In this post, we have given Class 11 Hindi Antra Chapter 11 Summary – Khelan Me Ko Kako Gusaiya, Murali Tau Gupalhi Bhavati Summary Vyakhya. This Hindi Antra Class 11 Summary is necessary for all those students who are in are studying class 11 Hindi subject.
खेलन में को काको गुसैयाँ, मुरली तऊ गुपालहिं भावति Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 11 Summary
खेलन में को काको गुसैयाँ, मुरली तऊ गुपालहिं भावति – सूरदास – कवि परिचय
कवि-परिचय :
प्रश्न :
सूरदास के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-सूरदास का जन्म-स्थान रुनकता या रेणुका क्षेत्र माना जाता है। कुछ विद्वानों ने इनका जन्म-स्थान दिल्ली के निकट सीही ग्राम को माना है। इनका जन्म सन 1478 में हुआ था। ये मथुरा और वृंदावन के बीच गऊघाट पर रहते थे। ये महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य तथा पुष्टिमार्गी संप्रदाय के ‘अष्टछाप’ कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध थे। इनके बारे में कहा जाता है कि ये जन्मांध थे, परंतु इनके काव्य में प्रकृति और मनुष्य के सौदर्य के वर्णन को देखकर यह विश्वसनीय नहीं लगता। ये जब गऊघाट पर रहते थे, तब एक दिन वल्लभाचार्य से इनकी मुलाकात हो गई। इन्होंने उन्हें एक पद गाकर सुनाया। इनकी तन्मयता और गायन प्रतिभा को देख वल्लभाचार्य ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया। अब ये कृष्ण-लीला गायन और भजन-कीर्तन करने लगे। इनकी मृत्यु सन 1583 में हुई।
रचनाएँ – इनके ‘सरसागर’ में गोपियों की विरह-वेदना के विस्तार के बीच सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति और भक्ति से ज्ञान तथा योग के द्वंद्व की अभिव्यक्ति हुई है। इनके अन्य ग्रंथ हैं :
‘सूरसारावली’, ‘साहित्यलहरी’, ‘नलदमयंती’, ‘व्याहलों’।
काव्यगत विशेषताएँ – सूरदास सगुणोपासक कृष्णभक्त कवि हैं। इन्होंने कृष्ण के जन्म से लेकर मथुरा जाने तक की कथा और उनकी विभिन्न लीलाओं से संबंधित अत्यंत मनोहर पदों की रचना की है। सूरदास के काव्य में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन अपनी सहजता, मनोवैज्ञानिकता और स्वाभाविकता के कारण अद्वितीय है। इन्होंने बाल कृष्ण की चेष्टाओं, स्वभाव, रुचि और क्रीड़ावृत्ति का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। ये मुख्यतः वात्सल्य रस और धृंगार रस के कवि हैं।
सूरदास के काव्य में श्शृंगार रस का जो चित्रण है, उसमें कृष्ण, राधा तथा अन्य गोपिकाओं का प्रेम दैनिक जीवन के कार्यों और व्यवहारों के बीच विकसित हुआ है, इसलिए उसमें अत्यंत स्वाभाविकता और गहराई है। संयोग काल में वह प्रेम जितना गहरा है, वियोग काल में उतना ही हुदय-द्रावक। इन्होंने संयोग और वियोग की विभिन्न दशाओं और उनकी अनुभूतियों का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है।
भाषा-शैली – सूरदास का अलंकार-विधान अत्यंत उत्कृष्ट है। उसमें शब्द-चित्र उपस्थित करने एवं प्रसंगों की वास्तविक अनुभूति कराने की पूर्ण क्षमता है। इन्होंने अपने काव्य में अन्य अनेक अलंकारों के साथ उपमा, उत्र्रेक्षा और रूपक का अत्यंत कुशल प्रयोग किया है; यथा-
अनुप्रास – ऊधो! कोकिल कूजत कानन।
उत्प्रेक्षा – देखियत चहुँ दिसि ते घन घोर।
सूरदास की भाषा ब्रजभाषा है। साधारण बोलचाल की भाषा को परिष्कृत करके इन्होंने उसे साहित्यिक रूप प्रदान किया है। इनके काव्य में ब्रजभाषा का स्वाभाविक, सजीव और भावानुकूल प्रयोग है; यथा –
अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल।
कामक्रोध को पहिर चोलना कंठ विषय की माल।
सूरदास के सभी पद गेय हैं और वे किसी-न-किसी राग से संबंधित हैं। कवि ने दंत्य वर्णों की बहुलता और सानुनासिक ध्वनि के संयोग से गेयत्व सघन किया है।
सूरदास में जितनी भावुकता है, उतनी ही चतुरता व वाग्विदग्धता भी है। गोपियों के कथनों से यह बात स्पष्ट होती है”संदेसनि मधुबन कूप भरे।
जो कोड पथिक गए हैं, ह्योत फिरि नहिं गवन करे।
के वै श्याम सिखाय समोधे, कै वे बीच मरे?”
