In this post, we have given Class 11 Hindi Antra Chapter 4 Summary – Gunge Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 11 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 11 Hindi subject.
गूँगे Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 4 Summary
गूँगे – रांगेय राघव – कवि परिचय
लेखक-परिचय :
प्रश्न :
रांगेय राघव का जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-रांगेय राघव का जन्म आगरा में हुआ था। इनका मूल नाम तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य था, परंतु इन्होंने रागेय राघव के नाम से साहित्य-रचना की है। इनके पूर्वज दक्षिण आरकाट से जयपुर-नरेश के निमंत्रण पर जयपुर आए थे, जो बाद में आगरा में बस गए। वहीं इनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। इन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम०ए० किया और पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। 39 वर्ष की अल्पायु में सन 1962 में इनकी मृत्यु हो गई।
रचनाएँ – रांगेय राघव ने साहित्य की विविध विधाओं में रचना की है, जिनमें कहानी, उपन्यास, कविता और आलोचना मुख्य हैं। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं :
(i) कहानी-संग्रह-इनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं-रामराज्य का वैभव, देवदासी, समुद्र के फेन, अधूरी मूरत, जीवन के दाने, अंगारे व बुझे ऐयाश, मुदें, इंसान पैदा हुआ।
(ii) उपन्यास – इनके उल्लेखनीय उपन्यास हैं-घरौंदा, विषाद-मठ, मुर्दों का टीला, सीधा-सादा रास्ता, अँधेरे के जुगनुँ, बोलते खंडहर तथा कब तक पुकारूँ।
सन 1961 में राजस्थान साहित्य अकादमी ने साहित्य सेवा के लिए इन्हें पुरस्कृत किया। इसकी रचनाओं का संग्रह दस खंडों में ‘रांगेय राघव ग्रंथावली’ नाम से प्रकाशित हो चुका है।
साहित्यिक विशेषताएँ – रांगेय राघव ने 1936 ई० से ही कहानियाँ लिखनी शुरू कर दी थीं। इन्होंने अस्सी से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। अपने कथा-साहित्य में इन्होंने जीवन के विविध आयामों को रेखांकित किया है। इनकी कहानियों में समाज के शोषित-पीड़ित मानव-जीवन के यथार्थ का मार्मिक चित्रण मिलता है। इनकी कहानियाँ शोषण से मुक्ति का मार्ग भी दिखाती हैं। सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा इनकी कहानियों की विशेषता है।
इन्होंने खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति की है। कहानी में संवादों का प्रयोग कथा को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है। भावनाओं की अभिव्यक्ति में रांगेय राघव अद्भुत हैं; जैसे-
‘एक क्षण को चमेली को लगा, जैसे उसी के पुत्र ने आज उसका हाथ पकड़ लिया था। एकाएक घृणा से उसने हाथ हुड़ा लिया।’
रांगेय राघव के साहित्य में तत्सम, तद्भव और अन्य शब्दों का प्रयोग किया गया है।
पाठ-परिचय :
