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CBSE Class 12 Hindi Elective Rachana नए और अप्रत्याशित विषयों पर लेखन
लेखन कार्य का कठिन लगना :
व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में तरह-तरह के क्रियाकलापों से गुजरता है। इन अनुभवों पर बातचीत करता है। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति ने हफ्ते या महीने भर पहले फ़िल्म देखी है। वह दूसरे के साथ इसके अच्छी लगने या न लगने के कारणों पर चर्चा करता है, पर इस फ़िल्म को लेकर अपने विचारों को व्यवस्थित लेख की शक्ल देना उसे कठिन लगता है जबकि सिनेमाघर में देखी इस फिल्म की अनेक बातें; जैसे- टिकट खिड़की पर लगी लाइन, उस लाइन में चल रही बातें और धक्का-मुक्की, खाने-पीने के काउंटर, आने वाली फ़िल्मों के जगमगाते पोस्टर आदि उसके मस्तिष्क में भरी रहती हैं।
अभ्यास का अभाव :
इन अनुभवों को लेख की शक्ल देना तथा उन्हें शब्दों के सहारे पन्नों पर उकेरना – यह सब अधिकांश लोगों के लिए कठिन कार्य है। जिन विचारों को हम अत्यंत सरलता से कह डालते हैं उन्हें लिखना चुनौती जैसा लगने लगता है। इसका मुख्य कारण है- आत्मनिर्भर होकर लिखित रूप का अभ्यास न करना। प्रायः लिखित अभ्यास के प्रत्येक अवसर को हम रटंत पर निर्भर होकर गँवा देते हैं अर्थात दूसरों के द्वारा तैयार सामग्री को याद करके ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत कर देते हैं। इस आदत के कारण असली अभ्यास का मौका नहीं मिल पाता है।
लेखन का आशय यांत्रिक हस्तकौशल नहीं :
लेखन का आशय भाषा के सहारे किसी चीज़ पर विचार करने और उस विचार को व्याकरणिक शुद्धता के साथ सुसंगति रूप में अभिव्यक्त करने से है। यह भी ध्यान देने की बात है कि भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं, स्वयं विचार करने का साधन भी है। यह प्रक्रिया निबंध के चिर-परिचित विषयों के साथ प्रायः घटित नहीं हो पाती है। इसका कारण है कि उन पर पूर्व प्रकाशित सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहती है और व्यक्ति कुछ नया सोचने-समझने के बजाए उसी पर निर्भर होकर रह जाता है। मौलिक प्रयास एवं अभ्यास को बाधित करनेवाली यह निर्भरता हमारे मानसिक जगत में लिखित अभिव्यक्ति क्षमता को विकसित नहीं होने देती है। इसके लिए आवश्यक है कि हम निबंध के परंपरागत विषयों को छोड़कर नए तरह के विषयों पर लिखने का भरपूर अभ्यास करें।
अप्रत्याशित विषयों पर लेखन क्या है?
निबंध लेखन से संबंधित परंपरागत विषयों को छोड़कर नए तरह के विषयों पर मौलिक प्रयास एवं अभ्यास से लिखना ही अप्रत्याशित विषयों पर लेखन है। दूसरे शब्दों में –
अप्रत्याशित विषयों पर लेखन कम समय में अपने विचारों को संकलित कर उन्हें सुंदर और सुघड़ ढंग से अभिव्यक्त करने की चुनौती है।
अप्रत्याशित विषयों पर लेखन से जुड़े कुछ विषय :
इस प्रकार के लेखन के लिए विषयों की संख्या अपरिमित हो सकती है; जैसे- आपके सामने की दीवार, उस पर टँगी घड़ी, उस दीवार के बाहर की ओर खुलता झरोखा आदि।
इनके अलावा कुछ ऐसे भी विषय भी हो सकते हैं, जिनमें इनके मुकाबले खुलापन थोड़ा कम हो और फोकस अधिक स्पष्ट हो; जैसे- टी०वी० धारावाहिकों में स्त्री, बहुत ज़रूरी है शिक्षा आदि।