कविता-परिचय :
पहले पद में, कृष्ण की बाल-लीला का वर्णन है। खेल में हार जाने पर कृष्ण अपनी हार को स्वीकार नहीं करना चाहते। यहाँ बाल-मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण देखा जा सकता है।
दूसरे पद में, गोपियाँ आपस में अपनी सखियों से कृष्ण की मुरली के प्रति जो रोष प्रकट करती हैं, उससे कृष्ण के प्रति उनका प्रेम ही प्रकट होता है। मुरली कृष्ण के नज़दीक ही नहीं है, वह जैसा चाहती है, उनसे वैसा ही करवाती है। इस तरह एक तो वह कृष्ण की आत्मीय बन बैठी है और दूसरे वह गोपियों को कृष्ण का कोपभाजन भी बनवाती है। इस पद में गोपियों का मुरली के प्रति ईष्य्या-भाव प्रकट हुआ है।
पदों का सार :
इस पाठ में सूरदास के दो पद संकलित हैं। पहले पद में बालक श्रीकृष्ण का साथियों के साथ खेलने का वर्णन है, जिसमें वे हार जाते हैं। वे हारकर भी अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहते। वे अपनी झल्लाहट प्रकट करते हैं, जिससे उनके बालसखा प्रभावित नहीं होते। वे कहते हैं, खेल में कोई किसी का मालिक नहीं होता है। हम तुम्हारी (कृष्ण की) ज़मीन में नहीं बसते हैं। अधिक गाएँ रखने मात्र से ही तुम हमसे बड़े नहीं हो जाते। कृष्ण के व्यवहार से आहत ग्वाल-बाल जब खेल छोड़ देते हैं, तब श्रीकृष्ण नंदबाबा की दुहाई देते हैं, जिससे ग्वाल-बाल उनके साथ खेलने को फिर तैयार हो जाते हैं।
दूसरे पद में गोपियाँ अपनी सखियों से मुरली के प्रति अपना सौतिया डाह प्रकट कर रही हैं। उन्हें लगता है कि सभी गोपियाँ मिलकर भी श्रीकृष्ण से जो काम नहीं करवा पातीं, उसे अकेली मुरली करवा लेती है। मुरली सदैव कृष्ण के निकट रहती है। इसी के कारण गोपियाँ कृष्ण की निकटता पाने से वंचित रह जाती हैं। मुरली स्वयं तो कृष्ण की आत्मीय बन जाती है, पर गोपियों को लगता है कि वे कृष्ण के कोप का भाजन बन रही हैं। मुरली के प्रसन्न होने पर ही कृष्ग आनंद से झूमने लगते हैं। गोपियों का कहना है कि श्रीकृष्ण मुरली के कहे अनुसार ही सारा काम करते हैं।
खेलन में को काको गुसैयाँ, मुरली तऊ गुपालहिं भावति सप्रसंग व्याख्या
सप्रसंग व्याख्या एवं काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्न –
1. खेलन में को काको गुसैयाँ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैयाँ।
जाति-पाँति हमतें बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ।
अति अधिकार जनावत यातैं जातैं अधिक तुम्हारै गैयाँ।
रूठहि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ ग्वैयाँ।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाऊँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ॥
शब्दार्थ :
खेलन-खेलते समय (at play time)। काको–किसका (to whom)। गुसैयाँ-स्वामी (master)। बरबस-ज़बरदस्ती (forcefully)। रिसैयाँ-क्रोध (anger)। हमतैं-हम (ग्वाल-बालों) से (than us), बड़–बड़ा (high)। बसत-रहते हैं, निवास करते हैं (to live)। छैयाँ-आश्रय (shelter)। जनावत-जताना (to show)। यातैं-इस कारण (that reason)। जातें-जिससे, जिस कारण (so that)। रूठहि-रूठना, नाराज़ होना (to get sad)। तासौं-उससे (with him)। ग्वैयाँ-खेल में साथ देने वाले (play-mates)। दाऊँ दियो-बारी देना, दाँव देना (turn)। दुहैयाँ-दुहाई (to late name)।
