In this post, we have given Class 11 Hindi Antra Chapter 3 Summary – Torch Bechne Wale Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 11 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 11 Hindi subject.
टार्च बेचने वाले Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 3 Summary
टार्च बेचने वाले – हरिशंकर परसाई – कवि परिचय
लेखक-परिचय :
प्रश्न-हरिशंकर परसाई के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम तथा भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-जीवन-परिचय-हरिशंकर परसाई का जन्म जमानी गाँव, ज़िला होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में सन 1922 में हुआ था। इन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम०ए० किया। कुछ वर्षों तक अध्यापन-कार्य करने के पश्चात सन 1947 से ये स्वतंत्र लेखन में जुट गए। इन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक पत्रिका निकाली। 1995 ई० में इनका निधन हो गया। रचनाएँ-परसाई जी ने दो दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना की है। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं :
- कहानी-संग्रह-हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे।
- उपन्यास-रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज।
- निबंध-संग्रह-तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, पगडंडियों का ज़माना, सदाचार की तावीज़, शिकायत मुझे भी है, और अंत में।
- व्यंग्य-लेख-संग्रह-वैष्णव की फिसलन, तिरछी रेखाएँ, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, विकलांग श्रद्धा का दौर। हरिशंकर परसाई का समग्र साहित्य ‘परसाई रचनावली’ के रूप में छह भागों में प्रकाशित है।
साहित्यिक विशेषताएँ – परसाई जी ने व्यंग्य-विधा को साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान की। इनके व्यंग्य-लेखों की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये समाज में आई विसंगतियों, विडंबनाओं पर करारी चोट करते हुए चितन और कर्म की प्रेरणा देते हैं। इनके व्यंग्य पाठक को गुदगुदाते हुए झकझोर देने में सक्षम हैं।
भाषा-प्रयोग में परसाई जी को असाधारण कुशलता प्राप्त थी। ये प्रायः बोलचाल के शब्दों का प्रयोग सतर्कता से करते थे। कौन-सा शब्द कब और कैसा प्रभाव पैदा करेगा, इसे ये बखूबी जानते थे। इनकी भाषा में मुहावरों तथा विदेशी शब्दों का सफल प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। इनके वाक्य अंदर तक भेदते हैं।
पाठ-परिचय :
‘टार्च बेचनेवाले’ नामक पाठ एक व्यंग्य रचना है, जिसमें लेखक ने टार्च को प्रतीक बनाकर उसके माध्यम से मनुष्य की आस्था और श्रद्धा का बाज़ारीकरण करनेवालों पर प्रहार किया है। कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए लोगों की आस्था और धर्म का दुरुपयोग करते हैं, ऐसे लोगों पर करारा व्यंग्य किया है।
पाठ का सार :