लेखन के विषय विशेष की अपनी अलग माँग :
लेखन के लिए विषयों की प्रकृति अलग-अलग होती है, इसलिए इनकी माँग भी अलग-अलग किस्म की होती है। कोई विषय तार्किक विचार प्रक्रिया में उतारना चाहता है, कोई आपसे यह माँग करता है कि जो कुछ आपने देखा-सुना है या देख-सुन रहे हैं, उसे थोड़ी बारीकी से पुनः संकलित करते हुए एक व्यवस्था में ढाल दें, कोई अपनी स्मृतियों को खंगालने के लिए आपको प्रेरित करना है, तो कोई अनुभव को सैद्धांतिक नज़रिये से जाँचने-परखने के लिए आपको उकसाता है। इन माँगों के जवाब में आप जो कुछ लिखेंगे, वह कभी निबंध बन पड़ेगा, कभी संस्मरण, कभी रेखाचित्र की शक्ल लेगा, तो कभी यात्रा – वृत्तांत की। इसलिए उसे एक लेख का सामान्य नाम देना चाहिए ताकि लिखनेवाले पर किसी विधा विशेष के अंतर्गत लेखन का दबाव न बने।
लेखन की चुनौती सामने होने पर क्या करें :
यह सत्य है कि लिखने का कोई फ़ॉर्मूला दुनिया में नहीं बना है। यदि बना होता तो कंप्यूटर हमारे मुकाबले बेहतर लेखक साबित हो सकता था। लेखन की रचनात्मकता का पूरा संबंध फॉर्मूला न होने की इसी सच्चाई से है। इसके बाद की कुछ सुझाव इस प्रकार हो सकते हैं –
अप्रत्याशित विषयों पर लेखन खुले मैदान की तरह होता है जिसमें बेलाग दौड़ने, कूदने और कुलाँचे भरने की छूट होती है। दिए गए विषय से जुड़े जो भी सार्थक और सुसंगत विचार हमारे मन में आते हैं, उन्हें हम यहाँ व्यक्त कर सकते हैं।
स्पष्ट फोकस वाले विषय (मसलन टी.वी. धारावाहिकों में स्त्री) पर विचार प्रवाह थोड़ा नियंत्रित रखना पड़ता है। इन पर लिखते हुए विषय में व्यक्त वस्तुस्थिति की हम उपेक्षा नहीं कर सकते हैं।
→ बहुत खुलापन रखनेवाले विषयों पर विभिन्न कोणों से विचार कर सकते हैं तो उनसे भिन्न केंद्रित प्राकृतिक विषयों पर विचार करने के कोण स्वाभाविक रूप से कम ही होते हैं।
→ किसी भी विषय पर एक ही व्यक्ति के मन में कई तरीके से सोचने की प्रवृत्ति होती है। ऐसी स्थिति में दो-तीन मिनट रुककर यह सोचा जा सकता है कि किस कोण से उभरने वाले विचारों को अधिक विस्तार दिया जा सकता है। इसके उपरांत आकर्षक शुरुआत पर विचार करना चाहिए।
→ शुरुआत के बाद बात किस तरह आगे बढ़ेगी, उसकी एक रूपरेखा मस्तिष्क में होनी चाहिए। वास्तव में, सुसंबद्धता किसी भी तरह के लेखन का बुनियादी विषय है। जब विषय पर विचार करने की सीमाएँ बहुत सख्ती से तय न कर दी गई हों तब सुसंबद्धता बनाए रखने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए।
विचारों का सुसंगत होना :
विवरण- विवेचन के सुसंबद्ध होने के साथ-साथ उसका सुसंगत होना भी अच्छे लेखन की एक खासियत है। हमारी कही गई बातें न सिर्फ़ आपस में जुड़ी हुई हों, बल्कि उनमें तालमेल भी हो। अगर हमारी दो बातें आपस में ही एक-दूसरे का खंडन करती हों, तो यह लेखन का ही नहीं, किसी भी तरह की अभिव्यक्ति का एक अक्षम्य दोष है।
इसके अलावा इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि लेख चाहे संस्मरणात्मक हो, रेखाचित्रात्मक हो अथवा वैचारिक, उसकी सुसंबद्धता और सुसंगति के प्रति हर लिखने वाले को सचेत होना चाहिए। यद्यपि हमारे सोचने की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से इन गुणों को धारण करती है फिर भी हमें इनके प्रति सचेत रहना चाहिए।
