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गीत गाने दो मुझे Summary – सरोज स्मृति Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 2 Summary
गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ – कवि परिचय
प्रश्न : सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन एवं साहित्य का परिचय दीजिए।
उत्तर : जीवन परिचय-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म सन् 1898 में बंगाल के मेदिनीपर ज़िले के महिषादल गाँव में हुआ था। उनका पितृग्राम गढ़कोला (उन्नाव, उ०प्र०) है। उनके बचपन का नाम सूर्य कुमार था। बहुत छोटी आयु में ही उनकी माँ का निधन हो गया। निराला जी की विधिवत स्कूली शिक्षा नर्वी कक्षा तक ही हुई। पत्नी की प्रेरणा से निराला जी की साहित्य और संगीत में रूचि पैदा हुई। सन् 1918 में उनकी पत्नी का देहांत हो गया और उसके बाद पिता, चाचा, चचेरे भाई एक-एक कर सब चल बसे। अंत में पुत्री सरोज की मृत्यु ने निराला जी को भीतर तक झकझोर दिया। अपने जीवन में निराला जी ने मृत्यु का जैसा साक्षात्कार किया था, उसकी अभिव्यक्ति उनकी कई कविताओं में दिखाई देती है।
सन् 1916 में उन्होंने प्रसिद्ध कविता ‘जूही की कली ‘ लिखी, जिससे बाद में उनको बहुत प्रसिद्धि मिली और वे मुक्त छंद के प्रवर्तक भी माने गए। निराला सन् 1922 में रामकृष्ण मिशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘समन्वय’ के संपादन से जुड़े। सन् 1923-24 में वे ‘मतवाला’ के संपादक मंडल में शामिल हुए। वे जीवनभर पारिवारिक और आर्थिक कष्टों से जूझते रहे। अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण निराला कहीं टिककर काम नहीं कर पाए। अंत में इलाहाबाद आकर रहे और वहीं सन् 1961 में उनका देहांत हुआ। रचनाएँ-निराला जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं –
काव्य-परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज आदि। उपन्यास-अलका, अप्सरा, प्रभावती, निरुपमा।
कहानी-संग्रह-सुकुल की बीबी, लिली, सखी।
रेखाचित्र-कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिहा।
आलोचना और निबंध-प्रबंध-पद्म, प्रबंध-प्रतिभा।
जीवन साहित्य-प्रह्लाद, ध्रुव, राणा प्रताप, शकुंतला, भीष्म।
उनका संपूर्ण साहित्य ‘निराला रचनावली’ के आठ खंडों में प्रकाशित हो चुका है।
काव्यगत-विशेषताएँ-छायावाद और हिंदी की स्वच्छंदतावादी कविता के प्रमुख आधार स्तंभ निराला का काव्य-संसार बहुत व्यापक है। उनमें भारतीय इतिहास, दर्शन और परंपरा का व्यापक बोध है और समकालीन जीवन के यथार्थ के विभिन्न पक्षों का चित्रण भी। भावों और विचारों की जैसी विविधता, व्यापकता और गहराई निराला जी की कविताओं में मिलती है, वैसी बहुत कम कवियों में है। उन्होंने भारतीय प्रकृति और संस्कृति के विभिन्न रूपों का गंभीर चित्रण अपने काव्य में किया है। भारतीय किसान के जीवन से उनका लगाव उनकी अनेक कविताओं में व्यक्त हुआ है।
यद्यपि निराला जी मुक्त छंद के प्रवर्तक माने जाते हैं, तथापि उन्होंने विभिन्न छंदों में भी कविताएँ लिखी हैं। उनके काव्य-संसार में काव्य-रूपों की भी विविधता है। एक ओर उन्होंने ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘ तुलसीदास ‘ जैसी प्रबंधात्मक कविताएँ लिखीं, तो दूसरी ओर प्रगीतों की भी रचना की। उन्होंने हिंदी भाषा में गज़लों की भी रचना की है। उनकी सामाजिक आलोचना व्यंग्य के रूप में उनकी कविताओं में जगह-जगह प्रकट हुई है।
निराला जी की काव्यभाषा के अनेक रूप और स्तर हैं। ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘ तुलसीदास’ में तत्सम प्रधान पदावली है तो ‘भिक्षुक’ जैसी कविता में बोलचाल की भाषा का संजनात्मक उपयोग। भाषा का कसाव, शब्दों की मितव्ययिता और अर्थ की प्रधानता उनकी काव्य-भाषा की जानी-पहचानी विशेषताएँ हैं।
Geet Gane Do Mujhe Class 12 Hindi Summary