‘टार्च बेचनेवाले’ नामक इस व्यंग्य रचना के मुख्य पात्र दो मित्र हैं। दोनों एक दिन ‘पैसा कैसे पैदा करें?’ के सवाल पर कुछ काम-धंधा करने का निर्णय करते हैं। फिर पाँच साल के बाद उसी स्थान पर मिलने का निश्चय करके अलग-अलग जाते हैं। इस बीच दोनों अलग-अलग रहकर अपना-अपना धंधा करते हैं। लेखक जब उनमें से एक मित्र से मिला, तो वह चौराहे पर बिजली के टार्च बेचा करता था। वह कुछ दिन नहीं दिखा। इस बार जब मिला, तो उसने दाढ़ी बढ़ा रखी थी और लंबा कुरता पहन रखा था। लेखक द्वारा पूछे जाने पर कि उसने अपना हुलिया क्यों बदल लिया है, वह बताता है-“मैंने टार्च बेचने का काम बंद कर दिया है। अब तो मेरी आत्मा के भीतर टार्च जल उठा है। टार्च बेचना अब मुझे व्यर्थ मालूम होता है।” लेखक व्यंग्य करता है- “तुम शायद संन्यास ले रहे हो। जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है।” वह लेखक की ऐसी बातें सुनकर दुखी हो जाता है। फिर भी, आगे की बातचीत में वह बताता है कि एक घटना के द्वारा उसके जीवन की दिशा ही बदल गई है।
अब वह इस स्थान से दूर चला जाएगा, इसलिए वह लेखक को वह गोपनीय घटना बताना चाहता है। वह अपने मित्र की तरक्की और अपने हाल की कहानी बताता है कि पाँच साल पहले जब वह अपने मित्र से अलग हुआ था, तो उसने चौराहे पर टार्च बेचने का धंधा अपना लिया था। इसी क्रम में तो लेखक से उसकी जान-पहचान हुई थी। वह चौराहे पर या मैदान में लोगों को इकट्ठा कर लेता और नाटकीयता से कहता-” आजकल सब जगह अँधेरा छाया रहता है। रातें बेहद काली होती हैं। अपना ही हाथ नहीं सूझता। आदमी को रास्ता नहीं दिखता। वह भटक जाता है। उसके पाँव काँटों से बिंध जाते हैं, वह गिरता है और उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं। उसके आस-पास भयानक अँधेरा है। शेर और चीते चारों तरफ घूम रहे हैं, साँप ज़मीन पर रेंग रहे हैं। अँधेरा सबको निगल रहा है। अँधेरा घर में भी है। आदमी रात को पेशाब करने उठता है और साँप पर उसका पाँव पड़ जाता है। साँप उसे डस लेता है और वह मर जाता है।” लोग यह सुनकर डर जाते, तो वह आगे फिर कहता- “भाइयो, यह सही है कि अँधेरा है, मगर प्रकाश भी है।
वही प्रकाश मैं आपको देने आया हूँ। हमारी ‘सूरज छाप’ टार्च में वह प्रकाश है, जो अंधकार को दूर भगा देता है। इसी वक्त ‘सूरज छाप’ टार्च खरीदो और अँधेरे को दूर करो। जिन भाइयों को चाहिए, हाथ ऊँचा करें।” उसके टार्च बिक जाते थे और मज़े में उसकी ज़िदगी चलती थी। पाँच साल बाद वायदे के मुताबिक वह अपने मित्र से मिलने उसी जगह पहुँचा, जहाँ उसे उससे मिलना था। मित्र के न आने पर वह उसे ढूँढ़ने चल पड़ा। उसने सड़क के किनारे मैदान में सजा हुआ मंच देखा। चारों तरफ खूब प्रकाश था। मंच पर सुंदर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरुष बैठे हुए थे। वे फ़िल्मों के संत लग रहे थे। सामने बैठे नर-नारी श्रद्धा से झुके बैठे थे। संत प्रवचन देते हुए कह रहे थे-“मैं आज मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूँ। उसके भीतर कुछ बुझ गया है। यह युग ही अंधकारमय है। यह सर्वग्राही अंधकार संपूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है। आज मनुष्य इस अंधकार से घबरा उठा है। वह पथभ्रष्ट हो गया है। आज आत्मा में भी अंधकार है। अंतर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं। वे उसे भेद नहीं पातीं। मानव-आत्मा अंधकार में घुटती है। मैं देख रहा हूँ, मनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है।” वे बोल रहे थे और लोग स्तब्ध होकर सुन रहे थे। टार्च बेचनेवाले उस दूसरे मित्र को हँसी आने लगी, तो आस-पास के श्रोताओं ने उसे डाँट दिया।