‘गूँगे’ नामक कहानी में लेखक ने शारीरिक रूप से चुनौतीपूर्ण लोगों (विकलांगों) के प्रति समाज में फैली संवेदनहीनता की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। ऐसे लोगों को अपने दैनिक कार्य-व्यवहार में विविध प्रकार की समस्याओं से जूझना पड़ता है। अतः उन्हें समाज का अंग मानकर संवेदनशील व्यवहार करने के लिए प्रेरित किया है। लेखक ने उन लोगों को भी ‘गूँगे-बहरे’ कहा है, जो समाज, राष्ट्र, धर्म और व्यक्ति के प्रति घृणा से छटपटाते हुए भी कृत्रिम सुख के छलावे में फँसकर कुछ नहीं कह पा रहे हैं।
पाठ का सार :
इस कहानी में एक गूँगे किशोर के माध्यम से शोषित मानव की असहायता का चित्रण किया गया है। कभी तो वह मूक भाव से सब अत्याचार सह लेता है और कभी विरोध में मूक आक्रोश व्यक्त करता है। कहानी के आरंभ में गूँगे बालक को जो औरतें बुलाती हैं, वे उसके गूँगेपन से द्रवित हो जाती हैं। वे गूँगे की अभिव्यक्ति-कला से कुतूहल में पड़ जाती हैं। गूँगा इशारे से बताता है कि उसके पिता की मृत्यु के बाद उसकी माँ उसे छोड़कर चली गई। उसे जिन्होंने पाला है, वे उसे बहुत मारते हैं। सभी औरतें करुणा से भर जाती हैं। चमेली उसके हुदय की यातना को अनुभव करती है। सुशीला ने कहा- “इशारे गज़ब के करता है। अकल बहुत तेज़ है।” पूछा- “क्या खाता है, कहाँ से मिलता है?”‘ वह अपने इशारे से बताता है- 4 हलवाई के यहॉं रात-भर लड्ड बनाए हैं, कड़ाही माँजी है, नौकरी की है, कपड़े धोए हैं।” वह सीने पर हाथ मारकर इशारा करता है-“हाथ फैलाकर कभी भीख नहीं माँगा, मेहनत का खाता हूँ” चमेली की आँखों में पानी भर आया। सुशीला से बोली- “इसे नौकर भी तो नहीं रखा जा सकता।” गूँगा सारी बातें समझ रहा है। वह सभी काम कर लेता है, ऐसा बताता है। चमेली ने इशारा किया- हमारे यहाँ रहेगा?” गूँगे ने स्वीकार करते हुए पूछा-” क्या देगी! खाना?” चमेली ने चार अँगुलियाँ दिखाकर इशारा किया। गूँगे ने सीने पर हाथ मारकर कहा-” तैयार हैं। चार रुपये।” सुशीला ने कहा- “पछताओगी। भला यह क्या काम करेगा?” गूँगा उसके यहाँ रहने लगा। अब घर नहीं जाता। घर पर बुआ मारती थी, फूफा मारता था। वे उसकी कमाई चाहते थे।
यहाँ उसे बच्चे चिढ़ाते हैं। कभी नाराज़ नहीं होता। एक दिन चमेली ने पुकारा- “गूँगे।” गूँगा घर में नहीं था। “‘भाग गया होगा,” पति का उदासीन स्वर सुनाई दिया। चमेली सोचने लगी-‘ हमारे घर को अज़ायबघर का नाम मिल गया। उसे आश्रय दिया। क्यों भाग गया। नाली का कीड़ा!’ और जब बच्चे खाकर उठ गए, तो एकाएक द्वार पर गूँगा खड़ा नज़र आया। उसने इशारा किया कि वह भूखा है। चमेली क्रोध से भरती हुई बोली-“‘काम तो करता नहीं, भिखारी” और उसकी ओर रोटियाँ फेंक दीं, किंतु गूँगा खड़ा रहा। उसने रोटियाँ छुई तक नहीं। दोनों चुप रहे और थोड़ी देर के बाद उसने रोटियाँ उठाकर खाना शुरू कर दिया। जब गूँगा खा चुका, तो चमेली ने कठोर स्वर में पूछा-” कहाँ गया था?” उसने कोई उत्तर नहीं दिया। सिर झुकाकर खड़ा रहा। तभी चमेली ने उसकी पीठ पर एक चिमटा जड़ दिया, कितु गूँगा रोया नहीं। उसने अपराध-भाव से सह लिया। चमेली की आँखों से आँसू निकल पड़े। तब गूँगा भी रो पड़ा। फिर बह बार-बार भाग जाता और वापस आ जाता। चमेली सोचती कि उसने उस दिन भीख ली थी या ममता की ठोकर को निस्संकोच स्वीकार कर लिया था।
