यता को प्रस्तुत पाठ में दर्शाया है। यह डॉ. कृष्णचन्द्र त्रिपाठी के द्वारा रचित है। इसमें भारत के स्वर्णिम इतिहास का गुणगान है। भारत की विकासशीलता तथा गतिशीलता का विहंगम दृश्य उपलब्ध होता है। प्राचीन परम्परा, संस्कृति, आधुनिक मिसाइल क्षमता तथा परमाणु शक्ति सम्पन्नता के गीत के द्वारा कवि ने देश की सामर्थ्यशक्ति का वर्णन किया है।
क्षितौ राजते भारतस्वर्णभूमिः Word Meanings Translation in Hindi
मूलपाठः, अन्वयः, शब्दार्थः, सरलार्थश्च
(क) सुपूर्णं सदैवास्ति खाद्यान्नभाण्डं
नदीनां जलं यत्र पीयूषतुल्यम्।
इयं स्वर्णवद् भाति शस्यैधरेयं
क्षितौ राजते भारतस्वर्णभूमिः॥1॥
अन्वयः-
खाद्यान्नभाण्डं सदैव सुपूर्णं अस्ति। यत्र नदीनां जलं पीयूषतुल्यम् (अस्ति)। इयं धरा शस्यैः स्वर्णवत् भाति। भारतस्वर्णभूमिः क्षितौ राजते।
शब्दार्थ-
भाण्डम्-पात्र।
यत्र-जहाँ।
पीयूषतुल्यम्-अमृत के समान।
स्वर्णवत्-सोने के समान।
शस्यैः-फसलों के द्वारा।
धरा-पृथ्वी।
क्षितौ-पृथ्वी पर।
सरलार्थ-खाद्यान्न के पात्र सदा परिपूर्ण रहते हैं। जहाँ नदियों का जल अमृत के समान है। यह (भारत) भूमि फसलों के द्वारा सुशोभित है। पृथ्वी पर भारत स्वर्णभूमि के रूप में शोभायमान है।
(ख) त्रिशूलाग्निनागैः पृथिव्यस्त्रघोरैः
अणूनां महाशक्तिभिः पूरितेयम्।
सदा राष्ट्ररक्षारतानां धरेयम्
क्षितौ राजते भारतस्वर्णभूमिः॥2॥
अन्वयः-
त्रिशूलाग्निनागैः पृथिव्यस्त्रघोरैः अणूनां महाशक्तिभिः इयं पूरिता। इयं सदा राष्ट्ररक्षारतानाम् धरा (अस्ति)। भारतस्वर्णभूमिः क्षितौ राजते।
शब्दार्थ-
त्रिशूल:-त्रिशूल आदि के द्वारा।
अस्त्रघोरैः- भयंकर अस्त्रों से।
पूरिता-पूर्ण।
रताः-लगे हुए।
सरलार्थ-
त्रिशूल, अग्नि, नाग तथा पृथ्वी आदि भयंकर अस्त्रों के द्वारा तथा परमाणु महाशक्ति के द्वारा यह पूर्ण है। यह राष्ट्ररक्षा में लीन (वीरों) की पृथ्वी है। पृथ्वी पर भारतरूप स्वर्णभूमि शोभायमान है।
(ग) इयं वीरभोग्या तथा कर्मसेव्या
जगद्वन्दनीया च भूः देवगेया।
सदा पर्वणामुत्सवानां धरेयं
क्षितौ राजते भारतस्वर्णभूमिः॥3॥
अन्वयः-
इयं वीरभोग्या तथा कर्मसेव्या, जगद्वन्दनीया च देवगेया भूः। इयं सदा पर्वणाम् उत्सवानां धरा। क्षितौ भारतस्वर्णभूमिः राजते।
शब्दार्थ-
पर्वणाम्-पर्वो का।
वीरभोग्या-वीरों के द्वारा भोग्य।
वन्दनीया-स्तुति करने योग्य।
सरलार्थ-
यह वीरों के द्वारा भोग्य, कर्म के द्वारा सेवनीय, विश्व के द्वारा स्तुति करने योग्य तथा देवताओं के द्वारा आने योग्य भूमि है। यह सदा पर्वो की तथा उत्सवों की पृथ्वी है। पृथ्वी पर भारतरूप स्वर्णभूमि शोभायमान
(घ) इयं ज्ञानिनां चैव वैज्ञानिकानां
विपश्चिज्जनानामियं संस्कृतानाम्।
बहूनां मतानां जनानां धरेयं
क्षितौ राजते भारतस्वर्णभूमिः॥4॥
अन्वयः-
इयं ज्ञानिनां वैज्ञानिकानां चैव विपश्चिज्जनानां संस्कृतानां (धरा)। इयं बहूनां मतानां। जनानां धरा (अस्ति)। क्षितौ भारतस्वर्णभूमिः राजते।
शब्दार्थ-
विपश्चित्-विद्वान्।
बहूनाम्-अनेक।
सरलार्थ-
यह ज्ञानियों, वैज्ञानिकों, विद्वान् लोगों की तथा संस्कृत लोगों की यह (पृथ्वी) है। यह भूमि अनेक मतों वाले लोगों की है। पृथ्वी पर भारतरूप स्वर्णभूमि शोभायमान है। क्षितौ राजते भारतस्वर्णभूमिः
(ङ) इयं शिल्पिनां यन्त्रविद्याधराणां
भिषक्शास्त्रिणां भूः प्रबन्धे युतानाम्।
नटानां नटीनां कवीनां धरेयं
क्षितौ राजतै भारतस्वर्णभूमिः ॥5॥
अन्वयः-
इयं शिल्पिनां यन्त्रविद्याधराणां भिषक्शास्त्रिणां प्रबन्धे युतानां भूः। नटानां नटीनां कवीनां धरा। क्षितौ भारतस्वर्णभूमिः राजते।
शब्दार्थ-
भिषक्-वैद्य।।
युतानाम्-लगे हुए।
प्रबन्धे-प्रबन्ध में।
शिल्पिनाम्-कारीगर।
सरलार्थ-
यह शिल्पी लोगों की, यन्त्र विद्याधरों की, वैद्यक शास्त्रों के जानने वालों की, प्रबन्ध में लगे हुए लोगों की पृथ्वी है। यह नटों की, नटियों की तथा कवियों की पृथ्वी है। पृथ्वी पर भारतरूप स्वर्णभूमि शोभायमान है।
(च) वने दिग्गजानां तथा केशरीणां
तटीनामियं वर्तते भूधराणाम्।
शिखीनां शुकानां पिकानां धरेयं
क्षितौ राजते भारतस्वर्णभूमिः॥6॥
अन्वयः-
इयं वने दिग्गजानां तथा केशरीणां तटीनां भूधराणां शिखीनां शुकानां पिकानां धरा। क्षितौ भारतस्वर्णभूमिः राजते।
शब्दार्थ-
दिग्गजानाम्-हाथियों की।
केशरीणाम्-सिंहों की।
तटीनाम्-नदियों की।
भूधराणाम्-पर्वतों की।
शिखीनाम्-मोरों की।
पिकानाम्-कोयलों की।
सरलार्थ-
यह वन में हाथियों की, सिंहों की, नदियों की, पर्वतों की, मोरों की, तोतों की, कोयलों की धरा है। पृथ्वी पर भारतरूप स्वर्णभूमि शोभायमान है।