‘मैं’ की शैली का प्रयोग :
सामान्यतः निबंधों या आलेखों / प्रश्नोत्तरों में ‘मैं’ शैली का प्रयोग की मनाही होती है, वहीं इस तरह के लेखन में इसका खूब प्रयोग किया जा सकता है। यहाँ विषय की प्रकृति में निहित होता है कि लेख में व्यक्त विचारों में आत्मनिष्ठता और लेखक के विचारों की छाप होनी चाहिए। इसलिए अन्यत्र वस्तुनिष्ठता के आग्रह से ‘मैं’ शैली को भले ही ठीक न माना जाता हो, पर यहाँ उसके प्रयोग की मनाही नहीं होती है।
अप्रत्याशित विषयों पर लेखन के उदाहरण :
‘दीवाल घड़ी’ एक खुला हुआ विषय है। इस प्रस्तावित विषय से संबंधित कोई सीमा नहीं दी गई है। इस विषय पर अपने मन में उठने वाले विचारों को सुसंगत तरीके से शब्दबद्ध करना है।
इस विषय से संबंधित तीन उदाहरण नीचे दिए गए हैं। इसे पढ़ने से लेखन संबंधी बातें स्पष्ट हो जाएँगी।
दीवाल घड़ी – 1
उसे देखते ही किसी फ़िल्म का एक खूबसूरत – सा दृश्य याद आता है। घड़ियों की एक दुकान में नायक-नायिका की मुलाकात होती है। हर तरफ़ भाँति-भाँति की घड़ियाँ टॅगी हैं। बारह बजने ही वाले हैं। ज्यों ही नायक कुछ कहना चाहता है। और वह कुछ बड़ा ही मानीखेज़ है – घड़ियों की सुइयाँ बारह पर पहुँच जाती हैं और एक-एक कर सारी घड़ियों से बारह बार घंटी बजने की आवाज़ उठने लगती है। अगले कुछ सेकेंड तक ऐसा संगीतमय शोर गूँजता रहता है कि नायक हकला कर चुप रह जाता है। घड़ियों ने मानो उसका मंच ही छीन लिया हो ! फिर नायक-नायिका, दोनों इस मधुर विडंबना पर मुस्कराते हुए एक-दूसरे को देखते रह जाते हैं यह खूबसूरत दृश्य मेरी याददाश्त में उसी तरह टँगा है, जिस तरह दीवार पर घड़ी टँगी होती है। कहीं आती-जाती नहीं, हमेशा स्थिर, फिर भी गतिशील !
ऐसी कई स्मृतियाँ दीवाल घड़ी के साथ जुड़ी हैं। मेरे घर में जब पहली दीवाल घड़ी खरीद कर आई (वही अभी तक की आखिरी भी है), तो उसे टाँगने की जुगत में पूरा घर जिस तरह लगा रहा, उसकी याद आते ही बेसाख्ता हँसी छूट जाती है। हम सब उस दिन अंकल पोज़र की मुद्रा में थे। हर कोई भवनशास्त्र से लेकर सौंदर्यशास्त्र तक का विशेषज्ञ होने का दावा कर रहा था। ‘घड़ी यहाँ टँगनी चाहिए’। ‘नहीं, वहाँ टँगनी चाहिए।’ कील ऐसे ठोंकी जानी चाहिए, ‘नहीं, वैसे ठोंकी जानी चाहिए’। ये सारी बहसें हम तमाम विशेषज्ञों के बीच चलती रहीं और अंत में जब सर्वसम्मति से किसी फ़ॉमूले के तहत काम संपन्न हो पाया, तब तक दीवार पर कम-से-कम छह जगह उसे टाँगे जाने की कोशिश के निशान छूट चुके थे।
अगली दीवाली पर उन गड्ढों के भरे जाने तक दीवाल घड़ी तारों के बीच चमकते धवल चाँद की तरह स्थापित रही। चाँद तो अब भी है, पर तारे नहीं रहे। यह चाँद ऐसा है, जो तकरीबन सभी मध्यवर्गीय घरों में पाया जाता है। मेरी ही तरह उन घरों के बाशिंदों के मन में भी उसे लेकर कुछ-न-कुछ यादें बसी होंगी। यह कितना अजीब है कि जो प्रतिक्षण समय के बीते जाने पर टकटकी लगाए रखता है, वही स्मृतियों के रूप में हमारे भीतर समय को कहीं स्थिर भी कर देता है।
दीवाल घड़ी-2