एक बार बसंता ने गूँगे को चपत लगा दी। गूँगे का हाथ उठा, पर उसने रोक लिया। वह रोने लगा। उसकी आवाज़ सुनकर चमेली आई, तो उसकी समझ में इतना ही आया कि खेल-खेल में बसंता ने उसे मार दिया था। बसंता ने माँ से कहा कि गूँगा उसे मारना चाहता था। चमेली ने गूँगे को द्डिडित करने के लिए हाथ उठाया, तो गूँगे ने उसका हाथ पकड़ लिया। चमेली को ऐसा लगा कि उसके बेटे ने ही उसका हाथ पकड़ लिया हो। वह सोचती है कि कहीं उसका बेटा भी गूँगा होता, तो वह भी ऐसे ही दुख उठाता। उसके हुदय में ममता भर आई। वह रोटी बनाती हुई सोचने लगी कि बसंता को दंड मिलना ही चाहिए, इस अधिकार को जताने के लिए गूँगे ने उसका हाथ पकड़ा था। उसे लगा कि गूँगा बहुत तेज़ है। गूँगे की आँखों में अभी भी उसके पक्षपात के प्रति तिरस्कार का भाव था।
गूँगे को खाना खिलाकर चमेली ने उससे कहा-” क्यों रे, तूने चोरी की है?” वह चुप रहा। अपना सिर झुका लिया। चमेली उसे दोडित न करके अपराध स्वीकार कराना चाहती थी। वह उसकी ओर इशारा करके बोली कि वह घर से निकल जाए। ढंग से काम नहीं कर सकता, तो चला जाए। रहना है, तो ठीक से रहे, नहीं तो सड़क पर जाकर कुत्तों की तरह जूठन पर ज़ियी बिताए। मगर गूँगा जैसे समझा नहीं। बड़ी-बड़ी आखें फाड़े देखता रहा। चमेली आदेश में चिल्ला उठी- 4 मक्कार, बदमाश! फहले कहता था, भीख नहीं माँगता, और सबसे भीख माँगता है। रोज़-रोज़ भाग जाता है, पत्ते चाटने की आद्त पड़ गई है। कुत्ते की दुम क्या कभी सीधी होगी? नहीं रखना है हमें, जा तू इसी वक्त निकल जा..” लेकिन मंदिर की मूर्ति की भॉंति वह जड़ रहा। कुछ न बोला। केवल इतना समझ सका कि मालकिन नाराज़ है और निकल जाने को कह रही है। उसे अचरज़ और अविश्वास हो रहा था।
चमेली ने उसका हाथ पकड़कर जोर से एक झटका दिया और घर के बाहर धकेल दिया। गूँगा धीरे-धीरे चला गया। एक घंटे के बाद चमेली के दोनों बच्चे शकुंतला और बसंता चिल्ला उठे। गूँगा खून से लथपथ कुत्ते की तरह चिल्ला रहा था। उसका सिर फट गया था और वह खून से भीग रहा था। गूँगा सड़क के बच्चों से पिटकर आया था। वह गूँगा होकर भी किसी से दबना नहीं चाहता था, इसलिए पिटा था। चमेली हतप्रभ होकर देख रही थी, मानो इस मूक अवसाद् में युगों की पीड़ा गूँज रही थी। चमेली सोच रही थी-अनेक रूपों में गूँगे संसार में हैं। वे कहना तो चाहते हैं, मगर कह नहीं पाते। उनकी आवाज़ न्याय और अन्याय को समझकर भी अन्याय का विरोध नहीं कर पाती। चमेली सोचती है कि आज सारे मनुष्य गूँगे हो रहे हैं। लोग समाज, राष्ट्र, धर्म और व्यक्ति के प्रति विद्वेष से, घृणा से छटपटा रहे हैं, फिर भी कृत्रिम सुख का छलावा उन्हें अपने जाल में फैसा रहा है।
शब्दार्थ :
पृष्ठ 45 -द्वेष-वैमनस्यता, वैर (hatred)। बज्र बहरा-जिसे बिलकुल सुनाई न देता हो (completely deaf)। कुतूहल-उत्सुकता एवं आश्चर्य का भाव (curiosity)। इंगित-इशारा (indication)।
पृष्ठ 46-कर्कश-कठोर, अप्रिय (harsh)। अस्फुट-अस्पष्ट (unclear)। ध्वनियों का वमन-बोलने की कोशिश में ध्वनियों को जैसे-तैसे उगल देना (to say something hardly)। आदिम मानव-जंगलों में रहने वाला प्राचीन काल का मनुष्य (early man, who used to live in forests)। काकल-कंठमणि, टेंदुआ (a part of throat, cockatoo)। यातना-तकलीफ़ (sufferings)। माँजी है-साफ़ की है (cleaned)। चीत्कार-चीख (cry)। परिणत होना-बदल जाना (to change)। थन काढ़ना-दूध दुहना (to milk)। औटा हुआ-खौलाया या गर्माया हुआ (boiled)।
