In this post, we have given Class 12 Hindi Antra Chapter 21 Summary – Kutaj Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 12 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 12 Hindi subject.
कुटज Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 21 Summary
कुटज – हज़ारी प्रसाद द्विवेदी – कवि परिचय
प्रश्न :
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं तथा भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
जीवन परिचय-हजारी प्रसाद् द्विवेदी का जन्म गाँव आरत दुबे का छपरा, जिला बलिया (उ०प्र०) में सन् 1907 में हुआ था। संस्कृत महाविद्यालय, काशी से शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद् उन्होंने सन् 1930 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की।
इसके बाद् वे शांति निकेतन चले गए। सन् 1940-50 तक द्विवेदी जी हिंदी भवन, शांति निकेतन के निदेशक रहे। वहाँ उन्हें गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और आचार्य क्षितिमोहन सेन का सान्निध्य प्राप्त हुआ। सन् 1950 में वे वापस वाराणसी आए और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने। सन् 1960 में उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में हिंदी विभागाध्यक्ष का पद ग्रहण किया। यहाँ से अवकाश ग्रहण करने पर वे भारत सरकार की हिंदी विषयक अनेक योजनाओं से संबद्ध रहे। इस महान साहित्यकार का निधन सन् 1979 में हुआ।
रचनाएँ-हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई, वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
निबंध-संकलन-अशोक के फूल, विचार और वितर्क, कल्पलता, कुटज, आलोक-पर्व।
उपन्यास-चारुचंद्रलेख, बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा।
आलोचनात्मक ग्रंथ-सूर-साहित्य, कबीर, हिंदी साहित्य की भूमिका, कालिदास की लालित्य-योजना।
उनकी सभी रचनाएँ हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली के ग्यारह खंडों में संकलित हैं।
‘आलोक-पर्व’ पुस्तक पर उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ दिया गया। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी० लिट् की मानद उपाधि दी और भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ अलंकरण से विभूषित किया।
भाषा-शिल्प – द्विवेदी जी का अध्ययन क्षेत्र बहुत व्यापक था। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगला आदि भाषाओं एवं इतिहास, दर्शन, संस्कृति, धर्म आदि विषयों में उनकी विशेष गति थी। इसी कारण उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की गहरी पैठ और विषय वैविध्य के दर्शन होते हैं। वे परंपरा के साथ आधुनिक प्रगतिशील मूल्यों के समन्वय में विश्वास करते थे। उनकी भाषा सरल और प्रांजल है। व्यक्तित्व-व्यंजकता और आत्मपरकता उनकी शैली की विशेषता है। व्यंग्य-शैली के प्रयोग ने उनके निबंधों पर पांडित्य के बोझ को हावी नहीं होने दिया। भाषा-शैली की दृष्टि से उन्होंने हिंदी की गद्य-शैली को एक नया रूप दिया। यद्यपि उनकी भाषा में तत्सम शब्दों की बहुलता है, फिर भी उन्होंने संस्कृत और बोल-चाल के शब्दों का भी खूब प्रयोग किया है। सरल वाक्यों में अपनी बात कह जाना उनकी विशेषता है।
Kutaj Class 12 Hindi Summary
‘कुटज’ हिमालय पर्वत की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली फूल है। इसी फूल की प्रकृति पर यह निबंध ‘कुटज’ लिखा गया है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए एक संदेश पाया है। लेखक हिमालय की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करता है। उसने इसे पृथ्वी का मानदंड कहा है। हिमालय के पाद प्रदेश में शिवालिक श्रृंखलाएँ हैं, जिनका नामकरण ‘शिवशंकर की अलकें’ के आधार पर किया गया है। शिव की विशाल जटाएँ यहाँ तक भी फैली होंगी। वैसे अलकनंदा का स्रोत यहाँ से बहुत दूरी पर है।
शिवालिक श्रेणियों की कठोर चट्टानों पर अनेक सुंदर वृक्ष दिखाई देते हैं, जिन्हें देखकर लेखक ने उनका मानवीकरण किया है। शिवालिक की शुष्क और नीरस पर्वत- शृंखलाओं पर अनेक मुस्कराते हुए वृक्ष दिखाई देते हैं, पर लेखक उनके नाम और कुल से परिचित नहीं है। इन्हीं वृक्षों में एक बहुत छोटा-सा, ठिगना-सा, चौड़ी पत्ती वाला, फूलों से लदा वृक्ष है। लेखक इस वृक्ष का नाम याद करने का प्रयास करता है, परंतु भूल जाता है। इस वृक्ष के लिए लेखक अनेक संस्कृतनिष्ठ नामों की कल्पना करता है तथा सोचता है कि नाम उस पद को कहते हैं, जिस पर समाज की मुहर लगी होती है।