वह मेरे ठीक सामने है, एक साफ़-सुथरी दीवार पर कील के सहारे टँगी हुई कील दिखती नहीं। इसका मतलब यह कि कील पर उसके टँगे होने का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है। लेकिन तर्कशास्त्रियों ने तो तर्कसंगत अनुमान को भी प्रमाण की ही श्रेणी में रखा है। इसलिए तर्क पर आधारित यह अनुमान बिलकुल निरापद है कि घड़ी कील के सहारे टँगी है। वह अपनी जगह बिलकुल स्थिर है, पता नहीं कब से, लेकिन चल रही है। उसके काँटों में एक अनवरत चक्रीय गति है। चक्र या वृत्त की न कोई शुरुआत होती है, न उसका अंत होता है। इस तरह इन काँटों की चक्रीय गति हमें बताती है कि समय अनादि अनंत है।
घड़ी को दीवार के आसन पर बिठा कर मानो यही बताते रहने का जिम्मा सौंप दिया गया है कि समय लगातार बीत रहा है, पर खत्म होने के लिए नही। यह विरोधाभास – सा लगता है ना! किसी झुके हुए मर्तबान से लगातार पानी गिर रहा है पर न पानी कम होता है, न मर्तबान खाली होता है। गौर करें तो यह विरोधाभास नहीं है। समय अनंत है, पर हम सबका अपने-अपना समय अनंत नहीं। घड़ी के चक्र में हर थोड़ी-थोड़ी दूर पर जो लकीरें हैं, वे समय के कृत्रिम खंड ही सही, वे हमें बताती हैं कि हर इंसान का हर चीज़ का और हर काम का अपना समय होता है। वह शुरू भी होता है और खत्म भी। याद आता है, कौन बनेगा करोड़पति का वह छोटा सा बहुचर्चित जुमला – ‘ तो आपका समय शुरू होता है अब !’
दीवाल घड़ी – 3
वह मेरे ठीक सामने है, एक साफ़-सुथरी दीवार पर कील के सहारे टँगी हुई। बिलकुल स्थिर है अपनी जगह पर, पता नहीं कब से, पर लगातार चल रही है, हिंदी में टिक् टिक् टिक् टिक और अंग्रेज़ी में टिक्-टॉक, टिक्-टॉक! उसे अंग्रेज़ी या हिंदी नहीं आती, पर दोनों तरह के भाषा-भाषी उसकी पदचाप को अपने-अपने तरीके से सुनते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कुत्तों को अंग्रेजी या हिंदी नहीं आती, पर अंग्रेज़ी समाज के लिए वह बाउ – बाउ करता है और हिंदी समाज के लिए भौं-भौं !
टिक्-टिक् या टिक्-टॉक की पदचाप के साथ लगातार चलायमान यह घड़ी सामने की दीवार पर एक खूबसूरत – सी बिंदी के समान दिख रही है। कमरे की चारों दीवारों पर कहीं भी और कुछ नहीं हैं-न कोई पेंटिंग, न कैलेंडर। ऐसे में इस गोलाकार घड़ी का वजूद सिर्फ़ उपयोगितावादी नहीं लगता। वह खूबसूरती के लिए भी है। दीवार की हल्की पीली रंगत के साथ उसका भूरा रंग एक नयनाभिराम कंट्रास्ट रचता है और उसकी अनथक चलती सुइयाँ दीवारों की स्थिरता के बीच एक जीवंत स्पंदन भरती हैं।
दीवारों की खामोशी और स्थिरता के बीच वह ऐसी दिखती है, मानो कोई बच्चा चुपचाप बैठे रहने की सज़ा निभा रहा हो, पर उसकी आँखें लगातार बोल रही हों। हाँ, वह बोल रही है, न अंग्रेज़ी में, न हिंदी में, बल्कि एक ऐसी ज़बान में, जिसे इस धरती पर रहनेवाला हर समझदार इनसान समझता है। कुछ ज्यादा नहीं है उसके पास कहने के लिए। वह तो सिर्फ़ इतना कह रही है कि वक्त किसी के लिए नहीं ठहरता। बात बड़ी है, भले ही इस घड़ी की सुइयाँ मेरी कलम के आकार से ज़्यादा बड़ी न हों! बस, एक चीज़ अखरती है। लगानेवाले ने उसे ऐसी जगह लगाया है कि उसे देखो, तो खिड़की की तरफ पीठ करनी पड़ती है। काश ऐसा न होता !