पृष्ठ 47-पल्लेदारी-बोझा उठाना, एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना (working as a labourer)। अज़ायबघर-चिड़ियाखाना (zoo) I
पृष्ठ 48 -रोष-गुस्सा (anger)। रुदन-रोना (weap)।
पृष्ठ 49–विक्षोभ-दुख, पीड़ा (grief)। तिरस्कार-अपमान, अनादर (insult)।
पृष्ठ 50-विक्षुब्ध-रोष से भरा हुआ (restless)। दुम-पूँछ (tail)। निष्फल-बेकार (useless)।
पृष्ठ 51-दहलीज–देहरी (front portion of door)। अवसाद-उदासी (sadness)। परखकर-पहचानकर, जाँचकर (testing) । कृत्रिम–-बनावटी, अप्राकृतिक (artificial)। छलना-धोखा, वंचना (cheating)।
गूँगे सप्रसंग क्याख्या
1. करुणा ने सबको घेर लिया। वह बोलने की कितनी ज़बर्दस्त कोशिश करता है। लेकिन नतीजा कुछ नहीं, केवल कर्कश काँय-काँय का ढेर! अस्फुट ध्वनियों का वमन, जैसे आदिम मानव अभी भाषा बनाने में जी-जान से लड़ रहा हो। चमेली ने पहली बार अनुभव किया कि यदि गले में काकल तनिक ठीक नहीं हो, तो मनुष्य क्या से क्या हो जाता है। कैसी यातना है कि वह अपने हादय को उगल देना चाहता है, किंतु उगल नहीं पाता।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित ‘गूँगे’ कहानी से उद्धृत है। इसके लेखक रांगेय राघव हैं। इस कहानी में लेखक ने शोषित तथा पीड़ित मानव की असहायता का चित्रण किया है। इस अंश में गूँगे द्वारा अपने माता-पिता के प्यार से वंचित रहने तथा पालन-पोषण करने वालों की मार को संकेत से बताए जाने तथा उनका वहाँ उपस्थित औरतों पर पड़े प्रभाव का वर्णन है।
व्याख्या – गूँगा अपनी कहानी इशारों से बता रहा है, जिसे जानकर सभी के मन में करुणा का भाव जाग गया है। गूँगा बीच-बीच में बोलने की बहुत कोशिश कर रहा है, परंतु उसका परिणाम कुछ नहीं निकलता। उसके मुँह से केवल काँय-काँय की कर्कश ध्वनि निकलती है। उसके मुँह से निकलने वाली ध्वनियाँ अस्पष्ट तथा अधूरी हैं। ऐसा लगता है कि वह शब्दों की उल्टी कर रहा है। उसकी भाषा ऐसी लगती है, मानो आदि मानव अपनी भाषा को बनाने के लिए जी-जान से कोशिश कर रहा है। चमेली ने अनुभव किया कि यदि किसी के गले का काकल ठीक न हो, तो मानव की दशा बदल जाती है। वह क्या से क्या हो जाता है। यह भी अजीब सज़ा है कि मनुष्य अपने भावों को उगल देना चाहता है, परंतु कह नहीं पाता।
विशेष :
- इस गद्यांश में ‘गूँगे’ की सांकेतिक भाषा से औरतों के हुदय-परिवर्तन तथा चमेली की संवेदनशीलता का वर्णन है।
- भाषा प्रवाहमयी है।
- खड़ी बोली में भावों की सफल अभिव्यक्ति है।
- ‘जी-जान से लड़ना’ मुहावरे का प्रयोग है, जिससे भाषा की सरसता बढ़ गई है।
- भावों का वेग है।
2. वह ऐसे बोलता है जैसे घायल पशु कराह उठता है; शिकायत करता है, जैसे कुत्ता चिल्ला रहा हो और कभी-कभी उसके स्वर में ज्वालामुखी के विस्फोट की-सी भयानकता थपेड़े मार उठती है। वह जानता है कि वह सुन नहीं सकता। और बता-बताकर मुसकुराता है। वह जानता है कि उसकी बोली को कोई नहीं समझता, फिर भी बोलता है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित ‘गूँगे’ कहानी से उद्धृत है। इसके लेखक रांगेय राघव हैं। इस कहानी में लेखक ने शोषित तथा पीड़ित मानव की असहायता का चित्रण किया है। इस अंश में गले में काकल न होने पर व्यक्ति को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, इस तथ्य को लेखक ने गूँगे के माध्यम से मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है।