अतः इस वृक्ष का समाज स्वीकृत नाम देने के लिए लेखक व्याकुल है। लेखक इस गिरिकूट बिहारी के नाम के बारे में स्वयं पुनः प्रश्न करता है और उसे अचानक याद आता है-अरे! यह तो कूटज है। संस्कृत के कवियों ने भी कुटज को पर्याप्त महत्व दिया है। कालिदास ने मेघदूत में भी कुटज के पुष्पों का उल्लेख किया है, इसका अर्थ है कि कुटज अति महत्वपूर्ण है। कुटज एक बड़भागी फूल है, जिसने कालिदास के संतप्त चित्र को सहारा दिया था। इस कारण कुटज के पुष्प सम्मान के पात्र हैं। एक स्थान पर रहीम ने भी अपनी खराब मानसिक स्थिति में झुँझलाकर ‘कुटज’ का प्रयोग किया है।
वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकर छाँह गंभीर;
बागन बिच-बिच देखियत, सेंहुड़ कुटज करीर।
कभी-कभी कवियों के खराब मूड से सम्मान के पात्र भी गलत बयानी के शिकार हो जाते हैं। वैसे ‘कुटज’ का बागों से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता।
‘कुटज’ शब्द का अर्थ है-‘ घट से उत्पन्न। महर्षि अगस्त्य को भी घड़े से उत्पन्न ‘कुटज’ कहा जाता है। संस्कृत में ‘कुटज’ ‘कुटच’, ‘कूटच’ आदि अनेक शब्द मिलते हैं। कहा जाता है कि ये शब्द आग्नेय भाषा-परिवार के हैं। दक्षिण-पूर्व की भाषा को अंग्निकोष की भाषा होने के कारण आग्नेय परिवार की भाषा कहा जाता है। संभव है ‘कुटज’ भी इसी भाषा का शब्द हो। संस्कृत तो सर्वग्रासी भाषा है।
लेखक को अपने सामने लहराता खड़ा पौधा दिखाई देता है जो नाम और रूप से अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा कर रहा है। यही ‘कुटज’ है जो हजारों वर्षो से स्थित है और दारुण गर्मी में भी हरा-भरा होकर ‘कुटज’ के रूप में खड़ा है। अनेक शताब्दियाँ बीतने पर भी इसका नाम नहीं बदला। इसके हरे-भरे वन को देखकर ईष्या होने लगती है। इसी वातावरण में लेखक ने भगवान शिव की तपस्या की कल्पना की है। ‘कुटज’ के वृक्ष हिलकर अपने पुष्प भगवान महादेव को चढ़ा देते हैं। कुटज का यही उपदेश है कि कठोर पत्थर को तोड़कर, पाताल की छाती चीरकर, अपना भोग्य संग्रह करो, तूफ़ान-झंझा झेलकर आकाश को चूमकर उल्लास खींच लो।
‘कुटज’ का यही कठिन उपदेश है-जीना एक कला ही नहीं तपस्या भी है। याजवल्क्य ब्रहमवादी थे। उन्होंने पत्नी को समझाने की कोशिश की कि संसार में जहाँ कहीं प्रेम है, सब मतलब के लिए है। अन्य लोगों ने भी कहा है कि दुनिया में परमार्थ नहीं है, केवल स्वार्थ है। हर कार्य की महिमा के गुणगान में हर जगह कोई-न-कोई स्वार्थ है। स्वार्थ और जिजीविषा से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। मनुष्य का स्वार्थ खंडित सत्य है। वह स्वार्थ को ही नहीं समझ पाता, परमार्थ को समझना तो बहुत दूर है। ‘कुटज’ का उदाहरण लेखक ने दिया है कि वह मनुष्य की भाँति दूसरे द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, नीति, धर्म का उपदेश नहीं करता, अपनी उन्नति के लिए अफ़सरों के जूते नहीं चाटता, नीलम, माणिक आदि नहीं पहनता।
‘कुटज’ तो शान से जीता है, क्योंकि वह स्वार्थ से अलग होकर जीता है। शांति-पर्व में उदाहरण देकर बताया है कि सुख या दुख, प्रिय या अप्रिय, जो मिले उसे अयाचित होकर सोल्लास ग्रहण करो। ‘कुटज’ को देखकर रोमांच हो जाता है कि ऐसी स्वार्थ रहित अपराजित भाव की जीवन-दृष्टि उसे कहाँ से मिली है। सुख और दुख तो जीवन के विकल्प हैं। मन जिसके वश में है, वह सुखी है और जिसका मन वश में नहीं है, वह दुखी है। ‘कुटज’ इन मिथ्याचारों से मुक्त है। वह राजा जनक की भाँति संसार में रहकर संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। ‘कुटज’ अपने मन पर सवारी करता है, पर मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। ‘कुटज’ को लेखक मनस्वी मित्र बताता है तथा उसे धन्य मानता है।
शब्दार्थ और टिप्पणी :
- निकेतन – घर (home)।
- अपर – दूरवर्ती (situated at a distance)।
- महोदधि – सागर (ocean)।
- थाहता – अनुमान लगाता (estimate of depth)।
- पाद – देश – इसके चरणों में पड़े देश (countries lie down near Himalayas)।