इन उदाहरणों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि इनमें –
पहला मुख्यतः स्मृति पर आधारित है। इसमें इस बात का ध्यान रखा गया है कि स्मृतियाँ पाठक को दिलचस्प जान पड़ें तथा उनसे एक-दो वाक्यों में ऐसा सार निकल जाए, जो एक बड़े धरातल पर अनुभव किए जाने वाले सत्य की ओर इशारा करने लगे।
दूसरा नमूना दार्शनिक मिजाज़ वाला है, जिसमें लेखक दीवाल घड़ी देखकर रोज़मर्रा की छोटी-मोटी चीज़ों से ऊपर उठकर उन गंभीर प्रश्नों की ओर उन्मुख हो जाता है, जो उस घड़ी के साथ एक कमज़ोर धागे से जुड़ें हैं।
तीसरा नमूना अवलोकन पर आधारित है, जिसमें लेखक ने उसकी खूबसूरती, गति, आवाज़ टँगे होने का अंदाज़ आदि को टिप्पणी का विषय बनाया है।
ज्वलंत सामाजिक, सांस्कृतिक विषय पर लेखन
इस तरह के विषय मसलन, ‘जातिवाद का ज़हर’ पर लिखने के लिए उसका विश्लेषण प्रस्तुत करने की पद्धति अपनाई जा सकती है। इसमें कल्पना की उड़ान वाली शैली नहीं अपनाई जाएगी। यह एक ज्वलंत सामाजिक मुद्दा है, जिसमें ठोस विश्लेषण और स्पष्ट राय की ज़रूरत होती है। इस विषय के लेखन का उदाहरण निम्नलिखित है-
जातिवाद का ज़हर :
ज़हर जीवित शरीर को मौत की नींद सुला देता है और अगर शरीर की प्रतिरोध क्षमता के कारण वह ऐसा न कर पाए तब भी शरीर की व्यवस्था में भयंकर उथल-पुथल मचा कर उसे अशक्त और बीमार तो बना ही देता है। मानव समाज के जीवित शरीर में जातिवाद ने ऐसे ही ज़हर का काम किया है। हमारे जिन पुरखों ने कर्म के आधार पर वर्ण तय किए थे, उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि कल को यह विचार जन्मना जातिव्यवस्था में परिणत हो जाएगा और इसके चलते गर्भ में शिशु के आते ही उसकी नियति तय हो जाया करेगी।
उन्हें इस बात का शायद ही अंदाज़ा हो कि वे जो बीज बो रहे हैं, उससे ऐसा विषवृक्ष निकलेगा, जो आगे हज़ारों सालों तक गैर-बराबरी और शोषण उत्पीड़न का आधार बनकर समाज की तंदुरुस्ती का क्षय करता रहेगा। आज हम बड़े – बड़े औद्योगिक संयंत्रों, तीव्र गतिवाले परिवहन – साधनों, स्वचालित उपकरणों, कंप्यूटर और इंटरनेट के युग में जी रहे हैं, फिर भी जन्म के आधार पर कुछ लोगों को अपना और कुछ को पराया मानने, कुछ को बड़ा और कुछ को क्षुद्र मानने की सदियों पुरानी परिपाटी कायम है।
आए दिन अखबारों में इस तरह की खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि फ़लाँ गाँव या कस्बे में किसी प्रेमी युगल को इसलिए मार डाला गया कि उन्होंने अलग-अलग जातियों से आने के बावजूद साथ जीवन बिताने का सपना देखा था। ऐसी खबरों का दुहराव होने में भी ज़्यादा अंतराल नहीं आता कि किसी गाँव में एक जाति विशेष के टोले पर दूसरी जाति के लोगों ने हमला कर दिया और महिलाओं-बच्चों समेत बड़ी संख्या में लोग मारे गए। यह कहना गलत न होगा कि जातिवादी तनाव हमारे रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बन बैठा है, जो गाहे-बगाहे अपना चरम रूप धारण कर लेता है और अपने तांडव में कितनी ही जिंदगियों को उजाड़ देता है।