गीत गाने दो कविता में निराला जी ने ऐसे समय की ओर इशारा किया है, जिसमें चोट खाते-खाते, संघर्ष करते-करते होश वालों के होश खो गए हैं यानी जीवन जीना आसान नहीं रह गया है। जो कुछ मूल्यवान था, वह लुट रहा है। पूरा संसार हार मानकर ज़हर से भर गया है। पूरी मानवता हाहाकार कर रही है। लगता है पृथ्वी की लौ बुझ गई है, मनुष्य की जिजीविषा खत्म हो गई है। कवि इसी जिजीविषा की लौ को जगाने की बात कर रहा है और वेदना या पीड़ा को छिपाने के लिए, उसे रोकने के लिए गीत गाना चाहता है। वह निराशा में आशा का संचार करना चाहता है। कवि ने इस कविता के माध्यम से मनुष्य को निरंतर संघर्ष करते हुए जीने के लिए प्रेरित किया है।
Saroj Smriti Class 12 Hindi Summary
सरोज स्मृति कविता निराला जी की दिवंगता पुत्री सरोज पर केंद्रित है। इसका कथ्य नवयुवती पुत्री के दिवंगत होने पर पिता का विलाप है। पिता के इस विलाप में कवि को कभी शकुंतला की याद आती है तो कभी अपनी स्वर्गीय पत्नी की। कवि को अपनी बेटी के रूप-रंग में पत्नी का रूप-रंग दिखाई पड़ता है, जिसका चित्रण निराला ने किया है। यही नहीं इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज से उसके संबंध, पुत्री के प्रति बहुत कुछ न कर पाने की अकर्मण्यता बोध भी प्रकट हुआ है। इस कविता के माध्यम से निराला जी का जीवन-संघर्ष भी प्रकट हुआ है। तभी तो वे कहते हैं :
‘दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही’।
गीत गाने दो मुझे सप्रसंग व्याख्या
1. गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।
चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे,
ठगठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रुकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।
शब्दार्थ :
- वेदना – पीड़ा (pang)।
- पाथेय – रास्ते का सहारा (provisions stored up for a journey)।
- कंठ – गला (throat)।
- काल – मृत्यु (death)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2 ‘ में संकलित कविता ‘ गीत गाने दो मुझे ‘ से लिया गया है। इसके रचयिता सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। यह कविता निराला जी के तीसरे चरण की कविता है। इसमें इन्होंने संसार में मची लूटपाट के लिए अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए लोगों को आशावान बने रहने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या-कवि का कहना है कि इस उमड़ती वेदना से छुटकारा पाने के लिए मुझे निरंतर गीत गाने दो। उस पीड़ा और कष्ट को रोकने के लिए गीत गाने के अतिरिक्त मेरे पास अन्य कोई साधन या सहारा नहीं है।
जीवन के कठिन मार्ग पर चलते-चलते कई बार चोट खाने से मेंरे होशो-हवास एकदम छूट गए हैं। मेरे हाथ में जीवन के कतिपय साधन थे। उनको भी स्वयं को ठाकुर कहने वाले ठगों ने धोखे में रखकर लूट लिया है। अब तो निरंतर विपत्तियों को सहते रहने से मेरा गला भी रुँधता आ रहा है। साँस रूकती जा रही है, लगता है कि जैसे मेरा अंतकाल निरंतर समीप और समीप आ रहा है।
विशेष :
- सांसारिक छल-प्रंपच से दुखी कवि की दीन-हीन दशा का वर्णन है।
- सरल, सहज, साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- अनुप्रास अलंकार है।
- छंदमुक्त रचना है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य –
- कवि सांसारिक छल-प्रपंच से दुखी है। जीवन की कठिनाइयों ने उसे दुखी बना दिया है।
- वह अपनी व्यथा से मुक्ति पाने हेतु गीत गाना चाहता है।
- कवि के स्वर में प्रगतिवादी विचारधारा की अभिव्यक्ति और पूँजीवाद के प्रति आक्रोश व्यक्त हुआ है।
शिल्प-सौंदर्य –
- सरल, सहज, स्वाभाविक वाणी में भावाभिव्यक्ति है।
- भाषा तत्सम शब्दयुक्त खड़ी बोली है।
- ‘गीत गाने दो’ में अनुप्रास अलंकार तथा ‘ठग-ठाकुरों’ में रूपक अलंकार है।
- काव्यांश में मुक्तक शैली है।
- भाषा में लाक्षणिकता है।
- ‘कंठ रुकना’, ‘काल आना’ मुहावरों का सुंदर प्रयोग है।
2. भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा कीं,
जल उठो फिर सींचने को।
शब्दार्थ :
- जहर – विष (poison)।
- लौ – ज्योति (flame)।
- पृथा – पृथ्वी (earth)।
- जल उठना – प्रकाशमय हो जाना (to inflame)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ से लिया गया है। इसके रचयिता सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। यह कविता निराला के तीसरे चरण की कविता है। इसमें इन्होंने संसार में मची लूटपाट के लिए अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए लोगों को आशावान बने रहने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या – कवि चिंतित स्वर में कहता है कि यह पराजित संसार विषमता के विष से भर गया है। लोग परस्पर एक-दूसरे से परिचय प्राप्त नहीं करते और एक-दूसरे को अजनबी की तरह देखते हैं। इस प्रकार पृथ्वी की जो सहिष्णुता की ज्योति थी, अब वह बुझ गई है अर्थात् मनुष्य परस्पर शोषण कर रहे हैं और मानवता विरोधी कार्य कर रहे हैं। उस बुझी हुई सद्वृत्ति को प्रज्यलित करने के लिए हे कवि! तुम पुनः जल उठो। अपने तेज को प्रदीप्त करो। भाव यह है कि धरती पर जीवन रूपी लौ को पुनः जलाने की प्रेरणा देने के लिए कवि गाना चाहता है।
विशेष :
- कवि ने संसार की शोषण-प्रवृत्ति पर चिंता प्रकट की है। वह मानवता बनाए रखने का पक्षधर है।
- भाषा सरल, सहज, तत्सम शब्दयुक्त साहित्यिक खड़ी बोली है।
- रचना मुक्त छंद में है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य-
- कवि ने संसार से लुप्त होती समरसता और बढ़ती शोषण-प्रवृत्ति पर चिंता प्रकट की है।
- कवि मानवता और मानवोचित गुणों को बनाए रखने का पक्षधर है।
- वह जीवन रूपी बुझती लौ को प्रज्वलित करने की प्रेरणा देता है।
शिल्प-सौंदर्य –
- काव्यांश की भाषा सरल, सहज, तत्सम शब्दयुक्त है, जिसमें लाक्षणिकता है।
- ‘लौ पृथा की’ से धरती की सहनशीलता की ओर संकेत है।
- ‘लोग लोगो’ में अनुप्रास अलंकार तथा ‘जल उठो फिर सींचने को’ में विरोधाभास अलंकार है।
- ‘लौ बुझना’, ‘जल उठना’ मुहावरों का सुंदर प्रयोग है।
- काव्यांश-रचना छंदमुक्त शैली में है।
सरोज स्मृति सप्रसंग व्याख्या
1. देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मंद,
होंठों में बिजली फँसी स्पंद
उर में भर झूली छबि सुंदर
प्रिय की अशब्द धृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्हवास- संग,
विश्वास-स्तब्य बँध अंग-अंग
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-
शब्दार्थ :
- आमूल – पूरी तरह से (completely)।
- नवल – नया (new)।
- शुभ – पवित्र (auspicious)।
- कलश – घड़ा (pitcher)।
- बिजली फँसना – मुस्कान फूट पड़ना (to burst into smile)।
- स्पंद-धीरे – धीरे हिलना (throb)।
- उर – हृदय (heart)।
- छवि – छायामूर्ति (an image)।
- अशब्द – मौन (silence)।
- मुखर होना – प्रकट होना (to be outspoken)।
- नत – झुका हुआ (bent)।
- आलोक – प्रकाश (light)।
- अधर – होंठ (the lower lip)।
- मूर्ति-धीति – धैर्य की मूर्ति (one who has much patience)।
- वसंत – यौवन (youth)।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। इसके रचयित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। ‘सरोज स्मृति’ एक शोकगीत है, जिसे कवि ने दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखा है। इस अंश में कवि पुत्री का विवाह होते देख अपने कर्तव्य और अपने यौवन के दिनों का स्मरण कर रहा है।
व्याख्या – अपनी दिवंगता पुत्री के विवाह की स्मृतियाँ ताजा करते हुए कवि कहता है कि मेहमानों ने नई पद्धति से संपन्न होते विवाह को देखा था। तेरे ऊपर पवित्र कलश से जल लेकर उसके मांगलिक छीटि छिड़के गए थे। इस अवसर पर तू मेरी ओर देखकर मुस्कराई थी और तेरे अधरों पर स्पंदन और मुसकान की एक लहर बिजली की तरह दौड़ गई थी । तू हुदय में अपने पति की सुंदर छवि भरकर फूल रही थी।