- लटियायी – उलझी लटाओं वाली (tangled hair)।
- अलक – जुल्फ़े (a lock of hair)।
- समाधिस्थ – समाधि में लीन (concentrated mind in devotion)।
- बेहया – बेशर्म, निर्लज्ज (shameless)।
- अंतर्निरुद्ध – भीतरी रुकावट (internal hindrance)।
- इज़हार – प्रकट करना (to say)।
- रक्ताभ – रक्त की चमक वाली, लाल (shining red)।
- दरख्त – पेड़ (trees)।
- पाषाण – पत्थर (stones)।
- अतल – बहुत गहरी (very deep)।
- गहूवर – गड्ढा (a small hole in the earth, ria)।
- भोग्य – भोग करने लायक (worthy of being enjoyed)।
- द्वंद्वातीत – द्वंद्व से परे, निर्विवाद (indisputable)।
- अलमस्त – मौजी (carefree)।
- अदा – शैली (style)।
- सुस्मिता – मोहक मुस्कान वाली, गौरवशाली (one who have a pleasant smile)।
- गिरिकांता – पर्वत की किरण (shining of mountain)।
- शुभ्ष किरीटिनी – सफेद मुकुटों वाली (having white crown)।
- मदोद्धता – गर्व में चूर (very proudy)।
- विजितातपा – धूप, ताप को नष्ट करने वाली (away from sunshine)।
- अकुतोभय – निडर (fearless)।
- अपराजित – जो पराजित न हो (one who cannot be defeated)।
- पहाड़फोड़ – पहाड़ को भेदने वाला (piercing the mountain)।
- समष्टि – संपूर्ण, समूचा (whole)।
- चित्त – हदय (heart)।
- स्नात – नहाया हुआ (taken a bath)।
- अवमानित – उपेक्षित, तिरस्कृत (censured)।
- विरुद – कीर्ति – गाथा, प्रशंसासूचक पदवी (tale of fame)।
- स्तबक – फूलों का गुच्छा (bunch of flowers)।
- उल्लास – लोल – खुशी से चंचल (joyful)।
- चारुस्मित – सुंदर मुस्कान वाला (pleasant smile)।
- आषाढस्य प्रथम दिवसे – आषाढ़ महीने के पहले दिन (first day of the Hindi month ‘Ashadh’)।
- अभ्यर्थना – निवेदन (request)।
- चंपक – चंपा की कली (The bud of Champa flower plant)।
- बकुल – मौलसिरी (tree with fragrant flowers)।
- नीलोत्पल – नीलकमल (blue lotus)।
- फकत – केवल (only)।
- अनत्युच्य – जो बहुत ऊँचा न हो (not so high)।
- बड़भागी – बड़े भाग्य वाले (fortuner)।
- गाढ़े के साथी – दुख या असमय के मित्र (a friend in need)।
- कद्रदान – सम्मान करने वाले (one who respects)।
- वितृष्णा – घृणा, उपेक्षा (hate)।
- विरछ – वृक्ष, पेड़ (trees)।
- छाँह – छाया (shadow)।
- सेहुड़ – नागफनी, काटेदार पौधा (the prick pear)।
- करीर – करील, बाँस का नया पेड़ (a newly grown bamboo)।
- अदना – सा – तुच्छ (trivial)।
- कुटिहारिका – सेविका (maid)।
- मुखर बनाना – वाक्पटु बनाना (to be outspoken)।
- कुलीनता – उत्तम कुल में उत्पन्न होने का गुण (characteristics of being born in elite family)।
- तांबूल – पान (a betel leaf)।
- अविच्छेद्य – जिसका विच्छेदन न हो (inseparatable)।
- सर्वग्रासी – जिसको सभी ग्रहण कर सकें (acceptable by all)।
- स्फीयमान – फैला हुआ, विस्तृत (outspreading)।
- मादक – मदहोश कर देने वाली (intoxicating)।
- कुपित – क्रोधित, नाराज़ (angry)।
- यमराज – मृत्यु का देवता (god of death)।
- दारुण – भयंकर (terrible)।
- लू – गर्म हवा (the hot wind of summer)।
- दुर्जन – दुष्ट (wicked)।
- कारा – जेल (prison)।
- रुद्ध – रुका हुआ (impeded)।
- बरबस – बलपूर्वक, ज़बरदस्ती (forcefully)।
- गिरि कातंर – पर्वतीय क्षेत्र (a mountain region)।
- हिमाच्छादित – बर्फ़ से ढकी हुई (covered with snow)।
- पर्वतनंदिनी सरिताएँ – पर्वत से निकली नदियाँ (rivers coming out from mountains)।
- मूर्धा – मस्तक, सिर (head)।
- चिरपरिचित – पुराना जाना – पहचाना (well known)।
- प्राप्य – हक (obtainable)।
- ब्रहमवादी – ब्रह्म में विश्वास रखने वाले (one who have faith in Brahma)।
- ऋषि – मंत्रद्रष्टा, विद्वान (a religious person, seer)।
- परार्थ – परोपकार (beneficence)।
- प्रचंड – भयंकर (furious)।
- शत्रुमर्दन – शत्रु को पराजित करने वाला या कुचलने वाला (one who defeats enemies)।
- अभिनय – नाटक करना, स्वाँग भरना (a theatrical performance)।
- देशोद्धार – देश की उन्नति या विकास (progress of country)।
- अंतरतर – हृदय के भीतर (in the depth of heart)।
- जिजीविषा – जीने की उत्कट इच्छा (life instinct)।