सामान्य रूप से यह माना जाता है कि आधुनिक लोकतंत्र ऐसी मानवविरोधी परिपाटियों के वजूद को मिटा डालता है, पर हमारे यहाँ मंज़र ही उलटा है। हमारे लोकतांत्रिक चुनावों ने जातिवादी भावनाओं को और गहरा बनाने का काम किया है; अलग-अलग जातियाँ, राजनीतिक दलों के वोट बैंकों में तब्दील हो गई हैं। ऐसे में कोई उम्मीद भी कैसे कर सकता है कि यह लोकतंत्र जातिवाद की जड़ों पर प्रहार कर पाएगा ! राजनीति में जब जातिगत आधारों पर गोलबंदियाँ होती हैं, तब स्वाभाविक है कि हमारे गली-मोहल्ले, हमारे काम के स्थान, हमारे शिक्षण संस्थान इत्यादि भी इस तरह की गोलबंदियों से मुक्त नहीं होंगे।
जिस तरह शरीर में प्रवेश करनेवाला ज़हर धमनियों में दौड़ते खून की मदद से अंग-प्रत्यंगों तक पहुँच जाता है, वैसे ही जातिवाद का ज़हर समाज के हर अंग को अपनी जकड़ में ले चुका है। पर इस समाज की जिजीविषा अद्भुत है। वह इस ज़हर को परास्त करके ही रहेगा, क्योंकि इसे जीना है और वह भी तंदुरुस्त रहकर, घिसट-घिसट कर नहीं। जातिवाद से फ़ायदा उठानेवाले लोग मुट्ठीभर हैं और उसका नुकसान झेलनेवाले बहुसंख्यक – इस बात को समझने के संकेत हिंदुस्तान की जनता देने लगी है। जिस दिन उसकी सोच पर पड़े सारे झोल को चीर कर यह बात साफ़-साफ़ दिखने लगेगी, उसी दिन इस मारक विष का सही उपचार शुरू हो पाएगा।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न –
प्रश्न 1.
अधूरे वाक्यों को अपने शब्दों में पूरा करें-
हम नया सोचने-लिखने का प्रयास नहीं करते क्योंकि
लिखित अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास नहीं होता क्योंकि
हमें विचार-प्रवाह को थोड़ा नियंत्रित रखना पड़ता है क्योंकि
लेखन के लिए पहले उसकी रूपरेखा स्पष्ट होनी चाहिए क्योंकि
लेख में ‘मैं’ शैली का प्रयोग होता है, क्योंकि
उत्तर :
- हम नया सोचने-लिखने का प्रयास नहीं करते, क्योंकि हमें यह चुनौती जैसा लगने लगता है।
- लिखित अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास नहीं होता है क्योंकि दूसरों के द्वारा तैयार की गई सामग्री को याद करके ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देने की हमारी बुरी आदत है।
- हमें अपने विचार-प्रवाह को थोड़ा नियंत्रित रखना पड़ता है क्योंकि विषय में खुलापन थोड़ा कम हो और ‘फ़ोकस्’ अधिक स्पष्ट हो।
- लेखन के लिए पहले उसकी रूपरेखा स्पष्ट होनी चाहिए क्योंकि इससे हमारा लेखन सुसंबद्ध ढंग से और क्रमबद्ध तरीके से आगे बढ़ता है।
- लेखन में ‘मैं’ की शैली का प्रयोग होता है क्योंकि इससे लेख में आत्मनिष्ठता और लेखन के व्यक्तित्व की छाप आ जाती है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित विषयों पर दो से तीन सौ शब्दों में लेख लिखिए-
→ झरोखे से बाहर
→ सावन की पहली झड़ी
→ इम्तहान के दिन
→ दीया और तूफ़ान
→ मेरे मुहल्ले का चौराहा