तेरा दांपत्य-भाव मुखर हो रहा था। एक गहरी साँस लेकर तू मानो प्रसन्न हो उठी थी। तेरा एक-एक अंग भविष्य के विश्वास की आशा में बँधकर निश्चल हो उठा था। नीचे की ओर झुके हुए नेत्रों से प्रकाश की रेखा उतरकर तेरे होठों पर थर-थर काँपने लगी थी अर्थात् तू तन और मन दोनों ही तरह से प्रसन्न थी। मैने तेरी वह धैर्यवान मूर्ति देखी थी। वह मेरी युवावस्था में शृंगार के प्रथम स्फुरण अर्थात् गीत जैसी लग रही थी। कवि को दुलहन रूप में अपनी पुत्री को देख अपने यौवन के दिन याद आ रहे थे।
विशेष :
- काव्यांश शोकगीत का अंश है, जिसमें कवि अपनी दिवंगता पुत्री के विवाह-संस्कार को याद कर रहा है।
- भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त साहित्यिक खड़ी बोली है।
- अनुप्रास एवं पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- भाषा में लाक्षणिकता है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य –
- कवि अपनी दिवंगता पुत्री के वैवाहिक संस्कार को याद कर दुखानुभूति कर रहा है।
- श्रृंगार का संयमित एवं मर्यादित वर्णन किया गया है।
- कवि के अपने यौवन-काल की स्मृतियाँ तरोताजा हो उठी हैं।
शिल्प-सौंदर्य –
- तत्सम शब्दावली युक्त सरल, सहज भाषा का प्रयोग है।
- लाक्षणिकता द्रष्टव्य है।
- ‘थर-थर-थर’, ‘अंग-अंग’ में पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार, ‘नत-नयनों से’ में अनुप्रास अलंकार है।
- स्मृति बिंब प्रकट हुआ है।
- काव्यांश रचनामुक्त छंद में है, जिसमें गेयता का गुण है।
2. श्रृगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छवसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन,
कोई थे नहीं, न आमंत्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
शब्दार्थ :
- निराकार – आकार रहित (shapeless)।
- उच्छ्वसित धार – उमड़ती हुई धारा जैसी (in full blooming stated stream)।
- राग-रंग – आनंद का रंग (entertainment)।
- रति-रूप – कामदेव की पत्नी रति जैसा सौंदर्य (beauty like wife of cupid)।
- मही – पृथ्वी (earth)।
- आत्मीय स्वजन – सगे-संबंधी, रिश्तेदार (relatives)।
- विवाह – राग-विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीत (song sung at marriage occasion)।
- निशि – दिवस-रात-दिन (night and day)।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला’ हैं।’सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है, जिसे कवि ने दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखा है। इस अंश में कवि ने अपनी पुत्री के आडंबरहीन विवाह का वर्णन किया है।
व्याख्या – कवि अपनी बेटी के विवाह का वर्णन करते हुए कहता है कि मैंने उसमें उस शृंगार को देखा जो निराकार रहकर भी मेरी कविता में रस की उमड़ती हुई धारा के समान प्रस्फुटित हो उठा था। उसमें वह संगीत मुखरित हो रहा था, जिसको मैंने अपनी पत्नी के साथ गाया था। वह संगीत मेरे प्राणों में आनंद का उद्रेक करता रहता है। मेरी वही भृृंगार-भावना तेरे रूप में साकार हो उठी थी। उस दिन आकाश अपने ऊध्र्व में रहने के स्वभाव को त्यागकर नीचे आकर पृथ्वी के साथ एकाकार हो गया।
अभिप्राय यह है कि प्रकृति भी दोंपत्य-भाव से ओतप्रोत थी। हे पुत्री ! इस तरह तेरा विवाह संपन्न हो गया था। उसमें कोई भी सगा-संबंधी नहीं आया था, क्योंकि उनको निमंत्रण ही नहीं भेजे गए थे। इसी प्रकार विवाह के अवसर पर कन्या के घर में जो रात-दिन का राग-रंग पूर्ण उत्सव, वैवाहिक गीत और रात्रि-जागरण चला करता है, वह भी यहाँ नहीं हुआ। उस समय तो कवि-पुत्री सरोज के नवजीवन के स्तरों पर एक प्रकार का मूक संगीत अवतरित हो रहा था, जिससे वह आर्नदित हो रही थी।
विशेष :
- कवि ने अपनी पुत्री के सादगीपूर्ण विवाह का वर्णन किया है।
- मुक्त छंद होते हुए भी गेयता है।
- साहित्यिक खड़ी बोली है, जिसमें तत्सम शब्दावली की प्रधानता है।