भव्य पुरुष ने अपने प्रवचन का अंत इस प्रकार किया-” भाइयो और बहिनो, डरो मत। जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है। अंधकार में प्रकाश की किरण है। प्रकाश को अंतर में ढूँढ़ो। मैं तुम्हारे अंदर वही शाश्वत ज्योति जगाना चाहता हूँ। हमारे ‘साधना मंदिर’ में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ।” अब टार्च बेचनेवाला खिलखिलाकर हैस पड़ा। लोगों ने उसे धक्का देकर भगा दिया। वह मंच के पास जाकर खड़ा हो गया। भव्य पुरुष मंच से उतरकर कार पर चढ़ रहे थे। उनकी बढ़ी दाढ़ी देखकर टार्च बेचनेवाला कुछ झिझका पर उसकी पहले जैसी साधारण-सी वेश-भूषा देखकर उन्होंने टार्च बेचनेवाले को पहचान लिया। उन्होंने उसका हाथ पकड़कर कार में बिठा लिया। बोले-“बँगले तक कोई बातचीत नहीं होगी। वहीं ज्ञान-चर्चा होगी।”
बँगले पर पहुँचकर टार्च बेचनेवाला उनके वैभव को देखकर भौचक्का-सा रह गया, पर तुरंत ही अपने उस मित्र से खुलकर बातें करने लगा। उसने कहा-“यार, तू तो बिलकुल बदल गया।” संत बने मित्र ने कहा-” परिवर्तन जीवन का अनंत क्रम है।” उसने पूछा कि वह इतने सालों में क्या करता रहा? टार्च बेचने वाले मित्र ने कहा- ${ }^\mu$ मैं तो घूम-घूमकर टार्च बेचता रहा। सच बता, क्या तू भी टार्च का व्यापारी है?” उसने उत्तर दिया कि काम की समानता के बावजूद लोग उसे संत, साधु और दार्शनिक कहते हैं। टार्च बेचनेवाला बोला-” तुम कुछ भी कहलाओ, बेचते तुम टार्च हो। तुम्हारे और हमारे प्रवचन एक से हैं। बताओ किस कंपनी का टार्च बेचते हो?”
उसकी बातों ने संत बने मित्र को ठिकाने पर ला दिया। उसने सहज ढंग से कहा-“तेरी बात ठीक है। मेरी कंपनी नई नहीं है, सनातन है। तू एक-दो दिन रह, तो मैं तुझे सब समझा देता हूँ।” इस प्रकार टार्च बेचनेवाला दो दिन उसके पास रहा। तीसरे दिन ‘सूरज छाप’ टार्च की पेटी को नदी में फेंककर उसने नया काम शुरू कर दिया। उसने यह सारा वृत्तांत लेखक को बताकर अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा और बोला- “बस, एक महीने की देर है।” लेखक ने पूछा कि अब वह कौन-सा धंधा करेगा, तो उसने उत्तर दिया-” धंधा वही करूँगा, यानी टार्च बेचूँगा। बस कंपनी बदल रहा हूँ।”
लेखक ने इस व्यंग्य में धर्म के धंधे की पोल खोली है। आज धर्म का धंधा खूब फल-फूल रहा है और इसमें लगे लोगों का एकमात्र उद्देश्य धन कमाना या पैसा बनाना ही रह गया है। वे लोगों की आस्था और धार्मिक भावनाओं का अनुचित लाभ उठाने में भी संकोच नहीं करते।
शब्दार्थ :
पृष्ठ 36 – हरामखोरी-बिना कुछ काम किए जीने की प्रवृत्ति (a tendency of eating without working)। दीक्षा-मंत्रोपदेश (religious observance)। त्याग देना-छोड़ देना (to give up)।
पुष्ठ 37 – गुप्त रखना-छिपाना (to hide)। बयान करना-बताना, बोलना (to narrate)। हताश-निराश (discouraged)। नाटकीय-अभिनय करते हुए, बनावटी ढंग से (dramatically)।
पृष्ठ 38 – भर-दोपहर-भरे दोपहर में (at the noon)। मुताबिक-अनुसार (accordingly)। राह देखना-इंतज़ार करना (to wait)। पुष्ट-मोटे, मज़बूत (healthy)। गुरु-गंभीर वाणी–विचारों से पुष्ट वाणी (a voice with great thought)। सर्वग्राही-सबके द्वारा ग्रहण करने योग्य (acceptable by all)। उदर-पेट (stomach)।