व्याख्या – चमेली उस गूँगे को अपने घर काम पर रखना चाहती है। वह उसके गले में कौआ देखना चाहती है। गूँगा ऐसे बोलता है, जैसे घायल पशु कराह उठता है। जब वह शिकायत करता है, तो उसकी आवाज़ कुत्ते के चिल्लाने जैसी लगती है। कभी-कभी उसकी आवाज़ में ज्वालामुखी के विस्फोट जैसी भयानकता दिखाई देती है। वह जानता है कि उसकी बोली कोई नहीं समझ पाता, फिर भी बोलता है।
विशेष :
- इस गद्यांश में गूँगे की मनोदशा की मार्मिक प्रस्तुति है।
- भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहयुक्त है।
- खड़ी बोली में भावों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है।
- उपमाओं से गूँगे की व्यथा बताई गई है।
3. ‘भाग गया होगा,’ पति का उदासीन स्वर सुनाई दिया। सचमुच वह भाग गया था। कुछ भी समझ में नहीं आया। चुपचाप जाकर खाना पकाने लगी। क्यों भाग गया? नाली का कीड़ा! ‘एक छत उठाकर सिर पर रख दी’ फिर भी मन नहीं भरा। दुनिया हँसती है, हमारे घर को अब अज़ायबघर का नाम मिल गया है ….. किसलिए …..
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित ‘गूँगे’ से उद्धृत है। इसके लेखक रांगेय राघव हैं। इस कहानी में लेखक ने शोषित तथा पीड़ित मानव की असहायता का चित्रण किया है। इस अंश में गूँगे को नौकर रखने के बाद उसके भाग जाने पर चमेली के पति और चमेली की प्रतिक्रिया का वर्णन है।
व्याख्या – यहाँ गूँगे के घर से बाहर जाने पर घर के लोगों की प्रतिक्रिया के बारे में लेखक कहता है कि गूँगे के चले जाने पर चमेली के पति ने उदासीन स्वर में कहा कि वह भाग गया होगा। चमेली ने सोचा कि कहीं वह सचमुच भाग तो नहीं गया। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वह चुपचाप जाकर खाना पकाने लगी। उसके मन में प्रश्न उठा कि गूँगा भाग क्यों गया। वह घृणा से कहती है कि वह नाली का कीड़ा है। उसे आश्रय दिया, सिर छिपाने के लिए छत दी, फिर भी उसका मन नहीं भरा। उसकी विचित्र-सी आदतों और स्वभाव की वजह से घर को अज़ायबघर का नाम मिला। दुनिया हमारा मज़ाक उड़ाती है।
विशेष :
- इस गद्यांश में चमेली के अंतद्वर्व्व्व को व्यक्त किया गया है।
- ‘नाली का कीड़ा’ से घृणा के भाव का पता चलता है।
- खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- मुहावरों का सटीक प्रयोग होने से भाषा की सरसता बढ़ गई है।
- भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है।
4. कहीं उसका भी बेटा गूँगा होता, तो वह भी ऐसे ही दुख उठाता! वह कुछ भी नहीं सोच सकी। एक बार फिर गूँगे के प्रति हुदय में ममता भर आई। वह लौटकर चूल्हे पर जा बैठी, जिसमें अंदर आग थी, लेकिन उसी आग से वह सब पक रहा था, जिससे सबसे भयानक आग बुझती है-पेट की आग, जिसके कारण आदमी गुलाम हो जाता है। उसे अनुभव हुआ कि गूँगे में बसंता से कहीं अधिक शारीरिक बल था। कभी भी गूँगे की भाँति शक्ति से बसंता ने उसका हाथ नहीं पकड़ा था। लेकिन फिर भी गूँगे ने अपना उठा हाथ बसंता पर नहीं चलाया।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित ‘गूँगे’ कहानी से उद्धृत है। इसके लेखक रांगेय राघव हैं। इस कहानी में लेखक ने शोषित तथा पीड़ित मानव की असहायता का चित्रण किया है। इस अंश में थप्पड़ की मार से कर्कश स्वर में रोते गूँगे को देखकर चमेली द्रवित हो उठती है। गूँगा चमेली का हाथ पकड़ता है, पर वह हाथ छुड़ाकर सोचने लगती है।