प्रसंग-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित सूरदास के पदों से लिया गया है। इसके रचयिता कृष्ण-भक्त कवि सूरदास हैं। इस पद में बाल-मनोविज्ञान का सुंदर चित्रण है। श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ खेलते हुए हार गए। वे हारकर भी अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहते, पर ग्वाल-बाल ऐसा नहीं होने देते। वे अपनी बाते कृष्ण से ज़ोर-शोर से कहते हैं।
व्याख्या – बालक कृष्ण ग्वाल-बालों के साथ खेल में हार जाते हैं। वे अपनी हार नहीं स्वीकार करते और ग्वालों को दाँव नहीं देना चाहते। इस पर ग्वाल-बाल उनसे कहते हैं कि खेल में कोई किसी का स्वामी नहीं होता। खेल में सभी बराबर होते हैं। अंब जब तुम खेल में हार गए हो और श्रीदामा जीत गए हैं, तो यह बात तुम्हें स्वीकार कर लेनी चाहिए। इसमें तुम नाहक ही क्रोध कर रहे हो। ग्वाल-बाल श्रीकृष्ण से कहते हैं कि तुम्हारी जाति-पाँति भी हमसे बड़ी नहीं है और न ही हम लोग तुम्हारे आश्रय (ज़मीन) में रहते हैं। अर्थात हम तुम्हारी कृपा पर निर्भर नहीं हैं। यदि तुम इस बात से अपना अधिकार जताते हो कि तुम्हारे पास गायें अधिक हैं, तो यह बात यहाँ लागू नहीं होती। जो खेल में तनिक-सी बात के लिए रूठता है उसके साथ कौन खेले। ऐसा कहकर सभी ग्वाल-बाल खेल छोड़कर इधर-उधर बैठ जाते हैं। सूरदास कहते हैं कि खेल-भावना के पक्षधर श्रीकृष्ण खेलना चाहते हैं। वे नंद बाबा की दुहाई देकर बारी देने को तैयार हो जाते हैं और खेलने लगते हैं।
विशेष :
- इस पद में कवि ने खेल में समानता के अधिकार को बताया है।
- बाल-मनोविज्ञान का सशक्त चित्रण है।
- अनुप्रास अलंकार की छटा है।
- ब्रजभाषा का माधुर्य व गेयता है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क ) भाव-सौंदर्य-
(i) पद में कृष्ण की बाल लीलाओं का सुंदर चित्रण है।
बाल मनोभावों का सजीव चित्रण है।
(ii) इस पद में बालकों द्वारा खेल में हारने पर कृष्ण द्वारा खीझ प्रकट करने का स्वाभाविक चित्रण है।
ग्वाल-बालों की तार्किकता एवं श्रीकृष्ण की खेल-भावना का वर्णन है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य-
(i) इस पद में ब्रजभाषा की मधुरता व्याप्त है, जिसमें देशज शब्दावली का प्रयोग है।
‘को काको’. ‘हरि हारे’, ‘कत करत’, ‘अति अधिकार’ आदि में अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।
(ii) ‘रूठहि करै तासौं को खेलै’ लोकोक्ति तथा ‘बसत तुम्हारी छैयाँ’ मुहावरे का प्रयोग होने से भाषा खूबसूरत बन पड़ी है।
पद में वात्सल्य रस एवं माधुर्य गुण है।
पद में संगीतात्मकता एवं गेयता है।
काव्यांश में उपालंभ का भाव प्रकट हुआ है।
2. मुरली तऊ गुपालहिं भावति।
सुनि री सखी जदपि नंदलालहिं, नाना भाँति नचावति।
राखति एक पाँड ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति।
कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेढ़ौ हूवै आवति।
अति आधीन सुजान कनौड़े, गिरिधर नार नवावति।
आपुन पौंढ़ि अधर सज्जा पर, कर पल्लव पलुटावति।
भृकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप करावति।
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन, धर तैं सीस डुलावति॥
शब्दार्थ :
तऊ-उस (him) । गुपालहिं-श्रीकृष्ण को (to Shri Krishna)। भावति – अच्छी लगती है (is liked)। नचावति-परेशान करती है (distressed)। पाँइ-पैर (feet)। ठाढ़ौ-खड़ा (stand)। जनावति-जताती है, दिखाती है (shows)। कटि-कमर (waste) 1 टेढ़ौ हूवै आवति-टेढ़ी हो जाती है (to be curved)। आधीन-वश में (submissive)। सुजान-चतुर (clever) । कनौड़े-कृपा से दबे हुए, दास (obliged)। नार-गरदन (neck)। नवावति-झुकवाती है (to bow)। आपुन-खुद, स्वयं (self)। पौंढ़ि-लेटकर (to lay)। अधर-होंठ (lips)। सज्जा-शर्या (bed)। कर पल्लव-पत्तों के समान कोमल हाथ (hands like leaves)। पलुटावति-दबवाती है (to press)। भृकुटी-भौंह (eyebrow)। कुटिल-टेढ़ी (not straight)। नासा-पुट-नथुने (nostril)। कोप–क्रोध (anger)। एकौ छिन-पलभर, एक क्षण (for a moment)। धर-धड़ (trunk)। सीस-सिर (head)। डुलावति-हिलाती है (shakes)।