→ मेरा प्रिय टाइमपास
→ एक कामकाजी औरत की शाम
उत्तर :
झरोखे से बाहर
घरों में झरोखे होने की कहानी बड़ी पुरानी है। पुराने और कच्चे मकानों में तो झरोखे रखने का अनिवार्य चलन था। इन झरोखों को रखने का भी अपना विशेष उद्देश्य था। गरीबों की झोंपड़ियों में भी झरोखे देखे जा सकते थे। यह अलग बात थी कि झोंपड़ियों में झरोखे बनाए नहीं जाते थे, बल्कि ये अपने-आप बन जाते थे। कभी बच्चों द्वारा हाथ मार-मारकर घास-फूस की टट्टिया में बड़ा-सा छेद कर दिया जाता था तो कभी पुरानी टट्टियों में ये अपने-आप प्रकट हो जाते थे। मनुष्य ने जब कच्चे घर बनाना शुरू किया तो धूप के आगमन और धुएँ को बाहर भेजने के लिए दीवारों में झरोखे बनाना जरूरी समझा। ये झरोखे अपने मूल उद्देश्य को पूरा करने के अलावा अन्य कार्यों का साधन बनते थे। कभी बाहर के नज़ारे देखने में तो कभी पड़ोसी से समान के लेनदेन में भी काम आते थे। ये झरोखे कभी – कभी घर में चोरी का कारण भी बन जाते थे इसलिए इनका आकार प्राय: छोटा ही रखा जाता था।
राजा-महाराजाओं के राजमहल और पुराने ऐतिहासिक विशेषकर मुगलकालीन इमारतों में कई-कई झरोखे बनाए गए हैं। इन झरोखों से झाँकना बड़ा ही मनोहारी लगता है क्योंकि बाहर की दुनिया भीतरी दुनिया से भिन्न होती है। झरोखे के अंदर की दुनिया सिमटी और संकुचित होती थी जबकि इनके बाहर की दुनिया चहल-पहल भरी और रंगीन लगती है। मध्य काल में जब पर्दा प्रथा का अनुपालन अनिवार्य था, उस समय भी युवतियाँ और महिलाएँ इन झरोखे के पास बैठ जाया करती थीं। राजमहलों की महारानियाँ और राजकुमारियाँ इन झरोखों के पास बैठकर झाँका करती थीं। इससे उनको प्रसन्नता मिलती थी और उनकी उदासी दूर होती थीं। ये झरोखे उन्हें बाहरी – दुनिया से जोड़े रखते थे। इसके अलावा महल के ऊपरी भाग में बने ये झरोखे शत्रुओं से महल को बचाए रखने में भी सहायता करते थे। सैनिक इनके पीछे बैठकर बाहर से आने-जाने वालों पर निगाह रखते थे और साथी सैनिकों या सेनापति को सावधान कर देते थे।
मुगल सम्राट शाहजहाँ के जीवन की अंतिम अभिलाषा पूरी करने में इन झरोखों का महत्व नहीं भुलाया जा सकता है। जब उसके पुत्र ने उसे कैदकर जेलखाने में डाल दिया था तो शाहजहाँ ने अपने पुत्र से निवेदन किया कि जिस ओर ताजमहल है, जेलखाने की उस ओर की दीवार में झरोखा बनवा दिया जाए ताकि वह ताजमहल को देखता रहे। उसकी यह इच्छा पूरी की गई और वह ताजमहल का झरोखे से देखता रहता था।
झरोखे हमें सीमित दुनिया में दीवारों की सीमाओं को लाँघकर बाहर की रंगीन एवं उन्मुक्त दुनिया का रसास्वादन करते हैं। उपर्युक्त लेख को ध्यानपूर्वक पढ़कर विद्यार्थी प्रश्न में दिए गए अन्य विषयों पर स्वयं लेख लिखने का प्रयास करें।
प्रश्न 3.
घर से स्कूल तक के सफ़र में आज आपने क्या- क्या देखा और अनुभव किया? लिखें और अपने लेख को एक अच्छा सा शीर्षक भी दें।
उत्तर :
छात्र अपने अनुभव को शब्दबद्ध करें और शीर्षक भी दें।
प्रश्न 4.