व्याख्या – चमेली के मन में अचानक प्रश्न उठा कि यदि उसका बेटा भी गूँगा होता, तो क्या वह भी इसी प्रकार के दुख उठाता। इस विषय पर वह सोच नहीं सकी, क्योंकि पुत्र-स्नेह ने रोक दिया। उसके मन में एक बार फिर गूँगे के प्रति ममता आ गई। वह दुबारा चूल्हे पर जा बैठी और खाना पकाने लगी। चूल्हे में आग थी। यह वह आग थी, जिससे खाना पकता है और उस खाने से पेट की आग बुझती है। इसी भूख के कारण आदमी विवश हो जाता है और कोई भी कार्य करने को तैयार हो जाता है। चमेली सोच रही थी कि गूँगा शारीरिक तौर पर बसंता से बलवान था। बसंता ने कभी भी गूँगे जितनी ताकत से चमेली का हाथ नहीं पकड़ा था। गूँगा शक्तिशाली था, परंतु फिर भी उसने बसंता पर प्रहार नहीं किया।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक ने चमेली की संवेदनशीलता, सदयता, गूँगे के प्रति उचित सोच तथा सहानुभूति का वर्णन किया है।
- खड़ी बोली में भावों की सफल अभिव्यक्ति है।
- ‘पेट की आग’ भूख का पर्याय है।
- मुहावरों का प्रयोग है, जिससे भाषा की सरसता बढ़ गई है।
- भाषा में प्रवाह है।
5. गूँगा चुप हो गया। उसने अपना सिर झुका लिया। चमेली एक बार क्रोध से काँप उठी, देर तक उसकी ओर घूरती रही। सोचा-मारने से यह ठीक नहीं हो सकता। अपराध को स्वीकार करा दंड न देना ही शायद कुछ असर करे और फिर कौन मेरा अपना है। रहना हो, तो ठीक से रहे, नहीं तो फिर जाकर सड़क पर कुत्तों की तरह जूठन पर ज़िदियी बिताए, दर-दर अपमानित और लांछित …।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित ‘गूँगे’ से उद्धृत है। इसके लेखक रांगेय राघव हैं। इस कहानी में लेखक ने शोषित तथा पीड़ित मानव की असहायता का चित्रण किया है।
इस अंश में गूँगे के बार-बार घर से भाग जाने के बाद भी चमेली उसके प्रति दयाभाव रखती है। वह उसे खाने को रात की बासी रोटियाँ देती है और उस पर क्रोधित भी होती है।
व्याख्या – चमेली ने गूँगे पर जब चोरी का आरोप लगाया, तब वह चुप हो गया। उसने अपना सिर झुका लिया। चमेली क्रोध से काँप उठी। वह कुछ देर उसे घूरती रही। फिर उसने सोचा कि यदि उसे मारा-पीटा जाए, तो भी ठीक नहीं हो सकता। अपराध को स्वीकार कराके सज़ा न देने से शायद कोई असर पड़े। वह सोचने लगी कि गूँगा मेरा तो कोई है नहीं। उसे यहाँ रहना है, तो ठीक से रहे। यदि वह ठीक से नहीं रहना चाहता, तो सड़क पर कुत्तों की तरह जूठन खाकर अपनी ज़िदगी बिताए अर्थात वह गूँगे से ठीक प्रकार से रहने की अपेक्षा करती है।
विशेष :
- इस अंश में चमेली द्वारा ‘गूँग’ के प्रति संवेदनशील एवं दयापूर्ण व्यवहार का वर्णन है।
- मुहावरों का प्रयोग है, जिससे भाषा प्रभावपूर्ण बन गई है।
- चमेली के आंतरिक भावों की सुंदर अभिव्यक्ति है।