- धिक्कामार ढंग से – बलपूर्वक, ज़बरदस्ती (forcefully)।
- दलित द्राक्षा – निचोड़ा हुआ अंगूर (squeezed grape)।
- मोह – अज्ञान (foolishness)।
- तृष्णा – लालसा (desire)।
- दयनीय – दीन – हीन (poor)।
- कृपण – कंजूस (miser)।
- कार्पण्य – कृषणता, कंजूसी (parsimony) ।
- उपहत – चोट खाया हुआ, घायल, नष्ट (impaired)।
- म्लान – कमज़ोर (feeble)।
- बगलें झाँकना – सामना करने से बचना (to try toescape froma situation)।
- अवधूत – संन्यासी (an ascetic)।
- अपकार – बुराई, अहित (not beneficient)।
- नितरां – अत्यधिक (ample)।
- अविचल – अडिग (steady)।
- चाटुकारिता – चापलूसी करना (to flattery)।
- छंदावर्तन – आरोपण करना (to transplant)।
- आडंबर – ढकोसला (ostentation)।
- मिथ्याचार – बुरा आचरण (misconduct)।
- वशी – मन को वश में रखने वाला (controller)।
- वैरागी – सांसारिकता से मुक्त रहने वाला (ascetic)।
- मनस्वी – ज्ञानी, चितक (thinker)।
कुटज सप्रसंग व्याख्या
1. इस गिरिकूट – बिहारी का नाम क्या है? मन दूर-दूर तक उड़ रहा है-देश में और काल में-मनोरथनामगतिर्नविद्यते! अचानक याद आया-अरे। यह तो कुटज है। संस्कृत साहित्य का बहुत परिचित कितु कवियों द्वारा अवमानित, यह छोटा-सा शानदार वृक्ष ‘कुटज’ है। ‘कुटज’ कहा गया होता तो कदाचित् ज्यादा अच्छा होता। पर नाम इसका चाहे कुटज ही हो, विरुद तो निस्संदेह ‘कूटज’ होगा। गिरिकूट पर उत्पन्न होने वाले इस वृक्ष को ‘कूटज’ कहने में विशेष आनंद मिलता है। बहरहाल, यह कूटज-कुटज है, मनोहर कुसुम-स्तबकों से झबराया, उल्लास-लोल चारुस्मित कुटज! जी भर आया।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंधकार, आलोचक डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। लेखक ने शिवालिक को शिवजी की अलकें या केश राशि के रूप में संबोधित करते हुए वहाँ पाए जाने वाले एक ऐसे वृक्ष को निबंध का विषय बनाकर प्रस्तुत किया है, जो अपने रूप-सौंदर्य से लेखक को प्रभावित करता है। इस अंश में लेखक वृक्ष के नाम का स्मरण करते हुए, उसे पहचान कर उसके गुण का बखान कर रहा है।
व्याख्या – लेखक स्मरण करता है कि पर्वत-शिखर पर रमण करने वाले इस वृक्ष का क्या नाम है? उसका मन दूर-दूर तक उड़ रहा है। कहीं नाम संकेत नहीं मिल पा रहा है। देशकाल में इच्छित नाम स्मरण नहीं हो पा रहा है, तभी उसे अचानक स्परण हो आता है-अरे! यह तो ‘कुटज’ है। संस्कृत साहित्य में बहुचर्चित हुआ है, किंतु कवियों ने इसकी उपेक्षा कर दी है। यह वही शान और यश वाला कुटज है। पर्वत शिखर (कूट) पर उत्पन्न (ज) इस वृक्ष को कूटज कहना अच्छा और सार्थक लगता है, आनंद देता है। बहरहाल यह कूट पर जन्मा ‘कुटज’ है। इसमें मनोहर फूल खिले हैं। यह सुंदर मुस्कुराहट वाला उल्लसित सौंदर्य वाला कुटज देखकर मन खिल उठा। लेखक नीरस शिवालिक पर कुटज की आभा से हर्ष-विभोर होता हुआ उल्लास व्यक्त कर रहा है।
विशेष :
- लेखक ने ‘कुटज’ से अत्यंत प्रभावित होकर उसके गुणों का उल्लेख किया है।
- संस्कृत सूक्तियों का प्रयोग है।
- तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग है।
- लालित्यपूर्ण खड़ी बोली है।
- विवेचनात्मक शैली में सुंदर, मनोहर कुटज पेड़ का दृश्य साकार हो उठा है।
2. इन्हीं में एक छोटा-सा, बहुत ही ठिगना पंड़ है, पत्ते चौड़े भी है, फुलों से तो ऐसा लदा है कि कुछ पूछिए नहीं। अजीब-सी अदा है, मुस्कुराता-सा जान पड़ता है। लगता है, पूछ रहा है कि क्या तुम मुझे नही पहचानते? पहचानता तो है, अवश्य पहचानता हूँ। लगता है, बहुत बार देख चुका हूँ। पहचानता हूँ उजाड़ के साथी, तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। नाम भूल रहा हूँ। प्रायः भूल जाता हूँ। रूप देखकर प्रायः पहचान जाता है, नाम नहीं याद आता, पर नाम ऐसा है कि जब तक रूप के पहले ही हाजिर न हो जाए, तब तक रूप की पहचान अधूरी रह जाती है।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2 ‘ में संकलित निबंधकार, आलोचक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। लेखक ने शिवालिक को शिवजी की अलकें या केश राशि के रूप में संबोधित करते हुए वहाँ पाए जाने वाले एक ऐसे वृक्ष को निबंध का विषय बनाकर प्रस्तुत किया है, जो अपने रूप-सौंदर्य से लेखक को प्रभावित करता है। लेखक वृक्ष के गुणों का बखान कर रहा है, कितु उसे इस वृक्ष का नाम याद नहीं आ रहा है।