पृष्ठ 39 – पथभ्रष्ट-जो अपने उचित मार्ग या व्यवहार आदि के प्रतिकूल हो गया हो (one who has lost his way)। अंतर-हृदय, मन (heart)। ज्योतिहीन-चमकविहीन (shineless)। त्रस्त-परेशान (dishevelled)। स्तब्ध–हैरान (astonished)। श्रोता-सुनने वाले (audience)। किंचित-थोड़ा, अल्प मात्रा में (in small quantity)। कालिमां-कालापन (blackness)। आह्वान-पुकारना, बुलाना (to call)। शाश्वत-हमेशा रहने वाला (permanent)। झिझका-संकोच किया (hesitated)। मौलिक-मूल रूप में, बिना किसी बनावटीपन के (original)। ठाठ-आराम एवं विलासितापूर्ण जीवन (splendour)। वैभव-ऐश्वर्य, धन-दौलत (wealth)। अनंत-कभी समाप्त न होने वाला (endless)।
पृष्ठ 40 – फिलासफी-तत्व-ज्ञान, दर्शन (philosophy)। सहज-सामान्य (normal)। सनातन-चिरंतन, हमेशा रहने वाली (permanent)।
पृष्ठ 41 – पेटी-बक्सा (small box)।
टार्च बेचने वाले सप्रसंग व्याख्या
1. उसने कहा, “वह काम बंद कर दिया। अब तो आत्मा के भीतर टार्च जल उठा है। ये ‘सूरज छाप’ टार्च अब व्यर्थ मालूम होते हैं।” मैंने कहा, “तुम शायद संन्यास ले रहे हो। जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है। किससे दीक्षा ले आए?”
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘टार्च बेचनेवाले’ से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई हैं। इस व्यंग्य में लेखक ने धर्म के नाम पर हो रहे पाखंडों का भंडाफोड़ किया है।
इस अंश में लेखक और चौराहे पर टार्च बेचनेवाले उस व्यक्ति की बातचीत का वर्णन है, जिसका अब हुलिया बदला हुआ है और जो लेखक से कुछ समय बाद मिल रहा है।
व्याख्या – लेखक टार्च बेचनेवाले से बात करने लगता है। टार्च बेचनेवाला कहता है कि उसने अब टार्च बेचने का अपना काम बंद कर दिया है। अब उसकी आत्मा की टार्च जल उठी है अर्थात उसे आत्म-ज्ञान हो गया है। अब उसे ‘सूरज छाप’ टार्च व्यर्थ मालूम होती है। लेखक इस पर कहता है-” शायद तुम संन्यास ले रहे हो। जिसे आत्मा का ज्ञान मिलता है, वह हरामखोरी पर उतर जाता है। लगता है कि तुम भी उसी हरामखोरी पर उतर आए हो, क्योंकि मेहनत से शायद तुम्हारा जी भर चुका है।” लेखक टार्च बेचनेवाले से यह भी पूछता है-“तुमने किससे गुरुमंत्र लिया है?”
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक ने संन्यास की अवधारणा पर करारी चोट की है।
- ‘टार्च’ को लेकर कड़ा व्यंग्य किया है।
- भाषा व्यंग्यात्मक है, जिसमें खड़ी बोली का प्रयोग है।
- संवादात्मक शैली में भावों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है।
- मिश्रित शब्दावली है।
2. आजकल सब जगह अंधेरा छाया रहता है। रातें बेहद काली होती हैं। अपना ही हाथ नहीं सूझता। आदमी को रास्ता नहीं विखता। वह भटक जाता है। उसके पाँव काँटों से बिंध जाते हैं, वह गिरता है और उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं। उसके आस-पास भयानक अँधेरा है। शेर और चीते चारों तरफ़ घूम रहे हैं, साँप ज़मीन पर रेंग रहे हैं। अँधेरा सबको निगल रहा है। अँधेरा घर में भी है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘टार्च बेचनेवाले’ से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई हैं। इस व्यंग्य में लेखक ने धर्म के नाम पर हो रहे पाखंडों का भंडाफोड़ किया है।