- भाषा सरल, सहज और प्रवाहमयी है।
6. और चमेली चुपचाप देखती रही, देखती रही कि इस मूक अवसाद में युगों का हाहाकार भरकर गूँज रहा है। और ये गूँगे …… अनेक-अनेक हो संसार में भिन्न-भिन्न रूपों में छा गए हैं-जो कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पाते। जिनके हृदय की प्रतिहिंसा न्याय और अन्याय को परखकर भी अत्याचार को चुनौती नहीं दे सकती, क्योंकि बोलने के लिए स्वर होकर भी स्वर में अर्थ नहीं …… क्योंकि वे असमर्थ हैं।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित ‘गूँगे’ से उद्धृत है। इसके लेखक रांगेय राघव हैं। इस कहानी में लेखक ने शोषित तथा पीड़ित मानव की असहायता का चित्रण किया है। इस अंश में गूँगे की दशा से दुखी चमेली समाज में यहाँ-वहाँ फैले अन्य ‘गूँगों’ के बारे में सोचने लगती है।
व्याख्या – लेखक ने चमेली के माध्यम से समाज के अन्य गूँगों के बारे में अपनी बात कही है। चमेली गूँगे के चिल्लाने को देखती रही। उसे लगा कि इस मूक दुख में युगों का हाहाकार है। वह सोचती है कि इसी गूँगे की तरह अनेक रूपों में गूँगे संसार में छाए हुए हैं। वे अपनी बात कहना चाहते हैं, परंतु बोल नहीं पाते। उनके हृदय की प्रतिहिंसा न्याय और अन्याय को परख सकती है, परंतु वे उसे चुनौती नहीं दे सकते। इसके लिए स्वर होना चाहिए। उनके पास जो स्वर है, वह अर्थहीन है। वे अपना विरोध जताने में अक्षम हैं। ऐसे में उनकी स्थिति भी गूँगे जैसी ही बन गई है।
विशेष :
- इस गद्यांश में चमेली की मनःस्थिति का चित्रण है।
- अत्याचार और अन्याय के विरूद्ध आवाज़ न उठा पाने वाले लोगों को भी लेखक ने गूँगे के समान माना है।
- सूक्तिपरक शैली है।
- खड़ी बोली है, जिसमें भावों की प्रभावी अभिव्यक्ति है।
7. और चमेली सोचती है, आज के दिन ऐसा कौन है, जो गूँगा नहीं है। किसका ह्दय समाज, राष्ट्र, धर्म और व्यक्ति के प्रति विद्वेष से, घृणा से नहीं छटपटाता, किंतु फिर भी कृत्रिम सुख की छलना अपने जालों में उसे नहीं फाँस देती-क्योंकि वह स्नेह चाहता है, समानता चाहता है!
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग- 1 में संकलित ‘गूँगे’ से उद्धृत है। इसके लेखक रांगेय राघव हैं। इस कहानी में लेखक ने शोषित तथा पीड़ित मानव की असहायता और समाज की संवेदनहीनता का वर्णन किया है। इस अंश में चमेली की संवेदनशीलता मुखरित हुई है। वह समाज द्वारा विकलांगों के प्रति संवेदनहीनता एवं उपेक्षा देखकर दुखी होकर सोचने लगती है।
व्याख्या – गूँगे की दशा देखकर चमेली सोचती है कि आज के समय में ऐसा कौन है, जो गूँगा नहीं है। कहने का आशय यह है कि मानव-समाज संवेदनहीन हो गया है। समाज, राष्ट्र, धर्म और व्यक्ति के प्रति विद्वेष से हर व्यक्ति छटपटाता है, परंतु विरोध नहीं कर पाता। इसका कारण कृत्रिम सुखों की छलना है, जो उसे अपने चक्रव्यूह में फाँस देती है। गूँगा भी स्नेह चाहता है। वह अपना हक चाहता है।
विशेष :
- अन्याय का विरोध न कर पाने वालों की गूँगे के साथ तुलना पूर्णतया उचित है।
- समाज की संवेदनहीनता पर सटीक टिप्पणी है।
- खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- मुहावरों का प्रयोग है, जिससे भाषा प्रभावी बन गई है।