व्याख्या – लेखक अज्ञात नाम वृक्ष के सौंदर्य का वर्णन करता हुआ कहता है कि शिवालिक पर्वत मालाओं पर अनगिनत वृक्ष मालाएँ पाई जाती हैं। इन्हीं वृक्षों में एक ठिगना और खोटा-सा वृक्ष है, जिसके पत्ते बड़े और चौड़े हैं। जिस पर बेशुमार फूल लदे हुए है। यह पुष्पयुक्त वृक्ष मुस्कराता हुआ प्रतीत होता है। इसकी विचित्र भाव-भंगिमा है। ऐसा लगता है, मुझसे अपनी पहचान पूछ रहा हो। लेखक उसे पहचानता तो अवश्य है, पर इस वृक्ष का नाम क्या है? यह लेखक को स्परण नहीं है। लेखक वृक्ष को उजाड़ का साथी कहकर संबोधित करता है और अच्छी तरह पहचानता है, पर नाम भूल गया है। उसे रूप की तो पहचान है, पर नाम याद नहीं है। नाम के बिना रूप की पहचान अधूरी है। यह भावना लेखक के मन में जागृत होती है कि उसे नाम याद् क्यों नहीं आ रहा। वह रूप परिचय के साथ नाम परिचय भी आवश्यक समझता है।
विशेष :
- कवि वृक्ष के सौंदर्य पर प्रभावित है, परंतु उसे उसका नाम याद नहीं आ रहा है।
- भाषा सरल, सहज और चित्रात्मक है, जिससे सुंदर पुष्यों से लदा वृक्ष हमारे सामने साकार हो उठता है।
- भाषा में आत्मीयता एवं प्रश्नात्मकता प्रधान है।
- कवि की मान्यता है कि रूप-परिचय के साथ नाम-परिचय भी आवश्यक है।
- संस्कृत शब्दों की बहुलता वाली खड़ी बोली का प्रयोग है।
3. भारतीय पंडितो का सैकड़ों बार का कचारा-निचोड़ा प्रश्न सामने आ गया-रूप मुख्य है या नाम? नाम बड़ा है या रूप? पद पहले है या पदार्थ? पदार्थ सामने है, पद नहीं सूझ रहा है। मन व्याकुल हो गया। स्मृतियों के पंख फैलाकर सुदूर अतीत के कोनों में झाँकता रहा। सोचता हूँ इसमें व्याकुल होने की क्या बात है? नाम में क्या रखा है-ह्वाट्स देअर इन ए नेम! नाम की ज़रूरत ही हो तो सो दिए जा सकते हैं। सुस्मिता, गिरिकांता, वनप्रभा, शुभ्रकिरीटिनी, मदोद्धता, विजितातपा, अलकावतंसा, बहुत-से नाम हैं या फिर पौरुष-व्यंजक नाम भी दिए जा सकते हैं-अकुतोभय, गिरिगोरव, कूटोल्लास, अपराजित, धरती धकेल, पहाड़फोड़, पातालभेद! पर मन नहीं मानता। नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य है।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंधकार, आलोचक डाँ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। लेखक ने शिवालिक को शिवजी की अलकें या केश राशि के रूप में संबोधित करते हुए वहाँ पाए जाने वाले एक ऐसे वृक्ष को निबंध का विषय बनाकर प्रस्तुत किया है, जो अपने रूप-सौंद्य से लेखक को प्रभावित करता है। लेखक वृक्ष के नाम और रूप का बखान कर दोनों के महत्व को प्रतिपादित कर रहा है।
व्याख्या – द्विवेदी जी साहित्य संबंधी सैद्धांतिक विचार-चर्चा का बिंदु उठाते हुए कहते हैं कि रूप और नाम में प्रमुख क्या है? यह बहस पुरानी है। पहले पद है या पदार्थ। वृक्ष रूपी पदार्थ उनके सामने हैं, पर उसका नाम (पद) नहीं सूझ रहा। जब कोई बात याद करने पर भी न याद् आए तो मन व्याकुल हो उठता है। यही दशा द्विवेदी जी अनुभव करते हुए कहते हैं कि नाम में क्या रखा है, महत्व तो वस्तु का है, नाम का नही। पर बाद में लेखक को लगता है सामाजिक स्वीकृति के लिए नाम ज़रूरी है, तो सैकड़ों नाम दिए जा सकते हैं।
यदि वस्तु स्त्रीवाची है तो सुंदर मुसकान वाली (सुस्मिता), पृथ्वी (गिरिकांता), वन की आभा (वनप्रथा), श्वेत मुकुट वाली (सरस्वती), मस्ती में सराबोर (मदोद्धता), ऊष्मा को जीतने वाली (विजितातपा), केशों के कर्णफूल वाली (अलकावतंसा) आदि नाम हो सकते हैं। यदि पुरुषवाची है तो निडर (अकुतोभय), पर्वत का गौरव (गिरि गौरव), न हारने वाला, पृथ्वी को जीतने वाला (धरती धकेल), पहाड़ को फोड़ने वाला या पाताल भेदने वाला नाम हो सकता है, लेकिन लेखक नाम को नाम के लिए नहीं, सामाजिक स्वीकृति का वाची मानता है।
रूप व्यक्ति का सत्य है, पर नाम समाज की दृष्टि से सत्य है। नाम पर समाज की मुहर लगी होती है। समाज व्यक्ति को उसके नाम से जानता है। इसी को आधुनिक समाज के लोग सोशल सेकशन (सामाजिक स्वीकृति) कहते हैं। अतः लेखक समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, मानव-समूह की मन-गंगा में व्याप्त नाम के लिए व्यकुलता व्यक्त कर रहा है।
विशेष :
- लेखक ने रूप तथा नाम की अलग-अलग महल्ता का विवेचन किया है।