इस अंश में लेखक ने टार्च बेचनेवाले के उस कथन का वर्णन किया है, जिसे वह अपने ग्राहकों को नाटकीय ढंग से सुनाता है। उसकी बातें सुनकर लोग अँधेरे से भयभीत होकर टार्च खरीदने को विवश हो जाते हैं।
व्याख्या – टार्च बेचनेवाला अपनी ‘सूरज छाप’ टार्च बेचने के लिए अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए लोगों के मन में अंधकार का भय बैठाते हुए कहता है कि आज हर जगह अँधेरा छाया हुआ है। रातें बेहद काली होती हैं। इतने घने अंधकार में व्यक्ति अपने हाथ को भी नहीं देख पाता। व्यक्ति को रास्ता नहीं दिखाई देता। अँधेरे के कारण वह रास्ता भटक जाता है। उसके पाँव में काँटे चुभ जाते हैं। वह गिर पड़ता है तथा उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं। उसके आस-पास भयानक अंधकार होता है। शेर और चीते उसके चारों तरफ घूमते हैं। साँप ज़मीन पर रेंगते हैं। अँधेरा सबको निगल रहा है। अँधेरा बाहर भी है तथा घर में भी है।
विशेष :
- अँधेरे का भय टार्च बेचने की कारगर रणनीति है। यह लाभ कमाने का अच्छा साधन भी है।
- भाषा सरल, सहज तथा भाव के अनुरूप है, जिसमें दार्शनिकता के दर्शन होते हैं।
- ‘हाथ न सूझना’ मुहावरे का प्रयोग है, जिससे भाषा रोचक एवं सरस हो गई है।
- व्यंग्यात्मक शैली है।
- खड़ी बोली है।
3. भव्य पुरुष प्रवचन के अंत पर पहुँचते हुए कहने लगे-“भाइयो और बहनो, डरो मत। जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है। अंधकार में प्रकाश की किरण है, जैसे प्रकाश में अंधकार की किचित कालिमा है। प्रकाश भी है। प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अंतर में खोजो। अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ। मैं तुम सबका उस ज्योति को जगाने के लिए आह्वान करता हूँ। मैं तुम्हारे भीतर वही शाश्वत ज्योति जगाना चाहता हूँ। हमारे ‘साधना मंदिर’ में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ।”
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘टार्च बेचनेवाले’ से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई हैं। इस व्यंग्य में लेखक ने धर्म के नाम पर हो रहे पाखंडों का भंडाफोड़ किया है। इस अंश में लेखक ने धर्म के नाम पर चल रहे व्यापार को उजागर किया है। धर्म के ठेकेदार जनता का शोषण किस प्रकार करते हैं, उनकी आस्था और धार्मिक भावनाओं से किस तरह खिलवाड़ करते हुए उसे अपनी स्वार्थ-सिद्धि का साधन बनाते हैं, उसके बारे में बताया गया है।
व्याख्या – लोगों की आस्था, विश्वास, श्रद्धा और धार्मिक भावनाओं का अनुचित लाभ उठाते हुए भव्य पुरुष पहले लोगों को अंधकार का भय दिखाते हुए प्रवचन देता है और अंत में उसके निराकरण का मार्ग बताता है। वह कहता है कि आपको डरने की ज़रूरत नहीं है। जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है अर्थात समस्या के साथ समाधान भी है। अंधकार में प्रकाश की किरण होती है। इसी प्रकार प्रकाश में अंधकार की थोड़ी-सी कालिमा होती है। प्रकाश बाहर नहीं है। यह मनुष्य के अंदर है। उसे खोजना चाहिए। मन की जो ज्योति बुझ गई है, उसे जगाओ। वह उस ज्योति को जगाने के लिए सबका आह्वान करता है। वह जनता के मन की शाश्वत ज्योति को जगाना चाहता है। वह लोगों से कहता है कि उसने ‘साधना मंदिर’ बनाया है, जहाँ आकर अंदर की ज्योति को जगाया जा सकता है।
विशेष :
- लेखक ने इस गद्यांश में व्यंग्यात्मक शैली में श्रद्धालुओं की मानसिकता और धर्म के ठेकेदारों की धन-लोलुपता पर प्रकाश डाला है।
- खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- धर्मगुरुओं पर करारा व्यंग्य है।
- तत्सम प्रधान शब्दावली है।
4. मैंने कहा- “तुम कुछ भी कहलाओ, बेचते तुम टार्च हो। तुम्हारे और मेरे प्रवचन एक जैसे हैं। चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने या साधु बने, अगर वह लोगों को अँथेरे का डर दिखाता है, तो ज़रूर अपनी कंपनी का टार्च बेचना चाहता है। तुम जैसे लोगों के लिए हमेशा ही अंधकार छाया रहता है। बताओ, तुम्हारे जैसे किसी आदमी ने हज़ारों में कभी भी यह कहा है कि आज दुनिया में प्रकाश फैला है? कभी नहीं कहा।”
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘टार्च बेचनेवाले’ से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई हैं। इस व्यंग्य में लेखक ने धर्म के नाम पर हो रहे पाखंडों का भंडाफोड़ किया है।
इस अंश में ‘सूरज छाप’ टार्च बेचनेवाला व्यक्ति अपने पुराने मित्र का प्रवचन सुनता है और जन-साधारण को अंधकार का भय दिखाने के कारण उसे भी अपने जैसा बताता है।
व्याख्या – टार्च बेचनेवाला साधु बन चुके अपने पुराने मित्र से कहता है-” तुम चाहे साधु-संत भले ही कहला लो, पर तुम भी मेरी तरह टार्च बेचने का ही धंधा करते हो। तुम्हारी और मेरी बातों में समानता है।” दार्शनिक और साधु-संत अंदर के अँधेरे का डर दिखाते हैं। इस तरह वे अपने स्वार्थ की टार्च बेचने का काम करते हैं। ऐसे ढोंगी साधुओं के लिए तो इस संसार में सदा अंधकार छाया रहता है। ये लोग कभी यह नहीं कहते कि आज दुनिया में अंधकार नहीं है, प्रकाश फैल गया है। इसका कारण यह है कि सभी को अपना-अपना धंधा करना है। वे लोगों को अलग-अलग तरीके से भय दिखाकर ही अपनी बात उनके गले उतार सकते हैं।
विशेष :
- इस गद्यांश में व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।
- धर्मगुरुओं तथा धर्म के तथाकथित ठेकेदारों की पोल खोली गई है।
- सरल, सहज खड़ी बोली है, जो भावाभिव्यक्ति में समर्थ है।
- भाषा में प्रवाह है।
5. उसने कहा- “उस टार्च की कोई दुकान बाज़ार में नहीं है। वह बहुत सूक्ष्म है। मगर कीमत उसकी बहुत मिल जाती है। तू एक-दो दिन रह, तो मैं तुझे सब समझा देता हूँ।”
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित पाठ ‘टार्च बेचनेवाले’ से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई हैं। इस व्यंग्य में लेखक ने धर्म के नाम पर हो रहे पाखंडों का भंडाफोड़ किया है।
इस अंश में साधु का रूप धारण करके लोगों की आस्था से खिलवाड़ करनेवाला व्यक्ति अपने मित्र से अपने धर्मरूपी टार्च की विशेषता बता रहा है।
व्याख्या – संत बने मित्र ने टार्च बेचनेवाले अपने दोस्त को बताया कि धार्मिक टार्च की कोई दुकान बाज़ार में नहीं है। उसकी कंपनी भी नहीं है। वह बहुत सूक्ष्म है, पर उसकी कीमत बहुत मिल सकती है। बाज़ार में उसके ग्राहक हैं। अर्थात धर्म के नाम पर लोगों को आसानी से अपने प्रभाव में लाया जा सकता है और बहुत-सा धन कमाया जा सकता है। उसने उसे कुछ दिन अपने पास रहने को कहा ताकि वह सारा काम उसे समझा सके।
विशेष :
- इस गद्यांश में लोगों की आस्था एवं विश्वास से खिलवाड़ करनेवालों पर प्रहार किया गया है।
- भाषा सरल व सहज है।
- खड़ी बोली है।
- व्यंग्यात्मक शैली है।