अपने आसपास की किसी ऐसी चीज़ पर एक लेख लिखें, जो आपको किसी वजह से वर्णनीय प्रतीत होती है। वह कोई चाय की दुकान हो सकती है, कोई सैलून हो सकता है, कोई खोमचेवाला हो सकता है या किसी खास दिन पर लगनेवाला हाट – बाज़ार हो सकता है। विषय का सही अंदाज़ा देनेवाला शीर्षक अवश्य दें।
उत्तर :
छात्र अपने आसपास की गतिविधियों का वर्णन करते हुए स्वयं लेख लिखें।
अन्य हल प्रश्न –
प्रश्न 1.
अप्रत्याशित विषयों पर लेखन से आप क्या समझते है?
उत्तर :
अप्रत्याशित विषयों पर लेखन का आशय कम समय में अपने विचारों को संकलित कर उन्हें सुंदर और सुघड़ ढंग से अभिव्यक्त करने की चुनौती है।
प्रश्न 2.
विचारों को लेख की शक्ल देने में क्या कठिनाई आती है?
उत्तर :
विचारों को लेख की शक्ल देने में इसलिए कठिनाई आती है कि लोग आत्मनिर्भर होकर लिखित अभिव्यक्ति का अभ्यास नहीं किए होते हैं।
प्रश्न 3.
लोग प्रायः रटंत पर निर्भर रहते हैं। यहाँ ‘रटंत’ का क्या आशय है?
उत्तर :
रटंत का आशय है दूसरों के द्वारा तैयार की गई सामग्री को याद करके ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत कर देना है।
प्रश्न 4.
लेखन यांत्रिक हस्तकौशल क्यों नहीं है?
उत्तर :
लेखन यांत्रिक हस्तकौशल इसलिए नहीं है क्योंकि लेखन का तात्पर्य है – भाषा के सहारे किसी चीज़ पर विचार करने और उस विचार को व्याकरणिक शुद्धता के साथ सुसंगठित रूप में अभिव्यक्त करना है।
प्रश्न 5.
विचार करके अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया किन विषयों पर घटित नहीं हो पाती है और क्यों?
उत्तर :
विचार करने की प्रक्रिया निबंध के चिरपरिचित विषयों के साथ इसलिए घटित नहीं हो पाती है क्योंकि ऐसे विषयों पर पहले से ही तैयार सामग्री उपलब्ध रहती है और हम उसी पर निर्भर हो जाते हैं।
प्रश्न 6.
तैयारशुदा सामग्री का प्रयोग करने की आदत से क्या हानि है?
उत्तर :
लेखन में तैयारशुदा सामग्री का प्रयोग करने से यह हानि है कि हम इन सामग्रियों पर पूर्ण रूप से निर्भर हो जाते हैं। इससे मौलिक प्रयास एवं अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास नहीं हो पाता है।
प्रश्न 7.
रचनात्मक लेखन में किस तरह के विचार व्यक्त किए जाने चाहिए?
उत्तर :
रचनात्मक लेखन के लिए दिए गए विषय के साहचर्य से जो भी सार्थक और सुसंगत विचार हमारे मन में आते हैं, वे व्यक्त किए जाने चाहिए।
प्रश्न 8.
लेखन शुरू करने से पूर्व क्या करना चाहिए?
उत्तर :
लेखन शुरू करने से पूर्व दो-तीन मिनट रुककर यह तय कर लेना चाहिए कि हम उसमें किस कोण से उभरने वाले विचारों का विस्तार दे सकते हैं। इसके बाद अच्छी शुरुआत पर विचार करना चाहिए।
प्रश्न 9.
लेखन का अक्षम्य दोष किसे माना जाता है ?
उत्तर :
लेखन का अक्षम्य दोष उस बात को माना जाता है जब लेखक की ही दो बातों का आपस में तालमेल न हो और वे एक-दूसरे का खंडन करती हुई प्रतीत होती है।
प्रश्न 10.
अप्रत्याशित विषयों के लेखन में ‘मैं’ शैली पर प्रतिबंध क्यों नहीं होता है?
उत्तर :
अप्रत्याशित विषयों के लेखन में ‘मैं शैली’ पर इसलिए प्रतिबंध नहीं होता है क्योंकि इससे लेख में व्यक्त विचारों में आत्मनिष्ठता और लेखक के व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक मिलती है।