- वस्तुओं के नाम रखे जाने के कारण और विभिन्न नामों का भी उल्लेख किया गया है।
- तत्सम शब्दों का बाहुल्य है।
- खड़ी बोली है।
- भाषा में प्रवाह है।
4. दुनिया में त्याग नहीं है, प्रेम नहीं है, पराथ्थ नहीं है, परमार्थ नहीं है- हैं केवल प्रचंड स्वार्थ। भीतर की जिजीविषा, जीते रहने की प्रचंड इच्छा ही-अगर बड़ी बात हो, तो फिर यह सारी बड़ी-बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाए जाते हैं, शत्रुमर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्थार का नारा लगाया जाता है, साहित्य और कला की महिमा गाई जाती है, झूठ है। इसके द्वारा कोई-न-कोई अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध करता है। लेकिन अंतरतर से कोई कह रहा है, ऐसा सोचना गलत ङंग से सोचना है।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठयपुस्तक ‘अंतरा भाग में संकलित निबंधकार, आलोचक डॉ०० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। लेखक ने शिवालिक को शिवजी की अलके या केश राशि के रूप में संबोधित करते हुए वहाँ पाए जाने वाले एक ऐसे वृक्ष को निबंध का विषय बनाकर प्रस्तुत किया है, जो अपने रूप-सौंदर्य से लेखक को प्रभावित करता है। इस अंश में संसार की स्वार्थ-प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुए अंत में स्वार्थ को अनुचित कहा गया है।
व्याख्या – याजवल्क्य और हॉब्स इस बात को मानते हैं कि इस संसार में सर्वत्र स्वार्थ ही स्वार्थ का बोलबाला है। कहीं भी प्रेम, परोपकार, परार्थ नहीं है।
आदमी जहाँ-जहाँ प्रेम या परोपकार का प्रदर्शन करता है, उन सबमें स्वार्थ निहित है। अतः कहीं भी परोपकार का नाम नहीं है। व्यक्ति के भीतर केवल जीने की प्रचंड इच्छा है। यह जिजीविषा ही वास्तविक सत्य है। व्यक्ति अपने व्यवहार में बड़ी-बड़ी बातें करके दलों और पार्टियों का गठन करता है, शत्रु के साथ युद्ध करता है, उसे पराजित करता है, देश-सेवा और देश-उद्धार का नाटक करता है, साहित्य और कलाओं की प्रशंसा करता है। ये सारी बातें झूठ हैं, कितु व्यक्ति की जिजीविषा सत्य है। इन सब कार्यों के माध्यम से व्यक्ति अपना बड़-से-बड़ा कार्य सिद्ध करता है, वही उसका स्वार्थ है, जिजीविषा है। इस विचारधारा के बाद लेखक अपनी आत्मशक्ति से सोचता है तो उसे लगता है कि उपर्युक्त प्रकार से सोचना कोई ठीक सोच नहीं है अर्थात् कहीं हम गलत सोच रहे हैं।
विशेष :
- परमार्थ और स्वार्थ के चितन में मानसिक अंतद्वर्वद्व की अवस्था का वर्णन है।
- तत्सम शब्दावली का सहज प्रयोग है। स्वार्थपरता व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए ठीक नहीं होती है, यह भाव प्रकट हुआ है।
- खड़ी बोली का प्रयोग है, जिसमें विचारों की सफल अभिव्यक्ति है।
- विवेचनात्मक शैली का प्रयोग है।
5. याज्ञवल्क्य ने जो बात धक्कामार ढंग से कह दी थी, वह अंतिम नहीं थी। वे ‘आत्मनः ‘ का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे। व्यक्ति की ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, वह व्यापक है। अपने में सब और सबमें आप-इस प्रकार की एक समष्टि-बुद्धि जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनंद भी नहीं मिलता। अपने आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक ‘सर्व’ के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक ‘स्वार्थ’ खंड-सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्या को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय-कृपण बना देता है।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंधकार, आलोचक डॉ०० हजारी प्रसाद द्विवेवी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। लेखक ने शिवालिक को शिवजी की अलके या केश राशि के रूप में संबोधित करते हुए वहॉं पाए जाने वाले एक ऐसे वृक्ष को निबंध का विषय बनाकर प्रस्तुत किया है, जो अपने रूप-सौंदर्य से लेखक को प्रभावित करता है। इस अंश में लेखक ने याजवल्क्य द्वारा की गई स्वार्थ-परमार्थ की दार्शानिक समीक्षा का उल्लेख किया है।