प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा, भाग-1 में संकलित सूरदास के पदों में से लिया गया है। इसके रचयिता कृष्ण काव्य परंपरा के प्रमुख कवि सूरदास हैं। इस पद में गोपियों ने कृष्ण की वंशी के प्रति सौतिया भाव प्रकट किया है। कृष्ण वृंदावन में मुरली बजाकर गोपियों के साथ रास रचाया करते थे। मुरली सदैव कृष्ण के पास ही रहती थी, इससे गोपियाँ कृष्ण की निकटता नहीं पाती थीं। वे मुरली को इसका कारण मानती थीं। इसी बात को एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है।
व्याख्या – श्रीकृष्ण मुरली को सदैव लिए फिरते हैं। इससे दुखी गोपी अपनी सहेली से कहती है कि यह मुरली उस गोपाल को अच्छी लगती है। हे सखी, सुन। यह मुरली कृष्ण को नाना प्रकार से परेशान करती है, फिर भी कृष्ण को यह भाती है। यह मुरली कृष्ण को एक पैर पर खड़ा रखती है (मुरली बजाते समय कृष्ण एक पैर पर खड़े होते हैं) और उन पर अधिकार जमाए रहती है। वह कहती है कि यह कोमल शरीर वाले कृष्ण से आश्ञापालन करवाती है, जिसके कारण ही कृष्ण की कमर टेढ़ी (मुरली बजाते समय श्रीकृष्ण एक ओर को झुक जाते हैं) हो जाती है। कृष्ण मुरली के अधीन होकर पूरी तरह वश में हो गए हैं। जिस श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठा लिया था, आज एक मुरली के कारण उनकी गर्दन टेढ़ी हो गई है। वह खुद तो श्रीकृष्ण के अधर रूपी शय्या पर लेटी रहती है और कृष्ण के पल्लव (पत्तों) के समान हाथों से पैर दबवाती रहती है। श्रीकृष्ण मुरली बजाते समय उसके छेदों पर अपनी अँगुलियाँ फिराते रहते हैं। इसी मुरली के कारण कृष्ण हम गोपियों पर क्रोध करते हैं। मुरली ही कृष्ण से ऐसा कराती है। सूरदास जी कहते हैं कि जब मुरली प्रसन्न होती है, तो कृष्ण भी आनंद से झूमने लगते हैं।
विशेष :
- इस पद में कवि कहता है कि गोपी शब्दों से कृष्ण की निंदा तो कर रही है, पर इससे उसके हृय में कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम है।
- कवि का वाक्चचतुर्य तथा काव्य-कौशल दर्शनीय है।
- ठाढ़ौ, कनौड़े, पौँढ़ आदि शब्द स्थानीय हैं।
- ब्रजभाषा का माधुर्य है।
काव्य-सौंदर्य संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश की शिल्प-सौंदर्य संबंधी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
(क) भाव-सौंदर्य-
इस पद में गोपियों का मुरली के प्रति ईष्य्याभाव प्रकट हुआ है।
गोपियों की वाक्पटुता तथा नारी स्वभाव की सहज अभिव्यक्ति है।
गोपियों को लगता है कि मुरली ने श्रीकृष्ण को अपने वश में कर रखा है।
(ख) शिल्प-सौंदर्य-
(i) इस पद में ब्रजभाषा का माधुर्य है, जिसमें स्थानीय शब्दों की बहुलता है।
ठाढ़ौ, कनौड़े, पौंढ़ि आदि देशज शब्दों का सुंदर प्रयोग है।
‘अति अधिकार’, ‘अति आधीन’, ‘नार नवावति’, ‘नैन नासा-पुट’ तथा ‘कोप करावति’ में अनुप्रास अलंकार, ‘अधर सज्जा’ तथा ‘कर पल्लव’ में रूपक अलंकार तथा ‘गुपालहिं’, ‘गिरिधर’ एवं ‘नार’ में श्लेष अलंकार है।
(ii) ‘नार नवावति’, ‘कोप करावति’ मुहावरों का सुंदर प्रयोग है।
पद में श्रृंगार रस के वियोग पक्ष का वर्णन है।
काव्यांश में पद छंद है।
माधर्य गुण घनीभुत है।