- उपमा तथा अनुप्रास अलंकार हैं।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य –
- कवि-पुत्री के आडंबररहित और अत्यंत सादगीपूर्ण विवाह का वर्णन है।
- विवाह के अवसर पर धरती-आकाश को एक साथ दिखाने में छायावादी शैली के दर्शन होते हैं।
शिल्प-सौंदर्य –
- तत्सम शब्दावलीयुक्त साहित्यिक खड़ी बोली है।
- ‘राग-रंग’, ‘रति-रूप’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘निशि-दिवस’ समासिक शब्द प्रयोग है।
- मुक्तछंद रचना है।
- माधुर्य-गुण उपस्थित है।
- पारंपरिक वैवाहिक रीति की उपेक्षा तथा कवि की अभावग्रस्तता का बोध होता है।
3. माँ की कुल शिक्षा मँने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, “वह शकुंतला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूँदे दृग वर महामरण!
शब्दार्थ :
- कुल शिक्षा – घर-परिवार में मर्यादित व्यवहार करने की सीख (edification and conducts learnt from elders in one’s family)।
- पुष्प – सेज-फूलों की शैय्या (a bed of flowers), गृह-घर (home)।
- समोद – प्रसन्ततापूर्वक (happily)।
- जलद – बादल (cloud)।
- न्यस्त – साथी, निहित (vested)।
- हित – भलाई (beneficence)।
- मूँदे – बंद करना (closed)।
- दूग – आँख (eyes)।
- वर – ग्रहण करना (to adopt)।
- महामरण – मृत्यु (death)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत है। इसके रचयिता सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है, जिसे कवि ने दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखा है। इस अंश में ‘ निराला’ ने सरोज के आकस्मिक देहावसान का वर्णन किया है।
व्याख्या – पुत्री की मृत्यु से दुखी कवि ‘निराला’ कहते हैं कि हे पुत्री! तेरे विवाह के बाद मैंने ही तुझको वे शिक्षाएँ प्रदान की थीं, जिन्हें नववधू को माता प्रदान किया करती है। तेरी पुष्प-शैय्या भी मैंने ही अपने हाथों से तैयार की थी। मैं सोच रहा था कि मैं अपनी पुत्री को शकुंतला की भाँति उसी प्रकार विदा कर रहा हूँ, जैसे शकुंतला को महर्षि कण्व ने विदा किया था, किंतु तू शकुंतला से अलग थी, क्योंकि तेरी शिक्षा अलग थी।
हे पुत्री! तू कुछ दिनों तक अपने घर अर्थात् ससुराल में रहकर फिर अपनी नानी के पास चली गई। वहाँ पर तेरे मामा और मामी तुझ पर उसी प्रकार प्रेम की वर्षा करते रहते थे जैसे मेघ अपने जल से पृथ्वी को आप्लावित करते रहते हैं। वे ही तेरे दुख-सुख में तेरे साथी और शिक्षक बने रहे और वे सदैव तेरी भलाई के कार्यों में संलग्न रहते थे। तू जिस लता की कली थी, वह भी वहीं की थी अर्थात् तुम्हारी माँ भी तो तुम्हारे नाना-नानी की पुत्री और तुम्हारे मामा की बहन ही तो थी। तू उन्हीं की गोद में बचपन से रही थी, अत: उन्हीं से हिली-मिली थी। अपने जीवन की अंतिम घड़ी में भी तूने उस स्नेहमयी की गोद में शरण ली थी और अपने सुंदर नेत्रों को बंद करके महाप्रयाण का वरण (चुनाव) कर लिया था।
विशेष :
- कवि की मानसिक दशा का वर्णन है।
- साहित्यिक खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- मुक्त छंद है।
- अनुप्रास तथा रूपक अलंकार है।
काव्य-सौंवर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य –
- कवि ने अपनी पुत्री के विवाह और उसकी असामयिक मृत्यु का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।
- कवि अपनी पुत्री के प्रति गहन अनुभूति एवं स्नेह रखता है।
शिल्प-सौंदर्य-
- भाषा तत्सम शब्दावलीयुक्त साहित्यिक खड़ी बोली है।
- वात्सल्य एवं करुण रस घनीभूत है।
- ‘सदा समस्त’ में अनुप्रास, “हिली’, ‘पली’ में स्वरमैत्री, ‘पुष्प-सेज’ में रूपक तथा ‘भर जलद धरा को ज्यों अपार’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
- काव्यांश छंद्मुक्त शैली में है।
- चाक्षुक बिंब उपस्थित है।
- ‘सुख-दुख’ सामासिक शब्द का सुंदर प्रयोग है।
4. मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहुँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल !
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
शब्दार्थ :
- संबल – सहारा (support)।
- युग – युगल, दो (two)।
- विकल – बेचैन, व्याकुल (restless)।
- वज्रपात – बिजली गिरना (the fall of a thunderbolt)।
- नत – झुका हुआ (bowed down)।
- माथ – मस्तक (forehead)।
- सकल – सभी (all)।
- भ्रष्ट – नष्ट हुआ (spoiled)।
- शतदल – कमल (lotus)।
- अर्पण – देना, समर्पित करना (offering)।
- तर्पण – मृतक की आत्मा की शांति के लिए जलांजलि देना (offering of holy water to the departed soul for its calmness)।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘सरोज स्भृति’ से उद्धृत है। इसके रचयिता सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला’ हैं। ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है, जिसे कवि ने दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखा हैं। इस अंश में निराला ने सरोज के देहावसान के बाद अपने ऊपर आई मुसीबतों और उसके तर्पण का वर्णन किया है।
व्याख्या – पुत्री-मृत्यु की व्यथा और दुखमय जीवन जी रहा कवि कह रहा है कि हे पुत्री ! मुझ अभागे का एकमात्र तू ही सहारा थी। आज दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर कवि इस बात को प्रकट कर रहा है कि मेरा जीवन तो दुखों की ही कहानी रहा है अर्थात् मुझ पर एक के बाद एक विपत्तियाँ आती रही हैं। इस बात को मैंने अभी तक किसी से कहा नहीं है तो उसको आज ही कहकर क्या करूँगा। यदि मेरा धर्म बना रहे तो मेरे सारे कर्मों पर भसे ही बिजली टूट पड़े, मैं अपने झुके हुए मस्तक से उसको सहन करता रहूँगा।
इस जीवन-मार्ग पर मेरे संपूर्ण कार्य शिशिर ऋतु में मुरझा जाने वाले कमल की पंखुड़ियों की तरह भले ही नष्ट हो जाएँ अर्थात् चाहे मुझको मेरे कार्यों के लिए प्रशंसा न मिले, तो भी मुझे चिंता नहीं है। हे बेटी ! में अपने पिछले सभी जन्मों के पुण्य-कार्यों के फल तुझको सौंपकर तेरा तर्पण कर रहा हूँ अर्थात् श्राद्ध के रूप में तुझको श्रद्धांजलि दे रहा हूँ।
विशेष :
- काव्यांश कारुणिक भावों से ओतप्रोत है।
- अनुप्रास अलंकार और उपमा अलंकार का चमत्कार है।
- मिश्रित शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।
- मुक्त छंद है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
उपर्युक्त काव्यांश का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव-सौंदर्य –
- इस शोकगीत में कवि ने अपनी व्यधित दशा और स्वर्गीया पुत्री के प्रति श्रद्धांजलि का भाव प्रकट किया है।
- कवि का द्यनीय भाव मुखरित हुआ है जो करुणा-भाव उत्पन्न करने में समर्थ है।
शिल्प-सौंदर्य –
- तत्सम शब्दावलीयुक्त साहित्यिक खड़ी बोली भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
- ‘कर करता’ में अनुप्रास, ‘हों भ्रष्ट शीत के से शतद्ल’ में उपमा अलंकार है।
- तुकांतयुक्त छंद मुक्त रचना है।
- माधुर्य गुण उपस्थित है।
- करुण रस घनीभूत है जो करुणभाव जागृत कर देता है।