व्याख्या – लेखक प्रस्तुत पंक्तियों से पूर्व इसी निबंध में कहता है कि याज्ञल्क्य ने अपनी पत्नी को विचित्र भाव समझाने का प्रयास किया था-‘अनात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति!’ अर्थात् इस संसार में सब अपने मतलब या स्वार्थ के लिए प्रिय होता है। यह उनकी दृष्टि में अंतिम बात नहीं थी। संभवतः वे ब्रह्मवादी थे और ‘आत्मन’ का व्यापक अर्थ प्रस्तुत करना चाहते थे। इसीलिए प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि व्यक्ति की आत्मा का क्षेत्र सीमित नहीं है, वह व्यक्ति से आगो भी व्यापक है।
हमें अपने में सबको देखना चाहिए और सबमें स्वयं को देखना चाहिए। जब हम सबकी ऐसी समष्टिगत बुद्धि हो जाती है तो जीवन का पूर्ण सुख एवं आनंद मिल जाता है। हमें अपने-आप को अंगूरों की भाँति कुचलकर और निचोड़कर सारे संसार के लिए न्योछावर करना है। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो यह स्वार्थ खंडित सत्य है। ऐसा स्वार्थ हमारे मोह को बढ़ाता है। हमारे जीवन में तृष्णा उत्पन्न हो जाती है। मनुष्य परोपकारी न होकर कृपण और द्यनीय हो जाता है। अतः ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना आवश्यक है।
विशेष :
- परमार्थ के लिए जीवन न्योछावर करने में ही पूर्ण आनंद है।
- स्वार्थ-परमार्थ पर दार्शनिक समीक्षा की गई है।
- सरल और सहज भाषा है, जिसमें भावों की सफल अभिव्यक्ति है।
- भाषा में तत्सम शब्दों की बहुलता है।
- विचारों की प्रधानता है।
6. जीना चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो; वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफ़ान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो, आकाश को चूमकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंधकार, आलोचक डॉ०० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। लेखक ने शिवालिक को शिवजी की अलकें या केश राशि के रूप में संबोधित करते हुए वहाँ पाए ज़ाने वाले एक ऐसे वृक्ष को निबंध का विषय बनाकर प्रस्तुत किया है, जो अपने रूप-सौंदर्य से लेखक को प्रभावित करता है। इस अंश में लेखक कुटज के पेड़ द्वारा मनुष्य को दी जाने वाली प्रेरणा और संदेश का वर्णन किया है।
व्याख्या – ‘कुटज’ समाज को उपदेश दे रहे हैं कि यदि तुम जीना चाहते हो तो मेरी भाँति जियो। जिस प्रकार कुटज कठोर पत्थर को तोड़कर पाताल से पानी संग्रह करके अपना भोज्य संग्रह करता है, उसी प्रकार हे समाज के लोगो! आप भी संघर्ष करके अपने प्राप्य को प्राप्त करो। वायुमंडल को चूसकर आँधी-तूफ़ान को झेलते हुए अपना भोग्य प्राप्त कर लो। तभी तुम्हें कुटज की भाँति गगनचुंबी सफलताएँ प्राप्त हो सकेंगी। मनुष्य को कुटज से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। यही कुटज का मानव-मात्र के लिए उपदेश है।
विशेष :
- भाषा सरल एवं सहज है, जिसमें भावों की सफल अभिव्यक्ति है।
- लेखक ने प्रकृति एवं कुटज से प्रेरणा ग्रहण करने का उपदेश दिया है।
- भाषा तत्सम शब्द प्रधान एवं मुहावरेदार है।
- हिमालय की चोटी पर खड़े एवं उपदेश देते कुटज का बिंब साकार हो उठा है।
7. जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है वह अबोध है, जो समझता है कि दूसरे उसका उपकार कर रहे हैं वह भी बुद्धिहीन है। कौन किसका उपकार करता है, कौन किसका उपकार कर रहा है? मनुष्य जी रहा है, केवल जी रहा है; अपनी इच्छा से नहीं, इतिहास-विधाता की योजना के अनुसार। किसी को उससे सुख मिल जाए, बहुत अच्छी बात है; नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परंतु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुख पहुँचाने का अभिमान तो निरा गलत है।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ के प्रति निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। लेखक यहाँ निर्भाव तथा निष्काम कर्म की प्रतिष्ठा कराते हुए उपकार व अपकार व्याखक्रि व्यक्ति की भावना का परिष्कार करना चाहता है। वह सुख-दुख में समान रहने की बात कर रहा है।
वाख्या – जो व्यक्ति यह मानता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है, वह अज्ञान में है (उसे समझ नहीं है)। इसी प्रकार यदि कोई समझता है कि दूसरे उसका बुरा कर रहे हैं, वह भी बुद्धिहीन प्राणी है, क्योंकि न कोई किसी का भला करता है, न बुरा। मनुष्य तो केवल जी रहा है। वह अपनी इच्छा से नहीं इतिहास विधाता के निर्धारित योजना के अनुसार जी रहा है। किसी को सुख मिल जाए या दुख, सब विधाता के संकेत पर। मनुष्य का इसमें क्या? इसलिए अभिमान नहीं करना चाहिए। अत: उपकार करने या सुख पहुँचाने का भाव मन में लाना गलत है और दुख पहुँचाने का अभिमान तो उससे भी ज्यादा गलत है। मनुष्य को इन दोनों ही दोषों से मुक्त रहना चाहिए।
विशेष :
- हमारा जीवन विधाता के योजनानुसार है। इसमें सुख मिलने पर अभिमान और दुख मिलने पर निराश नहीं होने का भाव प्रकट हुआ है।
- उपकार और अपकार में व्यक्ति दोषी नहीं, क्योंकि यह विधाता की योजनानुसार हो रहा है।
- सरल और सहज भाषा का प्रयोग है जो भावाभिव्यक्ति में समर्थ है।
- मनुष्य के लिए जीवनोपयोगी संदेश दिया गया है।
8. दुख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी वह है जिसका मन वश में है, दुखी वह है जिसका मन परवश है। परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता, हाँ-हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं है वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है, अपने को छिपाने के लिए मिथ्या आडंबर रचता है, दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वशी है। वह वैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंधकार, आलोचक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं। लेखक ने शिवालिक को शिवजी की अलकें या केश राशि के रूप में संबोधित करते हुए, वहाँ पाए जाने वाले एक ऐसे वृक्ष को निबंध का विषय बनाकर प्रस्तुत किया है, जो अपने रूप-सौंदर्य से लेखक को प्रभावित करता है। इस अंश में लेखक वृक्ष के नाम का स्मरण करते हुए, उसे पहचानकर उसके गुण का बखान कर रहा है।
व्याख्या – सुख-दुख व्यक्ति के मन के विषय हैं। कोई भी सुख सबके लिए सुख नहीं है और कोई भी दुख सबके लिए दुख नहीं है। एक परिस्थिति किसी के लिए सुखदायक है, वहीं दूसरे के लिए दुखदायक। यह किसी का मन अस्थिर या चंचल है, वह बाहरी परिस्थितियों से जल्दी प्रभावित हो जाएगा। वह सुखी या दुखी हो जाएगा। जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ वश
में नहीं रहतीं, वह सदा असंतुष्ट रहता है। भावना या इच्छा की पूर्ति के लिए वह किसी की खुशामद करेगा, किसी को प्रसन्न करेगा, जी-हुजूरी करेगा, वहीं दूसरे के मन को छलेगा। अपने दोष (भाव) छिपाने के लिए दिखावा करेगा। दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाएगा। द्विवेदी जी मानते हैं कि कुटज इन छलों से मुक्त वैरागी (रागयुक्त) के समान है। सांसारिक भोग भोगकर भी मुक्त है। वह स्वार्थ के लिए दूसरे के मन में प्रवेश नहीं करेगा, इसलिए घोषणा करता है कि उसने मन को जीत लिया, उसे वश में कर लिया।
विशेष :
- वस्तुत: व्यक्ति की इच्छाएँ ही उसके सुख या दुख का मूल कारण होती हैं। यह भाव प्रकट हुआ है।
- लेखक द्वारा कुटज के वृक्ष की तुलना राजा जनक से की गई है।
- भाषा में सरलता, सहजता एवं प्रवाह है।
- तत्सम शब्दावली की बहुलता है। फिर भी भाषा बोझिल नहीं होने पाई है।
- मुहावरों का सार्थक प्रयोग है। इससे भाषा रोचक एवं सजीव हो उठी है।
9. रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं, जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सेंक्शन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात।
प्रसंग – प्रस्त्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित निबंधकार, आलोचक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’ से ली गई हैं।
व्याख्या – रूप और नाम में अंतर बताते हुए लेखक कहता है कि रूप का संबंध व्यक्ति तक सीमित होता है, जबकि नाम का संबंध समाज के साथ होता है। नाम वह पद होता है, जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। इस मोहर के रूप में समाज उसे मान्यता दे देता है। आधुनिक युग में इसे सोशल सेंक्शन के नाम से जाना जाता है। नाम के महत्वपूर्ण होने का यही कारण है। लेखक का मन भी उस वृक्ष का नाम जानने के लिए व्याकुल है, जिसे समाज की स्वीकृति मिली हो, जो इतिहास द्वारा प्रमाणित हो और मनुष्य के मन में अपनी जगह बना चुका हो।
विशेष :
- लेखक ने रूप तथा नाम की अलग-अलग महत्ता का विवेचन किया है।
- वस्तुओं के नाम रखे जाने के कारण और विभिन्न नामों का भी उल्लेख किया गया है।
- तत्सम शब्दों का बाहुल्य है।
- खड़ी बोली है।
- भाषा में प्रवाह है।